मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

मुद्दों का अकाल और हार का डर

राजनीतिक चिंतक देवदत्त मानते हैं कि इस समय राजनीतिक दलों के पास मुद्दों का अभाव है। ऊपर से उन्हें हार का डर है, जिस कारण राजनीति तू-तू मैं-मैं पर उतर आई है। पेश है उनसे इस मुद्दे पर बातचीत।
लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार का दौर शुरू होते ही व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों और आक्षेपों की बाढ़ सी आ गई। यही सिलसिला 1999 के आम चुनाव में भी देखने को मिला था। तब निशाने पर थीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, लेकिन इस बार सोनिया से अधिक निशाने पर हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें ‘अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्रीज् बताते हुए टेलीविजन पर खुली बहस की चुनौती दे डाली, तो पिछले पांच साल से लगातार अपने लिए ‘कमजोरज् शब्द सुनकर संयमित माने जाने वाले मनमोहन सिंह भी जसे फट पड़े। उन्होंने यह कहकर आडवाणी का प्रस्ताव नकार दिया कि ऐसा करके मैं उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का दर्जा नहीं देना चाहता। उन्होंने यह भी कहा, ‘मैं कर्मयोगी हूं, करने में यकीन रखता हूं, जबकि आडवाणी सिर्फ बयान बहादुर हैं।ज्
विवाद यहीं नहीं थमा। भाजपा के प्रमुख सहयोगी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने उन्हें ‘गुलाम सिंहज् कहा। साफ है कि निशाने पर सोनिया और मनमोहन दोनों थे। लेकिन सोनिया भी कहां चुप रहने वाली थीं। चुनावी समर में अपने ‘सेनापतिज् का बचाव करते हुए आडवाणी को ‘संघ का गुलामज् बता डाला। इससे पहले भाजपा के फायरब्रांड नेता नरें्र मोदी ने ‘बुढ़िया पार्टीज् और ‘गुड़िया पार्टीज् कहकर कांग्रेस की खिल्ली उड़ाई, जिसका प्रियंका गांधी ने यह कहकर जवाब दिया कि ‘क्या मैं बूढ़ी दिखती हूं?ज् वहीं कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो भाजपा नेताओं को ‘दिमागी इलाजज् की जरूरत बता दी।
एक-दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत आक्षेपों की यह बानगी 1952 के आम चुनाव से लेकर 1990 के दशक के उत्तरार्ध तक नहीं देखने को मिली थी। ऐसा नहीं है कि पहले नेताओं में खींचतान नहीं थी, वैचारिक मतभेद नहीं थे। लेकिन उन्होंने कभी इसे सार्वजनिक नहीं किया। आज यदि नेता अपना संयम खोते जा रहे हैं, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि राजनीति में मुद्दों का अकाल हो गया है। दलों की रीति-नीति स्पष्ट नहीं है। सभी के कार्यक्रम एवं घोषणा-पत्र लगभग एक जसे हो गए हैं। सभी जनता को सस्ता चावल, गेहूं, दाल, मुफ्त टीवी, कपड़े आदि से लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि पहले के आम चुनाव सैद्धांतिक और वचारिक आधार पर लड़े जाते थे।
इसकी एक अन्य महत्वपूर्ण वजह नेताओं में ‘हार का डरज् भी है। आज कोई भी दल अपने वोट बैंक को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं रह गया है। दरअसल, छोटे-छोटे दलों ने जनता के सामने कई विकल्प प्रस्तुत किए हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था। 1971 तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा। 1977 में जनता पार्टी ने कांग्रेस का विकल्प जरूर प्रस्तुत किया, लेकिन 1980 और 1984 के चुनाव में एकबार फिर कांग्रेस ने अपना खोया जनाधार प्राप्त कर लिया। पर यह आगे जारी नहीं रह सका। 1989 से भारतीय राजनीति पर कांग्रेस का एकछत्र राज समाप्त हो गया। गठबंधन राजनीति के दौर में आज जनता के सामने कई विकल्प हैं। ऐसे में वोटर कहीं इधर-उधर न खिसक जाए, नेता हमेशा इसे लेकर आतंकित रहते हैं। लेकिन वे ‘किसी भी कीमत परज् जीतना भी चाहते हैं। जीतने की इस महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर ही वे व्यक्तिगत आक्षेपों के सहारे दूसरों को गलत बताकर खुद को अच्छा साबित करने की कोशिश करते हैं।

0 टिप्पणियाँ: