रविवार, 28 अगस्त 2011

एक ऐतिहासिक पल की गवाह बनी मैं भी


दिल्ली का रामलीला मैदान। लाखों की भीड़। हाथों में तिरंगा। दिल में जोश, आशा की नई किरण, नया भरोसा, जीत का जज्बा और जुबां पर वंदे मात्रम, भारत माता की जय, इंकलाब जिंदाबाद के नारे। यह नजारा आम नहीं है। ही किसी फिल्म का दृश्य। यह उन सबके लिए देश की दूसरी आजादी की लड़ाई का जश्न था, जो 1947 में देश के आजाद होने के बाद हुए जश्न के गवाह नहीं बन पाए थे। मेरे लिए कुछ ऐसा ही था। अन्ना हजारे अपने 13 दिन का अनशन रविवार सुबह 10 बजे तोड़ने वाले हैं, इसकी जानकारी शनिवार को ही मिल गई थी।
मैं भी उस ऐतिहासिक पल का गवाह बनना चाह रही थी। घर से निकली तो ऐसा लगा कि दिल्ली की सारी सड़कें रामलीला मैदान को ही जा रही हैं। मोटरसाइकिल, बस, कार, मेट्रो, जिसकी पहुंच में जो रहा, उसी से सब हाथों में तिरंगा और सिर पर 'अन्ना टोपी' लगाए रामलीला मैदान के लिए निकल पड़ा, उस ऐतिहासिक पल और दिन का गवाह बनने, जब अन्ना अपना तोड़ने वाले थे।
मेट्रो में युवाओं की एक टोली मिली। करीब 10-12 युवा एक साथ नारेबाजी करते हुए सभी को उत्साहित कर रहे थे। इसी समूह में शामिल आईटीआई के छात्र अमरजीत ने कहा, "अन्ना जी ने हमें एक दिशा दिखाई है। उन्होंने अहिंसक क्रांति की जो मशाल हमारे भीतर जगाई, हम उसे बुझने नहीं देंगे। मैं उस ऐतिहासिक वक्त में उस ऐतिहासिक रामलीला मैदान में मौजूद रहना चाहता हूं, जब अन्ना जी अपना पिछले 13 दिनों का अनशन तोड़ेंगे।"
फिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के मेट्रो गेट से रामलीला मैदान तक सड़क पर लोगों का हुजूम। मेरे भीतर का एक आम नागरिक आज उस असंतोष के भाव से काफी हद तक संतुष्ट था कि मैंने आजादी का जश्न नहीं देखा और ही सम्पूर्ण क्रांति की गवाह बन सकी। हाथों में तिरंगा लहराते, सिर पर 'मैं अन्ना हूं' लिखी हुई टोपी लगाए लोग ढोल-नगाड़ों के साथ जीत का जश्न मनाते हुए रामलीला मैदान की ओर बढ़ रहे थे।
भीड़ आत्म नियंत्रित थी। प्रवेश द्वार पर हालांकि थोड़ी बहुत धक्का-मुक्की हुई, लेकिन जीत के जोश में लोग अन्ना हजारे की शांति की अपील को नहीं भूले। यही वजह रही कि कोई हिंसा हुई, कोई भगदड़ और ही किसी तरह का नुकसान।
लोग ही क्यों पुलिस वालों ने भी कम संयम का परिचय नहीं दिया। पुलिस ने लोगों की 'अन्नागिरी' का जवाब 'गांधीगिरी' से ही दिया। यही वजह है कि अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने जब मंच से आंदोलन की सफलता के लिए दिल्ली पुलिस का शुक्रिया अदा किया तो सबसे अधिक तालियां उनके लिए ही बजी।
यह वही पुलिस थी, जिसने चार जून की रात को इसी रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के समर्थकों पर लाठियां बरसाई थी। लेकिन इस आंदोलन में संयम से काम लेते हुए उसने अपनी उस 'दमनकारी' छवि को 'सहयोगी' वाली छवि में बदल दिया। एक महिला पुलिस कर्मी ने नाम जाहिर करने की शर्त पर कहा, "ऐसा नहीं कि हमें डंडे बरसाने की आदत होती है। स्थिति को देखते हुए ही हमें ऐसा कोई कदम उठाना पड़ता है। और फिर, जब लोग शांत हैं तो हम अशांत क्यों हो जाएं?"
यह पूछे जाने पर कि क्या वह व्यक्तिगत तौर पर इस मुहिम को अपना समर्थन देती हैं, उन्होंने कहा, "जब कारण उचित होते हैं और मकसद साफ नि:स्वार्थ तो सभी साथ देते हैं।"
इस आंदोलन ने जहां युवा शक्ति का एक बार फिर एहसास कराया, वहीं यह भी साफ कर दिया कि लोगों को उम्र से युवा नेतृत्व की नहीं, बल्कि सही सोच और सही दिशा दिखाने वाले नेतृत्व की जरूरत है।
नेहरू प्लेस स्थित एक कम्पनी में बिजनेस रिलेशन मैनेजर के पद पर कार्यरत पंकज ने कहा, "यदि ऐसा नहीं होता तो 74 वर्षीय बुजुर्ग को युवाओं का इतना समर्थन क्यों मिलता और क्यों उनकी एक आवाज पर युवा सड़क पर उतरने से लेकर जेल भरने तक के लिए तैयार हो जाते? यह युवा शक्ति का राग अलापने वाले राहुल गांधी जैसे नेताओं के लिए एक सीख है। उन्हें अपना बहुत सा भ्रम दूर कर लेने और काफी कुछ समझने की जरूरत है।"