मंगलवार, 25 मई 2010

आनंद विश्व-नाथन

विश्वनाथन आनंद ने शतरंज में विश्व चैम्पियनशिप का खिताब लगातार तीसरी बार बरकारार रखा। उनकी जीत देश के करोड़ों खेल प्रेमियों के लिए खुशी लेकर आई, जो टी20 में भारतीय टीम की हार से आहत थे। उनकी मां को तो खर यकीन था बेटे की लगन और मेहनत पर, देश के लोगों को भी भरोसा था कि आनंद फिर चैम्पियन बनेंगे। लगातार खिताब जीतकर उन्होंने सभी को अपनी प्रतिभा का कायल किया है। उन्होंने यह यकीन बनाए रखा। बुल्गारिया के वेसलीन तोपालोव को उन्होंने कठिन मुकाबले में हराया और खुद माना कि तोपालोव एक मंङो हुए खिलाड़ी हैं।





विश्वनाथन आनंद, शतरंज के शहंशाह। अपनी लगन और एकाग्रता से चौथी बार और लगातार तीसरी बार जीता विश्व चैम्पियनशिप का खिताब। आखिर किसे न नाज हो, ऐसे चैम्पियन पर। उनके माता-पिता को भी है, उस राज्य को भी है जहां से वे आते हैं और देश की करोड़ों जनता को भी। यूं तो हर जीत मायने रखती है, लेकिन इस बार यह कुछ अधिक खास है। विशेषकर खेल प्रेमियों के लिए, जो टी20 में भारतीय टीम की हार के बाद करीब-करीब सदमे की हालत में थे। ऐसे में आनंद की जीत ने उनके हारे मन को जसे उत्साह व आशा से भर दिया।

दोस्तों में ‘विशिज् और समर्थकों में ‘टाइगर ऑफ म्रासज् के नाम से मशहूर आनंद को शतरंज के मोहरों से परिचित कराया उनकी मां ने, जब वे सिर्फ छह साल के थे। वह मां ही थीं, जिन्होंने उन्हें शतरंज की बिसात पर शह-मात का खेल सिखाया। मां और पिता के दुलारे ‘बाबाज् ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। स्कूल और पढ़ाई से जब भी वक्त मिलता, वे मां के साथ बैठ जाते थे शतरंज के प्यादों से शह-मात का खेल खेलने। बड़ा भाई और बड़ी बहन भी थीं घर में। बहन उम्र में करीब 11 साल बड़ी थीं तो भाई 13 साल। लेकिन कोई उनके साथ शतरंज खेलने नहीं बैठता था, क्योंकि इस खेल में जिस धर्य की जरूरत थी, वह उनमें नहीं था। इसलिए आनंद अधिकतर मां के साथ ही शतरंज के मोहरों से खेलते थे।

घर में खेलते-खेलते मां को ‘बाबाज् की प्रतिभा का भान हुआ। उन्हें लगा सिर्फ घर में खेलते रहे तो बेटे की पूरी प्रतिभा शायद निखर कर न आ पाए। इसलिए उन्होंने उसे प्रशिक्षण के लिए भेजा, तब शायद ही उन्हें अंदाजा हो कि उनका यह लाल एक दिन विश्व चैम्पियन बनकर न केवल उन्हें, बल्कि पूरे देश को गौरवान्वित करेगा। स्कूली पढ़ाई के दौरान आनंद सप्ताहांत में शतरंज से जुड़ी प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगे और उसमें जीतने भी लगे। यह सिलसिला जिला स्तर की स्पर्धाओं में भी जारी रहा। फिर राज्य स्तरीय, राष्ट्र स्तरीय और अंतत: अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में आनंद ने आशानुरूप हमेशा उम्दा प्रदर्शन किया और जूनियर, सब-जूनियर व सीनियर श्रेणियों में कई खिताब अपने नाम किए।

उनकी मां याद करती हैं, जब आनंद के पिता की पोस्टिंग दो साल के लिए फिलिपीन्स में हुई तो कैसे शतरंज के प्रति वहां के लोगों में खास लगाव ने ‘बाबाज् को प्रभावित किया। उन्होंने वहां देखा कि लोग बसों और पार्क में भी वक्त मिलते ही शतरंज के मोहरों से खेलना शुरू कर देते थे। शतरंज के प्रति लोगों के इस लगाव को आनंद ने कई बार फिलिपीन्स में यहां-वहां आते-जाते देखा। निश्चय ही इन सबने शतरंज के प्रति उनकी रुचि और बढ़ाई। वहां की शतरंज प्रतियोगिताओं में तब जीतने वाले को किताबें मिला करती थीं। उन्हें याद है आनंद ने भी कई स्पर्धाएं जीतीं और पुरस्कारस्वरूप किताबें भी।

ग्यारह दिसंबर, 1969 को म्रास (अब चेन्नई) में पिता विश्वनाथन और मां सुशीला की तीसरी संतान के रूप में जन्मे आनंद ने केवल चौदह की साल की उम्र में 1983 में राष्ट्रीय सब-जूनियर चैम्पियनशिप जीता और सत्रह साल की उम्र में राष्ट्रीय चैम्पियनशिप। सभी इस किशोर की प्रतिभा से चकित थे, जो बड़ी तेजी से खेल निपटा लेता था। शतरंज की 40 चाल के लिए तय मानक समय 120 मिनट है, जबकि आनंद इसे केवल 30 मिनट में निपटा लेते हैं। बिजली की सी तेजी से शह-मात का खेल खेलन वाले इस ‘लाइटनिंग किडज् ने 1987 में वर्ल्ड जूनियर चेस चैम्पियनशिप जीता। यह खिताब जीतने वाले वे पहले एशियाई थे। 1988 में आनंद भारत के पहले ग्रैंडमास्टर बने और विश्व के सबसे कम उम्र के ग्रैंडमास्टर।

लेकिन इससे पहले ही वे अंतराष्ट्रीय स्तर पर छा गए थे। 1985 में जब उन्होंने लंदन में एक टूर्नामेंट के दौरान ब्रिटेन के ग्रैंडमास्टर जोनाथन मिशेल को हराया तो भारत के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। शतरंज में रूसी वर्चस्व को तोड़ने के लिए आनंद पश्चिमी जगत के लिए भी उम्मीद की एक किरण बनकर उभरे। इस टूर्नामेंट ने भारत में शतरंज के प्रति विशेष सम्मान पैदा किया। अखबारों और दूरदर्शन पर शतरंज से जुड़ी खबरों व कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जाने लगी। युवाओं की इस खेल में रुचि बढ़ी और अभिभावकों को भी लगा कि शतरंज के खेल में भी उनके बच्चों का भविष्य हो सकता है। साफ है आनंद की जीत ने शतरंज को लेकर देश में क्रांति ला दी।

पहला विश्वचैम्पियनशिप उन्होंने 1995 में रूस के गैरी कास्परोव के खिलाफ खेला। हालांकि वे इसमें हार गए, लेकिन हताश व निराश नहीं हुए। वे पहले की तरह ही पूरी लगन व एकाग्रता से अभ्यास करते रहे। उनके साथ-साथ करोड़ों देशवासियों का सपना साकार हुआ वर्ष 2000 में, जब आनंद पहली बार विश्व चैम्पियन बने। वर्ष 2007 में दूसरी बार उन्होंने यह खिताब जीता। फिर वर्ष 2008 में और अब 2010 में भी लगातार उन्होंने तीसरी बार जीत का सिलसिला बनाए रखना। आनंद की खेल रणनीति को समझने वाले उसे वन मैन आर्मी कहते हैं, जो अकेले ही विरोधियों को पराजित कर देता है।

आनंद केवल खेल में ही नहीं, बल्कि पढ़ाई में भी अव्वल रहे। डॉन बास्को स्कूल से उन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी की और फिर चेन्नई के लोयला कॉलेज से बी. कॉम किया। हर जगह उनका प्रदर्शन उम्दा रहा। निजी जीवन में भी वे बेहद शांत और व्यवहारकुशल हैं। शतरंज से इतर किताबें पढ़ना, तैराकी, संगीत और फिल्में उनकी पसंद हैं। वे रॉक संगीत और एक्शन फिल्में खास तौर पर पसंद करते हैं। शतरंज पर उन्होंने ‘माई बेस्ट गेम ऑफ चेसज् नाम से एक किताब भी लिखी है, जिसे 1998 में ब्रिटिश चेस फेडरेशन ने ‘बुक ऑफ द ईयरज् के खिताब से नवाजा। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने 1987 में केवल अठारह साल की उम्र में उन्हें पद्म श्री सम्मान दिया। इसके अलावा वे अर्जुन पुरस्कार, नेशनल सिटीजन पुरस्कार, राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार, चेस ऑस्कर, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी सम्मानित हो चुके हैं।

सोमवार, 24 मई 2010

राजा बजाएगा बाजा

यूपीए-दो का एक साल पूरा हो गया। तमाम मुद्दों पर विपक्ष ने सरकार को घेरा, लेकिन सबसे ज्यादा हंगामा संचार मंत्री ए राजा के 2जी स्पेक्ट्रम का लाइसेंस निजी कंपनियों को देने पर यह कहकर हुआ कि इससे सरकार को करोड़ों का चूना लगा। यूपीए अपने तमाम वाचाल मंत्रियों से साल भर परेशान रही, पर उससे ज्यादा इस चुप्पा मंत्री से। राजा जितना हंगामा कराएं, उनका बाल भी बांका नहीं हो सकता, क्योंकि वे सहयोगी दल ्रमुक के सदस्य ही नहीं, उसके सुप्रीमो करुणानिधि के करीबी भी हैं।



हाल के दिनों में यूपीए सरकार अपने मंत्रियों के बड़बोलेपन के कारण खूब सुर्खियों में रही। कभी अपनी ही पार्टी कांग्रेस के मंत्रियों ने सरकार को अपनी इस आदत से पसोपेश में डाला तो कभी गठबंधन के सहयोगी दलों के मंत्रियों ने। ऐसे ही एक मंत्री हैं यूपीए के एक अहम सहयोगी दविड़ मुनेत्र कषगम के सांसद ए राजा। पूरा नाम अंदिमुथु राजा है, लेकिन जाने जाते हैं ए राजा के नाम से। कें्र में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालते हैं। लेकिन यूपीए सरकार का यह मंत्री अपने बड़बोलेपन से नहीं, बल्कि अपनी खामोशी से चर्चा में है। स्पेक्ट्रम घोटला सरकार के गले की फांस बन गया, लेकिन मंत्री जी कुछ न बोले। विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी, जमकर का हंगामा किया, लेकिन मंत्री जी फिर भी कुछ न बोले। अधिक पूछो तो केवल ‘नो कमेंटज् जसा छोटा सा कमेंट कर निकलते बनते हैं।

अब तक के सबसे बड़े घोटाले स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर मंत्रीजी काफी दिनों से सुर्खियों में हैं। आरोप है कि वर्ष 2008 में निजी कंपनियों को 2जी (सेकंड जेनेरेशन) का लाइसेंस आवंटित कर उन्होंने सरकार को करोड़ों का चूना लगाया। इन कंपनियों को 2जी का आवंटन वर्ष 2001 की दरों पर किया गया और इसके लिए बोली भी नहीं लगाई गई, बल्कि ‘पहले आओ, पहले पाओज् के आधार पर मंत्री जी ने रेवड़ियों के भाव लाइसेंस का आवंटन निजी कंपनियों को कर दिया। इससे सरकार को 22 हजार करोड़ रुपए का नुकसान होने की बात कही जा रही है, जबकि विपक्षी भाजपा इसे 60 हजार करोड़ रुपए बताती है। सीबीआई ने मामला भी दर्ज कर लिया है। कें्रीय सतर्कता आयोग और लेखा एवं महानियंत्रक परीक्षक भी मामले की जांच कर रखा है। आरोप है कि 2जी आवंटन में मंत्री महोदय ने दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के नियमों व अनुशंसाओं की भी अनदेखी की। उन सभी कंपनियों को दरकिनार कर उन्होंने निजी कंपनियों को लाइसेंस का आवंटन किया, जिसकी अनुशंसा ट्राई ने की थी।

सीबीआई ने मामले की जांच के दौरान दूरसंचार विभाग के दफ्तर में छापे भी मारे और कई अधिकारियों से इस सिलसिले में पूछताछ की। जाहिर तौर पर पूरे प्रकरण ने विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा थमा दिया। घोटाले और दूरसंचार विभाग के दफ्तर में छापेमारी को मुद्दा बनाकर विपक्ष लगातार उनके इस्तीफे की मांग कर रहा है। विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाकर संसद में कामकाज ठप कर दिया। लेकिन मंत्री महोदय ने सबको ठेंगा दिखा दिया। कहा, इस्तीफे का सवाल ही नहीं उठता। हालांकि यह मुद्दा सरकार के गले की फांस बन गया। विपक्ष ने संसद में कामकाज ठप कर दिया, लेकिन सरकार ने अपने एक अहम सहयोगी दल के इस मंत्री पर हाथ डालना मुनासिब नहीं समझा। इसकी वजह निश्चय ही डीएमके का एक बड़ा संख्या बल है, जिसके 18 सांसदों के जाने से सरकार की स्थिरता पर असर पड़ सकता है।

यूपीए सरकार में राजा दूसरी बार संचार मंत्री बने हैं। इससे पहले 2007 में उन्होंने संचार मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली थी। तब उन्होंने देश के कोने-कोने में जनता को सस्ती दरों पर टेलीफोन सुविधा मुहैया कराने का वादा किया था। काफी हद तक उन्होंने इसमें कामयाबी भी हासिल की, लेकिन स्पेक्ट्रम घोटाले ने उनकी तमाम उपलब्धियों पर ग्रहण लगा दिया। राजा जनता को दस पैसे की दर पर एसटीडी सुविधाएं मुहैया कराने की बात कह रहे हैं। इसमें वे कहां तक कामयाब होंगे, यह आने वाले दिनों में ही साफ हो पाएगा।

राजा तमिलनाडु में नीलगिरि संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे तीसरी बार सांसद निर्वाचित हुए हैं। पार्टी सुप्रीमो करुणानिधि के करीबी हैं, इसलिए भी कें्र ने उनके खिलाफ कोई कदम उठाने से परहेज किया, क्योंकि राजा के खिलाफ कार्रवाई का मतलब था, ्रमुक सुप्रीमो को नाराज करना, जिन्होंने काफी मोल-तोल के बाद दूसरी बार यूपीए सरकार को समर्थन देने पर सहमति जताई। हाल में करुणानिधि जब दिल्ली आए तब उन्होंने भी राजा के इस्तीफे से इनकार कर इस सिलसिले में उठ रहे शोर को दबा दिया। उन्होंने कहा कि राजा दलित हैं, इसलिए उनका विरोध हो रहा है।

राजा दक्षिण के राज्यों में उसी दलित राजनीति का हिस्सा हैं, जिसका उदय पेरियार के नेतृत्व में हुआ और जिसके बाद ऊंची जातियों की राजनीति वहां हाशिये पर चली गई। लेकिन घोटाले के आरोप से घिरा यह मंत्री दलितों के कम ‘दलित राजनीतिज् के अधिक करीब लगता है।

वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब राजा पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा। इससे पहले उन पर म्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को प्रभावित करने का आरोप भी लग चुका है। कहा गया कि उन्होंने एक डॉक्टर की अग्रिम जमानत को लेकर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को प्रभावित करने का प्रयास किया, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। तब भी राजा ने अपने स्वाभानुसार बार-बार पूछे जाने पर भी केवल इतना कहा, ‘मैं सभी आरोपों से इनकार करता हूं। इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता।ज्

राजा तब भी सुर्खियों में आए थे, जब वर्ष 2008 में श्रीलंका ने तमिल व्रिोहियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। कार्रवाई में तमिल नागरिकों के प्रभावित होने की बात कह ्रमुक के नेताओं ने कें्र पर इस बात के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह श्रीलंका सरकार से तमिल नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कहे। दबाव की इस रणनीति के तहत पार्टी के 14 सांसदों ने इस्तीफा दे दिया, जिसमें राजा भी शामिल थे। लेकिन यह इस्तीफा राजनीतिक खेल का एक हिस्सा था। सांसदों ने इस्तीफा अपने पार्टी सुप्रीमो को सौंपा था और इसमें तिथि भी बाद की लिखी थी।

सिर्फ उपचार, नहीं निदान

प्रसिद्ध पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता देवदत्त से बातचीत पर आधारित


इस सारकार ने अपने पहले साल में यथास्थिति को बनाए रखने का ही काम किया है। न कोई नई नीति सामने आई और न ही कोई नया कदम उठता दिखा। महिला आरक्षण विधेयक, शिक्षा का अधिकार जसे काम महत्वपूर्ण जरूर हैं, पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जसे काम अच्छा होते हुए भी राहत भर हैं, समस्या का समाधान नहीं। हमारी अमेरिका परस्ती बढ़ी है। नौकरशाही का वर्चस्व बढ़ा है और भ्रष्टाचार का तंत्र और मजबूत हुआ है।



सबसे पहले तो मीडिया में सरकारों के साल भर के कार्य का जो लेखा-जोखा होता है, वह रस्म अदायगी भर है। इसका कोई विशेष फायदा नहीं है और न ही यह कोई खास मायने रखता है। हां, इससे सरकार के कार्य के प्रति एक जनमत जरूर तैयार होता है, जिससे सरकार पर अपनी नीतियों को अमल में लाने और जनता से किए गए वादे को पूरा करने का दबाव बनता है। फिर, एक साल में किसी भी सरकार के कार्य का लेखा-जोखा देखकर उसकी सफलता या असफलता का अंदाज लगाना मुश्किल है। भारतीय लोकतंत्र में सरकारों का कार्यकाल पांच साल इसलिए निर्धारित किया गया है, क्योंकि उन्हें अपनी नीतियों के क्रियान्वयन में इतना वक्त तो लग ही जाता है। इसलिए मुङो लगता है, मीडिया को इस रस्म अदायगी पर दोबारा विचार करना चाहिए।

बहरहाल, यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल को शुरू हुए एक साल हो गया है और जिन आधारों पर इसके कार्यो का मूल्यांकन किया जा सकता है, उन्हें राष्ट्रीय एवं सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के रूप में विभाजित किया जा सकता है। महंगाई, नक्सलवाद और जाति आधारित जनगणना को राष्ट्रीय मुद्दों की श्रेणी में रखा जा सकता है, तो शिक्षा, खाद्य सुरक्षा, महिला आरक्षण जसे मुद्दों को सामाजिक श्रेणी में रखा जा सकता है। इन सभी मुद्दों पर यूपीए-2 सरकार का पिछले एक साल का कार्यकाल प्रथम दृष्टया पिछली स्थिति बनाए रखने जसा है। यानी इस एक साल में सरकार ने कोई नया कदम नहीं उठाया है और न ही कोई नई नीति तैयार की है।

खास तौर पर, नक्सलवाद के मुद्दे पर सरकार की नीति भ्रामक लगती है। नक्सलवाद की समस्या पिछले 20 साल से है, लेकिन इतनी बुरी स्थिति पहले कभी नहीं थी, जितनी आज है। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने यह कहकर मामले को और उलझा दिया कि जो भी नक्सलियों की विचारधारा का समर्थन करेंगे, उसे लोकतंत्र विरोधी कहा जाएगा। सरकार नक्सल समस्या के कारण का मूल ढूंढ़ने की कोशिश नहीं कर रही है। इसे लेकर सरकार की कोई स्पष्ट नीति सामने नहीं आ रही और न ही लोगों को इसका पता चल पा रहा है। प्रधानमंत्री की भी इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट राय नहीं है।

महंगाई के मुद्दे पर भी सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं दिख रही। आम लोगों को फिलहाल इससे राहत मिलती नहीं दिख रही। हां, सरकार म्रुास्फीति व महंगाई दर के तमाम आंकड़े पेश कर अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश जरूर कर रही है। लेकिन यह ऐसा मुद्दा है, जिसे आंकड़ों से नहीं, बल्कि बुनियादी सूझ-बूझ से ही सुलझाया जा सकता है। अक्सर इसे लेकर राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी थोपकर कें्र अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश करता है।

दरअसल, वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण की जो नीति शुरू की थी, यह उसी का परिणाम है कि आज ये समस्याएं वैश्विक रूप ले चुकी हैं और इनका कोई समाधान नहीं दिखता। हमारी सरकार जिस तरह की अमेरिकी आर्थिक नीति पर चल रही है, उससे भारत की ग्रामीण समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को लागू करना निश्चय ही एक अच्छा कदम है, लेकिन यह राहत देने जसा भर है, समाधान नहीं।

इसी तरह, जाति आधारित जनगणना की अनुमति देकर सरकार ने एक नई बहस छेड़ दी है। इसे लेकर दो खेमों में बहस छिड़ गई है, एक वे जो इसके पक्ष में हैं और दूसरे वे जो इसके खिलाफ हैं। के सुब्रमण्यम जसे बुद्धिजीवियों ने तो इसके खिलाफ अभियान छेड़ने की बात भी कही है। कुल मिलाकर, इन तीनों मुद्दों पर सरकार की कोई स्पष्ट नीति नहीं दिखती और न ही कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया।

विदेश नीति की बात की जाए तो सरकार ने पूरी तरह इसे अमेरिका समर्थित बना दिया है। अमेरिका से भारत की निकटता जितनी आज है, पहले कभी नहीं थी। अमेरिका के साथ इसके संबंधों को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत केवल औपचारिक रूप से गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का हिस्सा भर बनकर रह गया है, जबकि इसे शुरू करने में कभी भारत ने अहम भमिका निभाई थी। पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर बनाने की भी सरकार ने कोशिश की है। खासकर, दोनों देशों के नागरिकों को जोड़ने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन इसके पीछे भी वजह के रूप में अमेरिका से हमारे संबंधों को खारिज नहीं किया जा सकता। अब देखने वाली बात यह होगी कि कश्मीर जसे ठोस मुद्दों को हल करने में सरकार का फैसला अमेरिकी झुकाव वाला होता है या राष्ट्रीय हितों के हक में। वहीं दूसरी ओर, सरकार ने उत्तर-पूर्व के राज्यों को राष्ट्रीय चेतना के साथ जोड़ने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया, जो चिंता की बात है।

पिछले कुछ सालों में भारत विश्व पटल पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्र के रूप में उभरा है। विशेषकर, एशिया की एक बड़ी ताकत के रूप में उसे देखा जा रहा है, लेकिन उसने कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। वैश्विक स्तर पर नेतृत्व के मामले में देश की स्थिति कुछ-कुछ कांग्रेस जसी ही है, जहां नेतृत्व का संकट है और लोगों को मनमोहन के बाद राहुल गांधी के अलावा प्रधानमंत्री पद का कोई योग्य दावेदार नहीं मिल रहा। कहा जा सकता है कि हमारा देश सैन्य, सुरक्षा व कूटनीतिक रूप से तो मजबूत है, लेकिन राजनीतिक रूप से कमजोर।

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में नौकरशाही का वर्चस्व बढ़ा है। नए सांसदों का कार्य भी बहुत बेहतर नहीं है। भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है, जो आज भी बरकरार है। हां, इन दिनों यह नए रूप में उभरकर सामने आया है। भ्रष्टाचार का नया रूप औद्योगिक भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया है। इसके लिए भी काफी हद तक आर्थिक उदारीकरण की नीति जिम्मेदार है, जिससे औद्योगिक इकाइयों का बोलबाला बढ़ा है और सरकार उसके प्रभाव में है।

हां, महिला आरक्षण और शिक्षा के अधिकार को लेकर सरकार ने सराहनीय काम किया है। अनिवार्य शिक्षा अधिकार का विधेयक पारित कर सरकार ने अशिक्षा समाप्त करने की कोशिश तो की है, लेकिन इसे लागू करने में अभी कई मुश्किलें आनी हैं। कई राज्यों की सरकारों ने पैसा कम होने की बात कह इसे लागू करने में होने वाली मुश्किलें सामने रख दी हैं। इसी तरह, सरकार ने महिला आरक्षण का विधेयक राज्य सभा में तो पारित करवा लिया, लेकिन लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं से इसे पारित करवाना एक मुश्किल काम होगा।

सोमवार, 10 मई 2010

तूलानी नहीं तहलियानी

न्यायाधीश मदन लक्ष्मणदास तहलियानी को पूरा देश जानता है। सभी तारीफ कर रहे हैं कि कस्साब मामले की सुनवाई रिकॉर्ड समय में हुई। लेकिन यह उनकी मेहनत और अपने कार्य के प्रति एकाग्र निष्ठा के कारण संभव हुआ। तहलियानी का यह विशेष गुण है और इसे वे पहले भी कई बार प्रदर्शित कर चुके हैं।

मुंबई हमलावारों में से पकड़े गए एक मात्र जिंदा आतंकवादी अजमल आमिर कस्साब को मौत की सजा सुनाई गई। उसे सजा सुनाने वाले न्यायाधीश हैं एम एल तहलियानी, यानी मदन लक्ष्मणदास तहलियानी। अपने करीब 23 साल के न्यायिक कॅरियर में पहली बार मौत की सजा सुनाने वाले न्यायमूर्ति तहलियानी ने दो टूक कहा कि कस्साब को जीने का कोई अधिकार नहीं है। उसने जो जुर्म किया, उसके लिए मौत की सजा से कम कुछ नहीं दिया जा सकता। उन्होंने बचाव पक्ष की यह दलील भी पूरी तरह खारिज कर दी कि कस्साब कच्ची उम्र का है और वह पाकिस्तान में बैठे लश्कर के आकाओं के हाथों बस मोहरा बन गया। उसे सुधरने का एक मौका दिया जाए। न्यायाधीश ने साफ कहा कि उसके सुधरने की कोई संभावना नहीं है। वह अपनी मर्जी से आतंकवादी बना और भारत पर हमला किया। उसे मौत से कम कोई भी सजा देने का अर्थ होगा लोगों का न्यायपालिका पर से भरोसा उठ जाना। न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए भी जरूरी है कि उसे मौत की सजा दी जाए।

आपराधिक व दीवानी, दोनों कानूनों में पारंगत तहलियानी कठोर, पर निष्पक्ष न्याय के लिए जाने जाते हैं। इस मामले में एक बार फिर उनकी निष्पक्षता साफ हुई। एक ओर उन्होंने कस्साब को पांच मामलों में मौत और इतने ही मामलों में उम्रकैद की सजा सुनाई तो हमलावरों को मदद मुहैया कराने के आरोप में गिरफ्तार फहीम अंसारी और सबाउद्दीन को उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं होने की बात कह बरी भी कर दिया। निश्चय ही न्यायाधीश तहलियानी का फैसला ऐतिहासिक है। इतना ही नहीं, जब कोई भी वकील कस्साब की पैरवी के लिए तैयार नहीं था, तो उन्होंने इस मामले में सख्ती अपनाते हुए वकीलों को कस्साब की पैरवी के लिए कहा, क्योंकि वे सिर्फ अभियोजन पक्ष की दलीलों पर एक तरफा फैसला नहीं सुनाना चाहते थे। सबसे पहले उन्होंने अंजलि वाघमारे को कस्साब का वकील नियुक्त किया। लेकिन जब उन्हें पता चला कि वे इस मामले में एक गवाह की भी वकील हैं, तो उन्होंने अंजलि को कस्साब की पैरवी से हटा दिया और अब्बास काजमी को उसका वकील नियुक्त किया। हालांकि बाद में उन्हें भी अदालत से सहयोग न करने के आधार पर हटा दिया गया और केपी पवार को कस्साब का वकील नियुक्त किया गया।

न्यायमूर्ति तहलियानी इससे पहले भी कई हाई प्रोफाइल मामलों की सुनवाई कर चुके हैं। संगीत सम्राट कहे जाने वाले गुलशन कुमार के साथ-साथ उन्होंने ट्रेड यूनियन के नेता दत्ता सामंत की हत्या मामले की भी सुनवाई की, जिन्हें छोटा राजन गिरोह के गुंडों ने 1997 में गोली मार दी थी। न्यायमूर्ति तहलियानी बेहद कठिन परिस्थितियों में भी अपना धर्य व संयम बनाए रखने के लिए जाने जाते हैं। मुंबई हमले की सुनवाई के दौरान भी कई बार ऐसे मौके आए, जब अदालत का माहौल तनावपूर्ण हो जाता था। खास कर तब जब अभियोजन और बचाव पक्ष के बीच तीखी बहस हो जाती थी। लेकिन ऐसे वक्त में भी उन्होंने अपना आपा नहीं खोया और अपनी व्यवहार कुशलता से अदालत की गरिमा बनाए रखी।

वे मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए भी जाने जाते हैं, लेकिन इस क्रम में कभी मामले से जुड़े विभिन्न पहलुओं या तथ्यों की अनदेखी नहीं करते। जब तक मामला पूरी तरह से न निपटा लें, कोई छुट्टी न तो खुद लेते हैं और न ही अपने सहयोगियों को देते हैं। अदालत की सुनवाई स्थगित करने की दलीलों को भी वे सिरे से खारिज कर देते हैं। मुंबई हमलों की सुनवाई उन्होंने रिकॉर्ड एक साल से भी कम समय में पूरी की। इस दौरान उन्होंने दीवाली के दिन भी काम किया और उस दिन भी जब अदालत की सुनवाई नहीं थी। मामले जुड़े प्रशासनिक कार्य में भी उन्होंने आगे बढ़कर रुचि ली और इसे पूरा किया, ताकि मामले का निपटारा जल्द से जल्द किया जा सके। इसके लिए लोग उनके कायल हैं, लेकिन उनका यही रुख कई बार बचाव पक्ष के वकीलों के लिए सिरदर्द बन जाता है। उन्होंने तब भी अदालत की कार्यवाही स्थगित नहीं की, जब अब्बास काजमी ने मामले के अध्ययन के लिए थोड़ा वक्त मांगा था। न्यायाधीश तहलियानी से यह शिकायत फहीम अंसारी की वकील सबा कुरैशी को भी रही।

तेरह जनवरी, 2009 को वे मुंबई हमले से जुड़े मामले की सुनवाई के लिए न्यायाधीश नियुक्त होने के बाद लगभग हर दिन उन्होंने आर्थर रोड जेल जाकर वहां ट्रायल रूम के लिए चल रहे काम-काज का जायजा लिया, जिसे वातानुकूलित बनाया जा रहा था। 56 वर्षीय न्यायाधीश तहलियानी कई भाषाओं के जानकार हैं। वे जितनी अच्छी हिंदी और अंग्रेजी बोलते हैं, उतनी ही अच्छी मराठी भी। उन्हें उर्दू की भी काफी हद का जानकारी है, जिसका फायदा उन्हें मामले की सुनवाई के दौरान कस्साब से बातचीत में हुआ। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मामलों में उनकी गहरी रुचि है और अक्सर रात में वे इंटरनेट के जरिये ऑनलाइन विदेशी अखबार पढ़ते हैं।

बतौर न्यायधीश मामले के पक्ष को लेकर वे कस्साब के साथ सख्ती से पेश आए तो कैदी के मानवाधिकारों को ध्यान में रखते हुए वे कभी उससे उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछना नहीं भूलते थे। अनुशासन व साफ-सफाई पसंद न्यायमूर्ति तहलियानी को बागवानी का भी शौक है। उनका परिवार मूलत: राजस्थान का रहने वाला है, जो आगे चलकर महाराष्ट्र के चं्रपुर जिले में बस गया। सिंधी परिवार में जन्मे तहलियानी ने नागपुर से दसवीं की परीक्षा पास की और फिर नागपुर विश्वविद्यालय के गोंदिया के एनएमडी कॉलेज से वाणिज्य एवं कानून में स्नातक की डिग्री ली। गोंदिया से ही उन्होंने बतौर अधिवक्ता प्रैक्टिस शुरू की, लेकिन बाद में चं्रपुर आ गए। फिर गढ़चिरौली, वाडसा और सिरोंचा में वे सरकारी वकील रहे। बतौर न्यायाधीश उनका कॅरियर 1987 में मुंबई की बां्रा अदालत में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के रूप में शुरू हुआ। एक दशक बाद यानी 1997 में उन्हें मुंबई की सत्र अदालत में सत्र न्याधीश के रूप में पदोन्नत किया गया। फिर वर्ष 2000 में उन्हें शहर के दीवानी व सत्र न्यायाधीश के रूप में भी पदोन्न किया गया। उसी साल वे मुंबई हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार भी बनाए गए। विशेष न्यायाधीश के रूप में उन्होंने सीबीआई से जुड़े मामलों की भी सुनवाई की। मुंबई हमले में सजा सुनाने के दिन ही उन्हें चैन नसीब हुआ और मामले से जुड़े दस्तावेजों की फाइलें ले जाने से छुट्टी भी। उस दिन शाम को वे टहलने भी निकले।

मंगलवार, 4 मई 2010

कलंकित माधुरी!

माधुरी गुप्ता के कारनामे से देश सकते में है। पाक के लिए जासूसी कर रही यह महिला कहने को वहां उच्चायोग में भारतीय राजनयिक थी। गनीमत यह है कि अतिगोपनीय सूचनाएं इस बी ग्रेड अधिकारी की पहुंच से दूर थीं। फिर उसका कारनामा उसके पेशे पर दाग लगा गया। उसके जासूसी में पड़ने के जो भी कारण रहे हों, यह साफ है कि उसने संगीन अपराध किया। हर कारण इस अपराध से बहुत छोटा है।



माधुरी गुप्ता जासूस! या भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी! किस रूप में उन्हें पहचाना जाए, कहना मुश्किल। आरोप है कि उसने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई को संवेदनशील जानकारियां दी और ऐसा करके उसने देश से गद्दारी की। हाल में दिल्ली पुलिस ने उन्हें ऐसे वक्त गिरफ्तार किया, जब वह भारत आई। या यूं कहें कि उन्हें भारत बुलाया गया, गिरफ्तारी के लिए, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की तैयारियों के सिलसिले में बातचीत के बहाने। वह आई और गिरफ्तार हो गई। अब जारी है पुलिस की उससे पूछताछ।

माधुरी ने आईएसआई को भारत से संबंधित संवेदनशील जानकारियां किस तरह मुहैया करवाई, यह भी खासा दिलचस्प है। भारतीय विदेश सेवा के समूह-बी की यह अधिकारी एक पाकिस्तानी के प्रेमजाल में इस कदर उलझीं कि फिर देश सेवा कहीं बहुत पीछे रह गई। फिलहाल यह साफ नहीं हो पाया है कि ‘राणाज् नाम का वह व्यक्ति आईएसआई से संबद्ध है या वहां की सेना से। समझा जा रहा है कि माधुरी ने धर्म परिवर्तन भी कर लिया और अब वह एक शिया मुस्लिम महिला है। इस्लाम में उसकी गहरी आस्था बताई जा रही है, जिसमें धर्म परिवर्तन उसने छह साल पहले ही कर लिया था। लेकिन आलोचनाओं और अतिवादियों के डर से उसने इसे छिपाए रखा।

उसके द्वारा पाकिस्तान तक खुफिया जानकारी पहुंचाने का एक अन्य कारण काम की बेहतर परिस्थितियां न होना भी बताया जा रहा है। शुरुआती पूछताछ में उसने बताया भी है कि उसके काम करने की परिस्थितियां बेहद निराशाजनक थीं और एक लंबे अरसे से उसकी तरक्की नहीं हुई थी। इसलिए भारतीय अधिकारियों के प्रति उसमें गुस्सा था। ऐसे में उसने भारत के खिलाफ पाकिस्तान के लिए काम करने का मन बनाया। ऐसा करके वह भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों को सबक सिखाना चाहती थी, जो माधुरी के ही अनुसार लोगों से अच्छा व्यहार नहीं करते। उसे इस बात का भी दु:ख था कि भले ही वह कितनी भी प्रतिभावान हो, लेकिन विदेश सेवा में उसे दोयम दज्रे के अधिकारी का स्थान ही मिला।

पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायोग में द्वितीय सचिव के पद पर तैनात 53 वर्षीया माधुरी को यह दर्जा कई साल बाद मिला, जबकि मुख्य आईएफएस के अधिकारियों को आम तौर पर तीन साल के बाद ही यह दर्जा मिल जाता है। 2007 में उसकी नियुक्ति पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायोग में हुई थी। पाकिस्तान में नियुक्ति से पहले वह नई दिल्ली के सप्रू हाऊस में भारतीय विदेश नीति के थिंक टैंक इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर (आईसीडब्ल्यूए) में कार्यरत थी। 2006-07 के दौरान उसने आईसीडब्ल्यू में सहायक निदेशक के रूप में कार्य किया। पाकिस्तान के लिए जासूसी करने की उसकी गतिविधियां तब संदेह के घेरे में आई, जब वह अपने कार्यक्षेत्र से बाहर जाकर वहां दूसरे काम भी करने लगीं। वह वहां उच्चायोग के प्रेस व सूचना विभाग में कार्यरत थी। उर्दू भाषा पर उसकी बेहतरीन पकड़ है। उसे पाकिस्तान भेजने का एक बड़ा कारण यह भी है। उर्दू के अखबारों में वह खास तौर पर दिलचस्पी लेती थी। कभी उसने उर्दू अखबारों के बारे में कहा भी था कि ‘वास्तविक खबरज् इनमें ही होती है, अंग्रेजी के अखबार नीरस होते हैं और प्राय: एक दिन बाद की खबरें छापते हैं। पिछले करीब एक साल से उसकी गतिविधियां संदेह के घेरे में थीं। उस पर तभी से नजर रखी जा रही थी। बताया जाता है कि ‘राणाज् नाम के व्यक्ति को वह इमेल के जरिये गोपनीय जानकारी मुहैया कराती थी और इसके लिए कार्यालय के कंप्यूटर का नहीं, बल्कि घर के कंप्यूटर का इस्तेमाल करती थी।

माधुरी का यह कदम पूरे देश और खास तौर पर भारतीय विदेश सेवा के लिए किसी झटके से कम नहीं है। भारतीय विदेश सेवा के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब कोई अधिकारी दुश्मन देश के लिए जासूसी करते पकड़ा गया हो। इससे पहले वह बगदाद और कुआलालंपुर में भी भारतीय मिशन में काम कर चुकी है। कुआलालंपुर में उसने भारतीय विदेश मंत्रालय के विदेशी प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘इंडिया पर्सपेक्टिवज् में काम किया। वह मुख्य भारतीय विदेश सेवा की सदस्य नहीं है, बल्कि भारतीय विदेश सेवा के निचले कैडर आईएफएस-बी से संबद्ध थी। अब उसे लंदन या वाशिंगटन जसे किसी देश में पोस्टिंग की उम्मीद थी। कुछ महीने पहले अपने काम को बेहतर बताते हुए उसने बड़े विश्वास से वहां पोस्टिंग की बात कही थी।

जासूसी प्रकरण ने निश्चय ही भारतीय जनमानस और सरकारी प्रतिष्ठानों में उसकी छवि धूमिल कर दी है, लेकिन उसके पुराने परिचितों के लिए इन बातों पर यकीन करना किसी सपने पर यकीन करने जसा ही है। मित्र उसे आज भी सरल व ईमानदार अधिकारी के रूप में याद करते हैं। उनके अनुसार यह उसकी खासियत है कि वह बड़ी आसानी से लोगों से घुलमिल जाती है और नई चीजों को तेजी से अपनाती है। चाहे कपड़ों की बात हो या नए हेयर स्टाइल की, वह हर चीज पर बड़ी बेबाकी से बात करती है। 2007 में पाकिस्तान में नियुक्ति से पहले उसने एक मुस्लिम महिला से उर्दू सीखी। इसके अलावा दिल्ली के जवाहर लाल विश्वविद्यालय से वह पहले ही एक अन्य विदेशी भाषा में सीख चुकी थी। उर्दू पर उसकी पकड़ इतनी अच्छी है कि एक बार के लिए यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि यह उसकी दूसरी भाषा है।

गुरुजी अपरंपार

कटौती प्रस्ताव पर मतदान सबसे दिलचस्प मामला था शिबू सोरेन का। वे झारखंड में भाजपा के साथ सरकार चला रहे थे। मुख्यमंत्री होते हुए उन्हें खास तौर पर बुलाया गया कि पक्ष में वोट बढ़ेगा, लेकिन उन्होंने वोट दिया यूपीए के पक्ष में। जाहिर तौर पर भाजपा भन्ना गई। गुरुजी ने सतता खिसकते देख गलती मानी। माफी मांगी। लुभावनी पेशकश से भाजपा को ललचा दिया।



एक वोट संसदीय प्रणाली में भूचाल ला सकता है। इसकी वजह से कभी सरकार गिर सकती है, तो कभी उसकी स्थिरता पर संकट छा सकता है। बारह साल पहले सिर्फ एक वोट से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में कें्र की भाजपा नीत राजग सरकार गिर गई थी। बारह साल बाद ऐसी ही स्थिति फिर सामने आई, जब झारखंड की सरकार की स्थिरता पर संकट के बादल मंडराने लगे। यह भी गजब का इत्तेफाक रहा कि दोनों वोट दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दिया, जो राज्य में सत्ता संभालने के बावजूद तब तक लोकसभा के सदस्य थे।

बारह साल पहले यानी 1998 में यह वोट था, उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग का और इस बार यह वोट है झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का। 1998 में गोमांग ने वाजपेयी सरकार द्वारा लाए गए विश्वास पक्ष के खिलाफ मतदान कर उनकी तेरह दिन पुरानी सरकार गिरा दी थी, तो इस बार बीस अप्रैल, 2010 को सोरेन ने विपक्ष द्वारा लाए गए कटौती प्रस्ताव पर यूपीए सरकार के खिलाफ मतदान न कर उसके पक्ष में कर दिया। जाहिर तौर पर सोरेन के इस कदम ने भाजपा को आहत किया और उसने इसे गठबंधन धर्म का उल्लंघन बताते हुए ‘विश्वासघातज् करार दिया। भाजपा ने, जो झारखंड में सोरेन की सरकार को समर्थन दे रही थी, तत्काल समर्थन वापसी का फैसला किया। लेकिन समर्थकों में ‘गुरुजीज् के नाम से मशहूर राजनीति के इस चतुर खिलाड़ी ने तुरंत माफी मांग ली। कहा, गलती से डाल दिया सरकार के पक्ष में वोट। पार्टी नेताओं ने कहा कि सोरेन ‘अल्जाईमर्सज् से पीड़ित हैं और इसलिए कई बार उन्हें पता नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं। कटौती प्रस्ताव पर यूपीए सरकार के पक्ष में भी उन्होंने मतदान इसी बीमारी के प्रभाव में किया।

लेकिन सोरेन के अब तक के राजनीतिक कॅरियर को देखते हुए यह बात इतनी छोटी और आसान नहीं जान पड़ती। यह तर्क गले नहीं उतरता कि उन्होंने गलती से सरकार के पक्ष में मतदान कर दिया। दरसअल, सोरेन राजनीति के ऐसे चतुर खिलाड़ी हैं, जो सत्ता में रहने के लिए हर किसी को तौलते हैं। जानकारों के मुताबिक कटौती प्रस्ताव पर मतदान के दौरान उन्होंने न केवल लाल बटन दबाया, बल्कि पर्ची पर भी यूपीए सरकार के पक्ष में ही मतदान किया। ऐसे में यह गलती से उठाया गया कदम नहीं हो सकता। संभव है कि अंदर ही अंदर कांग्रेस से उनकी कोई डील हो गई हो, कें्र में किसी मंत्री पद के लिए उन्होंने ऐसा किया हो, क्योंकि झारखंड राज्य की राजनीति में उनका कॅरियर ढलान पर है। लेकिन कांग्रेस से नकार पाकर उन्होंने एक ऐसा प्रस्ताव भाजपा से कर लिया कि वह बगलें झांकने लगी। समर्थन वापसी के फैसले को जाम कर दिया। सोरेन ने कहा कि वे भाजपा के मुख्यमंत्री के साथ काम करने को तैयार हैं। अब भाजपा में उल्टा बवाल है कि मुख्यमंत्री कौन हो?

पिछले साल तमार विधानसभा सीट से चुनाव हारने के बाद सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था, जिसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा। इस बीच लोकसभा चुनाव में उन्हें जीत मिली। राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी 18 सीट जीतकर आई। भाजपा व कुछ अन्य सहयोगियों के समर्थन से सोरेन फिर मुख्यमंत्री बने। लेकिन मुख्यमंत्री बने रहने के लिए छह माह के अंदर उनका विधानसभा सदस्य चुना जाना आवश्यक है। पर कोई भी उनके लिए सीट खाली करने को तैयार नहीं है। न तो उनके बेटे हेमंत सोरेन दुमका विधानसभा सीट और न ही बहू सीता सोरेन जामा विधानसभा सीट छोड़ने को तैयार हैं।

अब भाजपा भले ही सोरेन के इस कदम को ‘विश्वासघातज् करार दे, लेकिन पिछले करीब तीन दशक के सोरेन के राजनीतिक जीवन को देखते हुए यह उनका कोई चौंकानेवाला कदम मालूम नहीं होता। अपने अब तक के राजनीतिक कॅरियर में सोरेन हमेशा सत्ता के करीब रहे और इसके लिए बार-बार पाला बदलते रहे। 1980 में जब वे पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए तो कांग्रेस (आई) के साथ थे। लेकिन तीन साल बाद ही उन्होंने जनता पार्टी का दामन थाम लिया। पर 1985 में विधानसभा चुनाव के दौरान वे फिर कांग्रेसी खेमे में आ गए। 1990 में वे फिर कांग्रेस के खिलाफ चले गए और 1991 का लोकसभा चुनाव उन्होंने जनता पार्टी के सहयोगी के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा से लड़ा। सोरेन सहित पार्टी के छह सांसद चुने गए। लेकिन जब कें्र की कांग्रेस नीत नरसिम्हा राव सरकार संसद में विश्वास प्रस्ताव लेकर आई तो सोरेन सहित उनके सभी सांसदों ने सरकार के पक्ष में मतदान किया। आरोप लगा कि झामुमो के सांसदों ने नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए साढ़े तीन-तीन करोड़ रुपए लिए। भारतीय संसदीय प्रणाली के अब के सबसे बड़े सांसद रिश्वत कांड में उन्हें जेल भी हुई।

वर्ष 2000 में जब झारखंड बिहार से अलग हुआ तो सोरेन कें्र की तत्कालीन राजग सरकार के साथ हो गए, इस उम्मीद में कि संभवत: भाजपा मुख्यमंत्री बनने में उनका साथ देगी। लेकिन जब पार्टी ने बाबू लाल मरांडी को अपने मुख्यमंत्री रूप में पेश किया तो सोरेन उससे अलग हो गए और एक बार फिर कांग्रेस के साथ चले गए। बाद में वे कें्र में यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान कोयला मंत्री भी बने। लेकिन चिरुडीह नरसंहार में वारंट जारी होने के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस बीच 2005 में वे पहली बार कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के समर्थन से मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार नौ दिन ही चल पाई। विश्वास मत हासिल नहीं कर पाने के कारण उनकी सरकार गिर गई। 2007 में निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बनाने की कांग्रेस और आरजेडी की मुहिम को भी उन्होंने समर्थन दिया, लेकिन सालभर बाद ही उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वे स्वयं मुख्यमंत्री बने, लेकिन तमार विधानसभा का उपचुनाव हार जाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। राज्य में फिर चुनाव हुए। हालांकि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला, लेकिन नतीजे का अंकगणित सोरेन के साथ था। उनके बिना किसी की सरकार नहीं बन सकती थी। राज्य में एक बार फिर अपनी सरकार बनाने के लिए अब तक यूपीए के घटक रहे गुरुजी को सरकार बनाने के लिए एनडीए का सहयोग लेने में कोई हर्ज नहीं दिखा।

एक बार फिर ‘अल्जाईमर्सज् के नाम पर उन्होंने पलटी मारते हुए लोकसभा में कटौती प्रस्ताव पर यूपीए के पक्ष में मतदान कर दिया। सोरेन के पिछले तीन दशक के राजनीतिक उलट-पुलट को देखते हुए कहा जा सकता है कि वे राजनीति के ऐसे चतुर सुजान हैं, जो जानते हैं कि कब किस करवट होना फायदेमंद होगा।