सोमवार, 12 सितंबर 2011

बाल कुपोषण : एक गम्भीर चुनौती


देश तेजी से बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो रहा है। विकास दर करीब 8.5 प्रतिशत है, लेकिन इस विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्था में बच्चों की एक बड़ी आबादी कुपोषण का दंश झेलने के लिए मजबूर है। हर साल करीब 6,00,000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हो जाती है।

वैश्विक संस्थाओं से लेकर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और तमाम गैर-सरकारी संगठनों के आंकड़े भी देश में बाल कुपोषण की स्थिति को खतरनाक बताते हैं। गैर-सरकारी संगठन 'सेव द चिल्ड्रेन' के अनुसार, हर साल देश में पांच वर्ष से कम उम्र के करीब 18,30,000 बच्चों की मौत हो जाती है। इनमें से करीब 6,00,000 बच्चे कुपोषण के कारण जान गंवा देते हैं।

संस्था की सूचना अधिकारी अनंतप्रिया सुब्रमण्यम के अनुसार, कुपोषण के कारण बहुत से बच्चों का कद उनकी उम्र की तुलना में काफी छोटा रह जाता है, जबकि कई बार इसकी वजह से बच्चे बिल्कुल कृशकाय रह जाते हैं और कुछ भी कर पाने में समर्थ नहीं होते। कुपोषण के कारण उनका वजन भी सामान्य से कम होता है।

राष्ट्रमंडल के विभिन्न देशों की तुलना में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश में 0-6 वर्ष के बच्चों की संख्या 15,87,89,287 है। निश्चित रूप से बच्चों की यह आबादी ही कल का भारत है। लेकिन देश का 43 प्रतिशत भविष्य कुपोषण की वजह से सामान्य से कम वजन का है और पांच साल से कम उम्र के करीब 70,00,000 बच्चे गम्भीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं।

'सेव द चिल्ड्रेन' के कार्यकारी अधिकारी थॉमस चांडी का कहना है, "देश में पांच साल से कम उम्र के करीब 5,50,00,000 बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। राजनीतिक नेतृत्व को इसका समाधान ढूंढ़ने की जरूरत है।"

कुपोषण का खतरा सबसे अधिक बच्चों के गर्भ में आने से लेकर 33 महीने तक रहता है। यानी पैदा होने के दो साल बाद तक उनका खास ख्याल रखने की जरूरत होती है। वर्ष 2000 में भारत सहित 198 देशों ने 2015 तक भूख और कुपोषण की स्थिति को 50 प्रतिशत तक कम करने का उद्देश्य तय किया था। लेकिन भारत सहित राष्ट्रमंडल के सात देशों में इस दिशा में कोई खास प्रगति होती नहीं दिख रही। अब तक भारत ने इस दिशा में केवल 0.9 प्रतिशत प्रगति की है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2005 की रिपोर्ट कुछ ऐसे ही आंकड़े पेश करती है। इसके मुताबिक, तीन साल से कम उम्र के करीब 46 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है, जबकि 0-35 महीने तक के 79 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं।

वैश्विक भूख सूचकांक की 2010 की रिपोर्ट में भी भारत में बाल कुपोषण की स्थिति पर चिंता जताई गई है। 122 विकासशील देशों की सूची में भारत को 67वां स्थान दिया गया है। इसके अनुसार, दुनियाभर में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों में से 42 प्रतिशत भारत में हैं।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनीसेफ ने तो भारतीय बच्चों में कुपोषण की समस्या मध्य और दक्षिणी अफ्रीकी देशों से भी अधिक बताई है। इसके अनुसार, दुनिया में हर तीसरे कुपोषित बच्चे में से एक भारत में है।

सरकार ने बच्चों में कुपोषण को दूर करने के लिए कई योजनाएं और जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए हैं। छह वर्ष तक के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए समेकित बाल विकास सेवा शुरू की गई। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन खाद्य एवं पोषण बोर्ड लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए हर साल एक से सात सितम्बर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह आयोजित करता है। इस बार भी इस सप्ताह के दौरान देशभर में कार्यशालाओं, शिविर, प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाया गया। लेकिन कुपोषण के आंकड़े ऐसे प्रयासों, कार्यक्रमों और नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं।

महिला कुपोषण : एक अहम चुनौती


महिला सशक्तीकरण के दावों के बाद भी देश की आधी आबादी सामाजिक-आर्थिक स्तर पर उपेक्षा का दंश झेलने के लिए मजबूर है. उनका खराब स्वास्थ्य इसी का नतीजा है. उचित खानपान नहीं मिलने के कारण देश में करीब 33 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं.

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और इससे सम्बद्ध खाद्य एवं पोषण बोर्ड के तत्वावधान में देशभर में एक से सात सितम्बर तक 'राष्ट्रीय पोषण सप्ताह' मनाया जाता है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में महिलाओं की संख्या 58,64,69,174 है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े इनमें से करीब 33 प्रतिशत महिलाओं को कुपोषण का शिकार बताते हैं.

देश में मातृत्व मृत्यु दर का एक बड़ा कारण भी कुपोषण है. हाल ही में जारी यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2008 में प्रति 1,00,000 बच्चों के जन्म पर मातृत्व मृत्यु दर 230 थी और इसका एक बड़ा कारण महिलाओं में कुपोषण है. सरकार ने 2015 तक मातृत्व मृत्यु दर प्रति 1,00,000 बच्चों पर घटाकर कम से कम 108 करने का लक्ष्य निर्धारित किया है. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद 2001 से अब तक मातृत्व मृत्यु दर में आई कमी के आंकड़ों को देखते हुए यह बेहद चुनौतीपूर्ण जान पड़ता है. 2001-03 में यह दर 301 और 2004-06 में 254 थी.

उचित खानपान के अभाव में महिलाओं में एनीमिया की समस्या आम है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं में एनीमिया की समस्या 1998-99 से बढ़ी है. 2005-06 के आंकड़ों के मुताबिक, करीब 55 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. एनीमिया के कारण न केवल महिलाओं को गर्भधारण में समस्या आती है, बल्कि कई बार यह गर्भपात और बच्चे तथा मां की मृत्यु का कारण भी बनता है. एनीमिया की शिकार महिलाएं अक्सर सामान्य से कम वजन के बच्चे को जन्म देती हैं, जिससे बच्चा भी कुपोषित होता है. महिलाओं में आयोडीन की कमी की समस्या भी आम है.

देश के शहरी समाज में मोटापा की समस्या भी तेजी से बढ़ रही है, जो कुपोषण का ही एक प्रकार है. करीब 13 प्रतिशत महिलाएं मोटापा या सामान्य से अधिक वजन की शिकार हैं.

आधी आबादी में कुपोषण की यह स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है और इसे दूर करना एक महत्वपूर्ण चुनौती है, क्योंकि किसी भी समाज के विकास में उसकी स्वस्थ जनसंख्या बहुत मायने रखती है और इसमें आधी आबादी के स्वास्थ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सरकार ने हालांकि लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए सरकार ने कई कार्यक्रम और योजनाएं बनाई हैं. लेकिन महिलाओं में कुपोषण के आंकड़े बताते हैं कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.