रविवार, 6 नवंबर 2011

महिलाओं के खिलाफ बढ़ता अत्याचार चिंताजनक : ममता शर्मा


राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा से महिलाओं की दशा, आयोग की भूमिका और उनकी आगामी योजनाओं पर बातचीत के मुख्य अंश :

प्रश्न : आयोग की अध्यक्ष के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं?

उत्तर : मेरी प्राथमिकता आयोग का कामकाज सुचारु बनाना है। सदस्यों की नियुक्ति से लेकर विभिन्न समितियों में भी हम फेरबदल चाहते हैं। हमें अधिक ऊर्जावान लोगों की जरूरत है। हमने इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिया है। आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए मैंने केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) कृष्णा तीरथ को लिखा भी है। मैं राज्य महिला आयोगों को भी सशक्त बनाने में जुटी हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि सत्ता के विकेंद्रीकरण से बेहतर परिमाण सामने आते हैं। तमिलनाडु, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में पिछले काफी समय से आयोग की अध्यक्ष भी नहीं हैं। मैंने विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इसके लिए भी पत्र लिखा है। साथ ही मैं ऐसी समिति बनाने पर भी विचार कर रही हूं, जो राज्यों में जाकर महिलाओं से जुड़े कार्यो की निगरानी करेगी।

प्रश्न : महिलाओं के खिलाफ अत्याचार बढ़ रहा है। आयोग इस दिशा में क्या कर रहा है?

उत्तर : महिलाओं के साथ बढ़ता अत्याचार चिंताजनक है। इस साल 10 अगस्त तक आयोग में 9,495 शिकायतें आई हैं। अकेले अगस्त और सितम्बर के बीच करीब डेढ़ महीने में देशभर से 800 शिकायतें दर्ज की गई हैं। निश्चित रूप से ये अच्छे संकेत नहीं हैं। लेकिन आयोग महिलाओं के साथ बढ़ते अत्याचार के प्रति सजग है। पिछले डेढ़ महीने में आयोग में आई शिकायतों में से 600 मामलों में हमने कार्रवाई रिपोर्ट मंगवाई है। अन्य मामलों को भी देखा जा रहा है। कई मामलों में हमने स्वत: संज्ञान भी लिया है।

प्रश्न : लेकिन कहा जा रहा है कि आयोग ने अधिकतर उन्हीं राज्यों से जुड़े मामलों में स्वत: संज्ञान लिया है, जहां गैर-कांग्रेसी सरकारें हैं?

उत्तर : ऐसा नहीं है। महिलाओं पर अत्याचार से जुड़े मुद्दों में हम यह नहीं देखते कि कौन से राज्य में कांग्रेस की सरकार है या कहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या अन्य दलों की सरकार है। बिहार, उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त हमने राजस्थान में दहेज हत्या से जुड़े मामले में भी स्वत: संज्ञान लिया है। मेघालय में भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार है। लेकिन वहां भी हमने एक स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लिया है।

प्रश्न : राजस्थान से ही जुड़ा ताजा मामला है भंवरी देवी का। क्या आयोग इस मामले में भी कुछ कर रहा है?

उत्तर : देखिए फिलहाल यह मामला अदालत के विचाराधीन है, इसलिए आयोग आगे बढ़कर कुछ नहीं कर रहा।

प्रश्न : महिला आयोग की अध्यक्ष के रूप में आप क्या नया करने जा रही हैं। आपकी आगामी योजनाएं क्या हैं?

उत्तर : महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और उनके प्रति समाज के नजरिए में बदलाव लाने के लिए हमारे पास कई कार्यक्रम हैं। हमारा मुख्य जोर होर्डिग्स और पोस्टर पर है। मेट्रो में यह प्रयोग सफल रहा है। हम अन्य राज्यों में ऐसा करने की सोच रहे हैं। विभिन्न राज्यों में जगह-जगह पोस्टर और होर्डिग क्षेत्रीय भाषाओं में लगाए जाएंगे। साथ ही हम वृत्तचित्र के माध्यम से भी अपनी बात लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए दूरदर्शन से बात की जा रही है, क्योंकि इसकी पहुंच गांवों और दूर-दराज के क्षेत्रों में भी है। फिर नुक्कड़ नाटक भी एक बेहतरीन माध्यम है। हमने अभी दिल्ली के बुरारी में नुक्कड़ नाटक किया भी था, जिसके परिणाम बेहतर रहे। साथ ही मैं महिला सरपंचों को भी पत्र लिखने का सोच रही हूं, ताकि वे अपने स्तर पर महिलाओं को जागरूक करने की कोशिश करें।

प्रश्न : तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद महिलाओं के पिछड़ेपन का क्या कारण है?

उत्तर : मुझे लगता है महिलाओं में शिक्षा का स्तर अब भी कम है, जिसकी वजह से उन तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है। फिर अपने अधिकारों को लेकर वे जागरूक भी नहीं हैं। मुझे उम्मीद है उक्त कार्यक्रमों से उन्हें लाभ होगा।

प्रश्न : महिलाओं के खिलाफ अपराध की बात की जाए तो कन्या भ्रूण हत्या एक अहम समस्या है। आप इसके क्या कारण देखती हैं और इसे समाज से मिटाने के लिए क्या करने जा रही हैं?

उत्तर : मुझे लगता है कि वंश परम्परा आगे बढ़ाने के लिए बेटों की चाह और दहेज इसके दो बड़े कारण हैं। कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कानून तो बहुत हैं, लेकिन उनका सही ढंग से अनुपालन नहीं हो पाता। ऐसे डॉक्टरों के क्लीनिक को बंद करने के साथ-साथ उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। साथ ही लोगों को नुक्कड़ नाटक और अन्य कार्यक्रमों, पोस्टर, होर्डिग्स के जरिए जागरूक करने की जरूरत है।

प्रश्न : टेलीविजन पर पुरुषों के डियो में महिलाओं की जो उत्तेजक छवि पेश की जा रही है, उसके बारे में आप क्या कहेंगी?

उत्तर : देखिये मैं इसके सख्त खिलाफ हूं। मुझे नहीं लगता इसकी कोई जरूरत है। ऐसे ही एक जींस के विज्ञापन में हमने स्वत: संज्ञान लिया है। इस तरह के विज्ञापन बंद होने चाहिए। मैं इस बारे में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री अम्बिका सोनी से भी एक मुलाकात करना चाहती हूं।

प्रश्न : लेकिन आप ऐसे लोगों को क्या कहना चाहेंगी, जो ऐसे विज्ञापनों को महिला सशक्तिकरण और उनकी आजादी से जोड़कर देखते हैं?

उत्तर : यह महिला सशक्तीकरण नहीं हो सकता और न ही उनकी आजादी का परिचायक। मुझे लगता है महिलाओं को आत्मनिर्भर व शिक्षित बनाना, उन्हें उनका अधिकार देना, उन्हें सम्मान देना, बराबरी का हक देना ही वास्तव में उनका सशक्तीकरण है।

प्रश्न : 'स्लट वाक' (बेशर्मी मोर्चा) के बारे में आप क्या कहेंगी? क्या आपको लगता है कि यह महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने का जरिया है?

उत्तर : मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं इसके खिलाफ हूं। यह हमारी संस्कृति की बात नहीं है। अपने कपड़ों के लिए बेशर्मी मोर्चा निकालने वाली लड़कियों से भी मैं कहूंगी कि वे गांवों में जाकर महिला अधिकारों के लिए प्रदर्शन करें और ग्रामीण महिलाओं को जागरूक करें तो अधिक बेहतर होगा।

प्रश्न : आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगी जो लड़कियों के साथ बलात्कार जैसे अपराधों के लिए उनके कपड़ों को जिम्मेदार ठहराते हैं?

उत्तर : ऐसे लोगों के लिए मेरी सलाह है कि वे अपनी मानसिकता बदलें। उन्हें समझना होगा कि ऐसे कपड़े उनकी बहन बेटियां भी पहनकर बाहर निकलती हैं।

'हमें भी है सम्मान से जीने का हक'


जिंदगी बेहद खूबसूरत है, लेकिन कुछ लोगों के लिए उतनी ही मुश्किल। ये वे लोग हैं, जो बोल नहीं सकते, सुन नहीं सकते, देख नहीं सकते और न ही बिना पहियों की कुर्सी के सहारे चल सकते हैं। इन शारीरिक चुनौतियों के बावजूद वे अपनी दुनिया में खुश रहते हैं। लेकिन सामान्य लोगों का असहयोगात्मक रवैया उन्हें जो मानसिक पीड़ा देता है, वह इस शारीरिक परेशानी से कहीं अधिक होता है।

दिल्ली हाट में बीते सप्ताह आयोजित एक कार्यक्रम में शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे कई बच्चों व बड़ों ने शिरकत की और सभी की एक ही पीड़ा थी, "समाज में उन्हें समान हक व सम्मान नहीं मिलता।" 35 वर्षीय आलोक सिक्का भी ऐसे ही लोगों में हैं, जो 'व्हील चेयर' से चलते हैं। बस से यात्रा करना उनके लिए मुश्किल होता है, क्योंकि चालक अक्सर उनके लिए बस नहीं रोकते। ये परेशानियां उनके साथ बचपन से हैं, लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने एक मुकाम हासिल किया और आज वह गैर सरकारी संगठन 'एक्शन फॉर एबिलिटी डेवेलपमेंट एंड इंक्लूजन' (आदी) से जुड़े हैं।

शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे बच्चों ने भी मौका मिलने पर हमेशा खुद को साबित किया है। कार्यक्रम में कालकाजी स्थित सरकारी माध्यमिक विद्यालय के मूक-बधिर बच्चों ने राष्ट्रगान प्रस्तुत कर यह दिखा दिया कि प्रतिभा शारीरिक सक्षमता की मोहताज नहीं है। लेकिन सामान्य लोगों का व्यवहार इनके प्रति हमेशा सकारात्मक नहीं होता।


राष्ट्रगान की धुन पर प्रस्तुति देने वाले बच्चों में से तीन भाई-बहन साफिया, फौजिया और अरशद ने संकेतों में बताया कि उन्हें सामान्य लोग हमेशा संदिग्ध लगते हैं, इसलिए वे अपनी आयु वर्ग के सामान्य बच्चों के साथ भी खेलना-कूदना पसंद नहीं करते। इस बारे में पूछे जाने पर स्कूल की प्रधानाचार्य रीना गौतम ने बताया, "ऐसे बच्चों का मन बड़ा कोमल होता है। उनके प्रति अधिक स्नेह एवं आत्मीयता से पेश होने की जरूरत है। लोगों का रवैया सकारात्मक न होने की वजह से उनका आशंकाओं से ग्रस्त होना स्वाभाविक है।"


तमाम तरह की शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे ये लोग केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन स्वायत्त संगठन 'नेशनल ट्रस्ट' की ओर से आयोजित 'बढ़ते कदम' कार्यक्रम में पहुंचे थे, जिसका उद्देश्य ऐसे लोगों के प्रति सामाजिक रवैये में बदलाव लाना और सरकारी तथा निजी क्षेत्र को उनके अनुकूल व्यवस्थाएं बनाने के लिए प्रेरित करना है।

'नेशनल ट्रस्ट' की अध्यक्ष पूनम नटराजन के अनुसार, "यदि लोगों का रवैया इनके प्रति सहयोगात्मक हो तो ऐसे लोग भी सामान्य जिंदगी जी सकते हैं। आवाजाही सहित कई अन्य दिक्कतों और लोगों के असहयोगात्मक रुख की वजह से वे अधिकतर घरों में ही रहना पसंद करते हैं। इसमें बदलाव लाने और उनकी क्षमताओं को पहचानने की जरूरत है।"

केवल कानून से खत्म नहीं होंगे लैंगिक भेद : बाल आयोग


लैंगिक भेदभाव हमारे समाज के एक बड़े हिस्से का एक सच है। इसे बदलने के लिए सिर्फ कानून पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए मानसिकता बदलने और लोगों में जागरुकता लाने की जरूरत है। ऐसा मानना है राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग का।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने कहा, "लड़कियों के साथ भेदभाव को समाप्त करने के लिए किसी कानून की नहीं, बल्कि जागरुकता की जरूरत है। अभिभावकों और युवतियों को एक ऐसा मंच मुहैया कराने की जरूरत है, जहां उन्हें समान अधिकारों तथा समान व्यवहार के बारे में बताया जा सके। लड़कियों को इसलिए ऐसे मंच पर लाने की जरूरत है, ताकि कल जब वे मां बनें तो भावी पीढ़ी के साथ वह गलती न दोहराएं, जो उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने की।"

उन्होंने इस बात से सहमति जताई कि लड़कियां शिक्षा, खानपान और यहां तक कि जीने के अधिकार से भी वंचित की जा रही हैं। उनका बचपन समय से पहले खो जाता है। रसोई में मां का हाथ बंटाना हो या अन्य घरेलू जिम्मेदारियां, बोझ हर वक्त लड़कियों के कंधों पर ही आती है।


सिन्हा ने कहा, "लड़कियों के साथ भेदभाव हमारी संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है। इसलिए माता-पिता या दूसरे लोग उनके साथ असमान व्यवहार करने के बावजूद समझ नहीं पाते कि वे किसी तरह का भेदभाव कर रहे हैं।" उन्होंने जोर देकर कहा कि लड़कियों को समान अवसर मिले तो वे निश्चित रूप से बेहतर परिणाम देंगी।

लड़कियों के साथ दोयम दर्जे के व्यवहार का एक अहम उदाहरण कन्या भ्रूण हत्या के रूप में देखने को मिलता है, जिसके तहत उन्हें मां की कोख में ही जीवन के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद इससे उबरने की आस दूर-दूर तक नहीं दिखती। देश की जनगणना रिपोर्ट 2011 इस बारे में और चिंताजनक तथ्य पेश करती है। राजधानी दिल्ली और इससे सटे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान कई राज्यों में बाल लिंगानुपात चिंताजनक स्थिति तक पहुंच गया है। छह वर्ष तक के बच्चों का लिंगानुपात वर्ष 2001 के 927 के मुकाबले गिरकर 914 हो गया है।

राष्ट्रीय महिला आयोग इसके लिए वंश परम्परा आगे बढ़ाने के लिए लड़कों की चाह और लड़कियों की शादी पर होने वाले खर्च तथा दहेज एक बड़ा कारण मानता है। आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "इन दो कारणों ने इंसान को बर्बर बना दिया है।"

शर्मा के अनुसार, "यह समस्या पढ़े-लिखे और शहरी लोगों में कम शिक्षित, अशिक्षित या ग्रामीणों की तुलना में कहीं अधिक है। इसकी एक बड़ी वजह शहरों में सोनोग्राफी सहित अन्य तकनीकों की उपलब्धता है, जिससे लोगों को आसानी से पता चल जाता है कि गर्भ में पल रहा शिशु लड़का है या लड़की। लेकिन तकनीक का विस्तार धीरे-धीरे गांवों में भी हो रहा है, जिससे इस आपराधिक प्रवृत्ति का विस्तार अब गांवों में भी होने लगा है।"


उन्होंने कहा, "हालांकि लड़कियों के प्रति लोगों का नजरिया विगत कुछ वर्षो में बदला है, लेकिन अब भी समाज के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। शहरी व शिक्षित वर्ग में कन्या भ्रूण हत्या की बड़ी दर बताता है कि शिक्षा के बावजूद वंश परम्परा और दहेज को लेकर लोगों की मानसिकता बदली नहीं है।"

भ्रूण हत्या के खिलाफ प्री नैटल डॉयग्नोस्टिक टेक्नीक (पीएनडीडी) एक्ट सहित अन्य कानून होने के बावजूद इस पर रोक नहीं लगने के लिए महिला आयोग की अध्यक्ष प्रशासन की नाकामी को जिम्मेदार मानती हैं। उनका साफ कहना है, "नीतियों का सही तरीके से अनुपाल नहीं हो पाने के कारण ऐसा हो रहा।"

उन्होंने कहा, "जिस देश में लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के रूप में देवियों को पूजा जाता है, वहां कन्या भ्रूण हत्या महापाप है। लोगों को लड़कियों के प्रति अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है।"

सोमवार, 12 सितंबर 2011

बाल कुपोषण : एक गम्भीर चुनौती


देश तेजी से बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो रहा है। विकास दर करीब 8.5 प्रतिशत है, लेकिन इस विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्था में बच्चों की एक बड़ी आबादी कुपोषण का दंश झेलने के लिए मजबूर है। हर साल करीब 6,00,000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हो जाती है।

वैश्विक संस्थाओं से लेकर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और तमाम गैर-सरकारी संगठनों के आंकड़े भी देश में बाल कुपोषण की स्थिति को खतरनाक बताते हैं। गैर-सरकारी संगठन 'सेव द चिल्ड्रेन' के अनुसार, हर साल देश में पांच वर्ष से कम उम्र के करीब 18,30,000 बच्चों की मौत हो जाती है। इनमें से करीब 6,00,000 बच्चे कुपोषण के कारण जान गंवा देते हैं।

संस्था की सूचना अधिकारी अनंतप्रिया सुब्रमण्यम के अनुसार, कुपोषण के कारण बहुत से बच्चों का कद उनकी उम्र की तुलना में काफी छोटा रह जाता है, जबकि कई बार इसकी वजह से बच्चे बिल्कुल कृशकाय रह जाते हैं और कुछ भी कर पाने में समर्थ नहीं होते। कुपोषण के कारण उनका वजन भी सामान्य से कम होता है।

राष्ट्रमंडल के विभिन्न देशों की तुलना में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश में 0-6 वर्ष के बच्चों की संख्या 15,87,89,287 है। निश्चित रूप से बच्चों की यह आबादी ही कल का भारत है। लेकिन देश का 43 प्रतिशत भविष्य कुपोषण की वजह से सामान्य से कम वजन का है और पांच साल से कम उम्र के करीब 70,00,000 बच्चे गम्भीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं।

'सेव द चिल्ड्रेन' के कार्यकारी अधिकारी थॉमस चांडी का कहना है, "देश में पांच साल से कम उम्र के करीब 5,50,00,000 बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। राजनीतिक नेतृत्व को इसका समाधान ढूंढ़ने की जरूरत है।"

कुपोषण का खतरा सबसे अधिक बच्चों के गर्भ में आने से लेकर 33 महीने तक रहता है। यानी पैदा होने के दो साल बाद तक उनका खास ख्याल रखने की जरूरत होती है। वर्ष 2000 में भारत सहित 198 देशों ने 2015 तक भूख और कुपोषण की स्थिति को 50 प्रतिशत तक कम करने का उद्देश्य तय किया था। लेकिन भारत सहित राष्ट्रमंडल के सात देशों में इस दिशा में कोई खास प्रगति होती नहीं दिख रही। अब तक भारत ने इस दिशा में केवल 0.9 प्रतिशत प्रगति की है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2005 की रिपोर्ट कुछ ऐसे ही आंकड़े पेश करती है। इसके मुताबिक, तीन साल से कम उम्र के करीब 46 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है, जबकि 0-35 महीने तक के 79 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं।

वैश्विक भूख सूचकांक की 2010 की रिपोर्ट में भी भारत में बाल कुपोषण की स्थिति पर चिंता जताई गई है। 122 विकासशील देशों की सूची में भारत को 67वां स्थान दिया गया है। इसके अनुसार, दुनियाभर में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों में से 42 प्रतिशत भारत में हैं।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनीसेफ ने तो भारतीय बच्चों में कुपोषण की समस्या मध्य और दक्षिणी अफ्रीकी देशों से भी अधिक बताई है। इसके अनुसार, दुनिया में हर तीसरे कुपोषित बच्चे में से एक भारत में है।

सरकार ने बच्चों में कुपोषण को दूर करने के लिए कई योजनाएं और जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए हैं। छह वर्ष तक के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए समेकित बाल विकास सेवा शुरू की गई। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन खाद्य एवं पोषण बोर्ड लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए हर साल एक से सात सितम्बर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह आयोजित करता है। इस बार भी इस सप्ताह के दौरान देशभर में कार्यशालाओं, शिविर, प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाया गया। लेकिन कुपोषण के आंकड़े ऐसे प्रयासों, कार्यक्रमों और नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं।

महिला कुपोषण : एक अहम चुनौती


महिला सशक्तीकरण के दावों के बाद भी देश की आधी आबादी सामाजिक-आर्थिक स्तर पर उपेक्षा का दंश झेलने के लिए मजबूर है. उनका खराब स्वास्थ्य इसी का नतीजा है. उचित खानपान नहीं मिलने के कारण देश में करीब 33 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं.

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और इससे सम्बद्ध खाद्य एवं पोषण बोर्ड के तत्वावधान में देशभर में एक से सात सितम्बर तक 'राष्ट्रीय पोषण सप्ताह' मनाया जाता है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में महिलाओं की संख्या 58,64,69,174 है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े इनमें से करीब 33 प्रतिशत महिलाओं को कुपोषण का शिकार बताते हैं.

देश में मातृत्व मृत्यु दर का एक बड़ा कारण भी कुपोषण है. हाल ही में जारी यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2008 में प्रति 1,00,000 बच्चों के जन्म पर मातृत्व मृत्यु दर 230 थी और इसका एक बड़ा कारण महिलाओं में कुपोषण है. सरकार ने 2015 तक मातृत्व मृत्यु दर प्रति 1,00,000 बच्चों पर घटाकर कम से कम 108 करने का लक्ष्य निर्धारित किया है. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद 2001 से अब तक मातृत्व मृत्यु दर में आई कमी के आंकड़ों को देखते हुए यह बेहद चुनौतीपूर्ण जान पड़ता है. 2001-03 में यह दर 301 और 2004-06 में 254 थी.

उचित खानपान के अभाव में महिलाओं में एनीमिया की समस्या आम है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं में एनीमिया की समस्या 1998-99 से बढ़ी है. 2005-06 के आंकड़ों के मुताबिक, करीब 55 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. एनीमिया के कारण न केवल महिलाओं को गर्भधारण में समस्या आती है, बल्कि कई बार यह गर्भपात और बच्चे तथा मां की मृत्यु का कारण भी बनता है. एनीमिया की शिकार महिलाएं अक्सर सामान्य से कम वजन के बच्चे को जन्म देती हैं, जिससे बच्चा भी कुपोषित होता है. महिलाओं में आयोडीन की कमी की समस्या भी आम है.

देश के शहरी समाज में मोटापा की समस्या भी तेजी से बढ़ रही है, जो कुपोषण का ही एक प्रकार है. करीब 13 प्रतिशत महिलाएं मोटापा या सामान्य से अधिक वजन की शिकार हैं.

आधी आबादी में कुपोषण की यह स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है और इसे दूर करना एक महत्वपूर्ण चुनौती है, क्योंकि किसी भी समाज के विकास में उसकी स्वस्थ जनसंख्या बहुत मायने रखती है और इसमें आधी आबादी के स्वास्थ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सरकार ने हालांकि लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए सरकार ने कई कार्यक्रम और योजनाएं बनाई हैं. लेकिन महिलाओं में कुपोषण के आंकड़े बताते हैं कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.

रविवार, 28 अगस्त 2011

एक ऐतिहासिक पल की गवाह बनी मैं भी


दिल्ली का रामलीला मैदान। लाखों की भीड़। हाथों में तिरंगा। दिल में जोश, आशा की नई किरण, नया भरोसा, जीत का जज्बा और जुबां पर वंदे मात्रम, भारत माता की जय, इंकलाब जिंदाबाद के नारे। यह नजारा आम नहीं है। ही किसी फिल्म का दृश्य। यह उन सबके लिए देश की दूसरी आजादी की लड़ाई का जश्न था, जो 1947 में देश के आजाद होने के बाद हुए जश्न के गवाह नहीं बन पाए थे। मेरे लिए कुछ ऐसा ही था। अन्ना हजारे अपने 13 दिन का अनशन रविवार सुबह 10 बजे तोड़ने वाले हैं, इसकी जानकारी शनिवार को ही मिल गई थी।
मैं भी उस ऐतिहासिक पल का गवाह बनना चाह रही थी। घर से निकली तो ऐसा लगा कि दिल्ली की सारी सड़कें रामलीला मैदान को ही जा रही हैं। मोटरसाइकिल, बस, कार, मेट्रो, जिसकी पहुंच में जो रहा, उसी से सब हाथों में तिरंगा और सिर पर 'अन्ना टोपी' लगाए रामलीला मैदान के लिए निकल पड़ा, उस ऐतिहासिक पल और दिन का गवाह बनने, जब अन्ना अपना तोड़ने वाले थे।
मेट्रो में युवाओं की एक टोली मिली। करीब 10-12 युवा एक साथ नारेबाजी करते हुए सभी को उत्साहित कर रहे थे। इसी समूह में शामिल आईटीआई के छात्र अमरजीत ने कहा, "अन्ना जी ने हमें एक दिशा दिखाई है। उन्होंने अहिंसक क्रांति की जो मशाल हमारे भीतर जगाई, हम उसे बुझने नहीं देंगे। मैं उस ऐतिहासिक वक्त में उस ऐतिहासिक रामलीला मैदान में मौजूद रहना चाहता हूं, जब अन्ना जी अपना पिछले 13 दिनों का अनशन तोड़ेंगे।"
फिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के मेट्रो गेट से रामलीला मैदान तक सड़क पर लोगों का हुजूम। मेरे भीतर का एक आम नागरिक आज उस असंतोष के भाव से काफी हद तक संतुष्ट था कि मैंने आजादी का जश्न नहीं देखा और ही सम्पूर्ण क्रांति की गवाह बन सकी। हाथों में तिरंगा लहराते, सिर पर 'मैं अन्ना हूं' लिखी हुई टोपी लगाए लोग ढोल-नगाड़ों के साथ जीत का जश्न मनाते हुए रामलीला मैदान की ओर बढ़ रहे थे।
भीड़ आत्म नियंत्रित थी। प्रवेश द्वार पर हालांकि थोड़ी बहुत धक्का-मुक्की हुई, लेकिन जीत के जोश में लोग अन्ना हजारे की शांति की अपील को नहीं भूले। यही वजह रही कि कोई हिंसा हुई, कोई भगदड़ और ही किसी तरह का नुकसान।
लोग ही क्यों पुलिस वालों ने भी कम संयम का परिचय नहीं दिया। पुलिस ने लोगों की 'अन्नागिरी' का जवाब 'गांधीगिरी' से ही दिया। यही वजह है कि अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने जब मंच से आंदोलन की सफलता के लिए दिल्ली पुलिस का शुक्रिया अदा किया तो सबसे अधिक तालियां उनके लिए ही बजी।
यह वही पुलिस थी, जिसने चार जून की रात को इसी रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के समर्थकों पर लाठियां बरसाई थी। लेकिन इस आंदोलन में संयम से काम लेते हुए उसने अपनी उस 'दमनकारी' छवि को 'सहयोगी' वाली छवि में बदल दिया। एक महिला पुलिस कर्मी ने नाम जाहिर करने की शर्त पर कहा, "ऐसा नहीं कि हमें डंडे बरसाने की आदत होती है। स्थिति को देखते हुए ही हमें ऐसा कोई कदम उठाना पड़ता है। और फिर, जब लोग शांत हैं तो हम अशांत क्यों हो जाएं?"
यह पूछे जाने पर कि क्या वह व्यक्तिगत तौर पर इस मुहिम को अपना समर्थन देती हैं, उन्होंने कहा, "जब कारण उचित होते हैं और मकसद साफ नि:स्वार्थ तो सभी साथ देते हैं।"
इस आंदोलन ने जहां युवा शक्ति का एक बार फिर एहसास कराया, वहीं यह भी साफ कर दिया कि लोगों को उम्र से युवा नेतृत्व की नहीं, बल्कि सही सोच और सही दिशा दिखाने वाले नेतृत्व की जरूरत है।
नेहरू प्लेस स्थित एक कम्पनी में बिजनेस रिलेशन मैनेजर के पद पर कार्यरत पंकज ने कहा, "यदि ऐसा नहीं होता तो 74 वर्षीय बुजुर्ग को युवाओं का इतना समर्थन क्यों मिलता और क्यों उनकी एक आवाज पर युवा सड़क पर उतरने से लेकर जेल भरने तक के लिए तैयार हो जाते? यह युवा शक्ति का राग अलापने वाले राहुल गांधी जैसे नेताओं के लिए एक सीख है। उन्हें अपना बहुत सा भ्रम दूर कर लेने और काफी कुछ समझने की जरूरत है।"