मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मुखर मनोहर

शशांक मनोहर की खास बात यह है कि वे मितभाषी हैं, पर दो टूक बोलने में नहीं हिचकते। क्रिकेट की दुनिया में उनकी तरक्की का ग्राफ शरद पवार के दबदबे के साथ बढ़ता गया। राजनीतिक मोर्चे पर पवार के सिपहसालार प्रफुल्ल पटेल हैं तो क्रिकेट में शशांक। लेकिन कुछ अदद आरोपों और बीसीसीआई के कुछेक अहम फैसलों के अलावा बोर्ड के मौजूदा अध्यक्ष का अपना कोई व्यक्तित्व उभर कर नहीं आया था। वो तो ललित मोदी का कारनामा जब रंग लाया और आईपीएल के पिटारे से अजीबोगरीब प्रेत निकलने शुरू हुए तो शशांक मनोहर का कद भी बढ़ने लगा। मोदी का जवाब फौरी तौर मनोहर दिख रहे हैं। वे अब मुखर हैं। मोदी को तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने में लगे हैं। अंतत: किसका सवाल पिटेगा और किसका जवाब हिट होगा, यह देखना दिलचस्प रहेगा।



भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष हैं शशांक मनोहर। कम, पर स्पष्ट व असरदार बोलने के लिए जाने जाते हैं। आईपीएल विवाद सामने आया तो बीसीसीआई भी हरकत में आई और इसके अध्यक्ष के स्वर भी मुखर हुए। उन्होंने इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के कमिश्नर ललित मोदी पर ‘गोपनीयताज् के नियम का उल्लंघन करने आरोप लगाया। कहा कि ट्विटर के जरिये शेयरधारकों के नाम सार्वजनिक कर मोदी ने बोर्ड और फ्रेंचाइजी में हुए समझौते का उल्लंघन किया, जिसके कारण बोर्ड कानूनी झमेले में पड़ सकता है।

मोदी और मनोहर दोनों बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष शरद पवार के करीबी हैं, लेकिन आईपीएल विवाद गहराया तो दोनों आमने-सामने आ गए। मनोहर ने मोदी को ‘खेल माफियाज् तक कह दिया। इस बीच चर्चा यह भी आई कि मोदी की जिम्मेदारी मनोहर को सौंपी जा सकती है। वे आईपीएल कमिश्नर का कार्यभार संभाल सकते हैं। लेकिन आईपीएल कमिश्नर के रूप में उनकी पारी बेहद चुनौतीपूर्ण होगी, क्योंकि आईपीएल की विभिन्न टीम के मालिकों की पसंद आज भी मोदी हैं। उन्हें संशय है कि शशांक शायद ही उस जिम्मेदारी को बखूबी निबाह सकें, जिसे पिछले तीन साल से मोदी निबाह रहे हैं। हालांकि फिलहाल मोदी के बाद आईपीएल कमिश्नर के रूप में रवि शास्त्री और राजीव शुक्ला का नाम भी सामने आ रहा है। बहरहाल, इस बारे में अंतिम फैसला सोमवार को आईपीएल की गवर्निग काउंसिल की बैठक में होगा।

शशांक मनोहर पवार की उस टीम का हिस्सा रहे हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया को किनारे करने की रणनीति अपनाई, जो 2006 में पवार के बीसीसीआई अध्यक्ष बनने के बाद भी काफी प्रभावी थे। ललित मोदी के बड़बोलेपन से अलग शशांक मनोहर बेहद कम, पर स्पष्ट बोलने के लिए जाने जाते हैं। 2008 में पवार के बाद बीसीसीआई के अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद उन्होंने खिलाड़ियों से लेकर चयन समिति तक के मामले में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए। वर्ष 2007 में जब भारतीय क्रिकेट टीम वर्ल्ड कप हार गई तो उन्होंने खिलाड़ियों को प्रदर्शन के आधार पर मेहनताना देने का सुझाव दिया। उनका यह सुझाव सुर्खियों में रहा। चयन समिति के संदर्भ में भी उन्होंने कहा था कि इसमें केवल उन्हीं खिलाड़ियों को शामिल किया जाए, जिन्होंने नियुक्ति से 10 साल पहले अपना आखिरी अंतर्राष्ट्रीय मैच खेला हो। वे इस बात में यकीन करते हैं कि भारत में क्रिकेट को बेचने के लिए किसी विशेष बाजार की जरूरत नहीं है, बल्कि यह खुद-ब-खुद अपना बाजार तैयार कर लेता है। मनोहर का चुनाव भी बेहद दिलचस्प रहा। सितंबर 2007 में जब उनका चुनाव हुआ तो सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में कोई नहीं था। सेंट्रल जोन से वे एक मात्र उम्मीदवार थे।

मनोहर मूलत: महाराष्ट्र के नागपुर से संबंध रखते हैं। उन्नतीस सितंबर, 1957 को वहीं वीआर मनोहर के घर उनका जन्म हुआ। पिता पेशे से वकील थे। शरद पवार से उनके परिवार का शुरू से ही काफी करीबी रिश्ता रहा है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में पवार के कार्यकाल के दौरान शशांक मनोहर के पिता वीआर मनोहर राज्य के महाधिवक्ता थे। पिता के पदचिह्नें पर चलते हुए शशांक ने भी कानून की पढ़ाई की और बतौर अधिवक्ता प्रैक्टिस भी शुरू की, लेकिन अंतत: वे क्रिकेट प्रशासक के रूप में उभरे। 1996 में वे विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बने और इसके बाद लगातार उनका कॅरियर इस दिशा में आगे बढ़ता रहा। 2006 में जब शरद पवार बीसीसीआई के अध्यक्ष बने तो शशांक मनोहर उसके उपाध्यक्ष चुने गए। शशांक बीसीसीआई के उन पांच उपाध्यक्षों में से हैं, जिन्होंने पवार के बीसीसीआई अध्यक्ष के कार्यकाल के दौरान काम किया। और फिर, 2008 में पवार के बाद वे बीसीसीआई अध्यक्ष बने।

लेकिन बीसीसीआई के अध्यक्ष जसा हाई-प्रोफाइल रुतबा होने के बावजूद वे सादगी पसंद हैं। वे आज भी मोबाइल फोन लेकर नहीं चलते। 2007 से पहले उनके पास पासपोर्ट भी नहीं था। उनका पहला विदेशी दौरा 2008 में हुआ, जब वे आईसीसी की बैठक में भाग लेने दुबई गए थे। उन्हें करीब से जानने वालों का कहना है कि वे आसानी से किसी पर भरोसा कर लेते हैं। लेकिन जब उन्हें धोखा मिलता है, तो सामने वाले के लिए फिर वे बेहद कड़ा रुख अपनाते हैं। क्रिकेट प्रशासक के रूप में अपने विवेक को तरजीह देते हैं, तो निजी जीवन में भी इससे अलग फैसला नहीं लेते।

इन सबसे अलग शशांक मनोहर से जुड़े विवादों की भी कमी नहीं है। आरोप है कि उनके परिवार का दाऊद गैंग से करीबी रिश्ता है और कई मौकों पर उनके परिवार के सदस्यों ने दाऊद गैंग का बचाव किया। इसी तरह, 26 नवंबर, 1995 को विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के मैदान पर भारत और न्यूजीलैंड के बीच खेले जा रहे एक दिवसीय मैच के दौरान वहां की एक दीवार गिर गई थी, जिसमें 13 लोग मारे गए थे, जबकि 70 से अधिक घायल हो गए थे। क्रिकेट के इतिहास में मैदान पर हुई इतनी बड़ी त्रासदी के लिए भी शशांक मनोहर और उनके पिता को जिम्मेदार ठहराया जाता है, यह कहकर कि उन्होंने दीवार के निर्माण का ठेका अपने किसी करीबी रिश्तेदार को दिलवाया था। आरोपों के मुताबिक यह कहना भी गलत है कि शशांक मनोहर बीसीसीआई से एक भी पैसा नहीं लेते, बल्कि अपनी यात्राओं का खर्च भी वे स्वयं उठाते हैं। तथ्य इससे उलट है। उन्होंने विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के खजाने से पैसे लेकर स्कूली बच्चों की एक टीम को आर्थिक मदद दी और उसे तीन माह के लिए इंगलैंड भेजा, क्योंकि इसमें उनका बेटा भी था। बहरहाल, ये सभी आरोप हैं। इनमें सच्चाई कितनी है, कहना फिलहाल मुश्किल है। पर इतना स्पष्ट है कि शशांक मनोहर आज की तारीख में बीसीसीआई के प्रभावी व्यक्तियों में से एक हैं।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

चंदा और सुनंदा

सुनंदा पुष्कर को अभी कुछ दिन पहले तक कोई नहीं जानता था। अब सभी की जुबान पर उनका नाम है। विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की दोस्त सुनंदा के कारण राजनीति में भूचाल आया हुआ है। कोच्चि टीम के शेयर धारकों में उनका क्या आया, गोया एक तूफान ही आ गया। थरूर की कुर्सी डगमगा गई। सुनंदा तो बयान देकर चुप हो गईं, पर विपक्ष शशि के पीछे पड़ा हुआ है। इस बार शशि-ग्रहण के पीछे है यह दोस्ती।



सुनंदा पुष्कर की पहचान फिलहाल विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की गहरी दोस्त के रूप में है। आईपीएल की नई टीम कोच्चि के शेयर धारकों को लेकर छिड़े विवाद में उनका जिक्र आया और फिर खुलती गई परत दर परत थरूर से उनके रिश्ते की बात। आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी ने खुलासा किया कि कोच्चि टीम में उनकी भी हिस्सेदारी है, जो करीब 70 करोड़ की है। अब तक उन्होंने यह बात इसलिए नहीं जाहिर की थी, क्योंकि थरूर ने उन पर सुनंदा का नाम नहीं बताने के लिए दबाव बनाया था।

लेकिन जाने फिर क्या हुआ कि मोदी उस ‘दबावज् से उबर गए और उन्होंने गोपनीयता के नियम को दरकिनार करते हुए कोच्चि टीम के शेयर धारकों के नाम बता दिए। सारी कवायद में एक बात कहीं पीछे छूट गई कि सुनंदा एक सफल व्यवसायी भी हैं और कोच्चि टीम में उनकी हिस्सेदारी केवल थरूर की ‘मेहरबानीज् नहीं है। सुनंदा को इसी बात का मलाल है कि मीडिया ने उनके और थरूर के रिश्तों की तो खूब चर्चा की, लेकिन एक कामयाब महिला व्यवसायी के रूप में उनके व्यक्तित्व को नजरअंदाज किया।

सुनंदा मूलत: जम्मू-कश्मीर की रहने वाली हैं और फिलहाल दुबई में स्पा चलाती हैं। वहां स्पा का उनका लंबा-चौड़ा कारोबार है। साथ ही वे सऊदी अरब सरकार द्वारा संचालित एक इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी में कार्यकारी के पद पर भी कार्यरत हैं। इससे पहले उन्होंने वहां विज्ञापन कंपनियों और ट्रेवल एजेंसी के साथ भी काम किया। दुबई की एक रियल इस्टेट कंपनी में भी उन्होंने निदेशक के पद पर काम किया। कनाडा के टोरंटो शहर में भी उन्होंने आईटी फर्म में काम किया। वे सेल्स व मार्केटिंग की विशेषज्ञ मानी जाती हैं। पिछले कुछ दिनों में सुनंदा और थरूर कई मौकों पर साथ-साथ देखे गए। दो माह पहले कें्रीय मंत्री जितिन प्रसाद के विवाह समारोह में भी दोनों साथ गए थे। चर्चा तो यह भी है कि सुनंदा और थरूर ने कई कैबिनेट डिनर भी साथ-साथ लिए। तब विभिन्न मौकों पर सुनंदा का परिचय ‘थरूर की कनाडा की मित्रज् के रूप में कराया गया। दोनों के रिश्तों को लेकर चर्चा तो तभी से थी। थरूर ने भी बड़ी साफगोई से कहा कि वे सुनंदा को बहुत अच्छी तरह जानते हैं।

करीब एक माह पहले भी दिल्ली में विदेश मंत्रालय और फिक्की के बीच खेले गए एक दोस्ताना मैच के दौरान दोनों साथ-साथ देखे गए थे, जिससे उनके ‘गहरे रिश्तेज् को और बल मिला। मैच से इतर थरूर को जब भी फुर्सत मिली, उन्होंने सुनंदा के साथ ही वक्त बिताया। खबर के पिपासुओं ने ब्रेक के दौरान थरूर को सुनंदा के लिए चाय बनाते भी देखा। अब एक बार फिर आईपीएल की कोच्चि टीम के शेयर धारकों को लेकर छिड़े विवाद में सुनंदा का जिक्र बार-बार आया और थरूर से उनके रिश्तों की बात को भी खूब हवा मिली।

अड़तालीस वर्षीया सुनंदा मूलत: कश्मीर घाटी की रहने वाली हैं। उनका पैतृक घर सोपियां जिले के बोमई गांव में हैं। पिता पोष्कर नाथ दास सेना में कर्नल रह चुके हैं। 1983 में वे लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से सेवानिवृत्त हुए। बारामूला के सनिक स्कूल से उन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी की। श्रीनगर के सरकारी महिला कॉलेज से सुनंदा ने बीए की डिग्री ली। बाद में उन्होंने होटल मैनेजमेंट में डिप्लोमा भी किया। इस बीच 1989 में घाटी में शुरू हुए आतंकवाद का असर कर्नल दास के परिवार पर भी पड़ा। आंतकवादियों ने उनके घर जला दिए, जिसके बाद उनका पूरा परिवार जम्मू चला गया। उनके दो भाई भी हैं, जिनमें से एक बैंक में कार्यरत हैं तो दूसरे सेना में।

सुनंदा की दो शादी हो चुकी है। उनके पहले पति संजय रैना कश्मीर के ही रहने वाले थे, जो दिल्ली में एक होटल में काम करते थे। लेकिन यह शादी अधिक दिनों तक चल नहीं पाई और दोनों का तलाक हो गया। सुनंदा को जानने वाले उन्हें एक आधुनिक लड़की बताते हैं, जो तलाक के वक्त आम लड़कियों की तरह रोना-धोना नहीं, बल्कि सेलिब्रेशन कर रही थीं। तलाक के बाद सुनंदा दुबई चली गईं, जहां उन्होंने सुजीत मेनन से विवाह किया। मेनन मूलत: केरल के रहने वाले थे। वे अग्निशमन उपकरणों के बहुत बड़े डीलर थे और इवेंट मैनेजर भी। लेकिन दिल्ली में एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गई। उनका एक पं्रह साल का बेटा भी है। अब थरूर से उनके ‘गहरे रिश्तोंज् के आधार पर उनकी शादी की बात कही जा रही है। यदि थरूर और उनके रिश्ते शादी तक पहुंचते हैं तो यह उनकी तीसरी शादी होगी। उधर, थरूर की भी यह तीसरी शादी होगी। थरूर की पहली पत्नी तिलोत्तमा मुखर्जी कोलकता की रहने वाली थीं, जिनसे उनका तलाक हो गया। उनकी दूसरी पत्नी क्रिस्टा गिल्स कनाडा की रहने वाली हैं, जिनसे उनका तलाक होने वाला है। तलाक की प्रक्रिया पूरी होने के बाद थरूर और सुनंदा की शादी की बात कही जा रही है।

सुनंदा परंपराओं से हटकर काम करने के लिए भी जानी जाती हैं। पंडितों की सालों पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए उन्होंने अपने पिता का पहला नाम अपने सरनेम के रूप में इस्तेमाल किया, हालांकि इसमें उन्होंने थोड़ी फेरबदल की। उन्होंने अपने पिता के पहले नाम पोष्कर को थोड़े फेरबदल के साथ पुष्कर किया और उसे अपने सरनेम के रूप में इस्तेमाल किया। इस तरह सुनंदा दास सुनंदा पुष्कर हो गईं।

किया-धरा ललित

आईपीएल हिट हुआ तो बदौलत ललित मोदी के और उन्हीं के कारण इस समय पिट रहा है आईपीएल। मोदी वाकई ललित हैं। उन्हीं की रंगीनियत बीसीसीआई के इस महाआयोजन की हर चीज पर नुमायां है। मुनाफ उनका गोया नशा है। क्रिकेट कमाऊ तो थी ही, मोदी ने उसे कामधेनु बना दिया। वे आईपीएल के सर्वेसर्वा हैं। नियम-कानून सब उनके। यही कारण है कि इसे सफल बनाने पर उनकी वाहवाही हुई तो सारे विवादों का ठीकरा भी उनके ही सिर है। इसमें सारा लेना-देना उन्हीं का है। ललित मोदी का लड़ाकू तेवर, बड़बोलापन, अहमन्यता और सब कुछ से बेपरवाही का अंदाज बड़े-बड़ों को हैरत में डाले हुए है।



एक तेज-तर्रार व मंङो हुए व्यवसायी का नाम है ललित मोदी, जिन्होंने क्रिकेट को एक नई शक्ल ही नहीं दी, बल्कि उसकी काया ही बदल दी। उन्होंने उसे शुद्ध व्यावसायिक शक्ल दे दी। अपनी व्यावसायिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए इस शख्स ने क्रिकेट में हाथ आजमाया और कामयाबी के झंडे गाड़े। आईपीएल के कमिश्नर के रूप में उन्होंने तीन घंटे का बीसमबीस क्रिकेट शुरू किया, जो टेलीविजन के दर्शकों को खूब भाया। 20 ओवरों का सीमित मैच मानो उनके लिए क्रिकेट मैच न होकर कोई सिनेमा थी। खिलाड़ियों की भी बल्ले-बल्ले रही। उन पर तो उन्होंने धन की वर्षा ही करा दी। आईपीएल मैच में चीयर लीडर्स भी मोदी की परिकल्पना ही थी, दर्शकों के साथ-साथ खिलाड़ियों के भी मनोरंजन के लिए।

मोदी की इस परिकल्पना ने निश्चय ही क्रिकेट को व्यावसायिक मुनाफा दिया, जिससे आईपीएल को एक दिन में करीब छह करोड़ रुपए की आय होती है। लेकिन इसमें टेस्ट क्रिकेट या कहें परंपरागत शालीन क्रिकेट जसी चीज काफी पीछे छूट गई, जिसके चाहने वाले आज भी उसकी कसमें खाते हैं। यही वजह है कि क्रिकेट को मुनाफा देने के लिए व्यावसायिक स्तर पर उनकी तरीफ होती है तो क्रिकेट की शक्ल बिगाड़ने के लिए उन्हें आड़े हाथों भी लिया जाता है। लेकिन इन सबसे से परे मोदी जुटे हैं क्रिकेट के इस व्यवसाय को निरंतर आगे बढ़ाने में। उनकी मुनाफाखोर महत्वाकांक्षा इस कदर तुंद है कि अगर सरकार ने पिछले साल लोकसभा चुनाव के कारण सुरक्षा मुहैया कराने में असमर्थता जाहिर की तो पूरे खेल को लेकर वे दक्षिण अफ्रीका चले गए। उनका दावा है कि अगले चार साल में आईपीएल का आकार मौजूदा आकार से चार से छह गुना अधिक होगा। अगले साल से ही टीमें आठ से दस और मैचों की संख्या 60 से बढ़कर 90 हो जाएगी।

ऐसा नहीं है कि क्रिकेट को यह व्यावसायिक शक्ल देने में मोदी को यकायक कामयाबी मिल गई। काफी कोशिशों के बाद उन्होंने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को इसके लिए तैयार किया। 1990 के शुरुआती दशक में ही उन्होंने बीसीसीआई के सामने इसका प्रस्ताव रखा था, जिसे तब बीसीसीआई ने नकार दिया था। इसके बाद मोदी किसी भी तरह बीसीसीआई से जुड़ने की कवायद में जुट गए, क्योंकि उन्हें यकीन हो चला था कि यदि व्यवस्था बदलनी है तो उसका हिस्सा बनना पड़ेगा। सबसे पहले उन्होंने राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन की सदस्यता ली। बाद में वे इसके अध्यक्ष भी बने, जिससे उन्हें बीसीसीआई में एक सीट मिल गई।

इस बीच 2005 में बीसीसीआई के अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में शरद पवार की जीत हुई, जिसमें मोदी की भूमिका को काफी महत्वपूर्ण माना गया। उसी साल मोदी बीसीसीआई के उपाध्यक्ष बन गए। वे बीसीसीआई के अब तक के सबसे युवा उपाध्यक्ष थे। बीसीसीआई में रहते हुए उन्होंने इसके व्यावसायिक स्तर पर काम करना शुरू कर दिया। मोदी की कोशिशों का ही नतीजा रहा कि 2005 से 2008 के बीच बोर्ड के राजस्व में करीब सात गुनी वृद्धि हुई। अंतत: 2008 में उन्हें सीमित ओवर के फटाफट क्रिकेट को साकार रूप में देने में कामयाबी मिली, जब उन्होंने ट्वेंटी-ट्वेंटी के इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की शुरुआत की।

इस बीच उन पर कई आरोप भी लगे। मामले अदालतों में घसीटे गए। उन पर स्वयं को राजस्थान का निवासी बताने के लिए गलत दस्तावेजों के आधार पर राजस्थान में जमीन खरीदने का आरोप है, क्योंकि नियमों के मुताबिक राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष पद का चुनाव वहां का स्थाई निवासी ही लड़ सकता है। जयपुर पुलिस इसकी जांच कर रही है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में उनके राजस्थान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष बनने को इस आधार पर चुनौती दी गई है कि वे अमेरिका में पढ़ाई के दौरान एक आपराधिक मामले में दोषी करार दिए जा चुके हैं और एसोसिएशन के नियमों के अनुसार आपराधिक मामले में दोषी करार दिए गए किसी व्यक्ति को इसका पदाधिकारी नहीं बनाया जा सकता। इसी आधार पर मुंबई हाईकोर्ट में भी एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें उनके बीसीसीआई के उपाध्यक्ष पद पर चुनाव को चुनौती दी गई है। 2009 में उन्हें एक और झटका मिला, जब वे राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष पद का चुनाव कें्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी के हाथों हार गए।

संपन्न व्यावसायिक घराने से ताल्लुक रखने वाले मोदी राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के करीबी माने जाते हैं। मोदी पर 2008 के जयपुर धमाके के पीड़ितों के लिए मुख्यमंत्री सहायता कोष में छह करोड़ रुपए जमा कराने का आश्वासन देने के बावजूद ये रुपए जमा नहीं कराने काआरोप है। यह मामला भी फिलहाल अदालत में है। मोदी हाल में आईपीएल की नई टीम कोच्चि के शेयर धारकों का नाम जाहिर करने से चर्चा में आए हैं। उन्होंने विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर का नाम भी लिया और कहा कि उन्होंने टीम की एक प्रमुख शेयर धारक सुनंदा पुष्कर का नाम नहीं बताने के लिए उन पर दबाव बनाया। लेकिन जब बात निकली तो फिर दूर तक गई। आईपीएल के पूरे व्यवसाय में उनके तीन करीबी रिश्तेदारों की हिस्सेदारी सामने आई, जिनमें से एक उनके दामाद गौरव बर्मन भी हैं। इस समय सारा देश कोच्चि विवाद में नए-नए खुलते रहस्यों का पर्दाफाश हैरत से देख रहा है। उनके आलोचक उनके पर काटने का दबाव बना रहे हैं। आईपीएल नखशिख विवाद में है। अपसंस्कृति से लेकर आर्थिक गड़बड़ियों के आरोप हैं। आयकर विभाग उसके मुख्यालय में छापा मार रहा है।

उन्नतीस नवंबर, 1963 को दिल्ली में एक संपन्न व्यावसायिक घराने में पैदा हुए मोदी को स्कूली शिक्षा कभी रास नहीं आई। उनके पिता कृष्ण कुमार मोदी ‘मोदी एंटरप्राइजेजज् के चेयरमैन हैं, जिसका कारोबार करीब 40 मिलियन का बताया जा रहा है। घरवालों ने स्कूली शिक्षा पूरी करने के लिए उन्हें शिमला और नैनीताल भेजा, लेकिन वे अक्सर वहां से भाग निकलते थे। उनकी इच्छा अमेरिका में पढ़ने की थी। इसलिए उन्होंने एसएटी क्वालीफाई किया, जो स्कूली शिक्षा पूरी किए बगैर ही अमेरिकी कॉलेज/विश्वविद्यालय में नामांकन की अर्हता तय करता है। वहां उन्हें नॉर्थ कैरोलिना में डरहाम के ड्यूक विश्वविद्यालय में दाखिला भी मिल गया। इसी दौरान 1985 में डरहाम काउंटी कोर्ट ने उन्हें चार सौ ग्राम कोकीन रखने और अपहरण के मामले में दोषी करार दिया।

1986 में ड्यूक विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद वे भारत लौट आए। इस बीच 1987-1991 तक वे अंतर्राष्ट्रीय तंबाकू कंपनी के अध्यक्ष भी रहे। 1992 में वे गोडफ्रे फिलिप्स इंडिया के एग्जक्यूटिव डायरेक्टर भी बने। इसी दौरान उन्होंने टेलीविजन चैनलों से क्रिकेट मैच के प्रसारण पर बातचीत शुरू की और बीसीआई के समक्ष फुटबॉल लीग की तर्ज पर सीमित ओवर के मैच का प्रस्ताव रखा, जिसे तब बीसीसीआई ने नकार दिया था।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

सिर्फ भुट्टो नहीं फातिमा



भारत में जसे नेहरू-गांधी परिवार वैसे ही पाकिस्तान में भुट्टो परिवार। वहां की सियासत और सत्ता के बड़े दावेदार। लेकिन बेनजीर की भतीजी फातिमा परिवार की लीक से अलग हैं। वे सिर्फ भुट्टो नहीं हैं। और न वे भुट्टो होने को कोई खास अहमियत देती हैं। वे वंशवाद के खिलाफ हैं। उनकी लोकप्रियता उनके भुट्टो होने से नहीं, बल्कि एक जहीन लेखिका होने से है। कभी सबसे प्रिय फूफी रहीं बेनजीर से उनकी दूरी बढ़ गई। पुलिस ने उनके पिता मुर्तजा को गोलियों से भून दिया। तीन पुस्तकों की यह सत्ताइस वर्षीया लेखिका अपनी नई पुस्तक में जरदारी पर पिता की मृत्यु का इल्जाम लगाती हैं और बेनजीर पर बतौर प्रधानमंत्री अपराधियों को बचाने का। भारत-पाक संबंधों में घनिष्ठता की पैरोकार फातिमा यूं तो राजनीति से दूर हैं, लेकिन उनकी समझदारी, लोकप्रियता और उनके जुझारू तेवर उन्हें निकट भविष्य में राजनीति की मुख्यधारा में ले आएं तो इस पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए।



फातिमा भुट्टो पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की भतीजी हैं। उनके भाई मुर्तजा भुट्टो की बेटी, जो अपने पिता से बेइंतहां मोहब्बत करती हैं। लेकिन इससे भी अलग भी है उनकी एक पहचान, जो किसी की भतीजी या किसी की बेटी होने की मोहताज नहीं। यह पहचान है उनकी लेखिका के रूप में, जो सिर्फ 27 साल की उम्र में तीन किताबें लिख चुकी हैं और निरंतर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लेखिका के रूप में सक्रिय हैं। एक ऐसी युवा लेखिका, जो विभिन्न विषयों पर बेबाक राय रखती हैं। वे भारत-पाक के बीच बेहतर रिश्तों की पैरोकार हैं। उन्हें दोनों देश सहोदरों से लगते हैं।

पाकिस्तान के सामाजिक-राजनीतिक हालात वे बेखौफ होकर चर्चा करती हैं, राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी अक्सर उनके निशाने पर होते हैं, लेकिन वे राजनीति से दूरी बनाए रखना चाहती हैं। वे कहती हैं कि यहां हालात रहने लायक नहीं रह गए हैं। यहां रहना किसी खतरे से कम नहीं है, जिसे कराची में रहते हुए वे अक्सर महसूस करती हैं। वे तकरीबन रोज उस रास्ते से गुजरती हैं, जहां उनके पिता को पुलिस ने 1996 में गोलियों से भून डाला था, जब पाकिस्तान की प्रधानमंत्री उनकी बुआ बेनजीर थीं। पिता की हत्या के लिए फातिमा खुलकर बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी को जिम्मेदार ठहराती हैं।

पिता की हत्या के बाद फातिमा बेनजीर से कभी नहीं मिलीं, लेकिन उनकी तुलना अक्सर बुआ से होती रही। फातिमा काफी हद तक वैसी ही दिखती हैं, जसी इस उम्र में बेनजीर दिखती थीं। देश-विदेश में उनकी लोकप्रियता भी बिल्कुल वैसी ही है, जसी बेनजीर की थी। खूबसूरती और ग्लैमर के मामले में भी दोनों काफी करीब दिखती हैं। फातिमा बचपन से ही अपने और बुआ के बीच समानता की ऐसी बातें सुनती आ रही हैं, जो उन्हें कभी पसंद नहीं आई। पिता की हत्या के बाद बेनजीर के लिए मन में नफरत और बढ़ गई, जो दिसंबर, 2007 में उनकी मौत के बाद ही खत्म हुई।

हाल ही में उनकी तीसरी किताब ‘द सांग ऑफ ब्लड एंड सोर्डज् आई है, जिसमें उन्होंने भुट्टो परिवार की चर्चा एक ऐसे सामंती परिवार के रूप में की है, जो ब्रिटिश शासन से आजादी के बाद पाकिस्तान में सत्ता का एक प्रमुख कें्र बन बैठा। लेकिन इस परिवार की चार पीढ़ियों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। पिछले चार दशक में तकरीबन हर दशक में इस परिवार ने एक सदस्य को खोया। फातिमा के दादा जुल्फिकार अली भुट्टो जनरल जिया उल हक क शासनकाल में 1979 में फांसी पर लटका दिए गए। जुलाई, 1985 में फातिमा के चाचा शाहनवाज की संदिग्ध पिरिस्थितियों में मौत गई। 20 सितंबर, 1996 को फातिमा के पिता मुर्तजा भुट्टो की पुलिस ने गोली मार कर हत्या कर दी और 27 दिसंबर, 2007 को बेनजीर भी खूनी हिंसा का शिकार हो गईं। इससे पहले ‘व्हिस्पर्स ऑफ डेजर्टज् नाम से उनका एक कविता संग्रह आ चुका है। दूसरी पुस्तक उन्होंने अक्टूबर 2005 में आए भीषण भूकंप पर लिखी है, जिसने इस्लामाबाद से कश्मीर घाटी तक को हिलाकर रख दिया था। पुस्तक का शीर्षक ही उन्होंने ‘8:50ए एम, 8 अक्टूबर 2005ज् दिया है।

इस खूबसूरत युवा लेखिका की आस्था लोकतंत्र में है, लेकिन वे बेनजीर की चुनी हुई सरकार को सैनिक शासन से कम भयावह नहीं मानतीं। वे सवाल करती हैं कि जो सरकार ‘ऑपरेशन क्लीन अपज् के नाम पर तीन हजार लोगों को मरवा दे, वह सैनिक शासन से बेहतर कैसे हो सकती है? वे मीडिया में बेनजीर की तुलना इंदिरा गांधी से किए जाने का भी खंडन करती हैं और साफ कहती हैं कि बेनजीर गांधी नहीं थीं। वे वंशवाद के सख्त खिलाफ हैं और कहती हैं कि उनका नाम किसी भी चीज के लिए उनकी योग्यता को साबित नहीं करता।

बड़ी बेबाकी से वे कहती हैं कि पाकिस्तान में इन दिनों कई तरह की राजनीति चल रही है- सामंती राजनीति, अल्पतंत्र की राजनीति, सैन्य राजनीति और अमेरिकी आदेश पर चलने वाली राजनीति। इसी पर आज पाकिस्तान का शासन चल रहा है और पाकिस्तान की सामाजिक-राजनीतिक दुर्दशा का कारण भी यही है। पाकिस्तान के राजनीतिक संकट का एक बड़ा कारण वे यह भी मानती हैं कि आजादी के बाद से सत्ता वहां कभी सैनिक शासन तो कभी भुट्टो परिवार और फिर नवाज शरीफ के हाथों में घूमती रही, जिसे बदलने की जरूरत है।

पाकिस्तान में हालात सुधारने के लिए वे सबसे पहले ‘राष्ट्रीय मेलमिलाप अध्यादेशज् को समाप्त करना जरूरी बताती हैं, जो भ्रष्ट नेताओं के लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करती है। यहां भी उनका इशारा सीधे और साफ तौर पर जरदारी की तरफ है। इसी तरह वे हदूद अध्यादेश को भी समाप्त करना जरूरी बताती हैं, जो महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ कानून का सबसे हिंसक रूप है। साथ ही पाकिस्तान की सामंती अर्थव्यवस्था को समाप्त करते हुए एक बार फिर उसी तरह सही मायने में भू-सुधार लागू करने की वकालत करती हैं, जसा उनके दादा जुल्फिकार अली भुट्टो के कार्यकाल में हुआ था।

उन्नत्तीस मई, 1982 को अफगानिस्तान के काबुल में पैदा हुईं फातिमा का बचपन कई मुल्कों में बीता। उनका जन्म तब हुआ था जब जनरल जिया उल हक के शासन के दौरान पिता को फांसी दिए जाने के बाद मुर्तजा अफगानिस्तान में निर्वासित जीवन बिता रहे थे। वहीं उन्होंने अफगान सरकार के एक अधिकारी की बेटी से निकाह किया था, जिससे फातिमा हुईं। लेकिन दोनों का साथ अधिक दिनों तक नहीं रह सका और उनके बीच तलाक हो गया। पर मुर्तजा को अपनी बेटी से बहुत प्यार था और इसलिए वे उसे लेकर वहां से भाग निकले। इस बीच वे फातिमा को लेकर त्रिपोली, फ्रांस और दमस्कस में छिपकर जीवन बिताते रहे, क्योंकि पाक खुफिया एजेंसी भी उन्हें ढूंढ़ रही थी। सीरिया में उनकी मुलाकात लेबनानी महिला गिनवा इटोई से हुई, जिससे उन्होंने निकाह कर लिया। इस वक्त फातिमा अपनी सौतेली मां गिनवा के साथ ही कराची में रह रही हैं, जिनसे उनके रिश्ते काफी अच्छे रहे हैं।

मुर्तजा 1993 में फातिमा और पत्नी गिनवा को लेकर पाकिस्तान लौटे, जहां से उनकी सेकेंडरी शिक्षा पूरी हुई। इसके बाद उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से मध्य-पूर्व विषयों में बीए की डिग्री ली। लंदन विश्वविद्यालय से उन्होंने दक्षिण एशियाई विषयों में एमए की डिग्री ली। छात्र जीवन से ही वे लेखन में सक्रिय रहीं, जो आज तक जारी है। फातिमा ने भले ही फिलहाल राजनीति में आने से इनकार किया है और लेखन के जरिये ही सक्रिय रहने की बात कही है, लेकिन आने वाले दिनों में वे जरदारी और उनके बेटे बिलावल, जो पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष हैं, के लिए एक बड़ा खतरा बन सकती हैं।

लौह बनाम फौलादी



बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में आईपीएस अधिकारी अंजू गुप्ता की गवाही ने आडवाणी सहित कई नेताओं के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है, जो अदालत संदेह का लाभ लेकर लगभग बरी हो चुके थे। गुप्ता इस मामले में सीबीआई की नौवीं गवाह थीं। 23 अप्रैल को फिर उन्हें फिर अदालत में पेश होना है, जब सबकी निगाहें उन पर टिकी होंगी। गुप्ता ने पहले भी बतौर पुलिस अधिकारी कई साहसिक कारनामे किए हैं। उनकी बेहतर सेवा को देखते हुए उन्हें पुलिस मेडल से भी सम्मानित किया गया है। बाबरी ध्वंस पर आडवाणी के आह्लाद को उजागर करने वाली अपनी गवाही अंजू गुप्ता रिजवी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम और देश के संविधान के नाम पर शपथ लेकर दी थी।



अंजू गुप्ता, एक निर्भीक व साहसिक महिला पुलिस अधिकारी हैं, जिन्हें डर नहीं कि आने वाले दिनों में यदि सत्ता बदली तो उनके लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। आखिर अधिकारियों के स्थानांतरण से लेकर उनकी पदोन्नति तक में राजनीतिज्ञों की भूमिका किसी से छिपी तो नहीं है। यह उनकी निडरता ही है कि छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में उन्होंने अदालत के सामने अपनी बेबाक राय रखी। भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से लेकर पार्टी के अन्य नेताओं और विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल जसे भगवा संगठनों के नेताओं के नाम उन्होंने बेहिचक व बेझिझक लिए।

अदालत में उन्होंने साफ कहा कि आडवाणी या दूसरे नेता जो भी कहते रहें, बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए वे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। आडवाणी ने विध्वंस से पहले ऐसे भड़काऊ भाषण दिए, जिससे कारसेवक उत्तेजित हुए। साध्वी तंभरा जसी नेताओं ने ‘एक धक्का और दो, मस्जिद तोड़ दोज् जसे नारों से कारसेवकों को भड़काया। इस कड़ी में उन्होंने मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, विष्णु हरि डाल्मिया के नाम भी लिए और कहा कि विध्वंस के बाद इन नेताओं ने गले मिलकर एक-दूसरे को बधाई दी और मिठाइयां बांटी।

गुप्ता इस मामले में अभियोजन पक्ष सीबीआई की एक अहम गवाह हैं। जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, वे फैजाबाद में प्रशिक्षण के अंतर्गत अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के रूप में तैनात थीं और यह उनकी पहली नियुक्ति थी। उन्हें एक पुलिस अधिकारी के रूप में अपना कार्यभार संभाले कुछ ही महीने हुए थे। इस बीच उन्हें आडवाणी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी सौंपी गई। लेकिन तब शायद आडवाणी या कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने भी नहीं सोचा होगा कि यह महिला पुलिस अधिकारी आने वाले दिनों में उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है।

अंजू गुप्ता ने राय बरेली में सीबीआई की विशेष अदालत में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी गुलाब सिंह के सामने अपने बयान में यह कहकर तत्कालीन सरकारी मशीनरी और प्रशासनिक तंत्र को भी कठघरे में खड़ा कर दिया कि कारसेवकों को विवादित ढांचा ढहाने से रोकने की बजाय वे उसमें सहयोग दे रहे थे। वे चाहते तो कारसेवकों को ऐसा करने से रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

1990 बैच की 45 वर्षीया यह आईपीएस अधिकारी इन दिनों दिल्ली में रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) में तैनात है। यह कोई पहला अवसर नहीं है जब गुप्ता ने इस तरह का साहसिक स्टैंड लिया हो। अपने अब तक के कार्यकाल में उन्होंने कई ऐसे कारनामे किए, जो पुलिस महकमे के लिए गर्व की बात होगी। प्रतापगढ़ में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने बाहुबली (वर्तमान में विधायक) रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया से भी पंगा लिया। बिना किसी अंजाम की परवाह किए उन्होंने अपराध खत्म करने और अपराधियों को सजा दिलाने की पुलिस की जिम्मेदारी का वहां बखूबी निर्वाह किया। वहां रहते हुए उन्होंने राजा भैया के खिलाफ खिलाफ गैंग चार्ट और हिस्ट्री शीट तैयार की।

उन्होंने उत्तर प्रदेश सतर्कता विभाग और राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो में भी काम किया। 2000 से 2005 के दौरान वे एशिया और प्रशांत महासागर के देशों के लिए संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक आयोग की सलाहकार भी रहीं। 2005 में भारत लौटने पर उन्होंने मेरठ के एसएसपी का कार्यभार संभाला और वहां भी आपराधिक मामलों का खुलासा किया। एक साल बाद यानी 2006 में वे एकबार फिर संयुक्त राष्ट्र की नशा व अपराध शाखा में नियुक्त हुईं, जहां उन्होंने मानव तस्करी पर काम किया। उन्होंने देश में मानव तस्करी की जांच में पुलिस की भूमिका पर ‘स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर फॉर पुलिस फॉर इंवेस्टिगेटिंग ह्यूमेन ट्रैफिकिंग इन इंडियाज् शीर्षक से एक किताब भी लिखी। 2007-08 के दौरान उन्होंने मेरठ में प्रांतीय सशस्त्र पुलिस बल में पुलिस महानिरीक्षक के रूप में भी अपनी सेवा दी। 2009 में उन्होंने निदेशक के रूप में कैबिनेट सचिवालय का कार्यभार संभाला। उनके बेहतर करियर रिकॉर्ड को देखते हुए 2007 में उन्हें पुलिस मेडल से भी सम्मानित किया गया।

मूलत: उत्तरांचल के षिकेश की रहने वाली अंजू गुप्ता एक व्यावसायिक घराने से ताल्लुक रखती हैं। उन्होंने पार्टीकल फिजिक्स में एमफिल भी किया है। अक्टूबर, 1992 में उन्होंने पहली बार पुलिस अधिकारी के रूप में फैजाबाद में बतौर एएसपी अपना कार्यभार संभाला। इसके बाद उन्होंने लखनऊ, ललितपुर, उधम सिंह नगर और प्रतापगढ़ में बतौर पुलिस अधीक्षक काम किया। परंपरा से अलग शादी उन्होंने एक मुस्लिम से की। उनके पति शफी एहसान रिजवी भी 1989 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं और इस वक्त गृह मंत्री पी चिदंबरम के विशेष अधिकारी के रूप में तैनात हैं।

सीबीआई की विशेष अदालत में आडवाणी के खिलाफ उनके बयान की सत्यता को भाजपा नेता और समर्थक अब यह कहकर सवालों के घेरे में खड़े कर रहे हैं कि आखिर इस मामले में उन पर यकीन क्यों कर लिया जाए, जबकि उन्होंने एक मुसलमान से शादी की है? कैसे मान लिया जाए कि राम मंदिर और बाबरी मस्जिद को लेकर उनकी निष्ठा में शादी से बदलाव न हुआ हो? लेकिन सीबीआई की विशेष अदालत में इस महिला पुलिस अधिकारी ने अपना बयान देने से पहले ‘मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामज् और देश के संविधान के नाम पर शपथ लेकर अपने विरोधियों को करारा जवाब दिया है। इस मामले में 23 अप्रैल को एक बार फिर सीबीआई की विशेष अदालत में उनकी गवाही होगी, जब बचाव पक्ष के वकील उनसे सवाल-जवाब करेंगे। सबकी उनपर टिकी होंगी।

पढ़ो-लिखो साधिकार


वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित
अनिवार्य शिक्षा कानून सही दिशा में बेहतर कदम है। अफसोस यह है कि इसे आने में छह दशक लग गए। वैसे भी क्रांतिकारी कदम उठाने में स्वाभाव से यथास्थितिवादी सरकारें जानबूझकर विलंब करती हैं। फिर प्राथमिक शिक्षा हमारी प्राथमिकताओं में कभी नहीं रही। इस कानून को अमल में लाने में ढेर सारी दिक्कतें हैं। पूरी संरचना खड़ी करने का सवाल है। फिर गरीबी भी आड़े आनी है। फिर भी यह उम्दा बात हुई है, जिसे कारगर होने में समय लगेगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि यह एक बेहतर और सही कदम है। हालांकि यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था। लेकिन इसमें देर हुई। फिर भी कहा जा सकता है, ‘देर आयद दुरुस्त आयद।ज् वास्तव में यह देर नीयतन थी। सत्तासीन लोगों ने जानबूझकर इसमें देरी की, क्योंकि कोई भी क्रांतिकारी परिवर्तन उनके हित में नहीं होता। दरअसल यह हमारी राजनीतिक संस्कृति का अंग बन गया है कि यदि कुछ अच्छा काम है और उसके होने से राजनीतिक वर्ग का नुकसान हो सकता है, तो वे उसमें जानबूझकर देरी करते हैं, क्योंकि वे इसे रोक नहीं सकते। देश के ज्यादा से ज्यादा लोग अशिक्षित रहें, यह राजनेताओं के हित में है, ताकि उनका वोटबैंक सुरक्षित रहे।

यह राजनीतिक दलों की कमजोर इच्छाशक्ति और नीयत का ही नतीजा है कि इसे बनने में आजादी के छह दशक से अधिक का समय लग गया। राजनीतिक दलों ने जबानी तौर पर तो हमेशा प्राथमिक शिक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही, लेकिन व्यवहार में उन्होंने उच्च शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया। कई ऐसे उदाहरण हैं, जब सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए प्राथमिक शिक्षा के बजट में कटौती की। छह जुलाई, 2007 को पायनियर अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से देशभर में 16 नए विश्वविद्यालय और पिछड़े वर्ग के लिए 355 कॉलेज खोलने के मकसद से प्राथमिक शिक्षा के अनुदान में कटौती के लिए कहा। प्रधानमंत्री का यह निर्देश प्राथमिक शिक्षा को लेकर सरकारी नजरिये को दर्शाता है। अक्सर कें्र राज्यों को प्राथमिक शिक्षा में अधिक से अधिक निवेश की बात कहकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है, तो राज्य सरकारें संसाधन नहीं होने की बात कहकर हाथ खड़े कर देती हैं। अगर इस दिशा में सचमुच कुछ किया जाना है तो राजनीतिक वर्ग और सत्तासीन लोगों को अपनी नीयत बदलनी होगी अपना स्वभाव बदलना होगा।

यह कानून तो बना दिया गया है, पर इसके लागू होने में अभी बहुत सी कठिनाइयां सामने आएंगी। पहली मुश्किल तो यह है कि इसे राज्य सरकारों को लागू करना है और अब तक इस दिशा में राज्य सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। वे भी उतनी ही आलसी रही हैं, जितनी कें्र की सरकार। फिर, स्कूल व्यवस्था में भी परिवर्तन की जरूरत है। 1998-99 में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने देश की स्कूल व्यवस्था को बुरी हालत में बताया था और मुङो नहीं लगता कि दस-बारह साल बाद भी उसमें कोई परिवर्तन आया है। आज भी स्कूलों की वही हालत है।

इसके अलावा बच्चों को स्कूल में रोके रखना और ड्रॉप आऊट पर रोक लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। 2005 के आंकड़ों के अनुसार देश के 18,50,000 बच्चों में से 8,30,000 छह से चौदह आयुवर्ग के हैं। दो-तीन साल पहले तक इस उम्र के करीब 90 प्रतिशत बच्चों का स्कूल में पंजीकरण दिखाया गया। लेकिन कितने बच्चों ने पंजीकरण के बाद स्कूल छोड़ दिया, इसका रिकॉर्ड नहीं है। माध्यमिक शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते स्कूल में रहने वाले बच्चों की संख्या करीब 59 फीसदी रह जाती है। यानी बच्चों को स्कूल में रोके रखना एक बड़ा काम है। दरअसल, बच्चे हमारी गृहस्थ अर्थव्यवस्था, घरेलू अर्थव्यवस्था, देहाती अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा हैं। अपने घरों में, खेतों पर या अपने पैतृक व्यवसाय के लिए छोटा-मोटा काम करते वक्त वे बाल मजदूर नहीं कहलाते, लेकिन इससे उनकी पढ़ाई तो बाधित होती ही है।

शिक्षा चाहे किसी भी स्तर की हो, उसमें अध्यापकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उच्च शिक्षा में अध्यापकों की स्थिति बेहतर है, लेकिन प्राथमिक शिक्षकों की स्थिति बेहद दयनीय है। वेतन से लेकर अन्य मामलों में भी उनके साथ दोयम दज्रे का व्यवहार होता है। अक्सर देखा गया है कि अध्यापक पर्याप्त वेतन न मिलने की बात कह अध्यापन कार्य में अपनी अरुचि को तर्कसंगत बताते हैं। कुछ मामलों में तो यह भी देखने को मिला है एक बार प्राथमिक शिक्षक की नौकरी मिल जाने के बाद वह व्यक्ति शहरों में अपने लिए कोई दूसरा काम भी तलाश लेता है और गांवों में अपनी जगह किसी दूसरे व्यक्ति को आधा वेतन देने की बात कहकर बिठा देता है। सब कुछ इतनी अच्छी तरह और आपसी मिलीभगत से होता है कि उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई भी नहीं होती। इसलिए अध्यापकों की स्थिति सुधारने की जरूरत है। साथ ही उन्हें भी अध्यापन कार्य को एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में लेना होगा।

एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे यहां कई तरह के स्कूल हैं। सरकारी स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल, निजी स्कूल। निजी स्कूलों की फीस इतनी अधिक होती है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए उसमें अपने बच्चे को पढ़ाना सपने जसा होता है। हालांकि सरकार ने निजी स्कूलों को भी गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के लिए कहा है, लेकिन वे इसके खिलाफ कोर्ट चले गए हैं। उन्हें कैसे इसके लिए तैयार किया जाए, यह एक महत्वपूर्ण चुनौती होगी। अगर गरीबों के बच्चों को वहां दाखिला नहीं मिलता है तो उन्हें फिर सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाना होगा, जहां कक्षाओं और शिक्षकों की दिक्कत आड़े आएगी।

फिर बाल मजदूरी एक महत्वपूर्ण समस्या है। उन्हें काम करने से रोका भी नहीं जा सकता, क्योंकि कई परिवारों की रोजी-रोटी उनके बच्चों की कमाई से ही चलती है। लेकिन अनिवार्य शिक्षा के कानून की सफलता के लिए इस पर रोक लगाना जरूरी है, क्योंकि ढाबों, चाय की दुकानों पर काम करने वाले बच्चे आखिर स्कूल कब जाएंगे? यानी अगर बच्चे को काम करने से रोका जाता है तो उसके परिवार की रोजी-रोटी प्रभावित होती है और न रोका जाए तो यह कानून बेमतलब हो जाता है। इसलिए हमें उन परिस्थतियों को समाप्त करना होगा, जिसके कारण बच्चे बाल मजदूरी के लिए मजबूर होते हैं।

इसके अलावा अभी तक सरकार ने यह तय नहीं किया है कि शिक्षा का कंटेंट क्या हो? बच्चों को पढ़ाया क्या जाए? प्राथमिक शिक्षा का अभी तक का जो कंटेंट है, वह बहुत पिछड़ा है। इसे परिष्कृत करने की जरूरत है। ऐसे कंटेंट विकसित करने की जरूरत है, जिससे बच्चों की सृजनात्मक क्षमता उभरकर सामने आए और पढ़ाई के बाद वे आर्थिक व सामाजिक रूप से स्वावलंबी नागरिक बन सकें। कुल मिलाकर, यह एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन इसके कारगर होने में वक्त लगेगा।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

करोड़ों में माया!


मायावती ने एक हजार के नोटों की माला क्या पहन ली, राजनीतिक भूचाल आ गया। उसे ठंडा करने के लिए उन्होंने फिर थोड़ी कम राशि की माला पहन ली। मायावती की कार्यशैली यही है। वे ऐसे कारनामों से विपक्ष-मीडिया और तमाम विरोधियों का दिल जलाकर अपने समर्थकों में खुशी पैदा करती हैं। वे कुछ करें न करें, उनके समर्थक उनके साथ हैं। लोग उन्हें दौलत की बेटी कहें, अभी फिलहाल उन्हें दलित अपनी बेटी ही मानते हैं। माया जसी राजनेता लाखों में नहीं, करोड़ों में एक हैं।

मायावती, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री। देश की पहली ‘अछूतज् महिला मुख्यमंत्री। दलितों की मसीहा। उनकी बेटी। एक ऐसी बेटी, जो सदियों से उनका दमन व शोषण करने वालों का लगातार मान-मर्दन कर रही है। इससे भले उन्हें कुछ मिले न मिले संतोष जरूर मिलता है। दलितों के बीच यही है उनकी पहचान। यह अलग बात है कि विरोधी उन्हें दलित की नहीं, ‘दौलत की बेटीज् कहते हैं। लेकिन विरोधियों की परवाह उन्हें कब रही है?
माया का हर कदम तो बस अपने दलित वोट बैंक को लुभाने के लिए होता है, क्योंकि माया जब हीरे के जेवरात से लकदक अपना जन्मदिन मनाती हैं, केक काटती हैं तो इन सब से सदियों से वंचित दलित खुद को उनकी जगह महसूस करते हैं। उन्हें संतोष होता है कि चलो, सदियों बाद ही सही, हम सब न सही, माया ही सही, कोई तो है हमारे बीच का जो खुलेआम आज समाज की अगड़ी जातियों को चुनौती दे रहा है; उन्हीं सुविधाओं का उपभोग कर रहा है, जो कुछ साल पहले तक केवल अगड़ी जातियों की बपौती थे और जिनके उपभोग का सपनाभर देखकर वे संतोष कर लेते थे।
माया दलितों में इस संतोष की अनुभूति को बखूबी जनती हैं और इसलिए विरोधी लाख गला फाड़ते रहें, वे उन्हें हर बार ठेंगा दिखाती रहती हैं। पिछले सप्ताह दो-दो बार नोटों की माला पहनकर उन्होंने एकबार फिर ऐसा ही किया। अब माया के खिलाफ संसद में हंगामा होता है तो होता रहे, आयकर विभाग की जांच होती है तो होती रहे, उनका दलित वोट बैंक तो सुरक्षित है। शायद यही वजह रही कि पहली बार हजार-हजार के नोटों की माला पहनने के बाद जब विरोधियों ने हंगामा बरपाया तो उसकी परवाह न करते हुए माया ने दो दिन बाद ही फिर नोटों की माला पहन ली। माया का यह कदम विरोधियों को मानो चुनौती थी, ‘कर लो, जो करना है।ज्
मायावती आजाद भारत में दलित राजनीति की आइकॉन हैं, लेकिन उतनी ही विवादास्पद। कभी उन पर सरकारी पैसे के दुरुपयोग का तो कभी आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने का आरोप लगा। ताज कोरिडोर मामले में घोटाले का आरोप भी उन पर लगा। यह भी कहा गया कि ‘यमुना एक्सप्रेस वेज् के लिए उनकी सरकार ने करीब नौ हजार किसानों की भूमि जबरन ली। वे मौका मिलने पर विरोधियों को सबक सिखाने से भी नहीं चूकतीं। सत्ता मिली तो उन्होंने मुलायम सिंह सरकार के कार्यकाल में भर्ती हुए करीब 18 हजार पुलिस कर्मियों को अनियमितता का आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया। अधिकारियों का स्थानांतरण और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी माया खूब करती हैं।
मायावती की राजनीतिक सक्रियता से निश्चय ही दलितों के हौसले बुलंद हुए। उत्तर प्रदेश में उन्हें सत्ता मिलने के बाद दलितों की स्थिति में सुधार की उम्मीद भी की गई, लेकिन जमीनी स्तर पर वे आज भी अपने सामाजिक-आर्थिक उद्धार की बाट जोह रहे हैं। हां, वे विरोधियों से एक बड़ा वोट बैंक जरूर छीन ले गईं। माया का खौफ ही है कि आज कांग्रेस के ‘युवराजज् से लेकर भाजपा अध्यक्ष तक दलितों के घर भोजन करने, उन्हें गले लगाने जब-तब उनके घर पहुंच जाते हैं और दलित बेचारे इसी में खुश।
माया की राजनीति का आधार बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर का दलितों के उत्थान के लिए वह फार्मूला है कि राजनीतिक ताकत हासिल किए बगैर वास्तव में समाज के इस शोषित/वंचित वर्ग का कल्याण संभव नहीं है। इसलिए सत्ता के लिए उन्हें न तो ‘मनुवादियोंज् से हाथ मिलाने से परहेज रहा और न ही ‘समाजवादियोंज् से। वे बार-बार दलितों के बीच बाबा साहब के इस फॉर्मूले को दोहराती हैं और उन्हें बताती हैं कि सत्ता हासिल करने के लिए वे जो भी तरीका अपनाती हैं, गलत नहीं है। लेकिन येन-केन-प्रकारेण उनके सत्ता हासिल करने के बाद भी दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पहले से बहुत बेहतर नहीं है। हां, सत्ता हासिल करने के बाद मायावती ने उत्तर प्रदेश में जगह-जगह दलित उद्धारकों के नाम पर करोड़ों की लागत से पार्क और उनकी मूर्तियां जरूर लगवाईं और इन की सुरक्षा के लिए उन्होंने विशेष पुलिस बल का गठन भी किया है। इस कड़ी में उन्होंने खुद को भी नहीं छोड़ा। इस मामले में उन्हें सुप्रीम कोर्ट से नोटिस तक मिल चुका है।
इस सबके बावजूद मायावती अपने समर्थकों में खासी लोकप्रिय हैं। समर्थकों के बीच उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक कार्यकर्ता ने उन्हें इसी साल जनवरी में उनके जन्मदिन पर चांद पर जमीन उपहारस्वरूप भेंट की। वे अपने समर्थकों से साफ कहती भी हैं कि उन्हें उपहारस्वरूप रुपए, पैसे, जेवरात और कीमती सामान ही दिए जाएं, फूलों का गुलदस्ता या सिर्फ शुभकामनाएं नहीं।
पं्रह जनवरी, 1956 को उत्तर प्रदेश के रामपुर में हिन्दू जाटव (चमार) बिरादरी में पैदा हुईं मायावती एक दिन प्रदेश की मुख्यमंत्री बनेंगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। हां, पिता प्रभु दास संचार विभाग में क्लर्क थे, इसलिए एक आम दलित परिवार से उलट बेटी की पढ़ाई-लिखाई को लेकर सचेत जरूर थे। दिल्ली के कालिंदी कॉलेज से कानून और बाद में शिक्षा की डिग्री लेने के बाद मायावती दिल्ली के एक स्कूल में प्राध्यापिका बन गईं। हालांकि इस बीच वे प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी में भी जुटी रहीं, कलेक्टर बनने के लिए। लेकिन इसी दौरान बसपा सुप्रीमो कांशीराम से उनकी मुलाकात हुई और यही से बदल गई उनके जीवन की दिशा। माया को राजनीति में आने देने के लिए उन्होंने बड़ी मुश्किल से उनके पिता को यह कहकर मनाया कि यह रानी बनेगी, जो कई कलेक्टरों के भाग्य निर्धारित करेगी। सच माया यही कर भी रही हैं। सत्ता में रहते उन्होंने कलेक्टरों को कभी चैन से नहीं रहने दिया। स्थानांतरण और अनुशासनात्मक कार्रवाई की तलवार हमेशा उन पर लटकाए रखी।
कांशीराम ने पहली बार माया को 1984 में मुजफ्फरनगर जिले की कैराना लोकसभा सीट से मैदान में उतारा, हालांकि वे चुनाव हार गईं। 1989 में वे पहली बार बिजनौर से लोकसभा चुनाव जीतीं। 1995 में वे पहली बार समाजवादी पार्टी के सहयोग से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। 1997 में दूसरी बार और 2002-03 में तीसरी बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं। हालांकि उनका तीनों कार्यकाल काफी छोटा रहा। लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती एक नया सामाजिक फार्मूला अपनाते हुए दलितों के साथ-साथ ब्राह्मणों व अगड़ी जाति के लोगों को भी लेकर चुनाव मैदान में उतरीं और भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आईं। सत्ता प्राप्ति के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश को ‘उत्तम प्रदेशज् बनाने की बात कही। लेकिन यह भी सच है कि प्रदेश रुपयों को विकास कार्यो पर खर्च करने से उत्तम बनेगा, न कि माया द्वारा उनकी माला पहनने से।