मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

मुद्दों का अकाल और हार का डर

राजनीतिक चिंतक देवदत्त मानते हैं कि इस समय राजनीतिक दलों के पास मुद्दों का अभाव है। ऊपर से उन्हें हार का डर है, जिस कारण राजनीति तू-तू मैं-मैं पर उतर आई है। पेश है उनसे इस मुद्दे पर बातचीत।
लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार का दौर शुरू होते ही व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों और आक्षेपों की बाढ़ सी आ गई। यही सिलसिला 1999 के आम चुनाव में भी देखने को मिला था। तब निशाने पर थीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, लेकिन इस बार सोनिया से अधिक निशाने पर हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें ‘अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्रीज् बताते हुए टेलीविजन पर खुली बहस की चुनौती दे डाली, तो पिछले पांच साल से लगातार अपने लिए ‘कमजोरज् शब्द सुनकर संयमित माने जाने वाले मनमोहन सिंह भी जसे फट पड़े। उन्होंने यह कहकर आडवाणी का प्रस्ताव नकार दिया कि ऐसा करके मैं उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का दर्जा नहीं देना चाहता। उन्होंने यह भी कहा, ‘मैं कर्मयोगी हूं, करने में यकीन रखता हूं, जबकि आडवाणी सिर्फ बयान बहादुर हैं।ज्
विवाद यहीं नहीं थमा। भाजपा के प्रमुख सहयोगी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने उन्हें ‘गुलाम सिंहज् कहा। साफ है कि निशाने पर सोनिया और मनमोहन दोनों थे। लेकिन सोनिया भी कहां चुप रहने वाली थीं। चुनावी समर में अपने ‘सेनापतिज् का बचाव करते हुए आडवाणी को ‘संघ का गुलामज् बता डाला। इससे पहले भाजपा के फायरब्रांड नेता नरें्र मोदी ने ‘बुढ़िया पार्टीज् और ‘गुड़िया पार्टीज् कहकर कांग्रेस की खिल्ली उड़ाई, जिसका प्रियंका गांधी ने यह कहकर जवाब दिया कि ‘क्या मैं बूढ़ी दिखती हूं?ज् वहीं कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो भाजपा नेताओं को ‘दिमागी इलाजज् की जरूरत बता दी।
एक-दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत आक्षेपों की यह बानगी 1952 के आम चुनाव से लेकर 1990 के दशक के उत्तरार्ध तक नहीं देखने को मिली थी। ऐसा नहीं है कि पहले नेताओं में खींचतान नहीं थी, वैचारिक मतभेद नहीं थे। लेकिन उन्होंने कभी इसे सार्वजनिक नहीं किया। आज यदि नेता अपना संयम खोते जा रहे हैं, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि राजनीति में मुद्दों का अकाल हो गया है। दलों की रीति-नीति स्पष्ट नहीं है। सभी के कार्यक्रम एवं घोषणा-पत्र लगभग एक जसे हो गए हैं। सभी जनता को सस्ता चावल, गेहूं, दाल, मुफ्त टीवी, कपड़े आदि से लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि पहले के आम चुनाव सैद्धांतिक और वचारिक आधार पर लड़े जाते थे।
इसकी एक अन्य महत्वपूर्ण वजह नेताओं में ‘हार का डरज् भी है। आज कोई भी दल अपने वोट बैंक को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं रह गया है। दरअसल, छोटे-छोटे दलों ने जनता के सामने कई विकल्प प्रस्तुत किए हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था। 1971 तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा। 1977 में जनता पार्टी ने कांग्रेस का विकल्प जरूर प्रस्तुत किया, लेकिन 1980 और 1984 के चुनाव में एकबार फिर कांग्रेस ने अपना खोया जनाधार प्राप्त कर लिया। पर यह आगे जारी नहीं रह सका। 1989 से भारतीय राजनीति पर कांग्रेस का एकछत्र राज समाप्त हो गया। गठबंधन राजनीति के दौर में आज जनता के सामने कई विकल्प हैं। ऐसे में वोटर कहीं इधर-उधर न खिसक जाए, नेता हमेशा इसे लेकर आतंकित रहते हैं। लेकिन वे ‘किसी भी कीमत परज् जीतना भी चाहते हैं। जीतने की इस महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर ही वे व्यक्तिगत आक्षेपों के सहारे दूसरों को गलत बताकर खुद को अच्छा साबित करने की कोशिश करते हैं।

सहानुभूति की राजनीति

भारत ही नहीं दुनियाभर के तमिल भावनात्मक रूप से श्रीलंका के तमिलों से जुड़े हैं। इस कारण उनकी सहानुभूति भी लिट्टे से जुड़ी रही। तमिलनाडु में प्रभाकरन के पैरोकारों की कमी नहीं। अब जब प्रभाकरन की सेना का सफाया हो रहा है और यहां देश में आम चुनाव है, तो इस मुद्दे पर तमिलनाडु में जमकर राजनीति हो रही है।
तमिलनाडु में इन दिनों सत्तारूढ़ और कें्र में सहभागी डीएमके की नींद उड़ी हुई है। कांग्रेस, जो कें्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही है और राज्य में डीएमके को समर्थन दे रही है, भी मुश्किल में पड़ सकती है। दरअसल लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सैन्य कार्रवाई ने विपक्षी दलों को एक ऐसा मुद्दा थमा दिया है, जिसका चुनाव में उन्हें लाभ मिलना तय माना जा रहा है। तमिलनाडु का श्रीलंकाई तमिलों से गहरा भावनात्मक संबंध है और यह चुनाव का समय है। इसलिए इस मुद्दे को सभी दल भुनाना चाहते हैं।
भारत सहित तमाम दूसरे देशों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं एजेंसियों की अपील को दरकिनार कर श्रीलंका की सेना जिस तरह लगातार लिट्टे के सफाए के लिए आगे बढ़ रही है, उससे तमिल व्रिोहियों के अलावा एक हजार से ज्यादा मासूम व निर्दोष आम तमिल मारे जा चुके हैं, जबकि लाखों की संख्या में लोग दर-बदर हुए हैं। पलायन को मजबूर लोग बड़ी संख्या में तमिलनाडु का रुख कर रहे हैं। विपक्षी पार्टियां इसे एक बड़ा मुद्दा बनाकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रही हैं। उनका आरोप है कि कें्र सरकार में भागीदार रहते हुए डीएमके उसे श्रीलंका पर युद्धविराम के लिए दबाव बनाने को तैयार करने में नाकाम रही। एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता ने इस मुद्दे पर करुणानिधि को ‘कमजोरज् मुख्यमंत्री करार दिया है, जो कोई भी त्वरित व साहसिक निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। वहीं एमडीएमके प्रमुख वाइको ने तो लिट्टे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई नहीं रुकवा पाने की स्थ्िित में राष्ट्रीय एकता को खतरे तक की बात कह डाली।
इस मुद्दे पर लगातार विपक्ष के हमले ङोल रही डीएमके ने स्वयं को ‘तमिलों का सबसे बड़ा हितैषीज् बताने के लिए गुरुवार को राज्य में बंद का भी आह्वान किया, लेकिन विपक्ष ने इसे ‘नौटंकीज् करार दिया है। वास्तव में तमिलनाडु के राजनीतिक दल इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि भले ही भारत सहित दुनियाभर के 30 देशों ने लिट्टे को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा हो, लेकिन आम तमिलों के बीच आज भी संगठन के सरगना वेल्लु प्रभाकरन को बड़ा दर्जा हासिल है। वे मानते हैं कि वह ‘उनके हितों की लड़ाईज् लड़ रहा है। वैसे जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी जसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो लिट्टे को आतंकवादी संगठन मानते हैं और उनके सफाए के समर्थक हैं।
प्रभाकरन को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का ताजा बयान इसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए। हालांकि इस पार्टी की सहानुभूति पहले से ही लिट्टे से रही है, लेकिन संप्रग ने पिछले साल मई में जब दो साल के लिए लिट्टे पर प्रतिबंध बढ़ाने का फैसला किया तो डीएमके भी उसमें शामिल थी। तब शायद गठबंधन राजनीति की मजबूरी ने उसे फैसले का विरोध नहीं करने दिया। लेकिन अब जब चुनाव सिर पर है, तो प्रभाकरन को ‘दोस्तज् और ‘आतंकवादी नहींज् बताना डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि की राजनीतिक मजबूरी बन गई है।
तमिलनाडु की मौजूदा राजनीति पर गौर करें तो वहां दो गठबंधन चुनावी समर में ताल ठोंकते नजर आ रहे हैं। सत्तारूढ़ डीएमके-कांग्रेस गठबंधन में डीएमके की लिट्टे के प्रति सहानुभूति रही है, तो कांग्रेस उसकी कट्टर विरोधी है। डीएमके पर तमिलनाडु में सत्तारूढ़ रहते हुए कई बार व्रिोहियों को भारत में प्रवेश का सुरक्षित रास्ता देने के लिए भी उंगली उठी। उधर, प्रभाकरन को लेकर कांग्रेस की पीड़ा समझी जा सकती है। जांच एजेंसियों से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में इस संगठन और प्रभाकरन का हाथ साबित हो चुका है। यही वजह है कि करुणानिधि ने जसे ही प्रभाकरन को ‘दोस्तज् बताया, कांग्रेस ने स्वयं को इससे अलग कर लिया और कहा कि लिट्टे को आतंकवादी संगठन मानने की उसकी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रियंका गांधी ने भी साफ कर दिया कि लिट्टे प्रमुख को लेकर उनके मन में न तो कोई सहानुभूति है, न नफरत की भावना; लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत कभी प्रभाकरन को माफ नहीं कर सकता, जिसने उसके पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की।
दूसरी तरफ एआईएडीएमके के नेतृत्व वाला गठबंधन है, जिसमें वाइको की पार्टी एमडीएमके और पीएमके भी शामिल है। एआईएडीएमके लिट्टे की धुर विरोधी है, जबकि वाइको लिट्टे के मुखर समर्थक हैं। लिट्टे के प्रति खुले समर्थन के कारण ही जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते हुए वाइको को पोटा के तहत जेल भेज दिया था, जब वह कें्र में मंत्री थे। आज वही वाइको जयललिता के साथ हैं। पीएमके फिलहाल जयललिता के साथ है, लेकिन अब तक वह कें्र में सहभागी थी, इसलिए चुनाव में लोगों को रुख उसके खिलाफ भी जा सकता है। लोकसभा चुनाव के बाद जयललिता इस मुद्दे को लेकर डीएमके से समर्थन वापसी और राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस पर दबाव बना सकती है।
उधर, प्रभाकरन को लेकर करुणानिधि के हालिया बयान से वाम दलों में भी खलबली है। उनके इस बयान के बाद तीसरे मोर्चे में दरार की आशंका जताई जा रही है। वाम दलों को डर सता रहा है कि करुणानिधि के बयान से आहत कांग्रेस चुनाव बाद खुद को डीएमके से अलग कर सकती है और जयललिता, जो पहले से ही कांग्रेस के साथ गठबंधन की इच्छा जता चुकी हैं, कांग्रेस का दामन थाम सकती हैं।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

खम्मम-संसद रोड पर रोड़े ही रोड़े

आंध्र प्रदेश की खम्मम संसदीय सीट उन क्षेत्रों में है, जहां लोकसभा के पहले चरण के तहत गुरुवार को मतदान होना है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री रेणुका चौधरी यहां से कांग्रेस प्रत्याशी हैं, तो तेलुगु देशम ने नामा नागेश्वर राव को उम्मीवार बनाया है।
पिछले चुनाव में रेणुका चौधरी ने उन्हें भारी मतों के अंतर से हराया था। इससे पहले 1999 में भी रेणुका चौधरी ही यहां से निर्वाचित हुई थीं। पिछले दो चुनाव परिणाम से उत्साहित रेणुका हैट्ट्रिक करना चाहती हैं। लेकिन इस बार उनकी राह आसान नहीं है। दूसरी बार यहां से किस्मत आजमा रहे नागेश्वर राव इस चुनाव में टीडीपी के अकेले उम्मीदवार नहीं हैं, बल्कि उन्हें वाम दलों और तेलंगाना राष्ट्र समिति का समर्थन भी हासिल है। टीडीपी, टीआएस और वाम दलों के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में वह रेणुका को जबरदस्त चुनौती दे रहे हैं। हालांकि वाम दलों के कुछ जमीनी कार्यकर्ता इस बात से नाराज हैं कि टीडीपी-टीआरएस-वाम गठबंधन के प्रत्याशी के रूप में एक गैर-वामपंथी व्यक्ति को चुन लिया गया है। लेकिन वाम दलों के औपचारिक समर्थन से नागेश्वर राव का आत्मविश्वास तो बढ़ा ही है।
वहीं, रेणुका के सामने कई चुनौतियां हैं। विकास कार्यो को लेकर क्षेत्र की जनता उनसे खासी नाराज है, तो कांग्रेसियों का एक खेमा भी खम्मम संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले विधानसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों के चयन से नाराज है। साथ ही सत्ता विरोधी भावना भी उनके खिलाफ जा सकती है। इसके अलावा अलग तेलंगाना राज्य की मांग भी इन दिनों आंध्र में जोरों पर हैं। टीआरएस इसे लेकर मुहिम चला रही है, जिसमें इस बार उसे टीडीपी और वाम दलों का भी साथ मिल गया है। जाहिर है तेलंगाना आंदोलन रेणुका सहित कांग्रेस के अन्य उम्मीदवारों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है।

चीं-चीं पकड़े गए तो खीं-खीं

फिल्म उद्योग में ‘बिरार का छोकराज् के नाम से मशहूर हैं गोविंदा। कई साल तक फिल्मों में अभिनय के बाद उन्होंने राजनीति का रुख किया। शायद शत्रुघ्न सिन्हा, जयाप्रदा, जया बच्चन और किसी जमाने में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के राजनीति से जुड़ाव ने गोविंदा को भी राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। लेकिन अभिनय की दुनिया में भले ही उन्होंने खूब नाम कमाया हो, कई सुपरहिट फिल्म दी हो, राजनीति में वह कुछ खास नहीं कर सके।
अपनों के बीच चीं-चीं के नाम से जाने जाने वाले गोविंदा ने 2004 में राजनीतिक पारी की शुरुआत की। कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और उत्तर मुंबई से पार्टी के उम्मीदवार बने। जनता और पार्टी को उनसे बहुत सी अपेक्षाएं थी। लेकिन उन्होंने केवल पार्टी की उम्मीद पूरी की, जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। भाजपा उम्मीदवार व तत्कालीन कें्रीय मंत्री राम नईक को उन्होंने रिकॉर्ड मतों से हराया। माना जाता है कि गोविंदा की जीत और राम नईक की हार सुनिश्चित करने में उत्तर मुंबई संसदीय क्षेत्र के गुजराती मुस्लिम समुदाय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसलिए इसे भाजपा के प्रति उनके आक्रोश के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसका लाभ गोविंदा को मिला।
लेकिन यह अभिनेता जनता से मिले प्रेम और उनके भरोसे को बरकरार नहीं रख पाया। फिल्मों में गरीब, मजबूर और बेबस लोगों के मसीहा के रूप में सामने आने वाले गोविंदा ने वास्तविक धरातल पर कभी अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों की सुध नहीं ली। क्षेत्र के विकास तो दूर उन्होंने एकबार भी अपने संसदीय क्षेत्र के दौरे की जरूरत नहीं समझी। 2004 में चुनाव मैदान में उतरने से पहले उन्होंने ‘आवास, प्रवास, स्वास्थ्य और ज्ञानज् का नारा दिया था, लेकिन सांसद चुने जाने के बाद उन्होंने अपने ही नारे को भुला दिया।
जनता विकास और मदद को तरसती रही और अभिनेता सांसद न जाने कहां गायब रहे। यही वजह रही कि उनके क्षेत्र के लोगों ने अपने ही सांसद की गुमशुदगी रिपोर्ट दर्ज करा दी। दरअसल, जुलाई 2005 में जब मुंबई बारिश के पानी में डूब रहा था, उत्तर मुंबई के हजारों लोगों ने बड़ी आस लेकर गोविंदा को ढूढं़ने और उनसे मिलने की कोशिश की, लेकिन लोगों को उनका कहीं अता-पता नहीं चला। नाराज लोगों ने अपने सांसद के खिलाफ गुमशुदगी रिपोर्ट दर्ज करा दी।
और तो और, पांच साल के संसदीय कार्यकाल में संसद सत्र के दौरान उनकी उपस्थिति नाम मात्र की रही। इस दौरान न तो उन्होंने किसी चर्चा में भाग लिया और न ही कोई सवाल किया। सांसदों को अपने क्षेत्र के विकास के लिए जो राशि मिलती है, शुरुआती दिनों में गोविंदा ने उसका भी उपयोग नहीं किया। अखबारों, समाचार चैनलों पर यह खबर चली तब उन्हें इसकी सुध आई। लेकिन जल्द ही वह दोबारा इस बात को भूल गए। उत्तर मुंबई के दूर-दराज के क्षेत्रों के लोग अब भी पानी, बिजली और सड़क की समस्या से जूझ रहे हैं।
इसके अलावा उन्होंने अपने विवादास्पद बयान से कांग्रेस और महाराष्ट्र में उसकी सहयोगी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के लिए भी मुश्किल खड़ी की। उन्होंने मुंबई में ‘डांस बारज् पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का विरोध किया, जबकि यह निर्णय महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ उनकी पार्टी कांग्रेस और एनसीपी ने ही लिया था। इस तरह गोविंदा ने न केवल अपने क्षेत्र की जनता, बल्कि पार्टी को भी नाराज किया। ऐसे में उनका टिकट कटना तो तय ही था।
तमाम आलोचनाओं के बीच जनवरी 2008 में गोविंदा ने कहा था कि वह अब राजनीति नहीं करेंगे और पूरा समय अपने अभिनय करियर को देंगे, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही वह राजनीति में दोबारा उतरने का अपना मोह नहीं छोड़ पाए। जो गोविंदा मुसीबत के समय अपने क्षेत्र के लोगों को ढूंढ़े नहीं मिल नहीं रहे थे, वह होली के समय अपने आवास पर लोगों के बीच रुपए बांटते पाए गए। उनके इस कदम ने साफ कर दिया था कि वह दोबारा चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं। लेकिन पार्टी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। उसे भलीभांति अंदाजा था कि उत्तर मुंबई की जनता में गोविंदा के प्रति नाराजगी सिर चढ़कर बोल रही है। यही वजह रही कि इस सिने अभिनेता को दरकिनार कर पार्टी ने उत्तर मुंबई से शिवसेना से कांग्रेस का रुख करने वाले संजय निरुपम को टिकट दिया।

अब अर्जुन बे-बान

अर्जुन ¨सह भी बेटे-बेटी का टिकट कटने से नाराज हैं। हालांकि वह काफी पहले से खफा चल रहे हैं। टिकट का मामला ताजा है। उनकी यह नाराजगी आए दिन उनके बयानों से जाहिर होती रहती है।
अर्जुन सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ व वयोवृद्ध नेता हैं और कें्र में मानव संसाधन विकास मंत्री भी। उम्र का एक एक बड़ा हिस्सा उन्होंने कांग्रेस में गुजार दिया। स्वाभाविक रूप से उन्हें पार्टी से कुछ अपेक्षाएं रहीं। कभी अपेक्षाएं पूरी हुईं, तो कभी निराशा भी हाथ लगी और ऐसे में मन में व्रिोह भी जागा। व्रिोह की यही भावना थी कि 1990 के दशक में उन्होंने नारायण दत्त तिवारी के साथ ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) का गठन किया। लेकिन जसे सुबह का भूला शाम को घर लौट आता है, अर्जुन सिंह की भी घर वापसी हुई।
2004 में कांग्रेस नेतृत्व में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी तो वह मानव संसाधन विकास मंत्री बने। उम्मीद थी कि अब उनकी अपेक्षाएं दरकिनार नहीं होंगी। लेकिन उन्हें फिर निराशा हाथ लगी और कई मौके पर तो आंसू छलक पड़े। 15वीं लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो बेटी वीणा सिंह ने मध्य प्रदेश के सीधी और बेटे अजय सिंह, जो राज्य में विधायक हैं, ने सतना संसदीय सीट से कें्रीय राजनीति में उतरने की इच्छा जताई। पिता के नाते उन्होंने बच्चों की मंशा को पूरा समर्थन दिया और पार्टी आलाकमान तक यह बात भी पहुंचा दी। लेकिन पार्टी ने सतना से सुधीर सिंह तोमर और सीधी से इं्रजीत पटेल को उम्मीदवार बनाया। बर्जुन के बेटे-बेटी को नहीं। यह अलग बात है कि तोमर और पटेली अर्जुन ¨सह खेमे के ही सदस्य हैं। वैसे कहा यह जा रहा था कि खुद अर्जुन ¨सह का जोर वीणा को टिकट के लिए था।
वंचित वीणा ने निस्संदेह पिता को आहत किया। शायद यही वजह रही कि बलिया में एक चुनावी सभा में इसका जिक्र आने पर उनकी आंखें नम हो गईं। बाद में पत्रकारों ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने केवल इतना कहा, ‘इस उम्र में ऐसा होता हैज्। उधर, कांग्रेस आलाकमान के इनकार के बाद वीणा सिंह ने सीधी से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार नामांकन दाखिल कर दिया। हालांकि एक पिता यहां धर्मसंकट में पड़ गया कि वह बेटी के लिए प्रचार करे या एक निष्ठावान कार्यकर्ता की तरह पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में। बिना किसी देरी के उन्होंने पार्टी उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार का औपचारिक एलान कर इस बारे में तमाम अटकलों पर विराम लगा दिया। लेकिन अर्जुन सिंह ऐसे आसान राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। इतनी लंबी पारी वह अपनी चतुराई व सूझबूझ के कारण ही खेल पाए। कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि अपने शीर्ष दिनों में उनके अति-चातुर्य ने उन्हें एक खास तरह से राजनीतिक हलकों में संदिग्ध बना दिया। उनकी हर बात, हर कदम को लोग संदेह से देखते हैं। यही संदेह वीणा की उम्मीदवारी में काम कर रहा है। जानकार कह रहे हैं कि वीणा के लिए अर्जुन ने चालाकी से बिसात बिछाई है। इसका राज तो तब खुलेगा, जब नाम वापसी होगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि किसका पर्चा रद्द होता है और कौन नाम वापस लेता है।
सरकार में रहते हुए अर्जुन सिंह ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए, तो कई बार अपने विवादास्पद बयानों से पार्टी के लिए मुश्किल भी खड़ी की। तमाम विरोध के बावजूद उन्होंने उच्च शिक्षण संस्थानों और कें्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का ऐतिहासिक फैसला किया। आरक्षण विरोधी छात्र फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। उनपर मंडल राजनीति का दूसरा अध्याय शुरू करने का आरोप लगा। कहा गया कि वह सिर्फ वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित होकर यह कदम उठा रहे हैं। फिर भी, उन्होंने अपना कदम पीछे नहीं हटाया। वहीं, पीलीभीत से भाजपा के उम्मीदवार वरुण गांधी के बारे में अपने हालिया बयान से उन्होंने पार्टी के लिए परेशानी भी पैदा कर दी। वरुण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने के फैसले को उन्होंने ‘दुर्भाग्यपूर्णज् करार दिया। भाजपा ने उनके बयान को हाथों-हाथ लिया, तो कांग्रेस को सफाई देनी पड़ी कि यह उनके निजी विचार हैं। फिर मंत्रिमंडल के अपने सहयोगी लालू प्रसाद यादव के वरुण गांधी पर बयान की निंदा करते हुए भी उन्हें देर नहीं लगी।
अर्जुन सिंह गांधी परिवार के पुराने हिमायती रहे हैं। सोनिया को राजनीति में लाने और कांग्रेस सौंपने की मुहिम में वह शामिल रहे। इस कारण कांग्रेस से अलग हुए और सोनिया के आने पर वापस आ गए। लेकिन अपने कुछ बयनों के कारण वह गांधी परिवार की नजरों से उतर गए। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में तो सोनिया गांधी ने उनकी दुआ-सलाम तक कबूल नहीं की। इधर चुनाव के कारण उनकी आधिकारिक बायोग्राफी का विमोचन स्थगित हो गया। लेकिन जब भी वह आएगी, उसे लेकर हंगामा मचेगा। अर्जुन सिंह की पत्नी सरोज सिंह के हवाले से उसमें कहा गया है, ‘मैडम का क्या बिगड़ जाता, अगर उन्हें राष्ट्रपति बना देतीं।ज् चुनाव बाद अर्जुन सिंह पर नजर रखनी होगी। कांग्रेस सरकार बनने पर शायद ही वह मंत्री बनें। वैसे कभी उनकी हसरत भी प्रधानमंत्री बनने की थी। प्रणव मुखर्जी की तरह वह भी बेहद प्रतिभाशाली हैं। बल्कि कई मामलों में उनसे कहीं आगे भी। वह तो लगातार चुनावी हारों और शारीरिक अस्वस्थता के कारण मात खा गए हैं। अब उनमें वह बात नहीं कि वह पांसा पलट दें। पर हां, पार्टी और नेतृत्व को बगले तो झंकवा ही सकते हैं।

उल्लंघन के अन्य महत जन

चुनाव की घोषणा होते ही अरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो जाता है। कई बार यह केवल सत्ता और विपक्ष या विरोधी दलों की आपसी खींचतान का नतीजा होता है, तो कभी-कभी यह वास्तव में आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला होता है। चुनाव आयोग पहले ही साफ कर चुका है कि आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, लेकिन राजनीतिक दलों को कौन समझाए।
आए दिन आयोग के पास आचार संहिता के उल्लंघन के मामले पहुंचते हैं। आयोग दलों को सख्त निर्देश देता है। इस दिशा में ठोस कार्रवाई भी करता है, फिर भी यह सिलसिला है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा। हाल में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग और अपने प्रभाव के इस्तेमाल का आरोप लगा। कई अन्य नेताओं पर भी ऐसे आरोप लग चुके हैं, जो आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला बनता है। लेकिन पार्टियां हैं कि सबक सीखने को तैयार नहीं।
असम की मुख्य विपक्षी पार्टी असम गण परिषद ने चुनाव आयोग को दी शिकायत में आरोप लगाया है कि गोगोई ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर चाय बगान के मालिकों से कांग्रेस के पक्ष में राजनीतिक चंदा इकट्ठा किया। साथ ही यह भी कहा गया कि अपनी हाल की कोलकाता यात्रा के दौरान उन्होंने सरकारी सेवाओं का लाभ लिया। हालांकि आयोग के पूछे जाने पर गोगोई ने साफ किया कि उनकी यात्रा पूरी तरह निजी थी, चुनाव से इसका कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन आयोग ने स्पष्ट कर दिया कि एकबार चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद निजी यात्रा के दौरान भी सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। आयोग ने सख्त लहजे में उन्हें भविष्य में इसका ध्यान रखने और ऐसी गलती नहीं दोहराने का निर्देश दिया।
उधर, आंध्र प्रदेश में तेलंगाना राष्ट्रसमिति के नेता चं्रशेखर राव ने मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी चुनाव प्रचार के दौरान सरकारी भवन के इस्तेमाल का आरोप लगाया। साथ ही मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने मुख्यमंत्री वाईएस रेड्डी के दामाद अनिल कुमार को करीमनगर के एक गेस्ट हाउस में 10.40 लाख से अधिक रुपए के साथ तीन पादरियों से मिलने के आरोप में जवाब-तलब किया है। आंध्र की मुख्य विपक्षी पार्टी टीडीपी और भाजपा का आरोप है कि मुख्यमंत्री का दामाद होने के नाते अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अनिल कुमार एक समुदाय विशेष के लोगों का वोट हासिल करने की जुगत में हैं। हालांकि अनिल कुमार और पादरियों का कहना है कि इस राशि का चुनाव से कोई लेना-देना है, बल्कि यह धार्मिक कार्यो के लिए है।
वहीं, हरियाणा की मुख्य विपक्षी पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल ने चुनाव आयोग में मुख्यमंत्री भूपें्र सिंह हुड्डा के दो मीडिया सलाहकार और चार मीडिया समन्वयक के खिलाफ शिकायत दी, जिसमें उन पर सरकारी वाहनों एवं सुविधाओं के इस्तेमाल का आरोप लगाया गया। आयोग तक शिकायत पहुंचने के बाद हरियाणा सरकार के जनसंपर्क विभाग को मुख्यमंत्री के दो मीडिया सलाहकार और दो मीडिया समन्वयक को सरकारी वाहनों या सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं करने का सख्त निर्देश दिया।
इस बीच झारखंड भाजपा ने प्रदेश के राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी पर आचार संहिता लागू हो जाने के बाद नई योजनाएं शुरू करने का आरोप लगाया। उनका कहना है कि चुनाव घोषित हो जाने के बाद राज्यपाल ने राज्यकर्मियों के भत्ते में वृद्धि की घोषणा की है, जो आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है। वहीं, महाराष्ट्र भाजपा ने भी राज्य की कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार पर जनता के धन के दुरुपयोग का आरोप लगाया। राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को दी शिकायत में प्रदेश भाजपा ने कहा है कि पार्टी के प्रचार के लिए सरकार रेडियो, टेलीविजन और विज्ञापन पर आम जनता का पैसा पानी की तरह बहा रही है।
इससे पहले आयोग सरकारी भवन के इस्तेमाल को लेकर भाजपा नेता मेनका गांधी को भी नोटिस जारी कर चुका है। साथ ही समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह को भी ‘होली मिलनज् के नाम पर लोगों के बीच वोट बांटने के लिए नोटिस जारी किया गया। हाल ही में भाजपा नेता जसवंत सिंह और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कैलाश मेघवाल पर भी ग्रामीणों के बीच रुपए बांटने का आरोप लगा। चुनाव आयोग ऐसी शिकायतों को लेकर सख्त तो दिखता है, लेकिन तमाम सख्ती के बावजूद ऐसी शिकायतें लगातार आयोग तक पहुंच रही हैं। साफ है कि विभिन्न राजनीतिक दल इसे लेकर गंभीर नहीं हैं। अब देखना है कि आखिर कब रुकता है यह सिलसिला।