मंगलवार, 29 जून 2010

नीति-नीतीश

नीतीश कुमार के मन में ठीक-ठीक क्या चल रहा है, कोई नहीं जानता। भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार सफलता से चलाई, पर अब कुछ और सोचते लगते हैं। गहरी उधेड़बुन में हैं। अभी मौका मिला तो तेवर दिखा दिया। लेकिन मामला तो गड़बड़ लोकसभा चुनाव से ही लग रहा था। नरें्र मोदी और वरुण की आड़ में मुसलमानों को रिझाने में लगे हैं। लेकिन इस तरह कि सांप भी मरे, लाठी भी न टूटे। भाजपा भी उनके हाथों में एक ऐसे उपकरण की तरह है, जिसे बजाकर वे अपनी पार्टी में भी धाक जमाते-बढ़ाते रहते हैं। नीतीश कुमार की नीति की अंतिम व्याख्या तभी संभव है जब वे उसका खुद खुलासा करें। यह चुनाव के पहले, दौरान या बाद में कभी भी हो सकता है।



बिहार के मुख्यमंत्री हैं नीतीश कुमार। हाल में कोसी राहत कोष के तहत गुजरात के मुख्यमंत्री नरें्र मोदी द्वारा दिए गए पांच करोड़ रुपए का चेक उन्हें लौटाकर चर्चा में आए हैं। हालांकि यह बात बहुत से सीधी-सपाट सोच रखने वाले लोगों के लिए समझ से परे है कि जब चेक लौटाना ही था तो लिया क्यों? लेकिन राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि यह सब वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा है।

नीतीश कुमार जोर-शोर से राज्य विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं और यह कतई नहीं चाहेंगे कि भाजपा, खासकर नरें्र मोदी की वजह से मुसलमान वोट उनसे बिदक जाए। हालांकि मुसलमानों का बहुत समर्थन उन्हें अब भी प्राप्त नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह राज्य में भाजपा का उनके साथ होना है। लेकिन चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुछ ऐसा खेल करना चाहते थे, जिससे भाजपा और खासकर नरें्र मोदी के प्रति उनका नापसंदगी सामने आए। ऐसा करके वे मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करना चाहते थे। इसी कोशिश के तहत उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरें्र मोदी द्वारा दिया गया चेक लौटा दिया और पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पार्टी नेताओं को भोज का निमंत्रण देने के बाद भी उसे रद्द कर दिया। इतने अपमान पर भाजपा का नाराज होना स्वाभाविक था। वह हुई भी, पर इतनी नहीं कि जद (यू) से अलग हो जाए। उसे भी इस जमीनी हकीकत का अंदाजा है कि बिहार में सत्ता का स्वाद उसे जद (यू) के साथ ही मिल सकता है, उसके बगैर नहीं। इसलिए अपमान पर वह तिलमिलाई नहीं, सिर्फ कसमसाकर रह गई और थोड़े ना-नुकुर के बाद फिर मिला लिया हाथ। उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने पहले तो नीतीश की विश्वास यात्रा का बहिष्कार कर दिया, लेकिन फिर आ गए साथ।

इस पूरे प्रकरण में नीतीश कुमार एक मंङो हुए राजनेता के रूप में सामने आए। लेकिन इसका जो फायदा वे लेना चाहते थे, वह फिलहाल मिलता दिखाई नहीं दे रहा। बहरहाल, बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह दूसरा कार्यकाल है। पहला कार्यकाल केवल सात दिन का था। पहली बार वर्ष 2000 में 03 मार्च को उन्होंने मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला था, लेकिन बहुमत साबित नहीं कर पाने की स्थिति में 10 मार्च को ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इस बीच वे कें्र में मंत्री भी बने और कृषि व रेल मंत्रालय संभाला। इससे पहले भी वे कें्र में विभिन्न मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके थे। लेकिन वर्ष 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और भाजपा के सहयोग से उन्हें राज्य में सरकार बनाने का मौका मिला। नवंबर, 2005 में वे राज्य के मुख्यमंत्री बने। इस बार बहुमत की समस्या आड़े नहीं आई।

अपने दूसरे कार्यकाल में नीतीश ने बिहार की जनता को भाजपा के साथ मिलकर स्थाई सरकार दी। पिछले 15 साल से लालू-राबड़ी के शासन से निराश लोगों को बहुत सी उम्मीदें थी इस सरकार से। बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कई उम्मीदों पर खरे भी उतरे। पिछले करीब साढ़े चार साल के शासन के दौरान नीतीश सरकार ने सड़कों व फ्लाईओवर का खूब निर्माण कराया। लेकिन राजधानी पटना सहित कुछ अन्य प्रमुख शहरों को छोड़ दिया जाए तो सड़कों की हालत अब भी बहुत बेहतर नहीं है। बिजली बिहार में एक स्थाई समस्या बनी हुई है। हां, अपराध पर थोड़ा अंकुश जरूर लगा है। शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी सरकार ने कई कदम उठाए हैं। सबसे बढ़कर उन्होंने राज्य के लोगों को सकरात्मक बदलाव की उम्मीद दी, जिसे वे पिछले 15 साल के लालू-राबड़ी शासन के दौरान खो चुके थे।

अपने इस कार्यकाल के दौरान नीतीश ने काम तो किया ही, उसका प्रचार भी जमकर किया। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2005 में नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बाद विज्ञापन पर होने वाला राज्य सरकार का खर्च पहले के मुकाबले पांच गुना बढ़ गया। विज्ञापन नीति में भी साफ कहा गया है कि नकारात्मक खबरें राज्य के हित में नहीं हैं, इसलिए सिर्फ सकारात्मक खबरें आनी चाहिए। बिहार के अखबारों और पत्रिकाओं में छपने वाली खबरों को देखें तो नकारात्मक खबरें लगभग गायब हैं। मीडिया राज्य की साफ-सुथरी छवि पेश कर रही है तो मुख्यमंत्री को ‘विकास पुरुषज् के रूप में। विज्ञापनों के जरिये उन्हें ठीक उसी तरह बिहार का पर्याय बनाने की कोशिश की जा रही है, जसे गुजरात में नरें्र मोदी बन गए हैं।

पिछले करीब साढ़े चार साल के दौरान नीतीश सरकार विवादों में भी आई, जिनमें सबसे बड़ा विवाद भू-सुधार योजना को लेकर है। देवब्रत बंदोपाध्याय समिति की सिफारिशें लागू करने के अंदेशा भर से विधानसभा के 18 सीटों पर हुए उप चुनाव में भाजपा-जद (यू) को केवल छह सीटों पर संतोष करना पड़ा। उप चुनाव के दौरान नीतीश के धुर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू व रामविलास पासवान ने जम कर इस योजना के बारे में प्रचार किया और कहा कि इसके लागू होने के बाद भू-स्वामी जमीन पर अपना मालिकाना हक खो देंगे और यह उस पर खेती करने वाले को मिल जाएगा। इसे लेकर जद (यू) से असंतुष्ट चल रहे वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने पटना में किसानों की महापंचायत बुलाई थी, जिसमें राज्यभर से करीब एक लाख किसान शामिल हुए थे। चुनाव परिणाम और किसानों की महापंचायत ने नीतीश को इस बात का आभास करवा दिया कि भू-सुधार की इस योजना को लागू करना कांटों पर चलने जसा है। इसलिए फौरन उन्होंने जनता को आश्वस्त किया कि कोई भी अपनी जमीन का मालिकाना हक नहीं खोएगा। यह योजना फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दी गई है।

नीतीश का जन्म एक मार्च, 1951 को बख्तियारपुर में कविराज राम लखन सिंह और परमेश्वरी देवी की संतान के रूप में हुआ। पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। इसलिए राजनीतिक जीवन से बचपन से ही रू-ब-रू होते रहे। बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली। लेकिन 1974-75 में बिहार के छात्र आंदोलन ने उनका रुख इंजीनियरिंग से अलग राजनीति की ओर कर दिया। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उन्होंने छात्र आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। तब लालू भी उनके साथ थे। दोनों की गिनती कभी घनिष्ठ मित्रों में होती थी, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंच ने आज दोनों को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बना दिया है। छात्र आंदोलन ने नीतीश के जीवन की दिशा तय कर दी और फिर वे कभी राजनीति से अलग नहीं हो पाए। पहली बार 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े, लेकिन जीत 1985 के चुनाव में मिली। फिर 1989 में पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। इसके बाद कई सरकारों में वे मंत्री भी रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में रेल मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल काफी चर्चित रहा। इस दौरान गैसल रेल दुर्घटना के बाद इस्तीफा देकर उन्होंने मिसाल कायम की थी।

विवादों का अर्जुन

पच्चीस साल पुराना है जख्म, लेकिन अब भी हरा। दर्द और तकलीफ कहीं से भी कम होती नहीं दिखती। कहते हैं, वक्त हर घाव भर देता है; लेकिन यहां यह बात भी लागू नहीं हुई। जिंदगी वक्त के साथ आगे बढ़ती रही। दूसरी व्यस्तताओं और कामकाज ने कई बार जख्म से ध्यान हटा दिया, लेकिन टीस बरकरार रही। इन पच्चीस सालों में कई बार उठी टीस ने जख्म के हरे होने का एहसास कराया। पीड़ित न्याय की गुहार लगाते रहे। न्याय मिला भी उन्हें। पर पच्चीस साल बाद और वह भी आंशिक।

भोपाल की एक अदालत ने दो और तीन दिसंबर, 1984 की रात यूनियन कार्बाइड कंपनी के कारखाने से निकली जानलेवा गैस के मामले में कंपनी के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन को दोषी ठहराते हुए दो साल की सजा सुनाई। निश्चय ही पिछले पच्चीस साल से इंसाफ की बाट जोह रहे पीड़ितों के लिए यह सजा तरह राहत देने वाली नहीं थी। लेकिन इस मामले में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और कांग्रेस की भूमिका पर उठे सवाल ने पीड़ितों का गुस्सा और भड़का दिया। आरोप है कि बतौर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने एंडरसन को विदेश भगाया। तब न केवल राज्य में, बल्कि कें्र में भी कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। पूरे प्रकरण में अर्जुन सिंह की भूमिका संदेह के घेरे में है। कांग्रेस बचाव की म्रुा में है तो भाजपा सहित अन्य विपक्षी दल आक्रामक। अर्जुन सिंह से जवाब सभी मांग रहे हैं। लेकिन वे कहते हैं, उनके पास कहने के लिए कुछ है ही नहीं।

अस्सी वर्षीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अपने अब तक के लंबे राजनीतिक कॅरियर में बस कुछ दिनों के लिए पार्टी से अलग हुए। वे नेहरू-गांधी परिवार के करीबी रहे हैं, पर सोनिया गांधी के करीब नहीं रह पाए। कई मौके आए जब परिवार के प्रति वफादारी के बदले उन्हें बेहतर ईनाम की उम्मीद रही, लेकिन हुआ ठीक उल्टा। उन्हें और उनकी पत्नी सरोज देवी को इसका मलाल भी है। ‘अर्जुन सिंह : एक सहयात्री इतिहास काज् नाम से उनकी राजनीतिक जीवनी लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राम शरण जोशी ने वर्ष 2007 में अर्जुन सिंह को राष्ट्रपति नहीं बनाने के मुद्दे पर सरोज देवी को बड़ी बेबाकी से यह कहते हुए उद्धृत किया है, ‘अगर मैडम (सोनिया गांधी) उन्हें राष्ट्रपति बना देतीं, तो उनका क्या चला जाता?ज्

इससे पहले वर्ष 2004 में भी जब सोनिया ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ते हुए मनमोहन सिंह को आगे किया था, तब भी अर्जुन ¨सह आहत हुए थे। और तब, मंच पर सार्वजनिक रूप से उनकी आंखों से आंसू छलक आए थे, जब पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस हाईकमान ने उनकी बेटी वीणा सिंह को सीधी और बेटे अजय सिंह को सतना संसदीय क्षेत्र से टिकट देने से मना कर दिया। लेकिन इसके बावजूद पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने चुनाव के दौरान कांग्रेस के लिए प्रचार करने की बात कही।

अर्जुन सिंह को इस बात का भी मलाल है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी को सार्वजनिक जीवन में सक्रिय करने में अहम भूमिका निभाने के बावजूद संप्रग अध्यक्ष ने कभी उनकी सेवाओं को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति की कुर्सी से तो उन्हें दूर रखा ही गया; पार्टी में उनके बाद शीर्ष के दूसरे ताकतवर नेता का दर्जा भी नहीं दिया गया। लेकिन इन शिकायतों के बावजूद पार्टी व नेहरू-गांधी परिवार के लिए उनकी वफादारी कम नहीं हुई। उन्होंने राहुल गांधी को भविष्य के युवा प्रधानमंत्री ने पेश किया। तब इसे उनकी चाटुकारिता कहा गया, लेकिन आज वही राग मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के दूसरे नेता भी अलाप रहे हैं।

संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान अर्जुन सिंह को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और तब उन्होंने लोगों को एकबार फिर मंडल कमीशन की सिफारिशों की याद दिला दी, जिसे लागू कर सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था और जिसके बाद पूरा देश सुलग उठा था। एकबार फिर उसी राह पर चलते हुए अर्जुन सिंह ने सरकारी व मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों में पिछड़ी जाति के छात्रों के लिए नामांकन में भी आरक्षण का प्रावधान किया। इस निर्णय के बाद एकबार फिर छात्र सड़कों पर उतर आए, लेकिन अर्जुन सिंह अपने फैसले से पीछे नहीं हटे। इसे कांग्रेस के लिए वोट बैंक बनाने और खुद को पिछड़ों का मसीहा बनाने की अर्जुन ¨सह की कोशिश के रूप में देखा गया।

एक राजनीतिज्ञ के रूप में अर्जुन सिंह के साथ विवाद अक्सर जुड़े रहे। मध्य प्रदेश के रेवा जिले के चुरहट से ताल्लुक रखने वाले अर्जुन सिंह के पिता राव शिव बहादुर सिंह भी राजनीति से जुड़े थे। 1980 के दशक में मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए उन पर चुरहट लॉटरी मामले में भी संलिप्तता के आरोप लगे। कहा गया कि उन्होंने नकली लॉटरी की व्यवस्था करने वालों की मदद की। उन पर उत्तर प्रदेश सरकार ने दहेज उत्पीड़न का मामला भी दर्ज किया है, जिसमें अभियोग उनकी प्रपौत्री के पिता ने लगाया है। पीवी नरसिम्हा राव सरकार में भी वे मंत्री थे, लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने राव पर हिंदू विचारधारा की ओर झुकाव का आरोप भी लगाया। राव सरकार से इस्तीफे के बाद उन्होंने कांग्रेस भी छोड़ दिया और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के साथ मिलकर ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) का गठन किया। लेकिन पार्टी 1996 में लोकसभा चुनाव हार गई। उधर, कांग्रेस को भी हार का सामना करना पड़ा और वह सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद अर्जुन ¨सह और नारायण दत्त तिवारी दोनों कांग्रेस में लौट आए। उन पर संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में मानव संसाधन विकास मंत्री रहते हुए घाटे में चल रही शिक्षण संस्थाओं को भी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय का दर्जा देने का आरोप है। वे तीन बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और एकबार पंजाब के राज्यपाल। हालांकि पंजाब के राज्यपाल के रूप में उनका कार्यकाल काफी छोटा था, लेकिन इस बीच उन्होंने पंजाब में शांति बहाल करने के लिए राजीव-लौंगवाल समझौता पर सराहनीय कार्य किया। उन्हें वर्ष 2000 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का अवार्ड भी मिला।

उम्र छोटी, उपलब्धि बड़ी

उम्र सिर्फचौदह साल, लेकिन उपलब्धियां कईगुना अधिक।आंखोंमेंसपने हैंऔर उन्हेंपूरा करने का माद्दा भी। कई सपने पूरे हुए हैं, तो कुछ बाकी हैं। यह कोई और नहीं, आईआईटी-जेईई की प्रवेश परीक्षा में दिल्ली जोन का टॉपर और पूरे देश में 33वां स्थान हासिल करने वाला सहल कौशिक है। आंखों पर चश्मा लगाए चौदह साल का सहल पहली नजर में अपनी उम्र के दूसरे बच्चों सा ही दिखता है, लेकिन थोड़ा गौर से देखो तो यह ‘भीड़ से अलगज् और इसकी दुनिया दूसरे बच्चों से अलग दिखती है। उसे करीब से देखने व समझने वाला शायद ही कह सकता है कि उसका दिमाग कभी खाली रहता है। मानो कुछ न कुछ इसमें चल रहा है। शायद कोई कैल्कुलेशन या शोध।

सहल ने दस साल तक घर में पढ़ाई की, क्योंकि मां को लगा कि यदि इसे स्कूल भेजा जाता है तो यह आगे बढ़ने की बजाए और पीछे चला जाएगा। निश्चय ही यह फैसला बेहद हिम्मतभरा था, खासकर ऐसे समय में, जबकि हर मां-बाप अपने बच्चे को अच्छे से अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश में लगे रहते हैं। सहल की मां का यह फैसला जाहिर तौर पर बेटे की प्रतिभा में उनके अटूट शिस को दर्शाता है। उन्होंने बेटे के लिए अपने कॅरियर को भी दां पर लगाने से परहेज नहीं किया और डॉक्टर की प्रैक्टिस छोड़ दी। हालांकि तब उनके फैसले पर साल उठानेोले और उन्हें यह कहनेोले बहुत थे कि अपनी पढ़ाई-लिखाई को े बेकार कर रही हैं, लेकिन अब सब चुप हैं। सहल ने सबको जाब दे दिया है। उसकी प्रतिभा पर संदेह करनेोलों को भी और मां के फैसले पर साल उठानेोलों को भी। मां भी खुश हैं और उन्हें लगता है कि उनकी पढ़ाई कहीं बेकार नहीं गई, बल्कि यह तो उन्होंने अपने बेटे तक पहुंचाई और बेटे ने उसे सार्थक कर दिखाया।

मां ने बेटे की प्रतिभा तभी पहचान ली थी, जब ह महज दो-ढाई साल का था। इस छोटी सी उम्र में ह गणित के कई साल चुटकियों में हल कर लेता था। अंग्रेजी के लंबे-लंबे शब्द उसे याद थे और कतिाएं भी। चार साल की उम्र तक उसने सौ तक के टेबल भी याद कर लिए थे और छह साल में एचजी ेल्स की पुस्तक ‘टाइम मशीनज् पढ़ डाली थी। बेटे को घर में पढ़ाने का निश्चय करनेोली रुचि कौशिक ने उसके लिए लाखों की लागत से घर में ही लाइब्रेरी बनाई, जिसमें दो हजार से अधिक पुस्तकें हैं।

दस साल तक बेटे को घर में पढ़ानेोली रुचि शयद ही कभी उसे स्कूल भेजतीं, अगर आईआईटी के लिए 12ीं पास होना जरूरी नहीं होता। दस साल की उम्र में 2006 में उन्होंने बेटे का दाखिला नौीं में कराया। साल 2008 में उसने दसीं की परीक्षा पास की और 2010 में बारहीं की। हालांकि अंक दोनों ही कक्षाओं में औसत से बस थोड़ा बेहतर आया। दसीं में सहल को 76 प्रतिशत तो बारहीं में 73 प्रतिशत अंक मिले। यह अंक आईआईटी की तैयारी करनेोले किसी छात्र या उसके अभिभाकों के लिए निराशाभरा हो सकता है, लेकिन इससे न तो सहल निराश हुआ और न ही उसकी मां रुचि। रुचि को पूरा यकीन था कि भले ही यह अंक दिल्ली श्ििद्यालय के किसी अच्छे कॉलेज में दाखिले के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन इससे उनके बेटे के आईआईटी निकालने पर कोई असर नहीं होगा और हुआ भी यही।

सहल के शिक्षक उदय प्रताप सिंह, जो रुचि कौशिक के बाद उसकी प्रतिभा को पहचाननेोले दूसरे शख्स हैं, कहते हैं कि दसीं और बारहीं का अंक किसी छात्र की प्रतिभा का मानक नहीं है। आईआईटी सहित किसी भी परीक्षा की तैयारी के लिए छात्रों को रटने के बजाय षिय को समझने पर जोर देना चाहिए। सहल ने ही किया और नतीजा सबके सामने है। हालांकि े यह भी कहते हैं कि निश्चय ही सहल जसा दिमाग सबके पास नहीं होता। लेकिन उसने षिय को समझने का जो तरीका अपनाया, उससे तो सीख ली ही जा सकती है। सहल की कामयाबी आईआईटी की तैयारी करनेोले दूसरे बच्चों के लिए एक संदेश भी है कि े रट्टूमल न बनें, बल्कि षिय को समझने पर जोर दें।

सहल ने इस मिथक को भी तोड़ा कि आईआईटी की प्रेश परीक्षा में सफल होने के लिए 12 से 15 घंटे पढ़ाई करने की जरूरत है। कोचिंग में छह घंटे की पढ़ाई के अलाा घर में बस एक से दो घंटे का क्त पढ़ाई पर दिया। उसमें भी ऐसा नहीं कि सिर्फ ज्ञिान और गणित की पुस्तकें पढ़ते रहे, बल्कि साथ-साथ कहानियों और इतिहास की किताबें भी पढ़ते रहे। दरअसल, कहानियों, उपन्यासों और इतिहास की किताबों से यह लगा आज से नहीं, बल्कि तब से है, जब से मां ने सहल को घर में ही पढ़ाने का फैसला किया। रुचि बताती हैं कि घर में उन्होंने सहल के लिए किसी षिेष शिक्षा की व्यस्था नहीं की, बल्कि सामान्य ज्ञान आधारित मिली-जुली शिक्षा पर जोर दिया। यही जह रही कि अब तक ह इतिहास कहानियों की कई किताबें, उपन्यास आदि पढ़ चुका है। हैरी पॉटर श्रंखला की सभी किताबें भी ह पढ़ चुका है।

बेहद संकोची स्भा का दिखनेोला सहल क्याोस्त में ऐसा ही है? जाब में उसकी मां रुचि कहती हैं, नहीं। सहल घुलता-मिलता है, लेकिन उन्हीं लोगों से जिन्हें वह चाहता है। इस छोटी सी उम्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताएं जीत चुके सहल को देश के बाहर अपनी उम्र के बच्चों के साथ घुलने-मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। कोचिंग में भी सहल को ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई। हां, जब कोई अपरिचित व्यक्ति या खासकर मीडियाोले कुछ साल करते हैं तो जाब देने से पहले ह सोचता है या फिर मां की ओर देखता है। शायद इसलिए, क्योंकि मां उसे संबल, साहस, हौसला और आत्मशिस देती है।

चौदह साल का सहल सबके बीच में रहते हुए भी कभी-कभी हां से अलग दिखता है। उसे देखो तो लगता नहीं कि ह सबके बीच में बैठकर उनकी बातें सुन रहा है, बल्कि ह गणित के किसी साल को हल करने या भौतिकी के किसी पहलू के बारे में सोचता दिखता है। आईआईटी करनेोले हजारों बच्चों से अलग सहल की इच्छा इंजीनियर बनने की नहीं, बल्कि खुद को एक शोधकर्ता के रूप में देखने की है। ह भौतिकी में शोध करना चाहता है। इसलिए उसने आईआईटी कानपुर से पांच साल के इंटिग्रेटेड कोर्स में दाखिला लेना तय किया है। मैक्सेल, आइंसटीन और न्यूटन उसके हीरो हैं और ह उन्हीं की तरह बनना चाहता है।

सबसे कम उम्र में आईआईटी निकालनेोले सहल की उपलब्धियां यहीं तक नहीं हैं। एक साल पहले यानी 2009 में ह एशियन फिजिक्स ओलंपियाड में सिल्र मेडल जीत चुका है। इस साल हुई इसी प्रतियोगिता में उसने कांस्य पदक हासिल किया। किशोर ैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना की स्कॉलरशिप भी उसकी उपलब्धियों के खाते में है। 2009 में जापान में हुए एशिया स्कूल कैंप का भी ह सदस्य रह चुका है। पढ़ाई से इतर सहल के शौक की बात की जाए, तो यहां भी ह दूसरे बच्चों से अलग दिखता है। आजकल के बच्चों को जहां आधुनिक संगीत आकर्षित करता है, हीं सहल को पुराने संगीत खासे पसंद हैं, खासकर किशोर कुमार के गाए गीत। घर में मां के हाथ का बना खाना खूब भाता है तो बाहर चाइनीज और मेक्सिन खाने भी पसंद हैं। खाली क्त में बैडमिंटन खेलना, तैराकी, घुड़सारी, ताइक्वांडो और र्पतारोहण भी पसंद है। इन सबका मौका खासतौर पर तब मिलता है, जब छुट्टियां बिताने ह पिता टीके कौशिक के पास असम पहुंचता है, जो सेना के अधिकारी हैं और फिलहाल असम के तेजपुर में तैनात हैं।

सोमवार, 28 जून 2010

विनाश की कीमत पर कैसा विकास!

वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित

पांच जून का महत्व इस कारण है कि यह हमें यह सोच विचार का अवसर देता है कि मौजूदा समय में हम जलवायु परिवर्तन, बढ़ते तापमान आदि का जो संकट झेल रहे हैं, उसके कर्ताधर्ता हम खुद हैं। यह दिन संकल्प करने का दिन भी है कि हम पर्यावरण को और न बिगाड़ें, साथ ही बिगड़ने से रोकें। जरुरत गहरे सोच विचार की है। हमारे संकट का एक बड़ा कारण विकास का हमारा मॉडल है। पर्यावरण की कीमत पर विकास की अंधी दौड़ पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है।


हर साल पांच जून को मनाया जाता है पर्यावरण दिवस। लोगों में जागरू कता पैदा करने के लिए या उन्हें यह याद दिलाने के लिए कि दुनिया भर में पर्यावरण को हमारी ही गतिविधियों से नुकसान हो रहा है और जिसका खामियाजा अंतत: हमें ही भुगतना है। इस दिन लोग संकल्प भी लेते हैं कि आगे पर्यावरण के प्रति सचेत रहेंगे और उसे नुकसान से बचाएंगे। लेकिन यह भी सच है कि कभी- कभी यह सिर्फ खानापूर्ति बनकर रह जाता है। पर्यावरण दिवस को लेकर लोगों में चेतना 1972 में जगी, जब पांच जून को पर्यावरण समस्याओं पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सम्मेलन बुलाया। पर्यावरण को हो रहे नुकसान की समस्या तब पहली बार औपचारिक रूप से दुनिया के सामने आई थी। 1992 में सैनफ्रांसिस्को में इसे लेकर एक अन्य सम्मेलन हुआ, जिसमें कहा गया कि 189०-199० के बीच सौ साल में पर्यावरण को जो नुकसान हुआ, वह काफी चिंताजनक है। इससे पहले 198० के दशक में हुए एक अन्य सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने दुनिया की जलवायु में हो रहे अपरिवर्तनीय बदलाव को लेकर चेतावनी दी थी और कहा था कि यह खतरनाक स्तर तक पहुंचता जा रहा है।
 
दरअसल, पर्यावरण प्रदूषण या जलवायु परिवर्तन कोई नई चीज नहीं है। दुनिया में अब तक जितनी भी सभ्यताएं बनी हैं या ध्वस्त हुई हैं, सभी जलवायु परिवर्तन की वजह से ही बनी या बिगड़ीं। लेकिन इस बार नई बात है इसकी रफ्तार। फिलहाल जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उतनी तेजी से पहले कभी नहीं हुआ। इसके लिए जिम्मेदार है वह आधुनिक तकनीक, जिससे औद्योगीकरण का दुनियाभर में तेजी से विकास हुआ। हालांकि प्रारंभिक तौर पर इसकी जिम्मेदारी पश्चिमी देशों पर है, क्योंकि औद्योगीकरण की शुरुआत वहीं हुई, लेकिन बाद में विकासशील देश भी इससे जुड़ गए, जिससे खतरा बढ़ता चला गया। आगे चलकर विकसित और विकासशील देशों में समस्या पर चर्चा हुई, जिसमें समाधान के लिए सामूहिक प्रयास की वकालत की गई। लेकिन यह चर्चा बाद में राजनीतिक हो गई। विकसित देश अपने औद्योगिक विकास की रफ्तार कम करने या उसमें किसी भी तरह के संशोधन के पक्ष में नहीं थ्ो, जबकि विकासशील देशों का कहना था कि उन्होंने औद्योगिक विकास की प्रक्रिया अभी-अभी शुरू की है, इसलिए वे समाधान के लिए किसी तरह का कानूनी प्रतिबंध नहीं चाहते।
 
दुनिया भर में औद्योगीकरण से पर्यावरण को जो नुकसान हुआ, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में 3० प्रतिशत उभयचर प्राणियों, 23 प्रतिशत स्तनपायी और 12 प्रतिशत चिड़ियों का अस्तित्व खतरे में है। यह अंधाधुंध बढ़ते औद्योगीकरण का ही नतीजा है कि हर साल 45 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल समा’ हो रहे हैं। दुनिया की 6० प्रतिशत प्रमुख नदियों पर बांध बना दिए गए हैं, जिससे मछलियां 5० प्रतिशत तक कम हो गई हैं। बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से दुनियाभर में पक्षियों की 122 प्रजाति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है, जिसमें से 28 हिन्दुस्तान में हैं। औद्योगीकरण का एक अन्य नुकसान कार्बन गैसों के उत्सर्जन के रूप में सामने आया। विकास की दौड़ में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों, गाड़ियों, एसी जैसी चीजों को तो हमने खूब प्राथमिकता दी, लेकिन इनसे निकलने वाले कार्बन गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर हमारा ध्यान नहीं गया। आज चीन दुनिया में सबसे अधिक कार्बन गैसों का उत्सर्जन करता है। वहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 21 टन है, जो दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का दस प्रतिशत है। उसके बाद अमेरिका, यूरोपियन यूनियन के देशों और रूस का स्थान आता है। भारत का स्थान इस मामले में पांचवां है और यहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 1.2 टन है, जो दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का केवल तीन प्रतिशत है। यही वजह है कि भारत अपने विकास कार्यक्रमों पर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं चाहता। वहीं, विकसित देशों के समूह दुनिया भर में होने वाले कार्बन गैसों के उत्सर्जन का 8० प्रतिशत उत्सर्जित करते हैं, जिसमें 45 प्रतिशत सिर्फ औद्योगीकरण से है। पर्यावरण सुरक्षा को दरकिनार कर विकसित देशों और फिर विकासशील देशों ने विकास का जो मॉडल तैयार किया है यह उसी का नतीजा है कि जगह-जगह बर्फ की चोटियां पिघल रही हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। इससे खासकर, नदियों के किनारे रहने वाले शहर अधिक प्रभावित होंगे। अकेले हिन्दुस्तान में 75०० किलोमीटर समुद्री तटीय क्षेत्र हैं, जहां तीन हजार 85 खरब डॉलर की संपत्ति है। यह खतरे में पड़ सकती है। वहां के लोगों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था भी करनी होगी।
 
ऐसा नहीं है कि सरकार की पर्यावरण सुरक्षा को ल्ोकर कोई नीति नहीं है, बल्कि इसे लेकर प्रधानमंत्री ने एक परिषद भी बनार्इ है, जिसके 21 सदस्य हैं। लेकिन भारत जैसे संघीय देश में नीतियों का क्रियान्वयन एक बड़ी समस्या है, जहां राज्यों को भी काफी अधिकार दिए गए हैं। फिर, हमारी राजनीतिक मानसिकता भी अभी गरीबी, साम्प्रदायिक हिंसा, शिक्षा, स्वास्थ्य, जात-पात से ऊपर नहीं उठ पाई है। यहां तक कि युवा नेतृत्व भी इन सबसे ऊपर नहीं उठ पाया है। नवीन जिंदल जैसे युवा सांसद का खाप की वकालत करना इसी का परिचायक है। यानी जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक फलक को विस्तृत करने की जरूरत है। जहां तक पर्यावरण को लेकर जनमानस का सवाल है, तो भारतीय जनमानस पर्यावरण से विमुख नहीं है, बल्कि वह तो प्रकृति को खुद से अलग मानता ही नहीं। पेड़-पौधों की पूजा का प्रचलन इसी मानसिकता का परिचायक है। लेकिन पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता, बल्कि वहां प्रकृति को नियंत्रित करने की कोशिश होती है। हां, हमारे देश में भी जनता कई बार औद्योगीकरण से होने वाले तात्कालिक फायदे के प्रभाव में आ जाती है, क्योंकि उन्हें इससे होने वाले नुकसान की जानकारी नहीं होती। इसलिए उन्हें यह बताने और इसे लेकर उनमें चेतना जगाने की जरूरत है। इसमें मीडिया की अहम भूमिका हो सकती है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम विकास तो करें, पर पर्यावरण की कीमत पर नहीं।