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सोमवार, 12 जुलाई 2010

उमर की कठिन डगर

कश्मीर के कई हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए। कई जगह कर्फ्यू लगा। सैनिक बलों की कार्रवाई में ग्यारह लोगों की जान गई। इनमें बच्चे भी हैं। दरअसल, बच्चे की मौत पर ही लोगों का गुस्सा सुरक्षा बलों पर फूटा। कश्मीर और कें्र दोनों ने इस सबके पीछे लश्कर-ए-तैयबा का हाथ बताया। कश्मीर कई दशकों से अशांत है। पिछले कुछ समय से वहां शांति का कमोबेश माहौल बना। चुनाव हुए और उमर अब्दुल्ला ने गद्दी संभाली। लेकिन उनके लिए यह कांटों का ताज ही साबित हो रहा है। लगातार वे मुसीबतों में घिरते रहे। ताजा संकट ज्यादा गंभीर है, क्योंकि उसमें आतंकवाद की छाया दिख रही है। संकटों ने छोटे अब्दुल्ला को अनुभवी बनाया है और संवेदनशीलता, शालीनता व गंभीरता जसे चारित्रिक गुण उनके मददगार रहे हैं।



जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं उमर अब्दुल्ला। युवा और संयत व समझदार। संवेदनशील और जज्बाती भी। उनकी ये विशेषताएं नुमायां होती रहती हैं। ये कुछ ऐसे गुण हैं, जो सामान्यत: राजनीति में इस समय दुर्लभ हो रहे हैं। बड़े से बड़े संकट में भी उनका रवैया उतावलेपन का न होकर धीरता व गंभीरता होता है। इस मामले में अपने पिता से भी वे उलट हैं। फारूख अब्दुल्ला की छवि जहां बेफिक्र और बिंदास नेता की है, वहीं उमर कामकाजी और जिम्मेदार हैं। इस मामले में बहुत थोड़े युवा नेता भी उनकी तरह हैं। कश्मीर इन दिनों फिर अशांत है, लेकिन सारी उथल-पुथल के बावजूद उमर अपने इन्हीं विशेषताओं से उनसे निपट रहे हैं। न कोई अधीरता, न ही असंयत बयानबाजी। वे मौकों पर चुप्पी साधने की महत्ता भी जानते हैं।

इस संकटकाल में भी उन्होंने अभिभावकों से भावुक अपील की कि वे अपने बच्चों को प्रदर्शन में हिस्सा लेने से रोकें और उन्हें सुरक्षा बलों से उलझने न दें। लेकिन शांति प्रक्रिया बहाल करने और हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात आई तो उनके सख्त तेवर भी देखने को मिले। उन्होंने दो टूक कहा कि जहां भी कर्फ्यू लागू किया गया है, उसका सख्ती से पालन किया जाएगा। इसमें किसी तरह की ढिलाई नहीं होगी।

घाटी में हिंसा भड़काने वालों को उन्होंने ‘राष्ट्र विरोधी ताकतेंज् कहा और वहां शांति प्रक्रिया बहाल करने की प्रतिबद्धता जताई। उन्होंने इसके पीछे लश्कर का हाथ होने की बात भी कही। कश्मीर के उबलते हालात को देखते हुए उन्होंने कें्र से मदद मांगी, लेकिन विपक्ष के इस आरोप से इनकार कर दिया कि उनकी सरकार कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर विफल रही है। उल्टा विपक्षी दल पीडीपी पर घाटी में हिंसा भड़काने का आरोप लगाया। लेकिन कें्र सरकार और खास तौर पर गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मौके पर कश्मीर सरकार के पीछे खड़े नजर आए और उन्होंने मुख्यमंत्री की बातों की ताईद भी की।

बीते साल जनवरी में उन्होंने राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी। अड़तीस साल की उम्र में उन्हें सबसे युवा मुख्यमंत्री होने का गौरव तो मिला, लेकिन साथ में चुनौतियां भी कम नहीं थीं। राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति कमोवेश सभी सरकारों के लिए चिंता का विषय रही है। फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क जसी बुनियादी सुविधाओं तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करना भी एक महत्वपूर्ण काम था। इसमें वे काफी हद तक सफल रहे तो कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर स्थिति में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला।

अभी राज्य की सत्ता संभाले उमर को छह माह ही हुए थे कि सेना पर तीन महिलाओं के साथ बलात्कार व उनकी हत्या सहित 15 लोगों की हत्या का आरोप लगा। कहा गया कि नई दिल्ली के दबाव में उन्होंने इस कुकृत्य पर पर्दा डालने की कोशिश की। इसी बीच उन पर 2006 के सेक्स स्कैंडल में शामिल होने का भी आरोप लगा। विपक्ष ने कहा कि नौकरी देने के नाम पर जिन मंत्रियों, नेताओं, वरिष्ठ अधिकारियों और सैनिकों ने लड़कियों का इस्तेमाल किया, उनमें उमर अब्दुल्ला और उनके पिता फारूख अब्दुल्ला भी शामिल थे। तब भी संवेदनशील और जज्बाती उमर देखने को मिले थे। विपक्ष के इस आरोप भर से राज्यपाल को इस्तीफा सौंपकर उन्होंने सबको सकते में डाल दिया था। यह अलग बात है कि राज्यपाल एनएन वोहरा ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और वे अपने पद पर बने रहे। लेकिन इससे भी खास था इस्तीफे की पेशकश के वक्त उनका दिया गया बयान। जहां ऐसे मामलों में फंसते वक्त दूसरे नेता दोष साबित हो जाने तक स्वयं को निर्दोष बताते हैं, वहीं उमर ने विपक्ष के इस आरोप को अपने चरित्र पर धब्बा बताते हुए तब तक स्वयं को गुनाहगार बताया, जब तक वे बेगुनाह साबित नहीं हो जाते।

कुछ इसी तरह का भावुक, पर अनुभवी राजनीतिज्ञ के रूप में उनका व्यक्तित्व वर्ष 2008 में भी देखने को मिला था, जब अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर उन्होंने यूपीए सरकार को समर्थन देकर कांग्रेस की निकटता हासिल कर ली। इसका फायदा उन्हें राज्य विधानसभा के चुनाव में मिला। उस वक्त लोकसभा में दिया गया उनका बयान खासतौर पर उल्लेखनीय है। ऐसे में जबकि सपा सहित अन्य दल इस करार को मुसलमानों के लिए खतरनाक बता रहे थे, उमर ने यह कहकर तमाम आशंकाओं पर विराम लगा दिया, ‘मैं एक मुसलमान हूं और भारतीय भी। मैं इन दोनों में कोई फर्क नहीं देखता। मैं नहीं जानता कि हमें परमाणु करार से क्यों डरना चाहिए.. भारतीय मुसलमानों का दुश्मन अमेरिका या इस तरह का कोई करार नहीं, बल्कि गरीबी, भूख, विकास का अभाव और इन सबके लिए आवाज नहीं उठाना है..ज्

जम्मू-कश्मीर को लेकर शुरू से ही उमर का अलग रुख रहा है। भारत-पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर को वे महत्वपूर्ण मुद्दा मानते हैं और उन्हें समस्या का एकमात्र समाधान बातचीत में नजर आता है। वे कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की समस्या राजनीतिक है और इसका समाधान भी राजनीतिक ही हो सकता है। हाल में जम्मू के उबलते हालात के बीच उन्होंने एकबार फिर यह बात दोहराई। इससे पहले कश्मीर समस्या के समाधान को लेकर 2006 में वे कें्र के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मिलने इस्लामाबाद जा पहुंचे थे।

दस मार्च, 1970 को फारूख अब्दुल्ला और ब्रिटिश मां की संतान के रूप में जन्मे उमर को राजनीति विरासत में मिली। लेकिन राजनीतिक सफर आसान नहीं रहा। श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल से उन्होंने शुरुआती शिक्षा पूरी की। इसके बाद मुंबई के प्रतिष्ठित सिदेनाम कॉलेज से उन्होंने बीकॉम और स्कॉटलैंड की यूनीवर्सिटी ऑफ स्ट्रैथक्लाइड से एमबीए किया। 1998 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। उसी साल वे 12वीं लोकसभा के लिए चुने गए। तब कें्र में राजग की सरकार थी। उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस राजग सरकार का हिस्सा बनी। 1999 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने जीत हासिल की। 2001 में वे विदेश राज्य मंत्री बने। तब भी वे सबसे युवा कें्रीय मंत्री थे। लेकिन भाजपा से संग-साथ का खामियाजा उन्हें 2002 के विधानसभा चुनाव में चुकाना पड़ा। उनकी पार्टी हार गई। हार के कारणों का विश्लेषण किया गया, तो पता चला जनता इसलिए उनके साथ नहीं आई, क्योंकि गुजरात दंगों के बाद भी उनकी पार्टी भाजपा से जुड़ी रही। लेकिन इसके बाद भाजपा से अलग होने में उन्होंने कोई देरी नहीं की। इस बीच वे लगातार अपनी राजनीतिक जमीन को बेहतर बनाने के लिए काम करते रहे। 2008 में उन्हें इसका फायदा भी मिला, जब उनकी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और कांग्रेस के सहयोग से उन्होंने सरकार बनाई।