सोमवार, 12 जुलाई 2010

सेना समाधान नहीं

वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय से बातचीत पर आधारित






कश्मीर समस्या राज्य सरकार की नासमझी का नतीजा है। कें्र सरकार भी स्थिति की संवेदनशीलता नहीं समझ पाई। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जो भी आरोप लगा रहे हैं, वे गले नहीं उतरते। दरअसल, सरकार के गलत फैसलों ने ही स्थिति को बिगड़ने दिया। सेना को बुलाना भी ऐसा ही एक गलत फैसला है।



सरकार की ढुलमुल नीति का परिणाम है कश्मीर समस्या। इसे अब तक न तो कें्र सरकार समझ पाई है और न ही वहां की निर्वाचित सरकार। सतही लक्षणों से ही सरकार फैसले ले रही है। कश्मीर में सेना बुलाने का फैसला भी ऐसा ही है, जो घबराहट और जल्दबाजी में लिया गया। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सत्ता में आने के बाद से लगातार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग करते रहे हैं, लेकिन घाटी में हालात काबू से निकलता देख तुरंत सेना बुला ली। साफ है कि अपने करीब डेढ़ साल के कार्यकाल के दौरान उन्होंने राज्य पुलिस को इतना सशक्त नहीं बनाया कि वह उप्रवी तत्वों से निपट सके।

उमर का यह आरोप भी गले नहीं उतरता कि पीडीपी प्रदर्शनकारियों को भड़का रही है, क्योंकि जिन क्षेत्रों में प्रदर्शन और पथराव हो रहे हैं, वे नेशनल कांफ्रेंस के प्रभाव वाले क्षेत्र ही हैं। हां, अनंतनाग में पीडीपी की स्थिति बेहतर जरूर है, लेकिन वहां घटना की शुरुआत नहीं हुई, बल्कि केवल प्रतिक्रिया हुई। अमरनाथ यात्रा से ठीक पहले ऐसी घटना का होना यह भी दर्शाता है कि सरकार सचेत नहीं थी और न ही उसने दो साल पहले 2008 में अमरनाथ यात्रा के दौरान हुए संघर्ष का सही आकलन किया। राज्य सरकार ने बड़ी संख्या में पुलिस बल अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा में तैनात कर दी, जिससे घाटी में स्थिति और बिगड़ गई। अब आनन-फानन में सेना बुलाई गई है। उम्मीद की जा रही है कि इससे हालात पर काबू पाया जा सकेगा। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं हो सकता। ऐसी कोशिशें राहतभर होती हैं।

कश्मीर के संदर्भ में सबसे बड़ी समस्या बाहरी हस्तक्षेप की है, जो बेहद प्रभावशाली है। इसे समाप्त करना तो दूर कम करने में भी हमारी क्षमता जवाब दे जाती है। बाहरी हस्तक्षेप के रूप में सिर्फ पाकिस्तान, आईएसआई, तालिबान और अफगान लड़ाके नहीं हैं, बल्कि अमेरिका भी है। फिर इनका रूपरंग बड़ी तेजी से बदलता है, जबकि सरकार उतनी तेजी से उसका जवाब नहीं दे पाती। यह बात सिर्फ मनमोहन सिंह या उमर अब्दुल्ला सरकार पर लागू नहीं होती, बल्कि नेहरू से लेकर अब तक की कमोबेश हर सरकार का इस मामले में यही हाल रहा है। सभी प्रधानमंत्रियों की कोशिश खुद को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित करने की रही है, पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारना चाहता है। ऐसी कोशिश में कोई बुराई नहीं है। लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जमीनी हकीकत को दरकिनार कर जब भी ऐसी कोशिश हुई, उसका खामियाजा उसी रूप में सामने आया जसा आज कश्मीर में हो रहा है।

अब गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट पर गौर करें तो 2009 में जम्मू-कश्मीर में 15 लोग पुलिस की गोलीबारी में मारे गए थे, जबकि दूसरे राज्यों में यह संख्या कहीं अधिक थी। इसी तरह 2008 में अमरनाथ यात्रा के दौरान पैदा हुए संघर्ष के दौरान पुलिस ने 380 बार गोली चलाई थी, जिसमें 43 लोग मारे गए थे और 317 घायल हुए थे। इससे पहले 2006 में जब गुलाम नबी आजाद राज्य के मुख्यमंत्री थे, तब भी राज्य में पुलिस की गोलीबारी में 47 लोग मारे गए थे। 2003 में जब राज्य में मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार थी, तब भी पुलिस को प्रदर्शन व उप्रव शांत करने के लिए 123 बार गोली चलानी पड़ी थी। लेकिन किसी भी सरकार ने सेना नहीं बुलाई। पर मौजूदा उप्रव से उमर के हाथ-पांव फूल गए और उन्होंने कें्र से सेना बुलाने की मांग कर डाली। साफ है कि राज्य में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर उमर सरकार पूरी तरह विफल रही।

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