सोमवार, 18 जनवरी 2010

लोकतंत्र की सयानी बेटी

शेख हसीना बड़ी जीवट वाली महिला हैं। बेहद जुझारू। अपने यशस्वी पिता शेख मुजीबुर्रहमान से राजनीति विरासत में पाई। लेकिन उन्हें काफी संघर्ष के बाद सत्ता मिली। उनका संघर्ष बांग्लादेश में लोकतंत्र की स्थापना को लेकर भी था। इसलिए भी उन्हें लोकतंत्र की बेटी कहा जाता है। हाल ही में उन्हें इंदिरा गांधी शांति सम्मान दिया गया।

बांग्लादेश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए अगर किसी नेता का नाम लिया जाएगा, तो वह शेख हसीना होंगी। शायद यही वजह है कि उन्हें न केवल बांग्लादेश में, बल्कि पूरी दुनिया में ‘लोकतंत्र की बेटीज् कहा जाता है। शेख हसीना, बांग्लादेश की मौजूदा प्रधानमंत्री और वहां के प्रमुख राजनीतिक दल अवामी लीग की अध्यक्ष हैं, जो पिछले करीब तीन दशक से पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं।
लोकतंत्र की स्थापना के लिए बांग्लादेश में उन्होंने जो लंबी लड़ाई लड़ी, उसने उनकी छवि जुझारू नेता के रूप में स्थापित की। बीबीसी ने उन्हें ‘आयरन लेडीज् कहा, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सालों निर्वासन में रहीं। लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए हमेशा लड़ती रहीं, लेकिन समझौता नहीं किया। वे गरीबों के हक के लिए भी उतनी ही संवेदनशील हैं और भ्रष्टाचार को भी समाप्त करना चाहती हैं। उन्हें दो बार सत्ता मिली। पहली बार 1996 से 2001 तक और दूसरी बार 2008 में, जिसके बाद वे अब तक सत्तासीन हैं। अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने जो भी योजनाएं लागू कीं, उनकी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में खूब चर्चा हुई। हालांकि कुछ विवादों ने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। जनता ने कभी सिर-आंखों पर बिठाया तो कभी पटखनी भी दी। उन पर भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के आरोप भी लगे। लेकिन लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूत करने की उनकी मुहिम ने ऐसे आरोपों को काफी हद तक दबा दिया।
राजनीति में उन्होंने अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान के नाम को खूब भुनाया और बार-बार दोहराया कि बांग्लादेश की नींव रखने वाले शेख मुजीबुर्रहमान ने वहां जिस भयमुक्त और लोकतांत्रिक समाज की कल्पना की थी, उसकी स्थापना के लिए वे हर संभव कोशिश करेंगी, भले इसकी कीमत उन्हें भी पिता की तरह जान देकर क्यों न चुकानी पड़े। जाहिर तौर पर हसीना की इस बेबाकी और प्रतिबद्धता ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा और वह एक ताकतवर नेता के रूप में उभरने लगीं।
स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए उन्होंने बांग्लादेश में केयर टेकर गवर्नमेंट का सुझाव दिया, जो राजनीतिक विश्लेषकों को खूब भाया। उन्होंने इसे आने वाले दिनों में तीसरी दुनिया के अन्य देशों में भी चुनाव प्रक्रिया के लिए एक बेहतर व अनुकरणीय कदम बताया। भारत के साथ संबंधों को लेकर भी शेख हसीना का रवैया वहां के अन्य राजनीतिक दलों से अलग रहा है। वे और उनकी पार्टी ने हमेशा भारत के साथ मधुर संबंधों को तवज्जो दी। यही वजह है कि जब-जब बांग्लादेश में अवामी लीग की सरकार बनी, भारत में उम्मीद की गई कि अब वहां भारत विरोधी ताकतों पर अंकुश लग सकेगा। पड़ोसी पाकिस्तान के अलावा बांग्लादेश ही है, जहां भारत विरोधी ताकतें सबसे अधिक सक्रिय हैं।
अट्ठाइस सितंबर, 1947 को गोपालगंज जिले के छोटे से गांव तुंगीपारा में जन्मी हसीना ने राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र नेता के रूप में की। पांच भाई-बहनों में हसीना सबसे बड़ी थीं। गरीबों व जरूरतंदों के लिए स्नेह की भावना उन्हें मां बेगम फजीलतुन्नेसा से विरासत में मिली। साल 1968 में परमाणु वैज्ञानिक डॉक्टर एमए वाजेद से उनका विवाह हुआ। इस बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। 1973 में ढाका विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक किया। राजनीतिक सूझबूझ व सक्रियता उन्हें विरासत में मिली थी। कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति में वे खूब सक्रिय रहीं। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। 1971 में बांग्लादेश के गठन के बाद राजनीति में उनकी भागीदारी काफी कम रही। समझा जा रहा था कि उनके भाई शेख कमल ही पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। पं्रह अगस्त, 1975 को एक सैन्य व्रिोह में शेख मुजीबुर्रहमान सहित हसीना के तीनों भाइयों और मां की हत्या कर दी गई। तब हसीना और उनकी बहन पश्चिमी जर्मनी में छुट्टियां मना रही थीं। बांग्लादेश की तत्कालीन सरकार ने देश में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। पहले ब्रिटेन में और फिर भारत में उन्होंने निर्वासित जीवन बिताया। इस बीच वे अवामी लीग की मजबूती के लिए काम करती रहीं। सत्रह मई, 1981 को उन्हें बांग्लादेश लौटने की अनुमति मिली। तब देश में सैन्य शासन ही था।
लंबे समय के सैन्य शासन के बाद वर्ष 1991 में वहां पहली लोकतांत्रिक चुनाव हुए। लेकिन हसीना की पार्टी दूसरे नंबर पर रही। बांग्लादेश नेशनललिस्ट पार्टी पहले नंबर पर रही और उसकी नेता खालिदा जिया देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। हसीना ने बीएनपी पर चुनाव में धांधली का आरोप लगाया। उन्होंने अगला चुनाव केयर टेकर गवर्नमेंट की देखरेख में करवाने और इसके लिए संविधान में प्रावधान करने की मांग रखी। काफी विरोध के बाद बीएनपी सरकार ने संविधान में केयर टेकर गवर्नमेंट का प्रावधान किया। उसी साल जून में न्यायाधीश हबीबुर्रहमान केयर टेकर गवर्नमेंट के मुखिया बने। उनके नेतृत्व में चुनाव हुए। 299 सदस्यीय संसद में अवामी लीग को 146 सीट मिली। कुछ अन्य दलों के सहयोग से उसकी सरकार बन गई और हसीना प्रधानमंत्री बनीं।
अपने इस कार्यकाल के दौरान हसीना ने कई महत्वपूर्ण काम किए। उनकी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि भारत के साथ फरक्का बांध समझौता रही। इसके बाद उन्होंने देश के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में जनजातीय व्रिोहियों के साथ शांति समझौता किया, जिससे व्रिोही गतिविधियों में कुछ हद तक कमी आई। गरीबों को छत मुहैया कराने के लिए उन्होंने ‘आश्रयणज् योजना शुरू की।
इस बीच उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा देने के आरोप भी लगे। विपक्ष ने इन मुद्दों को खूब भुनाया। शायद यही वजह रही कि वर्ष 2001 में जब चुनाव हुए तो अवामी लीग केवल 62 सीटों पर सिमट गई, जबकि बीएनपी के नेतृत्व में चार दलों के गठबंधन को दो-तिहाई बहुमत मिला। वर्ष 2007 में बांग्लादेश में परिस्थतियां बदलीं, वहां आपातकाल लगा दिया गया और चुनाव स्थगित कर दिए गए। तब हसीना अमेरिका में थीं। अंतरिम सरकार ने उनके देश लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन सरकारी विरोध के बावजूद सात मई, 2007 को वह बांग्लादेश आईं। हजारों समर्थकों ने हवाई अड्डे पर उनका स्वागत किया। पुलिस ने उन्हें घर में ही नजरबंद कर दिया। इस बीच नवंबर, 2008 में वहां चुनाव हुए, जिसमें अवामी लीग को 230 सीटें मिली और हसीना एकबार फिर प्रधानमंत्री बनीं।
शेख हसीना ने छह साल भारत में भी गुजारे। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और उनके परिवार में काफी घनिष्ठता है। प्रणव दा की पत्नी उनकी बेहद करीबी मित्र हैं। खास मौकों पर वे अब भी फोन करने से नहीं चूकतीं, जबकि प्रणव मुखर्जी उनसे कहते हैं कि अब आप प्रधानमंत्री हैं और प्रोटोकॉल भी कोई चीज होती है। जवाब में उनका कहना होता है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रणव दा आप हैं।

जुमा जुमा पांच

जकब जुमा अजब शख्सियत के मालिक हैं। वे दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति हैं। उनके जीवन की अनेक रंगते हैं। वे जुझारू हैं, पर बेहद विवादास्पद। वे संजीदा राजनेता हैं, पर बेहद रोमांटिक। वे लोकप्रिय हैं, पर बदनामी पीछा नहीं छोड़ती। वे साम्यवादी-समाजवादी समझ रखते हैं, पर निजी जिंदगी में सामंतवाद छाया हुआ है। अभी उन्होंने पांचवीं शादी रचाई है।


सार्वजनिक जीवन में बेहद जुझारू तो निजी जीवन में बेहद रोमांटिक। कई मामलों में बेहद विवादास्पद भी। ये हैं दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जकब जुमा। कभी उप-राष्ट्रपति रह चुके जुमा पर सत्ता में रहते हुए भ्रष्टाचार, जबरन वसूली सहित बलात्कार जसे संगीन आरोप भी लगे। अदालतों में सुनवाई हुई। मीडिया में मामला उछला। लेकिन जनता और कार्यकर्ताओं के बीच लोकप्रियता कम न हुई।
हाल ही में उन्होंने पांचवीं शादी रचाकर सनसनी मचा दी। उन्हें इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। वे बड़ी साफगोई से कहते हैं कि अन्य राजनेता भी घर के बाहर दूसरी औरतों से लुके-छिपे संबंध रखते हैं। मैंने यह खुलेआम किया और ब्याह रचाया, तो इस पर ऐतजराज क्यों? और फिर, एक के सिवा किसी को छोड़ा भी तो नहीं। सब साथ में हैं। यहां बता दें कि उनकी पहली पत्नी का देहांत हो चुका है, जबकि एक से तलाक हो चुका है। शेष तीन पत्नियां अब भी उनके साथ हैं। तीनों की अलग-अलग क्षेत्रों में रुचि है और इसमें उन्हें महारत भी हासिल है।
सड़सठ वर्षीय जुमा की हर शादी के बाद उनकी पत्नियों में तनाव की स्वाभाविक खबर उड़ी। हर बार यह सवाल पैदा हुआ कि अब देश की प्रथम महिला का दर्जा किसे हासिल होगा? कौन राष्ट्रपति की आधिकारिक यात्राओं में उनके साथ होंगी। इस बार भी यह सवाल बरकरार था। लेकिन राष्ट्रपति भवन ने साफ कर दिया कि जुमा की नई शादी को लेकर उनकी पत्नियों में कोई मतभेद नहीं है। सभी उसी तरह मिलजुलकर रहेंगी, जसे कभी राजे-रजवाड़े के दिनों में महाराजों की कई पत्नियां साथ रहा करती थीं। इन पांच औपचारिक शादियों के अलावा भी जुमा के कई महिलाओं से अंतरंग संबंध रहे हैं। अब भी हैं। जुमा की एक अन्य मंगेतर हैं, जिनसे आने वाले दिनों में वे शादी रचा सकते हैं।
बारह अप्रैल, 1942 को दक्षिण अफ्रीका के कवाजुलू नटल प्रांत में जन्मे जुमा के शुरुआती जीवन की बात की जाए तो वह बेहद अभाव में गुजरा। पिता पुलिस में थे। लेकिन बचपन में ही बेटे के सिर से पिता का साया उठ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के आखिर में उनकी मौत हो गई। मां ने डरबन के घरों में छोटा-मोटा काम कर बेटे का पालन-पोषण किया। मां को सहयोग देने के लिए केवल पं्रह वर्ष की उम्र से जुमा ने भी काम शुरू कर दिया, जिसके बाद पढ़ाई-लिखाई बहुत पीछे छूट गई। जुमा ने केवल तीसरी तक पढ़ाई की। उसमें भी वे अच्छा नहीं कर पाए। पांचवीं ग्रेड में जसे-तैसे उन्होंने परीक्षा पास की। इस तरह जुमा का बचपन डरबन और जुलूलैंड के बीच आते-जाते बीता।
इस बीच वे कई ट्रेड यूनियनों के संपर्क में आए, जिसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इनके आदर्शो और सोच ने ही उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। केवल सत्रह साल की उम्र में 1959 में वे अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) से जुड़ गए। हालांकि अगले ही साल इस पर प्रतिबंध लग गया, जिसके बाद 1963 में जुमा दक्षिण अफ्रीकन कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में भी वे अधिक दिनों तक काम नहीं कर सके। सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश के आरोप में 45 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें जुमा भी शामिल थे। नेल्सन मंडेला सहित एएनसी के अन्य लोकप्रिय नेताओं के साथ उन्होंने दस साल जेल में गुजारे।
जेल से निकलने के बाद उन्होंने एक बार फिर एएनसी को खड़ा करने की कोशिश की। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका छोड़ दिया और स्वाजिलैंड व मोजाम्बिक में निर्वासित जीवन बिताया। वहां वे एएनसी की मजबूती के लिए काम करते रहे। फरवरी 1990 में जब पार्टी पर से प्रतिबंध खत्म हुआ तो स्वदेश लौटने वालों में जुमा पहले नेता थे। तब तक जुमा सर्वप्रिय नेता बन चुके थे। 1999 से 2005 के बीच वे दक्षिण अफ्रीका के उप राष्ट्रपति भी रहे। इस बीच भ्रष्टाचार, जबरन वसूली सहित बलात्कार के संगीन आरोप भी उन पर लगे, जिसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति थाबो म्बेकी ने उन्हें अपने पद से हटा दिया। लेकिन इससे न तो उनकी लोकप्रियता में कमी आई और न ही समर्थकों ने उनका साथ छोड़ा। दिसंबर 2007 में म्बेकी को हराकर वे पार्टी के अध्यक्ष बने। सितंबर 2008 में एनएनसी ने म्बेकी को वापस बुला लिया और साफ कर दिया कि अगले साल होने वाले आम चुनाव के बाद पार्टी जीती तो राष्ट्रपति जुमा ही होंगे। मई 2009 के आम चुनाव में उनकी पार्टी भारी बहुमत से जीतकर आई और वे राष्ट्रपति बन गए। जुमा की आर्थिक नीतियां काफी हद तक समाजवाद के करीब प्रतीत होती हैं। एक ओर उन्होंने निवेशकों को उनके हितों की सुरक्षा का आश्वासन दिया तो दूसरी ओर वंचितों के बीच संपत्तियों के पुनर्वितरण पर भी जोर दिया।
एक लोकप्रिय व जुझारू नेता से अलग जुमा की छवि काफी विवादास्पद भी रही है। उन्होंने कई बार ऐसे बयान दिए और ऐसा काम किया, जिससे वे सुर्खियों में रहे। उन्होंने यह कहते हुए धार्मिक समूमहों को नाराज कर दिया कि जीसस ने एएनसी को दक्षिण अफ्रीका में शासन करने के लिए कहा है और वह तब तक शासन करती रहेगी, जब तक जीसस लौट नहीं आते। वहीं, दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले गोरों की यह कहते हुए नाराजगी मोल ले ली कि यहां रहने वाले सभी गोरे समूहों में केवल अफ्रीकन ही सही मायने में दक्षिण अफ्रीकी हैं। मीडिया से भी उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा। उन पर लगे भ्रष्टाचार व बलात्कार के आरोप को मीडिया ने प्रमुखता से उछाला, जिसने जुमा को नाराज कर दिया। लेकिन जुमा अंतत: सभी मामलों से बरी हो गए और उन्होंने कई मीडिया संगठनों पर करोड़ों में मानहानि का मुकदमा ठोक दिया। समान लिंगी विवाह को ईश्वर और देश दोनों के लिए शर्मनाक बताते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया कि यदि उनके सामने कोई लेस्बियन या होमो आ जाए तो वे उन्हें धक्का देकर भगा देंगे। हालांकि इस बयान के व्यापक विरोध के बाद उन्होंने माफी भी मांगी और देश के विकास में ऐसे लोगों के योगदान को भी स्वीकार किया। उधर, पश्चिमी सहारा की स्वतंत्रता का समर्थन करने पर उन्हें मोरक्को के राजदूत की आलोचना भी ङोलनी पड़ी।

एक गुरूजी, सब चेला

शिबू सोरेन की क्या-क्या फजीहत नहीं हुई, पर उनकी राजनीति लुहार की एक चोट की तरह सब पर भारी पड़ी। झारखंड चुनाव में उनके जनाधार वाले नेता की छवि फिर सामने आई। वहीं, उनकी हुनर व फायदेमंद राजनीति को भी उजागर किया। यूपीए से एनडीए के संग जाते उन्हें देर नहीं लगी और वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए।


शिबू सोरेन, झारखंड के नए मुख्यमंत्री। समर्थकों के बीच गुरूजी के नाम से मशहूर सोरेन राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। राज्य गठन के नौ वर्षो में वहां सात बार सरकार बनी, जिसमें सोरेन ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ व दांव-पेंच का इस्तेमाल करते हुए तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। हालांकि पिछली दो बार का उनका कार्यकाल काफी छोटा रहा। पहला 2005 में सिर्फ नौ दिन का, जब विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उनकी सरकार गिर गई और दूसरा अगस्त 2008 से जनवरी 2009 के बीच करीब चार माह का, जब तमार विधानसभा सीट से उपचुनाव हार जाने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
हजारीबाग जिले के नेरमा गांव में ग्यारह जनवरी 1944 को जन्मे सोरेन की छवि जूझारू व विवादास्पद नेता की रही है। जमींदारों और ‘बाहरियोंज् के खिलाफ आंदोलन छेड़कर आदिवासियों के बीच वे हीरो बन बैठे, तो 1991 में कें्र की नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए वोटोंे की खरीद-फरोख्त मामले में उनकी मिलीभगत ने उन्हें एक अवसरवादी नेता के रूप में पेश किया। चिरुडीह नरसंहार और अपने निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या के मामले में अदालती फैसले ने उनके आपराधिक चेहरे को भी उजागर किया।
सोरेन ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1970 के दशक के शुरुआती दिनों में एक जूझारू आदिवासी नेता के रूप में की, जिसने साहूकारों द्वारा भोले-भाले व मासूम आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। आंदोलन की आग उनके भीतर तब जगी, जब साहूकारों के लोगों ने कथित रूप से उनके पिता की हत्या कर दी। इस घटना ने उन्हें साहूकारों के खिलाफ खड़ा कर दिया। पिता की कथित हत्या के बाद सोरेन ने पढ़ाई छोड़ दी। तब उनकी उम्र केवल 18 साल थी। उन्होंने संथाल नवयुवक संघ का गठन किया और साहूकारों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। वे लोग उनसे खौफ खाने लगे, जो जरूरतमंद आदिवासियों को ऊंची दरों पर ण दिया करते थे और जबरन उसकी वसूली भी करते थे। इस बीच गैर-आदिवासियों को उन्होंने ‘बाहरियोंज् के रूप में परिभाषित किया और उनके खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा।
जगह-जगह ‘बाहरियोंज् को निशाना बनाया गया। 23 जनवरी, 1975 को जामतारा जिले के चिरुडीह गांव में कुछ हथियारबंद आदिवासियों ने एक बस्ती पर हमला कर दिया, जिसमें 11 लोग मारे गए। आदिवासियों ने जहरीले तीर-कमान से हमला किया, जो बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा का चुनाव चिह्न् बना। इस मामले में 68 लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया, जिसमें सोरेन का नाम भी शामिल था। कहा गया कि वे भी हलावरों की भीड़ का हिस्सा थे। लेकिन जामताड़ा की अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। बस फिर क्या था? आदिवासियों के बीच वे भगवान बन बैठे।
साहूकारों के खिलाफ लंबी लड़ाई के बाद उन्होंने राजनीति की ओर रुख किया। 1977 में वे पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। हालांकि 1980 में उन्होंने लोकसभा चुनाव जीत लिया। इसके बाद 1989, 1991 और 1996 में वे लगातार लोकसभा चुनाव जीतते रहे। जीत का यह सिलसिला 1998 और 1999 के आम चुनाव में जारी नहीं रह सका। साल 2002 में भाजपा के सहयोग से वे राज्यसभा के लिए चुने गए। बाद में उसी साल दुमका लोकसभा सीट से उन्होंने उपचुनाव जीता। 2004 के आम चुनाव में भी वे जीते और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी कें्र की संयुक्त प्रगतिशील सरकार में कोयला मंत्री बने। लेकिन चिरुडीह नरसंहार मामले में वारंट जारी होने के बाद 24 जुलाई 2004 को उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। करीब एक माह की न्यायिक हिरासत के बाद वे जमानत पाने में कामयाब रहे, जिसके बाद उसी साल 27 नवंबर को उन्हें फिर कें्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। लेकिन फरवरी-मार्च 2005 में झारखंड विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने प्रदेश का रुख किया और मुख्यमंत्री बने। हालांकि विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उनकी सरकार गिर गई। वर्ष 2006 में उन्हें फिर कें्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया।
इस बीच 5 दिसंबर 2006 को दिल्ली की एक अदालत ने अपने निजी सचिव की हत्या के 12 साल पुराने मामले में उन्हें दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी मंत्री के खिलाफ ऐसी सजा सुनाई गई। सीबीआई पर भी कें्र के प्रभाव से मामले को कमजोर करने का आरोप लगा। अदालत ने साफ कहा कि अभियोजन पक्ष जानबूझकर कमजोर सबूत पेश कर रहा है। अदालत के इस फैसले के बाद उन्हें फिर कें्रीय मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया। लेकिन 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को बदल दिया। सोरेन मामले से बरी हो गए। बदली परिस्थितियों में 27 अगस्त 2008 को वे दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। इस बार बहुमत उनके साथ था। लेकिन अपने पद पर बने रहने के लिए छह माह के भीतर उन्हें विधानसभा की सदस्यता लेनी थी, जिसमें वे नाकाम रहे।
इस बार चुनाव में उनकी पार्टी फिर जीती। नतीजे का अंकगणित उनके साथ था। उनके बिना किसी की सरकार नहीं बन सकती थी। यूपीए के घटक रहे गुरूजी को सरकार बनाने के लिए एनडीए का सहयोग लेने में कोई हर्ज नहीं दिखा। इसने साबित किया कि न सिर्फ जनता में उनकी पैठ है, बल्कि वे राजनीति के ऐसे चतुर सुजान हैं, जो जानते हैं कि कब किस करवट होना फायदेमंद होगा।

भागवत प्रसाद गडकारी

नितिन गडकरी ठेठ संघ की पसंद वाले अध्यक्ष हैं। वे उन चार-पांच से बाहर के हैं, संघ प्रमुख भागवत जिनकी पतंग पहले ही काट चुके थे। युवा और कर्मठ होना उनकी सबसे बड़ी संपदा बताई जा रही है, लेकिन दिल्ली की राजनीति आसान नहीं है। बड़े-बड़े दिग्गजों के बीच उनका कितना जोर चलेगा, यह समय बताएगा। लेकिन एक बात तय है उन्हें संघ का मुंह जोहते रहना पड़ेगा।

हाल ही में हुए सांगठनिक फेरबदल में भाजपा को एक नया व युवा चेहरा दिया गया। नितिन गडकरी (52) के रूप में पार्टी को नया अध्यक्ष मिला, जो भाजपा के अब तक के सबसे युवा अध्यक्ष हैं। गडकरी ‘वेंटिलेटरज् पर चल रही भाजपा को स्वस्थ व जिताऊ बनाने में कहां तक कामयाब होंगे, यह तो आनेवाला समय बताएगा, पर इतना तो तय है कि भाजपा में आमूल-चूल परिवर्तन की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चाह पूरी हो गई है और अब पार्टी में संघ का दखल बढ़ेगा।
गडकरी संघ प्रमुख मोहन भागवत के करीबी और उनकी पसंद माने जाते हैं। इस साल सितंबर से ही पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनके नाम की चर्चा थी। लोकसभा चुनाव में हार के बाद संघ प्रमुख भागवत कई बार पार्टी संगठन में रद्दो-बदल की आवश्यकता जता चुके थे। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि ये भाजपा का अंदरूनी मामला है और संघ इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करने जा रहा। लेकिन भाजपा में संघ का दखल व प्रभाव सर्वविदित है। इसलिए अटकलें लगाई जा रही थीं कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में जो भी कार्यभार संभालेगा, वह संघ का करीबी होगा। यह भी कहा गया कि वह दिल्ली से बाहर का नेता होगा। गडकरी की नियुक्ति से ये अटकलें सही साबित हुई हैं। उनकी साफ-सुथरी छवि ने भी अध्यक्ष पद के लिए उन्हें एक योग्य उम्मीदवार बनाया।
गडकरी महाराष्ट्र के नागपुर जिले से संबंध रखते हैं, जो संघ प्रमुख भागवत का कार्यक्षेत्र रहा है। उनका जन्म सत्ताइस मई, 1957 को नागपुर के देशास्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजनीतिक पारी की शुरुआत उन्होंने भाजपा के युवा मोर्चा और इसकी छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के साथ की। इस बीच उनकी पढ़ाई भी जारी रही। उन्होंने महाराष्ट्र से ही एमकॉम, एलएलबी और डीबीएम की पढ़ाई की।
पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से पहले 2004-2009 के बीच उन्होंने महाराष्ट्र भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवा दी। हालांकि उनके नेतृत्व में भाजपा हाल का विधानसभा चुनाव हार गई, लेकिन इससे उनके राजनीतिक भविष्य पर किसी तरह का संकट नहीं छाया, जसा कि राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया और उत्तरांचल में बीसी खंडूरी के साथ हुआ, बल्कि अध्यक्ष बनाकर एक तरह से उन्हें इनाम दिया गया। संभवत: यहां ‘हारने वाला ही जीतने वाला होता हैज् का फॉर्मूला अपनाया गया।
इससे पहले 1995 से 1999 के बीच वह महराष्ट्र की भाजपा-शिवसेना सरकार में मंत्री भी रहे। लोक कल्याण मंत्री के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किए। इस दौरान उनकी कार्यप्रणाली से प्रतीत होता है कि वे आधुनिक तकनीक के हिमायती हैं। उन्होंने विभाग में आमूल-चूल बदलाव किए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तर्ज पर विभागीय कर्मचारियों के लिए नियम लागू किए। निर्माण कार्यो में गुणवत्ता लाने के लिए उन्होंने अंतराष्ट्रीय स्तर की तकनीक अपनाने पर जोर दिया और इसके लिए एक समिति का भी गठन किया। उन्होंने पूरी तरह सरकार द्वारा नियंत्रित महाराष्ट्र स्टेट रोड डेवेलपमेंट कापरेरेशन (एमएसआरडीसी) का गठन किया, जिसने मुंबई में कई फ्लाईओवर बनाए। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों को सड़क मार्ग से जोड़ने को प्रमुखता दी, ताकि विकास की गाड़ी दूर-दराज के गांवों में भी पहुंच सके।
इस क्षेत्र में उनके विशेष कार्यो को देखते हुए बाद में कें्र की भाजपा सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण सड़क विकास समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया। विस्तृत अध्ययन व कई बैठकों के बाद गडकरी ने कें्र को इस बारे में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क संपर्क के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना शुरू की गई। सड़क निर्माण के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें हाइवे वाले गडकरी भी कहा जाता है। वह विदर्भ आंदोलन के भी हिमायती रहे हैं।
गडकरी की पहचान केवल राजनेता के रूप में नहीं रही है, बल्कि उद्योगपति और कृषिविज्ञ के रूप में भी रही है। वह कई कंपनियों के संस्थापक व अध्यक्ष रहे हैं। वहीं, कृषि के क्षेत्र में आधुनिक तकनीक अपनाने पर उन्होंने जोर दिया, तो सौर ऊर्जा, जल प्रबंधन के क्षेत्र में भी कई परियोजनाएं लागू की। हाल में उन्होंने कई देशों के साथ फलों का निर्यात शुरू किया है।
हालांकि गडकरी के साथ ये उपलब्धियां हैं, लेकिन अध्यक्ष के रूप में उनके सामने कहीं अधिक चुनौतियां हैं। महाराष्ट्र सरकार के मंत्री और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में अब तक उनका कार्यक्षेत्र मुख्यत: मुंबई और नागपुर तक ही सिमटा रहा। लेकिन अब उनकी जिम्मेदारी देशव्यापी हो गई है। पार्टी को एकबार फिर से खड़ा करना, खासकर उत्तर भारत के कई प्रमुख राज्यों में, आसान नहीं होगा। इसके अलावा, वे भाजपा का कोई राष्ट्रीय चेहरा नहीं हैं और न ही राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं। फिर, पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई है। ऐसे में उन्हें इन नेताओं का असंतोष व असहयोग ङोलना पड़ सकता है। अब तक उन्होंने कोई विधानसभा या लोकसभा चुनाव नहीं जीता है, यह बात भी उनके खिलाफ जा सकती है। इसलिए कदम-कदम पर उन्हें संघ के सहयोग व समर्थन की आवश्यकता होगी।