मंगलवार, 14 सितंबर 2010

एक संत की याद

हर साल ग्यारह सितंबर की तारीख अब 9/11 के रूप में याद की जाने लगी है, जब 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और सुरक्षा कार्यालय पेंटागन को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था। लेकिन हमारे लिए इसका एक और महत्व है, जिसकी स्मृति लगभग क्षीण होती जा रही है। यह आचार्य विनोबा भावे की जयंती का भी दिन है। भारतीय समाज, राजनीति में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण रहा है। 9/11 के संदर्भ में भी देखें तो उनकी दृष्टि सत्य, प्रेम, करुणा की थी। वे हृदय परिवर्तन करके बदलाव लाना चाहते थे। आज भी जमीन की समस्या देश की बड़ी समस्या है और उसके लिए बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं। बाबा ने इसका हल भी भूदान आंदोलन में ढूंढा था और दान के जरिए लाखों एकड़ भूमि प्राप्त की थी। आज न विनोबा हैं, न भूदान और न सर्वोदय। समस्याएं जहां की तहां हैं। विनोबा-विचार की प्रासंगिकता पर मैंने बात की गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े एसएन सुब्बाराव से, जो आज भी देशभर में गांधी के विचारों के प्रसार में जुटे हैं और युवाओं को जागरूक बनाने के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। उनके विचारों की प्रासंगिकता पर मैंने वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से भी बातचीत की। यहां उनके विचारों पर आधारित दो लेख प्रस्तुत हैं।



आज भी उपयोगी यह विचार




(गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े एसएन सुब्बाराव से बातचीत पर आधारित)


किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले, सर्वोदय आंदोलन के साथ यह नहीं हो सका।



विनोबा मूलत: आध्यात्मिक व्यक्ति थे और इसी रूप में वे सभी समस्याओं का समाधान तलाशते थे। नेता बनने की इच्छा उनमें नहीं थी। वे सभी को समान रूप से देखते थे और एक आध्यात्मिक जीवन बिताना चाहते थे। यह भी सच है कि वे घर से मुक्ति की तलाश में निकले थे, लेकिन गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। वे उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग छोड़ दिया और सामाजिक जीवन में उतर आए। फिर आजादी के आंदोलन से लेकर एक नए समाज की रचना तक के गांधी के कार्यक्रम में वे हर जगह उनके साथ रहे। लेकिन 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या के बाद हालात बदल गए। एकाएक हुई इस वारदात ने लोगों को सकते में डाल दिया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अब उन सपनों को कैसे पूरा किया जाएगा, जो गांधी जी ने आजाद भारत की जनता के लिए देखे थे। कैसे एक नए समाज की रचना हो, जिसमें हर व्यक्ति का कल्याण हो। ऐसे में सबको विनोबा में उम्मीद की किरण दिखी। गांधी के रूप में देश का जो नेतृत्व एकाएक खो गया, वह विनोबा के रूप में दिखा। लोग उनके निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। विनोबा ने भी महसूस किया कि सर्वजन के हित में जिस समाज की संकल्पना गांधी ने की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यूं हाथ पर हाथ धरे रहने से बात नहीं बनेगी। उन्होंने गांधी के सपने को साकार करने के लिए लोगों का आह्वान किया और कहा कि देश ने आजादी तो हासिल कर ली, अब हमारा लक्ष्य एक ऐसे समाज की रचना करना होना चाहिए, जिसमें सबका कल्याण सुनिश्चित हो सके।

गांधी ने ऐसे ही कार्यो के लिए सेवा ग्राम आश्रम की स्थापना की थी और आजादी के बाद फरवरी, 1948 में शीर्ष नेतृत्व को इस पर विचार-विमर्श करने व कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने के लिए आश्रम बुलाया कि सर्वोदय यानी सबका उदय, सबका कल्याण कैसे हो? लेकिन इससे पहले ही उनकी हत्या हो गई और देश के सामने एक बड़ा शून्य आ गया। बहरहाल, तत्कालीन नेतृत्व ने मार्च में यह बैठक बुलाई। गांधी के सपनों को साकार करने के लिए सर्व सेवा संघ का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य समाज में सभी की सेवा करना था। अब तक विनोबा के मन में भू-आंदोलन जसी कोई संकल्पना नहीं थी। लेकिन देशभर का भ्रमण करने के बाद उन्हें इस बात का भान हो चला था कि समाज दो भागों में बंटा है, एक भूमिहीन लोगों का तबका और एक भू-स्वामियों का वर्ग। भूमिहीन लोगों की एक बड़ी संख्या है, जबकि मुट्ठीभर लोगों के पास अवश्यकता से अधिक भूमि है।

अपनी पदयात्रा के दौरान जब वे आंध्र प्रदेश के तेलंगाना पहुंचे तो वहां जमीन के टुकड़े के लिए लोगों को लड़ते देखा। भूमिहीन भू-स्वामियों से जमीन छीनने के लिए छापामार युद्ध चला रहे थे तो उन्हें काबू में करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गई थी। भूमिहीनों से उन्होंने हिंसा छोड़ने की अपील की तो उन्होंने अपने लिए जमीन की मांग की। खुद विनोबा को भी उस वक्त नहीं पता था कि वे इनकी समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? इसी उधेड़बुन के बीच उन्होंने ग्रामीणों की सभा बुलाई और लोगों के सामने उनकी समस्याएं रखी। तब स्वयं विनोबा को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई उनकी समस्याओं के समाधान के लिए इस तरह आगे आएगा। सभा में से एक व्यक्ति ने सौ एकड़ जमीन देने की पेशकश की। यहीं से विनोबा को मिल गया भूमिहीनों की समस्या का समाधान। देशभर में पदयात्रा कर वे और उनके अनुयायी भू-स्वामियों को भूमिहीनों के लिए जमीन का एक टुकड़ा देने के लिए प्रेरित करते रहे। स्वयं विनोबा ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद देशभर में लगभग छह हजार किलोमीटर तक पदयात्रा की। उनके प्रयास से देशभर में भू-स्वामियों द्वारा दान की गई लाखों एकड़ जमीन एकत्र की गई और इन्हें भूमिहीनों के बीच बांटा गया।

हां, यह सच है कि जमा की गई भूमि एक हिस्सा भूमिहीनों के बीच बंट नहीं पाया। लेकिन इसके लिए विनोबा और उनके अनुयायियों को दोष देना ठीक नहीं है। इसके लिए काफी हद तक सरकार भी जिम्मेदार है, जो जमीन का सही वितरण सुनिश्चित नहीं कर पाई। जहां तक सर्वोदय आंदोलन की प्रासंगिकता की बात है तो सिर्फ इस आधार पर इसे अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता कि विनोबा द्वारा चलाई गई यह मुहिम आगे चलकर विफल हो गई। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले। सर्वोदय आंदोलन के साथ ऐसा नहीं हो पाया। वरना इसके विचार और अवधारणा आज भी प्रासंगिक है। आवश्यकता है तो उसे सही तरीके से समझने और उस दिशा में प्रयास करने की।

आज भी देश में भूमिहीनों की एक बड़ी तादाद है। नक्सल समस्या इसकी एक बड़ी वजह है। कभी विनोबा ने कहा था कि हर बेरोजगार हाथ बंदूक पाने का हकदार है। अगर उन्हें रोजगार मिले तो वे भला बंदूक क्यों उठाएंगे? आज सरकार नक्सल समस्या से निपटने के लिए तरह-तरह की कार्य योजनाएं बना रही और उस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन यह समस्या ही न हो, इसके लिए कोई कार्य योजना नहीं बना रही। अगर योजना बन भी रही है तो उन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा रहा। विकास कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण जसी समस्या का समाधान भी विनोबा के सिद्धांतों में ढूंढा जा सकता है। विशेष आर्थिक क्षेत्र या अन्य विकासात्मक कार्यो के मद्देनजर अगर किसानों को स्वेच्छा से जमीन देने के लिए प्रेरित किया जाए तो देशभर में जमीनों के अधिग्रहण के लिए हो रहा विरोध रोका जा सकता है।

सर्वोदय नहीं, भूदान विफल

(वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित)

बाबा ने जो भूदान यज्ञ शुरू किया वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्साभर था, पूरा सर्वोदय नहीं।

सर्वोदय को लेकर विनोबा भावे के योगदान को जानने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि उन्होंने जिस सर्वोदय आंदोलन को 1950 व 1960 के दशक में आगे बढ़ाया, वह महात्मा गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत की सोच से प्रेरित था। गांधी एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें वे सभी व्यक्ति का उत्थान एवं कल्याण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई साधन सुझाए थे। भू-दान व ग्राम-दान उन्हीं में से एक था, जिसे लेकर विनोबा ने समाज को सुधारने की कवायद शुरू की। लेकिन 1950-60 के दशक के बाद इस आंदोलन का कोई नामलेवा नहीं रह गया। इसकी कई वजह थी। पहली तो यह कि जिस आंदोलन की शुरुआत विनोबा ने की, उससे आगे चलकर उन्होंने स्वयं ही अपने आप को अलग कर लिया। आंदोलन की विफलता का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि विनोबा ने जिस भू-दान या ग्राम-दान योजना की शुरुआत की, वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्सामात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं।

यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि विनोबा अपने घर से ‘मुक्तिज् की तलाश में निकले थे, न कि किसी सामाजिक आंदोलन की मुहिम के तहत। इसी बीच, 1915-16 में वे गांधी के संपर्क में आए और उनके विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने ‘मुक्तिज् का मार्ग छोड़ दिया। वे सार्वजनिक जीवन में उतर आए। गांधी की हत्या के बाद उन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन 1960 के दशक में भू-दान आंदोलन के सिलसिले में कोलकाता जाने के बाद उनका आध्यात्मिक मन एकबार फिर जागृत हुआ और उन्होंने गांधी से माफी मांगते हुए सार्वजनिक जीवन से किनारा कर लिया।

बहरहाल, विनोबा ने भू-दान व ग्राम-दान का जो आंदोलन चलाया, भूमि सुधार के संदर्भ में आज भी उसकी प्रासंगिकता है। जमीन की समस्या वास्तव में हिन्दुस्तान की समस्या है, जिसका दूसरा नाम कृषि है। 1947 में आजादी से लेकर अब तक किसी सरकार या राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि देश कृषि प्रधान नहीं है। कृषि को यहां जीवन शैली माना गया और सरकारों की यह जिम्मेदारी तय की गई कि वह इसे सुरक्षित रखे। विनोबा के भू-दान आंदोलन ने भी इसी मुद्दे को उठाया। आगे चलकर यह योजना ग्राम-दान के रूप में तब्दील हुई। गांव को एक इकाई के रूप में देखा गया और कहा गया कि कृषि से संबंधित जो भी समस्या हो या इसके विकास की बात हो, पूरे गांव के संदर्भ में हो। आज की कृषि समस्या के संदर्भ में भी यह पूरी तरह प्रासंगिक है। इस सिद्धांत या रणनीति के तहत गांवों की रचना से देश की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। गांवों को एक इकाई मानकर सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी यह फॉर्मूला प्रासंगिक है।

जहां तक मौजूदा समाज की समस्याओं की बात है तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार है, जिसने नीतियां तो बहुत बनाई, लेकिन उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। कृषि व भूमि की समस्या भी उन्हीं में से एक है। सरकार ने भूमि सुधार को लेकर भी नीतियां बनाई, लेकिन उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। आज औद्योगिक विकास के लिए भूमि अधिग्रहण और देशभर में उसका विरोध इसी का परिणाम है। इसलिए यह कहना गलत है कि सर्वोदय के सिद्धांतों की आज उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1950-60 के दशक में था। जरूरत है तो उन्हें सही तरीके से अमल में लाने की।

इसके लिए बेहतर वातावरण पंचायती व्यवस्था में हो सकता है। लेकिन मौजूदा पंचायती व्यवस्था में नहीं। बल्कि उस पंचायती व्यवस्था में, जहां शक्तियां नीचे से ऊपर तक जाती हों, न कि ऊपर से नीचे आती हों। मौजूदा व्यवस्था में पंचायतों को जो भी शक्तियां मिली हुई हैं, उनका स्रोत कें्र है। यानी कें्र से राज्य सरकारों को और फिर राज्य सरकारों से पंचायतों को शक्तियां मिलती हैं। ऐसे में पंचायतों के कार्य व निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है और सत्ता के समुचित विकें्रीकरण का जो सपना महात्मा गांधी ने देखा था, वह पूरा नहीं हो पाता।

अब अगर विनोबा द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन की विफलता की बात की जाए तो सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विनोबा द्वारा शुरू किया आंदोलन वास्तव में सर्वोदय आंदोलन था ही नहीं। यह भूमि सुधार आंदोलन था, जो भू-दान आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ। यह सर्वोदय का एक हिस्सामात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं। फिर गांधी ने जिस सर्वोदय का विचार दिया था, वह समाज सुधार की बात नहीं करता, बल्कि इसके समानांतर एक नए समाज के निर्माण की बात करता है; जबकि विनोबा ने सर्वोदय के लिए आवश्यक एक सिद्धांत को अमल में लाकर सामाजिक सुधार की कवायद शुरू की थी। इसलिए यहां गांधी के सर्वोदय का सिद्धांत विफल नहीं हुआ, बल्कि भू-दान आंदोलन विफल हो गया। आंदोलन की विफलता का एक अहम कारण यह भी है कि विनोबा ने आगे चलकर इससे खुद को अलग कर लिया और इसमें सरकार को शामिल कर लिया। भूमि सुधार को लेकर कानून बनाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपकर आंदोलनकारियों ने सरकार के समक्ष लगभग घुटने टेक दिए।

विनोबा ने ‘सभय भूमि गोपाल कीज् का नारा दिया था। उन्होंने जमीन पर लोगों के मालिकाना हक को स्वीकार किया, लेकिन इसका इस्तेमाल समाज द्वारा करने की बात कही। पूंजीवादी एवं समाजवादी व्यवस्था से अलग उन्होंने ट्रस्टीशिप व्यवस्था में यकीन जताया और हृदय परिवर्तन के माध्यम से भूमि सुधार लागू करने की कवायद शुरू की। लेकिन आंदोलनकारियों द्वारा सरकार के समक्ष घुटने टेकने के बाद सब वहीं समाप्त हो गया। हालांकि आज भी भूमि सुधार की बात उठती है। राजनीतिक दलों से लेकर विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता भी किसान हितैषी होने की बात करते हैं। औद्योगिक विकास के लिए अगर कहीं जमीन का अधिग्रहण हो रहा है और किसान उसका विरोध कर रहे हैं तो उनके साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक दलों से लेकर तमाम संगठनों के कार्यकर्ता भी आ जाते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसानों के हितैषी नहीं, बल्कि प्रबंधात्म लोग हैं।







अब पैमाना योग्यता नहीं

शिक्षा में आई गिरावट और शिक्षक एवं छात्रों के बीच मौजूदा दौर में सम्बन्ध पर दिल्ली विश्वविद्द्यालय के सेवानिवृत प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर प्रसाद सिंह से बातचीत पर आधारित आलेख.

शिक्षक दिवस सिर्फ भारत में नहीं मनाया जाता, बल्कि दुनियाभर में मनाया जाता है। हां, दुनिया के विभिन्न देशों में इसकी तिथि अलग-अलग जरूर है। हमारे यहां हर साल यह पांच सितंबर को मनाया जाता है। देश के पहले उप राष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर इसे मनाने की परंपरा है, जिनकी गिनती महान दार्शनिक व शिक्षाविदों में होती है। समाज निर्माण में शिक्षकों की अहम भूमिका अतीत काल से है। आज भी शिक्षकों की भूमिका का महत्व कम नहीं हुआ है। हां, परिस्थितियां और हालात कुछ ऐसे हो गए हैं, जिसके कारण गुरु-शिष्य संबंध परंपरागत नहीं रह गए हैं। उसमें काफी बदलाव आया है।

यह सच है कि शिक्षकों और छात्रों का संबंध पहले जसा नहीं रह गया है। छात्रों के मन में शिक्षकों के लिए पहले जसा सम्मान नहीं रह गया है और न ही अब शिक्षक छात्र हितों की बात करते हैं। शिक्षक हों या छात्र, अपने-अपने हितों की बात ही उठाते हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि शिक्षकों की जो भर्ती हो रही है, उसका एकमात्र पैमाना योग्यता नहीं रह गया है। शिक्षकों की नियुक्ति अब जोड़तोड़ और तिकड़मों से होने लगी है। हालांकि सभी नियुक्तियों का आधार यही नहीं होता, लेकिन ज्यादातर भर्तियां इसी तरीके से होती हैं। ऐसे में वे लोग, जिनके पास सिर्फ योग्यता है, कहीं पीछे छूट जाते हैं। इसका असर स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई और शिक्षक-छात्र संबंध पर भी होता है। जाहिर है, जब शिक्षक ही योग्य नहीं होंगे तो वे छात्रों को कैसे उचित शिक्षा दे पाएंगे? इससे शिक्षा का स्तर तो गिरेगा ही। और अगर शिक्षक उचित शिक्षा नहीं दे रहे, तो छात्र उनका सम्मान क्यों करने लगे?

ऐसे में अगर छात्र अपनी राह और शिक्षक अपनी राह चल रहे हैं, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। हां, योग्य शिक्षकों और छात्रों के बीच संबंध आज भी बेहतर होते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि योग्य युवा शिक्षा के क्षेत्र में आना ही नहीं चाहते। इसका बड़ा कारण शिक्षकों का वेतन कम होना है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रोफेशनल्स को मोटा वेतन दे रहे हैं, वहां भला कौन युवा कम वेतन लेकर शिक्षा को अपने कॅरियर के रूप में अपनाना चाहेगा?

शिक्षा के गिरते स्तर के लिए सरकारी नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। सरकार साक्षरता दर बढ़ाने पर जोर दे रही है, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर नहीं। ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही। युवाओं का एक बड़ा वर्ग देश में शिक्षा प्राप्त करके नौकरी के लिए विदेशों का रुख कर लेता है, क्योंकि वहां उन्हें वेतन और अन्य सुविधाएं यहां से बेहतर मिलती हैं। आखिर यही चीजें उन्हें यहां क्यों नहीं दी जा सकती? मैनेजमेंट गुरू और कुकुरमुत्ते की तरह उग आए संस्थानों और इसके शिक्षकों के संबंध में केवल इतना कहा जा सकता है कि ये दुकानें हैं, वास्तविक गुरु नहीं। गुरु-शिष्य परंपरा से इनका कोई लेना-देना नहीं है।

जहां तक आज छात्राओं द्वारा शिक्षकों पर लगाए जाने वाले यौन शोषण के आरोप की बात है तो यह निश्चित रूप से चिंताजनक है। ऐसे आरोप शोधार्थी छात्राओं के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक हैं और निश्चित रूप से गुरु-शिष्य संबंध को लज्जित करते हैं। कई बार इसके लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार होते हैं। बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं, जहां छात्राएं नैतिकता को परे रखकर अपने कॅरियर को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों के आगे समर्पण कर देती हैं। लेकिन मूल रूप से इसके लिए वे नियम जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से शिक्षकों को ऐसा अधिकार मिल जाता है कि वे छात्राओं को अपने इशारे पर नचा सकें। अगर छात्राओं को यह भरोसा हो जाए कि शिक्षक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो वे कभी उनके आगे समर्पण नहीं करेंगी। इस संबंध में नियम व नीतियां बदलने की जरूरत है।

हरेराम जयराम

पहले किसी उद्योग लगाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति लेना महज औपचारिकता हुआ करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। वेदांता जसी कंपनी को उड़ीसा में बॉक्साइट खनन की अनुमति देने से पर्यावरण मंत्रालय ने मना कर दिया। इस हिसाब से देखें तो शेषन के पहले तक जो चुनाव आयोग की हैसियत हुआ करती थी, वही पर्यावरण मंत्रालय की जयराम रमेश के मंत्री बनने से पहले थी। माना जाता है कि रमेश को इस प्रकार के बड़े फैसले लेने की ताकत ऊपर से मिली है। राहुल गांधी के वे करीबी हैं, यह कोई दबी-छिपी बात नहीं है। रमेश की खास बात और भी है। वे काफी पढ़े-लिखे जहीन व्यक्ति हैं। अपनी बात खुलकर कहते हैं। इससे कई बार पार्टी और सरकार को भी बगलें झांकने पर मजबूर कर देते हैं। अपनी ही सरकार के दूसरे मंत्रालयों को भी पर्यावरण के मानकों पर कसते रहते हैं। फिर भी सबसे खास यही है कि वे एक ऐसे पर्यावरण मंत्री हैं, जिनके फैसलों से पर्यावरणवादी और प्रेमी गदगद हैं।



पर्यावरण मंत्रालय की छवि वैसी पहले कभी नहीं थी, जसी आज है। औद्योगिक इकाइयों को किसी परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय से स्वीकृति लेने में कभी कोई खास दिक्कत पेश नहीं आई। लेकिन हाल के दिनों में हालात बदले हैं। पर्यावरण मंत्रालय पहले की तुलना में अधिक सक्रिय नजर आता है और यह सब संभव हुआ है पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के कारण। हालांकि उनकी गिनती नव पूंजीवाद और उदारीकरण की नीति के समर्थकों में होती रही है। लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए हैं, जो उनकी आर्थिक विचारधारा के ठीक उलट है; चाहे वह बीटी बैंगन को कृषि जगत में नहीं उतारने का फैसला हो या निजी कंपनी वेदांता को उड़ीसा में बॉक्साइट खनन की अनुमति नहीं देने का फैसला। इन फैसलों से उन्होंने भले ही औद्योगिक घरानों को नाराज किया हो और लोग उन्हें विकास विरोधी कह रहे हों, लेकिन पर्यावरण प्रेमी उनके इन निर्णयों पर वाह-वाह कर रहे हैं।

वेदांता, जो उड़ीस के लांजीगढ़ में बड़े पैमाने पर बॉक्साइट खनन करना चाहती थी, को इसकी अनुमति न देने का आधार वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 को बनाया गया। पर्यावरण मंत्री ने दो टूक कहा कि सरकार अधिनियम की शर्तो का उल्लंघन बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगी और न ही विकास के लिए आदिवासियों के हितों से समझौता किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि इलाके की डोंगरिया कोंड जनजाति ने वेदांता की परियोजना के संदर्भ में अपने हितों को लेकर सवाल उठाए थे। जयराम रमेश के इस फैसले को कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का भी समर्थन मिला, जब उन्होंने उड़ीसा के कालाहांडी में आदिवासियों के बीच जाकर उनके हितों की बात उठाई और कहा कि वे दिल्ली में उनके सिपाही हैं उनकी बातें उठाने के लिए। उनके कुछ अन्य फैसलों को भी राहुल गांधी का समर्थन मिल चुका है, जिनमें नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना का विरोध भी शामिल है, जिसका समर्थन स्वयं देश के तकनीक प्रेमी राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और सुप्रीम कोर्ट ने भी किया था। राहुल गांधी के समर्थन से खासतौर पर कांग्रेसी खेमे में उनका पक्ष अक्सर मजबूत हुआ और उन पर उंगली उठाने वाले शांत हो गए।

लेकिन यह भी सच है कि अपने विवादास्पद बयानों से उन्होंने कई बार पार्टी और सरकार के लिए मुश्किल खड़ी की। कुछ माह पहले चीन को लेकर दिए गए उनके बयान ने भी सरकार के लिए सिरदर्दी पैदा की। उन्होंने देश के गृह व रक्षा मंत्रालय को चीन के लिए डरावना बताया और यहां तक कह दिया कि भारतीय क्षेत्र में चीनी व्यवसायियों को सरकार अक्सर संदेह की नजर से देखती है। उनके इस बयान से सरकार की खूब किरकिरी हुई। विपक्ष ने उन्हें चीन का एजेंट तक कह दिया और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस कदर नाराज हुईं कि उन्होंने जयराम से मिलने तक से इनकार कर दिया। एक अन्य समारोह में देश के शहरों को दुनिया के सबसे गंदे शहरों में शुमार करते हुए उन्होंने कहा कि यदि गंदगी के लिए नोबल पुरस्कार दिया जाए तो यह भारत को ही मिलेगा। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कंपनी से हुए गैस रिसाव के पीड़ितों को उन्होंने कंपनी परिसर में पहुंचकर और वहां से हाथ में मिट्टी उठाकर यह कहते हुए नाराज कर दिया कि देखिये, यह मेरे हाथ में है, फिर भी मैं जिंदा हूं। भोपाल में ही इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट के दीक्षांत समारोह में गाउन को उपनिवेशवाद का प्रतीक बताते हुए उन्होंने इसे उतार फेंका और सादे लिबास में डिग्री लेने और देने की वकालत की। उनका यह बयान भी सुर्खियों में रहा। खासकर छात्रों की तालियां उन्हें खूब मिली।

कोपेनहेगन में जयवायु परिवर्तन पर सम्मेलन के दौरान उनके इस बयान ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को नाराज कर दिया कि भारत चीन के बराबर कार्बन उत्सर्जन कम करेगा। हालांकि बाद में उन्होंने यह कहकर सरकार और विपक्ष की नाराजगी कम करने का प्रयास किया कि भारत कार्बन उत्सर्जन पर किसी कानूनी बाध्यता को नहीं मानेगा। इससे पहले यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री के ब्राजील दौरे से ठीक पहले उन्होंने यह कहकर विदेश मंत्रालय के लिए मुश्किल खड़ी कर दी कि आखिर ऐसे देश से व्यापार समझौते की क्या उपयोगिता है, जो हमसे काफी दूर है। उन्होंने यह कहकर नर्मदा नदी पर महेश्वर बांध के निर्माण के लिए चल रहा काम भी रोक दिया कि विस्थापित परिवारों का पुनर्वास नहीं हुआ है। फिर, सड़क एवं परिवहन मंत्री कमलनाथ के साथ उनके विरोध जगजाहिर रहे हैं। कमलनाथ अक्सर उन पर पर्यावरण क्लीयरेंस को आधार बनाकर सड़क परियोजनाओं में अड़ंगा डालने का आरोप लगाते रहे हैं। इसी तरह, कभी कोका कोला कंपनी के पर्यावरण संबंधी सलाहकार बोर्ड में शामिल रहे रमेश ने यह जानने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया कि यह पर्यावरण के लिए खतरनाक है और इससे पानी की समस्या पैदा हो सकती है।

कुल मिलाकार, उनकी कार्यशैली अक्सर मंत्रियों की तरह न होकर कार्यकर्ताओं और संगठनों की तरह रही है। यही वजह है कि मैगसाय साय पुरस्कार विजेता संदीप पांडे उनके बारे में कहते हैं कि देश को पहली बार स्वतंत्र सोच वाला पर्यावरण मंत्री मिला है या यूं कह लें कि पहली बार कोई पर्यावरणवादी मंत्री बना है। बीटी बैंगन को कृषि जगत में उतारने का फैसला लेने से पहले उन्होंने दफ्तर में बैठकर अधिकारियों से मंत्रणा करने से बेहतर देशभर का भ्रमण करना और किसानों, कृषि वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों की राय लेना समझा। परंपरा से हटकर सात शहरों- कोलकाता, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलुरु, नागपुर, चंडीगढ़- का भ्रमण करने और वहां जनसभाओं के माध्यम से लोगों का मत जानने के बाद उन्होंने फौरी तौर पर इसे कृषि जगत में उतारने पर रोक लगा दी। हालांकि कभी इसका विरोध करने वालों को उन्होंने ‘मानसिक इलाजज् की सलाह तक दे डाली थी। पर्यावरण चिंताओं का हवाला देकर उन्होंने महाराष्ट्र के नवी मुंबई में बन रहे राज्य के दूसरे हवाई अड्डे पर भी सवाल उठाए थे और कहा था कि इससे चार सौ एकड़ में फैले वन क्षेत्र व मैंग्रोव पर असर पड़ेगा, जो मुंबई के सम्रु तटों की रक्षा करते हैं। यह रमेश की आपत्ति ही थी कि नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि हवाई अड्डे के निर्माणर में पर्यावरण सुरक्षा का पूरा खयाल रखा जाएगा। अब प्रस्तावित हवाई अड्डे का दायरा कम करने से लेकर इसे दूसरी जगह स्थानांतरित करने तक पर विचार किया जा रहा है।

कर्नाटक के चिकमगलूर में नौ अप्रैल, 1954 को जन्मे रमेश तकनीक व आधुनिकीकरण के हिमायती हैं। इसकी वजह शायद उनकी शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि रही है। उनके पिता प्रो. सीके रमेश आईआईटी, बॉम्बे के सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष थे। तीसरी से पांचवीं की स्कूली शिक्षा उन्होंने रांची के सेंट जेवियर स्कूल से पूरी की। 1970 में उन्होंने आईआईटी, बॉम्बे में दाखिला लिया और वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीटेक किया। 1975-77 में उन्होंने अमेरिका के कार्नेगी यूनिवर्सिटी से प्रबंधन और लोक नीति में मास्टर डिग्री ली। पढ़ाई खत्म करने के बाद वे विश्व बैंक से जुड़े। दिसंबर, 1979 में वे भारत लौटे और यहां योजना आयोग सहित कें्र सरकार के उद्योग व आर्थिक विभाग से संबंधित विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई। वे 1991 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार भी रहे। वे राजीव गांधी के भी करीबी रहे। 1989 में जब कांग्रेस चुनाव हार हार गई थी, तो कांग्रेस के पुनर्जीवन के लिए उन्होंने राजीव गांधी के सलाहकार की भूमिका निभाई थी। आज उसी भूमिका में वे सोनिया गांधी के साथ हैं। रमेश आंध्र प्रदेश से राज्य सभा के सदस्य हैं। उनकी मातृभाषा तेलुगू है। कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम में उन्हें खासी दिलचस्पी है। वे चीन के साथ भारत के अच्छे संबंधों के पैरोकार रहे हैं।

पर्यावरण से उन्हें नौ साल की उम्र से ही प्यार है, जब उन्होंने ब्रिटिश लेखक एडवर्ड प्रिचार्ड गी की पुस्तक ‘द वाइल्ड लाइफ ऑफ इंडियाज् पढ़ी। पर्यावरण से इस विशेष लगाव की वजह से ही शायद यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की जिम्मेदारी के लिए उन्हें चुना। वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य भी हैं। इससे पहले की यूपीए सरकार में वे वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री रह चुके हैं।