मंगलवार, 29 जून 2010

नीति-नीतीश

नीतीश कुमार के मन में ठीक-ठीक क्या चल रहा है, कोई नहीं जानता। भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार सफलता से चलाई, पर अब कुछ और सोचते लगते हैं। गहरी उधेड़बुन में हैं। अभी मौका मिला तो तेवर दिखा दिया। लेकिन मामला तो गड़बड़ लोकसभा चुनाव से ही लग रहा था। नरें्र मोदी और वरुण की आड़ में मुसलमानों को रिझाने में लगे हैं। लेकिन इस तरह कि सांप भी मरे, लाठी भी न टूटे। भाजपा भी उनके हाथों में एक ऐसे उपकरण की तरह है, जिसे बजाकर वे अपनी पार्टी में भी धाक जमाते-बढ़ाते रहते हैं। नीतीश कुमार की नीति की अंतिम व्याख्या तभी संभव है जब वे उसका खुद खुलासा करें। यह चुनाव के पहले, दौरान या बाद में कभी भी हो सकता है।



बिहार के मुख्यमंत्री हैं नीतीश कुमार। हाल में कोसी राहत कोष के तहत गुजरात के मुख्यमंत्री नरें्र मोदी द्वारा दिए गए पांच करोड़ रुपए का चेक उन्हें लौटाकर चर्चा में आए हैं। हालांकि यह बात बहुत से सीधी-सपाट सोच रखने वाले लोगों के लिए समझ से परे है कि जब चेक लौटाना ही था तो लिया क्यों? लेकिन राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि यह सब वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा है।

नीतीश कुमार जोर-शोर से राज्य विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं और यह कतई नहीं चाहेंगे कि भाजपा, खासकर नरें्र मोदी की वजह से मुसलमान वोट उनसे बिदक जाए। हालांकि मुसलमानों का बहुत समर्थन उन्हें अब भी प्राप्त नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह राज्य में भाजपा का उनके साथ होना है। लेकिन चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुछ ऐसा खेल करना चाहते थे, जिससे भाजपा और खासकर नरें्र मोदी के प्रति उनका नापसंदगी सामने आए। ऐसा करके वे मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करना चाहते थे। इसी कोशिश के तहत उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरें्र मोदी द्वारा दिया गया चेक लौटा दिया और पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पार्टी नेताओं को भोज का निमंत्रण देने के बाद भी उसे रद्द कर दिया। इतने अपमान पर भाजपा का नाराज होना स्वाभाविक था। वह हुई भी, पर इतनी नहीं कि जद (यू) से अलग हो जाए। उसे भी इस जमीनी हकीकत का अंदाजा है कि बिहार में सत्ता का स्वाद उसे जद (यू) के साथ ही मिल सकता है, उसके बगैर नहीं। इसलिए अपमान पर वह तिलमिलाई नहीं, सिर्फ कसमसाकर रह गई और थोड़े ना-नुकुर के बाद फिर मिला लिया हाथ। उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने पहले तो नीतीश की विश्वास यात्रा का बहिष्कार कर दिया, लेकिन फिर आ गए साथ।

इस पूरे प्रकरण में नीतीश कुमार एक मंङो हुए राजनेता के रूप में सामने आए। लेकिन इसका जो फायदा वे लेना चाहते थे, वह फिलहाल मिलता दिखाई नहीं दे रहा। बहरहाल, बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह दूसरा कार्यकाल है। पहला कार्यकाल केवल सात दिन का था। पहली बार वर्ष 2000 में 03 मार्च को उन्होंने मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला था, लेकिन बहुमत साबित नहीं कर पाने की स्थिति में 10 मार्च को ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इस बीच वे कें्र में मंत्री भी बने और कृषि व रेल मंत्रालय संभाला। इससे पहले भी वे कें्र में विभिन्न मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके थे। लेकिन वर्ष 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और भाजपा के सहयोग से उन्हें राज्य में सरकार बनाने का मौका मिला। नवंबर, 2005 में वे राज्य के मुख्यमंत्री बने। इस बार बहुमत की समस्या आड़े नहीं आई।

अपने दूसरे कार्यकाल में नीतीश ने बिहार की जनता को भाजपा के साथ मिलकर स्थाई सरकार दी। पिछले 15 साल से लालू-राबड़ी के शासन से निराश लोगों को बहुत सी उम्मीदें थी इस सरकार से। बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कई उम्मीदों पर खरे भी उतरे। पिछले करीब साढ़े चार साल के शासन के दौरान नीतीश सरकार ने सड़कों व फ्लाईओवर का खूब निर्माण कराया। लेकिन राजधानी पटना सहित कुछ अन्य प्रमुख शहरों को छोड़ दिया जाए तो सड़कों की हालत अब भी बहुत बेहतर नहीं है। बिजली बिहार में एक स्थाई समस्या बनी हुई है। हां, अपराध पर थोड़ा अंकुश जरूर लगा है। शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी सरकार ने कई कदम उठाए हैं। सबसे बढ़कर उन्होंने राज्य के लोगों को सकरात्मक बदलाव की उम्मीद दी, जिसे वे पिछले 15 साल के लालू-राबड़ी शासन के दौरान खो चुके थे।

अपने इस कार्यकाल के दौरान नीतीश ने काम तो किया ही, उसका प्रचार भी जमकर किया। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2005 में नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बाद विज्ञापन पर होने वाला राज्य सरकार का खर्च पहले के मुकाबले पांच गुना बढ़ गया। विज्ञापन नीति में भी साफ कहा गया है कि नकारात्मक खबरें राज्य के हित में नहीं हैं, इसलिए सिर्फ सकारात्मक खबरें आनी चाहिए। बिहार के अखबारों और पत्रिकाओं में छपने वाली खबरों को देखें तो नकारात्मक खबरें लगभग गायब हैं। मीडिया राज्य की साफ-सुथरी छवि पेश कर रही है तो मुख्यमंत्री को ‘विकास पुरुषज् के रूप में। विज्ञापनों के जरिये उन्हें ठीक उसी तरह बिहार का पर्याय बनाने की कोशिश की जा रही है, जसे गुजरात में नरें्र मोदी बन गए हैं।

पिछले करीब साढ़े चार साल के दौरान नीतीश सरकार विवादों में भी आई, जिनमें सबसे बड़ा विवाद भू-सुधार योजना को लेकर है। देवब्रत बंदोपाध्याय समिति की सिफारिशें लागू करने के अंदेशा भर से विधानसभा के 18 सीटों पर हुए उप चुनाव में भाजपा-जद (यू) को केवल छह सीटों पर संतोष करना पड़ा। उप चुनाव के दौरान नीतीश के धुर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू व रामविलास पासवान ने जम कर इस योजना के बारे में प्रचार किया और कहा कि इसके लागू होने के बाद भू-स्वामी जमीन पर अपना मालिकाना हक खो देंगे और यह उस पर खेती करने वाले को मिल जाएगा। इसे लेकर जद (यू) से असंतुष्ट चल रहे वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने पटना में किसानों की महापंचायत बुलाई थी, जिसमें राज्यभर से करीब एक लाख किसान शामिल हुए थे। चुनाव परिणाम और किसानों की महापंचायत ने नीतीश को इस बात का आभास करवा दिया कि भू-सुधार की इस योजना को लागू करना कांटों पर चलने जसा है। इसलिए फौरन उन्होंने जनता को आश्वस्त किया कि कोई भी अपनी जमीन का मालिकाना हक नहीं खोएगा। यह योजना फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दी गई है।

नीतीश का जन्म एक मार्च, 1951 को बख्तियारपुर में कविराज राम लखन सिंह और परमेश्वरी देवी की संतान के रूप में हुआ। पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। इसलिए राजनीतिक जीवन से बचपन से ही रू-ब-रू होते रहे। बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली। लेकिन 1974-75 में बिहार के छात्र आंदोलन ने उनका रुख इंजीनियरिंग से अलग राजनीति की ओर कर दिया। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उन्होंने छात्र आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। तब लालू भी उनके साथ थे। दोनों की गिनती कभी घनिष्ठ मित्रों में होती थी, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंच ने आज दोनों को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बना दिया है। छात्र आंदोलन ने नीतीश के जीवन की दिशा तय कर दी और फिर वे कभी राजनीति से अलग नहीं हो पाए। पहली बार 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े, लेकिन जीत 1985 के चुनाव में मिली। फिर 1989 में पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। इसके बाद कई सरकारों में वे मंत्री भी रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में रेल मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल काफी चर्चित रहा। इस दौरान गैसल रेल दुर्घटना के बाद इस्तीफा देकर उन्होंने मिसाल कायम की थी।

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