मंगलवार, 14 सितंबर 2010

सर्वोदय नहीं, भूदान विफल

(वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित)

बाबा ने जो भूदान यज्ञ शुरू किया वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्साभर था, पूरा सर्वोदय नहीं।

सर्वोदय को लेकर विनोबा भावे के योगदान को जानने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि उन्होंने जिस सर्वोदय आंदोलन को 1950 व 1960 के दशक में आगे बढ़ाया, वह महात्मा गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत की सोच से प्रेरित था। गांधी एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें वे सभी व्यक्ति का उत्थान एवं कल्याण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई साधन सुझाए थे। भू-दान व ग्राम-दान उन्हीं में से एक था, जिसे लेकर विनोबा ने समाज को सुधारने की कवायद शुरू की। लेकिन 1950-60 के दशक के बाद इस आंदोलन का कोई नामलेवा नहीं रह गया। इसकी कई वजह थी। पहली तो यह कि जिस आंदोलन की शुरुआत विनोबा ने की, उससे आगे चलकर उन्होंने स्वयं ही अपने आप को अलग कर लिया। आंदोलन की विफलता का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि विनोबा ने जिस भू-दान या ग्राम-दान योजना की शुरुआत की, वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्सामात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं।

यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि विनोबा अपने घर से ‘मुक्तिज् की तलाश में निकले थे, न कि किसी सामाजिक आंदोलन की मुहिम के तहत। इसी बीच, 1915-16 में वे गांधी के संपर्क में आए और उनके विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने ‘मुक्तिज् का मार्ग छोड़ दिया। वे सार्वजनिक जीवन में उतर आए। गांधी की हत्या के बाद उन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन 1960 के दशक में भू-दान आंदोलन के सिलसिले में कोलकाता जाने के बाद उनका आध्यात्मिक मन एकबार फिर जागृत हुआ और उन्होंने गांधी से माफी मांगते हुए सार्वजनिक जीवन से किनारा कर लिया।

बहरहाल, विनोबा ने भू-दान व ग्राम-दान का जो आंदोलन चलाया, भूमि सुधार के संदर्भ में आज भी उसकी प्रासंगिकता है। जमीन की समस्या वास्तव में हिन्दुस्तान की समस्या है, जिसका दूसरा नाम कृषि है। 1947 में आजादी से लेकर अब तक किसी सरकार या राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि देश कृषि प्रधान नहीं है। कृषि को यहां जीवन शैली माना गया और सरकारों की यह जिम्मेदारी तय की गई कि वह इसे सुरक्षित रखे। विनोबा के भू-दान आंदोलन ने भी इसी मुद्दे को उठाया। आगे चलकर यह योजना ग्राम-दान के रूप में तब्दील हुई। गांव को एक इकाई के रूप में देखा गया और कहा गया कि कृषि से संबंधित जो भी समस्या हो या इसके विकास की बात हो, पूरे गांव के संदर्भ में हो। आज की कृषि समस्या के संदर्भ में भी यह पूरी तरह प्रासंगिक है। इस सिद्धांत या रणनीति के तहत गांवों की रचना से देश की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। गांवों को एक इकाई मानकर सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी यह फॉर्मूला प्रासंगिक है।

जहां तक मौजूदा समाज की समस्याओं की बात है तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार है, जिसने नीतियां तो बहुत बनाई, लेकिन उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। कृषि व भूमि की समस्या भी उन्हीं में से एक है। सरकार ने भूमि सुधार को लेकर भी नीतियां बनाई, लेकिन उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। आज औद्योगिक विकास के लिए भूमि अधिग्रहण और देशभर में उसका विरोध इसी का परिणाम है। इसलिए यह कहना गलत है कि सर्वोदय के सिद्धांतों की आज उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1950-60 के दशक में था। जरूरत है तो उन्हें सही तरीके से अमल में लाने की।

इसके लिए बेहतर वातावरण पंचायती व्यवस्था में हो सकता है। लेकिन मौजूदा पंचायती व्यवस्था में नहीं। बल्कि उस पंचायती व्यवस्था में, जहां शक्तियां नीचे से ऊपर तक जाती हों, न कि ऊपर से नीचे आती हों। मौजूदा व्यवस्था में पंचायतों को जो भी शक्तियां मिली हुई हैं, उनका स्रोत कें्र है। यानी कें्र से राज्य सरकारों को और फिर राज्य सरकारों से पंचायतों को शक्तियां मिलती हैं। ऐसे में पंचायतों के कार्य व निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है और सत्ता के समुचित विकें्रीकरण का जो सपना महात्मा गांधी ने देखा था, वह पूरा नहीं हो पाता।

अब अगर विनोबा द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन की विफलता की बात की जाए तो सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विनोबा द्वारा शुरू किया आंदोलन वास्तव में सर्वोदय आंदोलन था ही नहीं। यह भूमि सुधार आंदोलन था, जो भू-दान आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ। यह सर्वोदय का एक हिस्सामात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं। फिर गांधी ने जिस सर्वोदय का विचार दिया था, वह समाज सुधार की बात नहीं करता, बल्कि इसके समानांतर एक नए समाज के निर्माण की बात करता है; जबकि विनोबा ने सर्वोदय के लिए आवश्यक एक सिद्धांत को अमल में लाकर सामाजिक सुधार की कवायद शुरू की थी। इसलिए यहां गांधी के सर्वोदय का सिद्धांत विफल नहीं हुआ, बल्कि भू-दान आंदोलन विफल हो गया। आंदोलन की विफलता का एक अहम कारण यह भी है कि विनोबा ने आगे चलकर इससे खुद को अलग कर लिया और इसमें सरकार को शामिल कर लिया। भूमि सुधार को लेकर कानून बनाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपकर आंदोलनकारियों ने सरकार के समक्ष लगभग घुटने टेक दिए।

विनोबा ने ‘सभय भूमि गोपाल कीज् का नारा दिया था। उन्होंने जमीन पर लोगों के मालिकाना हक को स्वीकार किया, लेकिन इसका इस्तेमाल समाज द्वारा करने की बात कही। पूंजीवादी एवं समाजवादी व्यवस्था से अलग उन्होंने ट्रस्टीशिप व्यवस्था में यकीन जताया और हृदय परिवर्तन के माध्यम से भूमि सुधार लागू करने की कवायद शुरू की। लेकिन आंदोलनकारियों द्वारा सरकार के समक्ष घुटने टेकने के बाद सब वहीं समाप्त हो गया। हालांकि आज भी भूमि सुधार की बात उठती है। राजनीतिक दलों से लेकर विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता भी किसान हितैषी होने की बात करते हैं। औद्योगिक विकास के लिए अगर कहीं जमीन का अधिग्रहण हो रहा है और किसान उसका विरोध कर रहे हैं तो उनके साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक दलों से लेकर तमाम संगठनों के कार्यकर्ता भी आ जाते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसानों के हितैषी नहीं, बल्कि प्रबंधात्म लोग हैं।







0 टिप्पणियाँ: