सोमवार, 12 जुलाई 2010

बल नहीं, संबल

वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक देवदत्त से बातचीत पर आधारित






कश्मीर कुछ समय की शांति के बाद फिर उद्वेलित है। सुरक्षा बलों के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश है। स्थिति लगातार असामान्य होती जा रही है। जनता का राज्य और कें्र सरकार से मोहभंग है। आजादी के बाद से कश्मीर एक गुत्थी के रूप में ही रहा है। इसे सुलझाने की सारी कोशिशें मामले को उलझाती ही गई हैं। दरअसल इस पूरे मामले को नए नजरिये से देखने की जरूरत है। कश्मीर तभी शांत होगा, जब वहां लोगों को सही मायने में लोकतंत्र हासिल होगा। जरूरत वहां के लोगों से लड़ने की नहीं, उनका विश्वास जीतने की है।



कश्मीर समस्या आज की नहीं है। आजादी के समय से लेकर आज तक यह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी हुई है। ऐसा नहीं है कि इसे सुलझाने के प्रयास नहीं हुए। लेकिन समस्या सुलझने के बजाय दिनों दिन उलझती गई। आज स्थिति और भी बदतर हो चुकी है। समस्या का समाधान तो दूर उसके तरीके भी उलझकर रह गए हैं और उसमें अधिक जटिलता आ गई है।

समस्या वहां के लोगों की है, जो अपनी पहचान को लेकर उद्वेलित हैं। आयरलैंड, फ्रांस सहित यूरोप के अन्य हिस्सों और अफ्रीका में भी जातीय पहचान को लेकर स्वर मुखर हो रहे हैं, जिससे कश्मीर के लोगों को नई ऊर्जा व प्रेरणा मिलती है। इसलिए इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। कश्मीर में आए दिन होने वाले प्रदर्शन, पत्थरबाजी समस्या के लक्षण मात्र हैं, पूरी समस्या नहीं। पुलिस या सेना की ओर से जवाबी कार्रवाई के जरिये इन लक्षणों को ही फौरी तौर पर शांत किया जा सकता है, समस्या का समाधान नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कश्मीर को हिन्दुस्तान से अलग कर दिया जाए। वास्तव में, कश्मीर को हिन्दुस्तान से अलग करके भी नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यह सीधे तौर पर देश की एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है। कश्मीर के बगैर भारत की एकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर इससे राज्य विरोधी ताकतों को भी बल मिलेगा।

उधर, पाकिस्तान की अपनी मजबूरी है। वह हिन्दुस्तान से समझौता नहीं कर सकता। वहां लोकतंत्र आया है, लेकिन महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों पर वहां अब भी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई का असर है। यह भी सच है कि कश्मीर में पथराव, प्रदर्शन या हिंसक हालात को हवा देने में पाकिस्तानी तत्वों का काफी योगदान होता है। लेकिन पाकिस्तान सरकार की कमजोरी के बावजूद इसके लिए सीधे तौर पर सेना या आईएसआई से बात नहीं की जा सकती, क्योंकि यहां प्रोटोकॉल आड़े आता है। फिर पाकिस्तान की सरकार राजनीतिक रूप से भी कमजोर है, क्योंकि पश्तून उनकी बात नहीं सुनते। इस तरह हिन्दुस्तान की निर्वाचित सरकार पाकिस्तान से जो भी बात करती है, वहां की सरकार उस पर सेना और आईएसआई से विचार-विमर्श करती है और उसके बाद ही कोई फैसला करती है। इससे समस्या सुलझने की बजाय और उलझती जाती है।

ऐसे में जरूरत है तो कश्मीर के लोगों को साथ लेकर चलने की, खासकर युवाओं को। लेकिन कश्मीर के अब तक के इतिहास पर नजर डालें तो मालूम होता है कि वहां की अवाम को आजादी के तकरीबन छह दशक बाद भी सही मायने में लोकतंत्र नहीं मिला और न ही नेतृत्व। आजादी से अब तक एक लंबे समय के लिए वहां राजनीतिक नेतृत्व अब्दुल्ला परिवार के हाथों में रहा। मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में पीडीपी की सरकार आने के बाद कश्मीर में सही मायने में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और वहां के लोगों को राजनीतिक नेतृत्व मिलने की उम्मीद जगी थी, लेकिन आगे चलकर यह उम्मीद भी मुफ्ती परिवार तक सिमटकर रह गई, जब पार्टी की बागडोर सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती के हाथों में चली गई। फिर पुलिस की ओर से गोलीबारी या सेना का फ्लैगमार्च कश्मीरी अवाम के गुस्से को और भड़काता है। इसलिए यहां जरूरत है फ्रांस में 1968 के आंदोलन के समय सरकार द्वारा अपनाए गए तौर तरीके से सीख लेने की। जब युवाओं ने पूरे फ्रांस में सरकार का चक्का जाम कर दिया था, तब प्रसिद्ध चिंतक ज्यां पाल सात्र्र ने कहा था कि उनसे लड़ने की नहीं, बल्कि उनका विश्वास जीतने की जरूरत है। आज वही नीति कश्मीर के संदर्भ में भी अपनाने की जरूरत है।

दअसल, कश्मीर समस्या आज भारतीय विदेश नीति के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती बन गई है। 1980 के दशक तक समस्या अधिक जटिल नहीं थी। लेकिन आज समस्या को हल करने के तरीके भी जटिल हो गए हैं। वहां नई ताकतें आ गई हैं। पाकिस्तान तो था ही, अब तालिबान और अफगानिस्तान की उपस्थिति भी हो गई है। फिर अमेरिका की रुचि भी दक्षिण एशिया में बढ़ गई है और कश्मीर के जरिये वह अपने हित साधने की जुगत में है। हिन्दुस्तान की कमजोरी यह भी है कि यहां आज उस तरह का राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं है, जसा 1950 के दशक तक था। वह ऐसा वक्त था जब राजनीतिक नेतृत्व अगर कोई फैसला करता था तो उस पर किसी तरह की बहस नहीं होती थी। राष्ट्रमंडल में शामिल होने का फैसला बतौर प्रधानमंत्री नेहरू ने किया था और बाद में संसद ने बिना किसी बहस के उसे पारित कर दिया। लेकिन आज वह स्थिति नहीं है और न ही उस तरह का राजनीतिक नेतृत्व। फिर यहां नौकरशाही भी हावी है, जो ऐसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती। कुल मिलाकर स्थिति दिनोंदिन और पेचीदी होती जा रही है।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि समस्या के समाधान के सारे दरवाजे बंद हो गए हैं। सरकार की कोशिशें भले कामयाब होती नहीं दिख रही हों, लेकिन समस्या के समाधान को लेकर कई बुद्धिजीवी, राजनेता, अधिकारी, कार्यकर्ता आदि अनौपचारिक बातचीत कर रहे हैं, जिससे काफी उम्मीदें हैं। लंदन में उनकी कई बैठकें हो चुकी हैं और लगातार हो रही हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो निष्पक्ष भाव रखते हैं और सामान्य तौर पर कश्मीरियों के मित्र के रूप में जाने जाते हैं। इसे ‘बैकरूम डिप्लोमेसीज् का नाम दिया जाता है। उधर, अमेरिका भी ऐसी की कोशिश में जुटा है। यानी अनौपचारिक रूप से वह भी समस्या के समाधान के लिए लगातार विचार-विमर्श कर रहा है। अब ऐसे में संशय इस बात को लेकर है कि कहीं सरकार कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अमेरिकी फॉर्मूले को तरजीह न दे डाले, क्योंकि मौजूदा यूपीए सरकार का झुकाव भी अमेरिका की तरफ नजर आता है और विपक्ष भी एकजुट नहीं है। अमेरिकी फॉर्मूले में बुराई सिर्फ इतनी है कि चाहे वह जितना भी निष्पक्ष दिखे, उसमें अमेरिका अपने हितों का खयाल जरूर रखेगा। इसलिए समस्या को नए सिरे से समझने की जरूरत है। राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वे कश्मीर को एक मुद्दे की तरह इस्तेमाल न करें। देश की जनता को कश्मीर समस्या को नए परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। पुराने मापदंडों के अनुसार न तो कश्मीर को देखना चाहिए और न ही सरकार को। कुल मिलाकर, फिलहाल समस्या के समाधान के बारे में नहीं, बल्कि उसके लिए माहौल तैयार करने की जरूरत है।

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