शनिवार, 18 अप्रैल 2009

अब अर्जुन बे-बान

अर्जुन ¨सह भी बेटे-बेटी का टिकट कटने से नाराज हैं। हालांकि वह काफी पहले से खफा चल रहे हैं। टिकट का मामला ताजा है। उनकी यह नाराजगी आए दिन उनके बयानों से जाहिर होती रहती है।
अर्जुन सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ व वयोवृद्ध नेता हैं और कें्र में मानव संसाधन विकास मंत्री भी। उम्र का एक एक बड़ा हिस्सा उन्होंने कांग्रेस में गुजार दिया। स्वाभाविक रूप से उन्हें पार्टी से कुछ अपेक्षाएं रहीं। कभी अपेक्षाएं पूरी हुईं, तो कभी निराशा भी हाथ लगी और ऐसे में मन में व्रिोह भी जागा। व्रिोह की यही भावना थी कि 1990 के दशक में उन्होंने नारायण दत्त तिवारी के साथ ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) का गठन किया। लेकिन जसे सुबह का भूला शाम को घर लौट आता है, अर्जुन सिंह की भी घर वापसी हुई।
2004 में कांग्रेस नेतृत्व में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी तो वह मानव संसाधन विकास मंत्री बने। उम्मीद थी कि अब उनकी अपेक्षाएं दरकिनार नहीं होंगी। लेकिन उन्हें फिर निराशा हाथ लगी और कई मौके पर तो आंसू छलक पड़े। 15वीं लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो बेटी वीणा सिंह ने मध्य प्रदेश के सीधी और बेटे अजय सिंह, जो राज्य में विधायक हैं, ने सतना संसदीय सीट से कें्रीय राजनीति में उतरने की इच्छा जताई। पिता के नाते उन्होंने बच्चों की मंशा को पूरा समर्थन दिया और पार्टी आलाकमान तक यह बात भी पहुंचा दी। लेकिन पार्टी ने सतना से सुधीर सिंह तोमर और सीधी से इं्रजीत पटेल को उम्मीदवार बनाया। बर्जुन के बेटे-बेटी को नहीं। यह अलग बात है कि तोमर और पटेली अर्जुन ¨सह खेमे के ही सदस्य हैं। वैसे कहा यह जा रहा था कि खुद अर्जुन ¨सह का जोर वीणा को टिकट के लिए था।
वंचित वीणा ने निस्संदेह पिता को आहत किया। शायद यही वजह रही कि बलिया में एक चुनावी सभा में इसका जिक्र आने पर उनकी आंखें नम हो गईं। बाद में पत्रकारों ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने केवल इतना कहा, ‘इस उम्र में ऐसा होता हैज्। उधर, कांग्रेस आलाकमान के इनकार के बाद वीणा सिंह ने सीधी से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार नामांकन दाखिल कर दिया। हालांकि एक पिता यहां धर्मसंकट में पड़ गया कि वह बेटी के लिए प्रचार करे या एक निष्ठावान कार्यकर्ता की तरह पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में। बिना किसी देरी के उन्होंने पार्टी उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार का औपचारिक एलान कर इस बारे में तमाम अटकलों पर विराम लगा दिया। लेकिन अर्जुन सिंह ऐसे आसान राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। इतनी लंबी पारी वह अपनी चतुराई व सूझबूझ के कारण ही खेल पाए। कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि अपने शीर्ष दिनों में उनके अति-चातुर्य ने उन्हें एक खास तरह से राजनीतिक हलकों में संदिग्ध बना दिया। उनकी हर बात, हर कदम को लोग संदेह से देखते हैं। यही संदेह वीणा की उम्मीदवारी में काम कर रहा है। जानकार कह रहे हैं कि वीणा के लिए अर्जुन ने चालाकी से बिसात बिछाई है। इसका राज तो तब खुलेगा, जब नाम वापसी होगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि किसका पर्चा रद्द होता है और कौन नाम वापस लेता है।
सरकार में रहते हुए अर्जुन सिंह ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए, तो कई बार अपने विवादास्पद बयानों से पार्टी के लिए मुश्किल भी खड़ी की। तमाम विरोध के बावजूद उन्होंने उच्च शिक्षण संस्थानों और कें्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का ऐतिहासिक फैसला किया। आरक्षण विरोधी छात्र फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। उनपर मंडल राजनीति का दूसरा अध्याय शुरू करने का आरोप लगा। कहा गया कि वह सिर्फ वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित होकर यह कदम उठा रहे हैं। फिर भी, उन्होंने अपना कदम पीछे नहीं हटाया। वहीं, पीलीभीत से भाजपा के उम्मीदवार वरुण गांधी के बारे में अपने हालिया बयान से उन्होंने पार्टी के लिए परेशानी भी पैदा कर दी। वरुण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने के फैसले को उन्होंने ‘दुर्भाग्यपूर्णज् करार दिया। भाजपा ने उनके बयान को हाथों-हाथ लिया, तो कांग्रेस को सफाई देनी पड़ी कि यह उनके निजी विचार हैं। फिर मंत्रिमंडल के अपने सहयोगी लालू प्रसाद यादव के वरुण गांधी पर बयान की निंदा करते हुए भी उन्हें देर नहीं लगी।
अर्जुन सिंह गांधी परिवार के पुराने हिमायती रहे हैं। सोनिया को राजनीति में लाने और कांग्रेस सौंपने की मुहिम में वह शामिल रहे। इस कारण कांग्रेस से अलग हुए और सोनिया के आने पर वापस आ गए। लेकिन अपने कुछ बयनों के कारण वह गांधी परिवार की नजरों से उतर गए। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में तो सोनिया गांधी ने उनकी दुआ-सलाम तक कबूल नहीं की। इधर चुनाव के कारण उनकी आधिकारिक बायोग्राफी का विमोचन स्थगित हो गया। लेकिन जब भी वह आएगी, उसे लेकर हंगामा मचेगा। अर्जुन सिंह की पत्नी सरोज सिंह के हवाले से उसमें कहा गया है, ‘मैडम का क्या बिगड़ जाता, अगर उन्हें राष्ट्रपति बना देतीं।ज् चुनाव बाद अर्जुन सिंह पर नजर रखनी होगी। कांग्रेस सरकार बनने पर शायद ही वह मंत्री बनें। वैसे कभी उनकी हसरत भी प्रधानमंत्री बनने की थी। प्रणव मुखर्जी की तरह वह भी बेहद प्रतिभाशाली हैं। बल्कि कई मामलों में उनसे कहीं आगे भी। वह तो लगातार चुनावी हारों और शारीरिक अस्वस्थता के कारण मात खा गए हैं। अब उनमें वह बात नहीं कि वह पांसा पलट दें। पर हां, पार्टी और नेतृत्व को बगले तो झंकवा ही सकते हैं।

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