मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

अपना दोस्त राम बरन


राम बरन यादव अभी भारत की यात्रा पर आए हुए थे। उनकी भारत यात्रा राजनयिक तो थी ही साथ ही उन्होंने हरिद्वार में चल रहे कुम्भ मेले में भी एक भक्त की हैसियत से भाग लिया। वे चाहते हैं कि भारत और नेपाल के संबंध मधुर बने रहें। वे हरेक क्षेत्र में भारत के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के क्रम में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा है। यह राम बरन यादव की स्पष्टवादिता का ही प्रमाण है कि राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी वे देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से असंतुष्ट हैं और उसको आमूल-चूल बदलने की बात करते हैं।

राम बरन यादव, नेपाल के राष्ट्रपति। एक ऐसे नेता जो लोकतंत्र की स्थापना के लिए न केवल राजतंत्र से लड़ते रहे, बल्कि माओवादियों से भी लड़े और आज भी उनका विरोध ङोल रहे हैं। नेपाल में करीब ढाई सौ साल पुराने राजतंत्र की विदाई और गणतंत्र की स्थापना के बाद वहां पहली बार जनता का कोई प्रतिनिधि राष्ट्रपति बना और यह मौका मिला राम बरन यादव को। निश्चय ही, इस उपलब्धि में लोकतंत्र की स्थापना के लिए उनकी अंतहीन लड़ाई का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आखिर, लंबे समय से नेपाल में जड़ें जमाए राजतंत्र की विदाई आसान तो न थी।एक लंबी लड़ाई के बाद वर्ष 2008 में नेपाल में 240 पुराने राजतंत्र का अंत हुआ और वहां संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हुई। उसी साल अप्रैल में वहां संविधानसभा के चुनाव हुए, जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) माओवादियों को सबसे अधिक सीटें मिलीं। लेकिन जुलाई में हुए राष्ट्रपति चुनाव में उनका उम्मीदवार हार गया। नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार राम बरन यादव ने सीपीएनएम उम्मीदवार राम राजा प्रसाद सिंह को हराकर जीत हासिल की। इससे पहले उन्होंने अपने गृह जिले धनुषा के ही पांच नंबर कांस्टीच्वेंसी से संविधानसभा का चुनाव जीता था। राष्ट्रपति पद पर जीत के तुरंत बाद उन्होंने कहा था कि यह लोकतंत्र की जीत है और वे आगे भी इसे मजबूत करने के लिए काम करते रहेंगे।चार फरवरी, 1948 को नेपाल के मधेशी क्षेत्र में धनुषा जिले में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में पैदा हुए राम बरन यादव के लिए राष्ट्रपति पद तक का सफर आसान नहीं रहा और न ही यह कामयाबी उन्हें विरासत में मिली। उन्होंने जो कुछ भी पाया अपनी मेहनत व जुझारूपन से पाया। पिता मध्यमवर्गीय परिवार के किसान थे। परिवार आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं था। लेकिन किसान पिता को यह पसंद नहीं था कि बेटा भी खेत-खलिहान में उलझकर रह जाए। इसलिए उन्होंने बेटे को स्कूल भेजा। उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा उनके गृह जिले में ही हुई। लेकिन उच्च शिक्षा के लिए वे काठमांडू रवाना हो गए।बाद में उन्होंने भारत का रुख किया और पश्चिम बंगाल के कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई की। इस दौरान वे विभिन्न लोकतांत्रिक संगठनों से जुड़े रहे। वहां छात्र राजनीति में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी रही। एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद उन्होंने चंडीगढ़ के मेडिकल एजुकेशन और शोध संस्थान से एमडी किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नेपाल लौट गए। वहां उन्होंने करीब चार साल तक प्रैक्टिस भी की। उन्होंने जनकपुर में एक मेडिकल क्लिनिक भी खोला। एक डॉक्टर के रूप में भी वे कामयाब रहे।लेकिन डॉक्टरी का पेशा शायद उनके लिए नहीं बना था। पहले से ही राजनीति में रुचि रखने वाले डॉ. यादव 1980 के दशक में नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला के आखिरी दिनों में उनके निजी चिकित्सक बने, जो उनके राजनीतिक जीवन का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ। बीपी कोइराला की सामाजिक-लोकतांत्रिक विचारधारा ने उन्हें सक्रिय राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। वे नेपाली कांग्रेस से जुड़ गए और पार्टी में विभिन्न पदों पर उन्होंने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई। 1991-1994 के बीच वे गिरिजा प्रसाद कोइराला की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी बने। वैसे नेपाल में लोकतंत्र की लड़ाई से वे तभी जुड़ गए थे, जब दिसंबर, 1960 में तत्कालीन राजा महें्र ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई प्रधानमंत्री बीपी कोइराला की सरकार गिरा दी और सभी शक्तियां अपने अधीन कर ली। पड़ोसी देश भारत के लिए उनके दिल में स्नेह है और इसलिए वे दोनों देशों के संबंध मधुर बनाना चाहते हैं। पिछले सप्ताह भारत की यात्रा के दौरान उन्होंने इसके स्पष्ट संकेत दिए। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी उन्होंने साफ कहा था कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में भारत के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। शायद यही वजह रही कि वर्ष 2008 में राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के बाद अपनी पहली औपचारिक विदेश यात्रा के रूप में उन्होंने भारत को चुना। भारत से उनके लगाव की वजह न केवल उनका ऐसे क्षेत्र से होना है, जहां की संस्कृति और रीति-रिवाज काफी हद तक यहां से मिलते-जुलते हैं, बल्कि उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हो सकती है, जो उन्होंने भारत में ही पाई।नेपाल में राम बरन यादव की छवि एक ऐसे जुझारू नेता की है, जो जनता के लोकतांत्रिक हितों व अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं और देश की एकता व अखंडता के लिए हर झंझावात ङोलने को तैयार हैं। शायद यही वजह है कि नेपाल के मधेश क्षेत्र में मधेशी प्रांत की मांग का वे खुलकर विरोध करते हैं, जबकि वे स्वयं उसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका सपना नेपाल को आर्थिक रूप से संपन्न और शांतिपूर्ण बनाना है, जो फिलहाल विकास की बाट जोह रहा है। साथ ही वे नेपाल के तराई क्षेत्र में सक्रिय कुछ हथियारबंद समूहों को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। उनका साफ मानना है कि देश में जो मौजूदा राजनीतिक संस्कृति है, उसके कारण विकास अवरुद्ध हो गया है। इसमें आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। एकजुटता और प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से ही नेपाल तरक्की कर सकता है।वे स्पष्टवादिता के लिए भी जाने जाते हैं और इस क्रम में अपनी उम्र भी नहीं छिपाते। राष्ट्रपति चुनाव से पहले इस बारे में पूछे जाने पर बड़ी साफगोई से ठहाके के साथ उन्होंने कहा, ‘यूं तो मैं 64 साल पहले पैदा हुआ था, लेकिन जन्म प्रमाण-पत्रों के अनुसार मेरी उम्र चूंकि 61 साल ही है, इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के लिए दाखिल नामांकन-पत्र में भी यही उम्र लिखी गई है।‘

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

बेगुन का गुनग्राहक


कौन नहीं जानता कि जयराम रमेश नव पूंजीवाद और उदारीकरण के घनघोर समर्थक हैं। लेकिन बीटी बैगन के मामले में उन्होंने पर्यावरण मंत्री के नाते जो फैसला लिया, वह उनकी अपनी आर्थिक विचारधारा के उलट था। उनकी नजर इस बहस के सामाजिक पहलू को नहीं काट पाई और उन्होंने फिलहाल उस पर रोक लगा दी। उनके इस फैसले पर अब वे बीटी बैगन विरोधी भी वाह-वाह कर रहे हैं, जिनके लिए तैश खाकर जयराम रमेश ने कहा था कि उन लोगों को अपने दिमाग का इलाज कराना चाहिए। वैसे भी रमेश तैश में आकर ऐसे बयान देते रहते हैं जो आगे बड़े विवाद बनते हैं।

पर्यावरण से प्यार है उन्हें। आज से नहीं, नौ साल की उम्र से, जब ब्रिटिश लेखक एडवर्ड प्रिचार्ड गी की पुस्तक ‘द वाइल्ड लाइफ ऑफ इंडियाज् हाथ आई। पर्यावरण से इस विशेष लगाव की वजह से ही शायद यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की जिम्मेदारी के लिए उन्हें चुना। ये हैं जयराम रमेश। वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य भी हैं। इससे पहले की यूपीए सरकार में वे वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री रह चुके हैं।
यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में पर्यावरण व मंत्री के रूप में जयराम रमेश अक्सर विवादों में रहे। कभी जलवायु परिवर्तन पर उनके बयान ने विपक्ष को नाराज किया तो कभी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कंपनी के परिसर स्थल का दौरा करने के बाद दिए गए उनके बयान ने आम लोगों को नाराज कर दिया। इन दिनों वह बीटी बैंगन को लेकर चर्चा में हैं। हालांकि लोगों के भारी विरोध के बाद इसे भारतीय कृषि जगत में उतारने पर रोक लगा दी गई है, लेकिन इसे लेकर उनका आग्रह किसी से छिपा नहीं है। इसका विरोध करने वालों को उन्होंने ‘मानसिक इलाजज् की सलाह तक दे डाली।
रमेश कांग्रेस के उन खास नेताओं में हैं, जिनकी गिनती गांधी-नेहरू परिवार के करीबी नेताओं में होती है। यही वजह रही कि पिछले साल लोकसभा चुनाव अभियान की जिम्मेदारी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें सौंपी। रमेश ने भी उन्हें निराश नहीं किया। पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता की तरह उन्होंने तुरंत वाणिज्य व उद्योग राज्य मंत्री के पद से इस्तीफा दिया और जुट गए चुनाव की रणनीति तैयार करने में। चुनाव अभियान को लेकर बनाई गई उनकी रणनीति कामयाब रही और यूपीए पिछली बार की तुलना में अधिक सीटें लेकर एकबार फिर सत्तासीन हुई, जिसमें उन्हें पर्यावरण व वन मंत्रालय का स्वतंत्र कार्यभार सौंपा गया।
लेकिन यूपीए सरकार के अन्य मंत्रियों से अलग उनके कमरे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी की तस्वीर नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के देवी-देवताओं को दर्शाती तंजौर पेंटिंग और बौद्ध धर्म के कुछ चिह्न् हैं। इसके अलावा कोई तस्वीर है तो वह महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की है, वह भी गंभीर बहस की म्रुा में। हालांकि उनकी आदर्श इंदिरा गांधी हैं। रमेश के मुताबिक, हर क्षेत्र में उन्होंने बेहतर काम किया। पर्यावरण भी इसका अपवाद नहीं है। अगर बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने वन संरक्षण की दिशा में जरूरी कदम नहीं उठाए होते, तो आज यह पूरी तरह खत्म हो चुका होता।
कर्नाटक के चिकमगलूर में नौ अप्रैल, 1954 को जन्मे रमेश तकनीक व आधुनिकीकरण के हिमायती हैं। इसकी वजह शायद उनकी शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि रही है। उनके पिता प्रो. सीके रमेश आईआईटी, बॉम्बे के सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष थे। तीसरी से पांचवीं की स्कूली शिक्षा उन्होंने रांची के सेंट जेवियर स्कूल से पूरी की। 1970 में उन्होंने आईआईटी, बॉम्बे में दाखिला लिया और वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीटेक किया। 1975-77 में उन्होंने अमेरिका के कार्नेगी यूनिवर्सिटी से प्रबंधन और लोक नीति में मास्टर डिग्री ली।
पढ़ाई खत्म करने के बाद वे विश्व बैंक से जुड़े। दिसंबर, 1979 में वे भारत लौटे और यहां योजना आयोग सहित कें्र सरकार के उद्योग व आर्थिक विभाग से संबंधित विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई। वे 1991 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार भी रहे। वे राजीव गांधी के भी करीबी रहे। 1989 में जब कांग्रेस चुनाव हार हार गई थी, तो कांग्रेस के पुनर्जीवन के लिए उन्होंने राजीव गांधी के सलाहकार की भूमिका निभाई थी। आज उसी भूमिका में वे सोनिया गांधी के साथ हैं।
रमेश आंध्र प्रदेश से राज्य सभा के सदस्य हैं। उनकी मातृभाषा तेलुगू है। कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम में उन्हें खासी दिलचस्पी है। वे चीन के साथ भारत के अच्छे संबंधों के पैरोकार रहे हैं। उनका कहना है कि दोनों देशों के बीच व्यापार, कला, संस्कृति सहित अन्य क्षेत्रों में भी सहयोग की भरपूर गुंजाइश है और इससे दोनों पक्ष लाभान्वित होंगे। उन्होंने भारत-चीन संबंधों पर आधारित ‘मेकिंग सेंस ऑफ चीनींडिया : रिफ्लेक्शन ऑन चाइना एंड इंडियाज् नामक पुस्तक भी लिखी। जयवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान भी उन्होंने ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन के साथ मिलकर प्रभावशाली तरीके से विकासशील देशों का पक्ष रखने की मुहिम चलाई। उन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड, बिजनेस टुडे, द टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडिया टुडे के लिए कॉलम भी लिखा है। साथ ही टेलीविजन पर भी बिजनेस और अर्थ से जुड़े कई कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
लेकिन कई बार उनके बयानों ने विवाद पैदा किया, जिस पर खासा हंगामा हुआ। देश के पहले जीन परिवर्धित बीटी बैंगन को व्यावसायिक मंजूरी से पहले उन्होंने लोगों से इस बारे में परामर्श लेना जरूरी समझा। इसके लिए उन्होंने हैदराबाद में लोगों को आमंत्रित कर अनूठी पहल की। वहां देश के सात शहरों से करीब आठ हजार लोग पहुंचे। इस दौरान लोगों ने विरोध प्रदर्शन भी किए, जिसके जवाब में रमेश ने यहां तक कह डाला कि बीटी बैंगन का विरोध करने वालों को ‘मानसिक इलाजज् की जरूरत है। इसी तरह, यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री के ब्राजील दौरे से ठीक पहले उन्होंने यह कहकर विदेश मंत्रालय के लिए मुश्किल खड़ी कर दी कि आखिर ऐसे देश से व्यापार समझौते की क्या उपयोगिता है, जो हमसे काफी दूर है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कंपनी से हुए गैस रिसाव ने स्थानीय लोगों को जो घाव दिए, वे आज भी नहीं भरे हैं। इसे लेकर आज भी लोगों में रोष है। लेकिन रमेश ने कंपनी परिसर में पहुंचकर और वहां से हाथ में मिट्टी उठाकर यह कहते हुए लोगों को नाराज कर दिया कि देखिये, यह मेरे हाथ में है, फिर भी मैं जिंदा हूं। जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर दिए गए उनके बयान ने भी खासा हंगामा बरपाया।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

अमर नहीं था प्रेम


अमर सिंह कब खबरों में नहीं रहते। लेकिन इधर खूब थे और वह भी उलट कारणों से। पहले उनका खबरों में होना समाजवादी पार्टी के लिए होता था। इस बार सपा से उनकी बेआबरू विदाई इसका कारण बनी। मुलायम-अमर की जोड़ी टूट गई। दोस्त-दोस्त न रहा। प्यार, प्यार न रहा!

अमर सिंह, भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट नुमाइंदे। एक ऐसे कारोबारी नेता, जिसने धुर समाजवादी पार्टी को दिया पूंजीवादी चेहरा। पैसा हाथ बदलते हैं, यह कहावत जानी-मानी। लेकिन वह हाथ ही बदल देता है मनुष्य को भी। गरीब-गुरबों की राजनीति करने वाली पार्टी अचानक हो गई पांच सितारा। कॉरपोरेट और फिल्मी सितारों से लकदक। खांटी समाजवादी हाशिये पर। जनता भी पार्टी से होती गई दूर। तब कहीं ‘नेताजीज् को एहसास हुआ कि पूंजीवाद ने उनके समाजवाद का निकाल दिया दीवाला। यह समझने में लग गए पूरे चौदह साल। फिर भी सबकुछ लुटा के आखिर होश में आ ही गए। अमर सिंह पार्टी से बाहर हो गए, इस आरोप के साथ कि वे समाजवाद की नींव हिलाने की एक साजिश के रूप में पार्टी में शामिल हुए थे। इस तरह, समाजवाद और पूंजीवाद का प्रेम अमर नहीं हो पाया।
करीब चौदह साल पहले 1996 में अमर सिंह समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे। तब सपा का अपना जनाधार था। पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बन चुके थे। कें्र में जब संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो वे रक्षा मंत्री बने। ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक; जिसकी वे राजनीति करते थे, उनके साथ थे। लेकिन अमर सिंह के आने के बाद पार्टी की रीति-नीति बदलने लगी। पूंजीपतियों और उद्योगपतियों की भूमिका बढ़ी। अमर सिंह पार्टी और उनके बीच संपर्क सूत्र का काम करने लगे। रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह के प्रमुख अनिल अंबानी जसे उद्योगपति और अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, जया प्रदा, राजबब्बर, संजय दत्त, मनोज तिवारी जसी फिल्मी हस्तियां पार्टी से जुड़ीं। पार्टी को बड़ी मात्रा में वित्तीय अनुदान मिलने लगा, जिसकी उसे सख्त जरूरत थी।
पैसे की ताकत के अलावा उनके पास वक्तृत्व कला भी थी। शेरो-शायरी से लेकर अंग्रेजी भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ है, जो सपा के दूसरे नेताओं में नहीं थी। जो गिने-चुने नेता अंग्रेदां थे भी, वे नेताजी के विश्वासपात्र नहीं बन पाए। उनके इन्हीं गुणों और पैसे की धमक ने उन्हें नेताजी के करीब ला दिया। इतने करीब कि नेताजी बहुत से फैसलों के लिए उन पर निर्भर हो गए। जयललिता से बात करनी हो या चं्रबाबू नायडू से, सपा के प्रतिनिधि अमर सिंह ही होते थे। वे सपा प्रमुख की एक बड़ी जरूरत बन गए। नेटवर्क में माहिर अमर सिंह को नेटवर्क नेता के रूप में भी जाना जाता है।
अमर सिंह पार्टी के लिए राजपूत वोट बैंक की दृष्टि से भी फायदेमंद थे। सपा जो केवल पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की राजनीति के लिए जानी जाती थी, को राजपूतों का वोट मिलने की उम्मीद भी बंध गई। उनके आने के बाद पार्टी से कई राजपूत नेता जुड़े भी। लेकिन आजम खां जसे पुराने व जनाधार वाले नेता पार्टी से अलग भी हुए।
अमर सिंह के बोलबाले के दौर में पार्टी उस कांग्रेस के करीब जाने लगी, जिसका विरोध ही उसकी राजनीति का आधार था। कल्याण सिंह जसे नेता भी पार्टी में आए, जिसकी वजह से सपा के परंपरागत मुसलमान वोटर नाराज हो गए। एक अरसे से अमर नीति से परेशान सपा के जमीनी कार्यकर्ताओं में विरोध के स्वर मुखर होने लगे। इस बीच अपनी भूमिका कमजोर होती देख अमर सिंह ने पार्टी सुप्रीमो पर दबाव बनाने के लिए इस्तीफे की राजनीति अपनाई। पार्टी के सभी पदों से उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पार्टी में रहते हुए ही उन्होंेने स्वयं को राजपूतों का सच्चा प्रतिनिधि बताते हुए लोकमंच का गठन किया। निश्चय ही उनका यह कदम पार्टी के खिलाफ बगावत का बिगुल था।
अमर सिंह का विवादों से हमेशा चोली-दामन का साथ रहा है। ‘वोट के बदले नोटज् कांड ऐसा ही एक मामला है। वर्ष 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर जब वामपंथी दलों ने कें्र की संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, तब अमर सिंह ही सरकार के लिए तारणहार बनकर आए थे। कांग्रेस को समर्थन के लिए उन्होंने सपा प्रमुख को मनाया। कहा तो यहां तक गया कि लोकसभा में नोटों से भरा जो बैग लहराया गया था, वह अमर सिंह ने ही भाजपा सांसदों को संप्रग के पक्ष में मतदान के लिए दिया था। अब सपा के नेता भी दबी जुबान से यह कहने लगे हैं, हालांकि तब उन्होंने इससे इनकार किया था। सपा के इस रवैये ने उसके परंपरागत वोट बैंक मुसलमानों को नाराज कर दिया, क्योंकि वे इस समझौते का विरोध कर रहे थे।
दिल्ली के जामिया नगर में हुए मुठभेड़ की जांच की मांग कर उन्होंने एक नए विवाद को जन्म दिया, जबकि इससे पहले उन्होंने मुठभेड़ में शहीद हुए दिल्ली पुलिस के जवान मोहन चंद शर्मा के परिवार को दस लाख रुपए की सहायता राशि देकर अपनी संवेदना जताई थी। 26/11 के बाद यह बयान देकर उन्होंने पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी कि यदि हमलावर पाकिस्तान के नागरिक नहीं हुए तो सपा कें्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लेगी। ऐसे गंभीर हालात में अमर सिंह के इस बयान ने पार्टी को हंसी का पात्र बना दिया। हाल ही में अमर सिंह की रुचि ‘ब्लॉगिंगज् में भी हो गई है। ‘बड़े भाईज् अमिताभ बच्चन से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपना ब्लॉग भी शुरू किया।
अमर सिंह का जन्म सत्ताइस जनवरी, 1956 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ। उनकी शुरुआती शिक्षा जिले के हिंदी माध्यम स्कूलों से ही हुई। लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल का रुख किया। वहां कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत उन्होंने कांग्रेस से की। सपा में शामिल होने से पहले वे कोलकाता में कांग्रेस के हार्डकोर नेता थे। 1980 के दशक में कांग्रेस के तत्कालीन नेता माधव राव सिंधिया ने उन्हें ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के लिए भी नामांकित किया था, क्योंकि कोलकता में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष के लिए हुए चुनाव में उन्होंने जगमोहन डालमिया को हराने में सिंधिया की मदद की थी। बाद में वे हिंदुस्तान टाइम्स, सहारा इंडिया सहित कई अन्य कंपनियों के निदेशक भी बने। अब सपा से बाहर होने के बाद कहा जा रहा है कि वे घर वापसी यानी कांग्रेस में जाने की सोच रहे हैं। सपा नेताओं का भी आरोप है कि पिछले एक साल में कांग्रेस से उनकी नजदीकियां बढ़ी हैं।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

गांधी और मैं


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) अभी-अभी बीती है। हर साल उनकी पुणयतिथि और जन्म तिथि (2 अक्टूबर) पर कुछ कार्यक्रम आयोजित उन्हें श्रद्धांजलि देकर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। कार्यक्रमों में उनके दर्शन की बात की जाती है, उनके बताए रास्तों पर चलने की बात की जाती है, लेकिन वास्तव में उन्हें आत्मसात कोई नहीं करता। उनके दर्शन, उनकी नीतियों पर अमल में कई मुश्किलों व अड़चनों का हवाला देकर उन्हें टाल दिया जाता है। कुछ युवा तो इन दिनों गांधी दर्शन को पुराना व अप्रसांगिक करार देते हुए इसकी आलोचना को फैशन समझने लगे हैं। लेकिन जहां तक मैंने गांधी को पढ़ा और समझा है, उनकी नीतियां व दर्शन मुङो हर तरह से प्रासंगिक लगे।

मेरे लिए गांधी का अर्थ है एक मजबूत इरादों वाला इंसान, जो अपने शुरुआती जीवन में निहायत ही संकोची स्वभाव के थे। तब उनमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जो उन्हें असाधारण बना दे। अपने बचपन में वह भी दूसरे बच्चों की तरह ही थे, जो बुरी संगत में पड़ने पर सिगरेट के कश लेता है और घर में वैष्णव धर्म का अनुपालन होने के बावजूद छिपकर मांस भी खाता है। आम युवाओं की तरह उन्हें भी ‘पत्नी सुखज् प्रिय लगता है और वह भी इतना कि पिता की बीमारी में भी पत्नी से मिलने की इच्छा कम नहीं होती।
लेकिन एक चीज थी, जो गांधी को सबसे अलग करती है और जिसकी बदौलत वे आज हम सबके बीच आम नहीं, खास हैं; साधारण नहीं, असाधारण हैं। वह थी, सही और गलत को पहचानने की उनकी क्षमता। दिल की आवाज सुनने की क्षमता और उसके बताए रास्ते पर तमाम मुश्किलों के बाद भी चलने का दृढ़ निश्चय। मुङो लगता है कि यह क्षमता हम सबमें होती है, लेकिन हम उसका इस्तेमाल नहीं करते, या यूं कहें कि कर नहीं पाते और अक्सर सही-गलत के भंवर में फंसे रहते हैं।
सिगरेट का कश लगाने के बाद उन्हें यह एहसास होता है कि यह अनुचित है और बगैर किसी सलाह-मशविरे या दबाव के वह इसे छोड़ देते हैं। उन्हें यह भी एहसास होता है कि घरवालों को बिना बताए मांस खाकर उन्होंने ‘पापज् किया है। ‘पापज् का यह एहसास इतना तीव्र होता है कि आत्महत्या तक के खयाल आते हैं मन में। लेकिन इसे त्यागकर वे इस ‘पापज् का प्रायश्चित भी करते हैं और पूरी दुनिया को इस तर्क के साथ शाकाहार के लिए प्रेरित करते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य को जीने का हक है, उसी तरह जानवरों को भी जीवन का अधिकार है और मानव को उसकी हत्या का कोई हक नहीं है। साथ ही, वे यह भी कहते हैं कि मनुष्य के शरीर की बनावट कुछ इस तरह है कि वह केवल कंद-मूल खाकर भी स्वस्थ रह सकता है, जसा कि प्राचीन मानव करता था। फिर भोजन के लिए जीव हत्या क्यों?
‘पत्नी सुखज् के प्रति हमेशा आकर्षित रहने वाले गांधी बाद में इसे तृष्णा बताते हुए ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं और उसका अनुपालन भी करते हैं। गांधी जब पढ़ाई के लिए ब्रिटेन जाते हैं, तो आम युवाओं की तरह वे भी स्वयं को वहां अविवाहित दिखाना चाहते हैं। युवतियों का साथ उन्हें भी अच्छा लगता है। लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास होता है कि यह ‘झूठज् है और पत्नी के साथ ‘अन्यायज् भी। सत्य का यह पुजारी उस झूठ को अधिक दिनों तक ढो नहीं पाता।
तो कहां हैं गांधी हम सबसे अलग? क्या वे हम सबके बीच के, हम सबके जसे ही नहीं हैं? हैं, बिल्कुल हैं। लेकिन उनमें सत्य को लेकर जो आग्रह था, वह हम सबमें कहां? गांधी जो थे, वही दिखते थे और दिखना चाहते भी थे। लेकिन आज हम हैं कुछ और, जबकि दिखना चाहते हैं कुछ और। कुल मिलाकर, आज हमारे खाने के दांत हाथी की तरह ही अलग और दिखाने के अलग हैं। हम सबने झूठ व फरेब का आवरण ओढ़ रखा है, जिसे उतार फेंकने की जरूरत है।
मेरे लिए गांधी का अर्थ एक ऐसे दृढ़ निश्चयी इंसान से भी है, जो पत्नी और बच्चों के बुरी तरह बीमार पड़ने पर भी उन्हें मांस व मदिरा देने के डॉक्टरी सलाल को दरकिनार करते हुए उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए देसी तरीके अपनाता है और इसमें जीतता भी है। हालांकि मैं यह नहीं कहती और न ही गांधी जी ने कहा था कि हम सबको भी बीमारी से पार पाने का वही तरीका बिना सोचे-समङो अपनाना चाहिए। पर, इतना तो जरूर है कि उस इंसान ने विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी और अपने निश्चय पर अडिग रहने की सीख दी।
मेरे लिए गांधी का अर्थ ऐसे संवेदनशील इंसान से भी है, जिसने देश-दुनिया का भ्रमण करने के बाद जब यह देखा कि एक बड़ी आबादी के पास पहनने के लिए कपड़े तक नहीं हैं, तो उन्होंने स्वयं भी सिर्फ धोती से तन ढंकने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय ने कई लोगों को आश्चर्य में डाला। ब्रिटिश अधिकारियों ने उन पर फब्तियां भी कसी। उन्हें ‘अधनंगा फकीरज् कहा। लेकिन अपने इस निर्णय से यह अधनंगा फकीर लाखों-करोड़ों दिलों का सम्राट बन बैठा।
मेरे लिए गांधी का अर्थ एक ऐसे इंसन से है, जो उस वक्त मुङो सहारा देता है, जब निराशा हर तरफ से मुङो घेर लेती है, वह चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हो या व्यावसायिक स्तर पर। गांधी का यह जंतर कि जब भी दु:खी होओ, अपने से अधिक दु:खी लोगों के बारे में सोचो, मुङो बहुत सुकून देता है। खुद को कष्ट पहुंचाने वाले को माफ कर देने का उनका प्रयोग भी अद्भुत है। कई बार मैंने महसूस किया कि खुद को आहत करने वाले को कष्ट देने के लिए हम जो भी कोशिश करते हैं, उससे कहीं न कहीं हम स्वयं भी आहत होते हैं। मैंने कई बार यह भी समझा कि बदले की आग में जलना किसी सजा से कम नहीं होता। सामने वाले को तो सजा तब मिलती है, जब हम कुछ ऐसा कर बैठते हैं, जिससे उसे तकलीफ हो; लेकिन बदले की यह आग इतनी देर में हमें बहुत तकलीफ दे जाती है।
इसी तरह, उनके ‘आत्मसंयमज् के सिद्धांत को हम कैसे नकार दें? खासकर, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के इस युग में जबकि हम सबको इसकी बेहद जरूरत है, व्यक्तिगत संबंधों में भी और बाजार-उपभोक्ता के संबंधों में भी। अगर इसका अनुपालन किया गया होता तो आर्थिक संकट एकबार फिर सिर नहीं उठाता। इसी तरह, एक बेहतर इंसान बनने के लिए तो इसकी और भी जरूरत है।
गांधी मुङो हर वक्त संयम न खोने की प्रेरणा देते हैं। किसी के लिए मन में दुर्विचार लाकर अपने और उसके प्रति मानसिक हिंसा नहीं करने की सीख देते हैं और हर बुरे वक्त में मेरा संबल व सहारा बनते हैं। हालांकि उनकी कई बातें विरोधाभासी हैं और सबका अनुपालन या अनुसरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज परिस्थितियां और हालात काफी हद तक बदल गए हैं, लेकिन आज भी मुङो देश-दुनिया की अधिकांश समस्याओं का समाधान गांधी दर्शन में नजर आता है, यहां तक कि नक्सलवाद और आतंकवाद का भी, क्योंकि हिंसा की जवाबी कार्रवाई और फिर उसकी प्रतिक्रिया में की गई हिंसा का कोई अंत नहीं हो सकता।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

बवाल में चटवाल

संत सिंह चटवाल को पद्मश्री मिलने पर काफी बवाल है। बिल और हिलेरी क्लिंटन के साथ अक्सर दिखने वाले चटवाल को लोग उनकी अमीरी औरे बेटे की शाही शादी के लिए भी जानते हैं। यह भी सच्चाई है कि उन्होंने अपना साम्राज्य अपनी मेहनत से खड़ा किया। एक बेहद छोटी शुरुआत से शानदार समृद्धि की उनकी यात्रा सफलता की एक बड़ी कहानी है। पर विवाद और घोटाले भी उनसे जुड़े हुए हैं।

संत सिंह चटवाल, भारतीय मूल के अमेरिकी व्यवसायी। बॉम्बे पैलेस रेस्तरां की श्रंखला और हैम्पशायर होटल व रिजार्ट के मालिक। इस बार गणतंत्र दिवस पर उन्हें श्रेष्ठ नागरिक सम्मान में से एक पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। अमेरिका सहित दुनिया के अन्य देशों में ‘इंडियन करी के बादशाहज् नाम से मशहूर चटवाल ने विदेशों में भारतीय व्यंजन की खूब धाक जमाई। उनके होटलों व रेस्तरां में लोग भारतीय व्यंजन का खूब स्वाद ले रहे हैं। भारत के कई शहरों में भी उनके होटल व रेस्तरां हैं, जहां लोगों को स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है। कुल मिलाकर, करोड़ों-अरबों का व्यवसाय। लेकिन उनके पद्मश्री ने कई के मुंह का जायका बिगाड़ दिया है।
लेकिन चटवाल की शख्सियत का एक अन्य पहलू भी है और वह बेहद विवादास्पद है। कई ऐसे मामले हैं, जिन्होंने चटवाल को विवादों में घेरा। क्लिंटन दंपति से उनके रिश्ते की बात हो या बेटे की सबसे खर्चीली शादी का मामला या फिर बैंकों से ण लेकर धांधली के आरोप, सबने उनकी विवादित छवि ही पेश की। लेकिन इन सबका उनके व्यवसाय पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ता ही रहा। चटवाल की विवादास्पद छवि की वजह से ही उन्हें पद्म पुरस्कार दिए जाने पर विवाद पैदा हुआ। भाजपा ने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उनसे पुरस्कार वापस लेने की मांग की तो कांग्रेस के कुछ नेताओं ने भी पूरी प्रक्रिया से दूरी बनाए रखी।
चटवाल का जन्म 1946 में रावलपिंडी में हुआ था, जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के फरीदकोट में उनके पिता की एक छोटी सी चाय की दुकान थी। विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आ गया। जाहिर तौर पर एक सफल व्यवसायी के रूप में चटवाल को यह कामयाबी विरासत में नहीं मिली। यह सब उन्होंने अपनी मेहनत से हासिल किया। हां, पिता एक छोटे से व्यवसायी थे और इसका लाभ उन्हें इतना जरूर मिला कि विरासत में उन्हें व्यवसाय की बारीकियों को जानने-समझने व सीखने का मौका मिला। अपनी इस जानकारी का इस्तेमाल उन्होंने विदेशों में अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए किया।
बचपन से ही चटवाल को ऊंची व गगनचुंबी इमारतें लुभाती थीं। वे ऊंची उड़ान भरने का सपना देखते थे। उनका सपना तब साकार हुआ, जब वे भारतीय नौसेना में पायलट बने। लेकिन यह उनके लिए काफी नहीं था। वे और ऊंची उड़ान भरना चाहते थे। उनका सपना कुछ अलग करने का था। अपने सपनों को उड़ान देने के लिए चटवाल ने 1970 के दशक में विदेश का रुख किया था। सबसे पहले वे पूर्वी अफ्रीका के देश इथियोपिया गए। वहां उन्होंने मेहमान नवाजी के क्षेत्र में अपना नया करियर शुरू किया। उन्होंने ‘उमर खय्यामज् नाम से रेस्तरां खोला और लोगों को भारतीय व्यंजन परोसना शुरू किया, जो उन्हें खूब रास आया। लेकिन उनका व्यवसाय यहां अधिक दिनों तक टिक नहीं पाया। 1974 में इथियोपिया के सम्राट हेल सेलसी का तख्ता पलट हो गया और चटवाल को वह देश छोड़ना पड़ा। अब तक उन्होंने जो भी बचत की थी, उसे लेकर वे कनाडा रवाना हो गए और वहां मांट्रायल में रेस्तरां खोला। वहां भारतीय व्यंजन परोसने के बजाए उन्होंने लोगों को ऐसा व्यंजन परोसना शुरू किया, जो भारतीय व फ्रांसीसी खानपान का मिलाजुला रूप था।
लेकिन चटवाल इससे भी बड़ा कुछ करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अमेरिका का रुख किया। 1979 में वे न्यूयॉर्क गए और वहां पहला बॉम्बे पैलेस रेस्तरां खोला। धीरे-धीरे उन्होनें अमेरिका के कई शहरों में इसकी शाखाएं खोली। आज अमेरिका के बेवर्ली हिल, शिकागो, डेनेवर, मियामी, ह्यूस्टन, सैन फ्रांसिस्को व वाशिंगटन डीसी के अलावा टोरंटो, वैनकोवर, बैंकाक, बुडापेस्ट, कुआलालंपुर, हांगकांग, लंदन, मांट्रायल और नई दिल्ली में भी इसकी कई शाखाएं हैं।
अमेरिका में होटल व्यवसाय स्थापित करने के दौरान चटवाल की नजदीकियां क्लिंटन परिवार से बढ़ीं। क्लिंटन परिवार से उनकी नजदीकियों ने कई विवादों को जन्म दिया। कहा गया कि राष्ट्रपति रहते हुए बिल क्लिंटन ने उन्हें कर भुगतान सहित कई मामलों में राहत पहुंचाई, जिसके बदले चटवाल ने क्लिंटन परिवार को खूब वित्तीय मदद दी। साल 2007 में चुनाव अभियान के दौरान राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार व पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन के लिए उन्होंने 50 लाख अमेरिकी डॉलर का फंड इकट्ठा किया।
वे विलियम जे. क्लिंटन फाउंडेशन के ट्रस्टी भी हैं, जो स्वास्थ्य सुरक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण के लिए काम करती है। जाहिर तौर पर फाउंडेशन के लिए उन्होंने खूब वित्तीय संसाधन जुटाए। क्लिंटन परिवार से उनकी नजदीकियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे उनके घर अक्सर डिनर व लंच के लिए आते हैं। बिल व हिलेरी क्लिंटन की कई यात्राओं में चटवाल उनके साथ भारत आए। जब हिलेरी अमेरिका की विदेश मंत्री बनीं, तो यहां तक कहा गया कि चटवाल उप विदेश मंत्री बन सकते हैं। इसके अलावा, जॉन कैरी, चार्ल्स शूमर, नैन्सी पेलोसी, जोसेफ क्राउली से भी उनके अच्छे संबंध हैं। आरोप है कि व्यक्तिगत हितों के लिए उन्होंने अपने राजनीतिक संपर्को का खूब इस्तेमाल किया।
उनसे जुड़ा यह एकमात्र विवाद नहीं है। उन पर लिंकन सेविंग्स, फर्स्ट न्यूयॉर्क बैंक फॉर बिजनेस, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सहित कई अमेरिकी व भारतीय बैंकों से ण लेकर गलत आधार पर स्वयं को दिवालिया घोषित करने का आरोप है। भारतीय बैंकों से धांधली के मामले में सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार भी किया, लेकिन वे बच निकलने में कामयाब रहे। अमेरिका के कई समाचार-पत्रों ने इन मुद्दों को प्रमुखता से छापा। चुनाव अभियान के दौरान ये खबरें हिलेरी क्लिंटन के लिए शर्मिदगी का कारण बनीं, तो भारत में यह कहते हुए बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनकी आलोचना की कि इससे विदेशों में भारतीयों की गलत छवि पेश हो रही है। 1980 के दशक में अमेरिका के प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग ने बॉम्बे पैलेस श्रंखला के संदर्भ में गलत दस्तावेज पेश करने के लिए उन पर आजीवन किसी सार्वजनिक कंपनी का निदेशक या अधिकारी बनने का प्रतिबंध लगा दिया।
बेटे विक्रम चटवाल की शादी के आयोजन को लेकर भी वे सुर्खियों में रहे। फरवरी, 2006 में विक्रम की शादी भारतीय मॉडल प्रिया सचदेव से हुई। विवाह समारोह का आयोजन दिल्ली में हुआ था, जिसमें लक्ष्मी मित्तल, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन सहित कई बड़ी हस्तियां शामिल थीं। शादी समारोह की कवरेज के लिए विभिन्न देशों से 30 भाषाओं के सौ पत्रकार बुलाए गए थे। इसे ‘सदी की शादीज् का नाम देते हुए ‘भारत का अबतक का सबसे महंगा विवाह समारोहज् कहा गया।
इन विवादों से अलग चटवाल ने अमेरिका में अनिवासी भारतीयों के हितों की बात भी उठाई। सभी आरोपों से अलग उनका यह भी दावा रहा है कि अमेरिका में अपने राजनीतिक संपर्को का इस्तेमाल उन्होंने व्यक्तिगत हितों के लिए नहीं, बल्कि भारतीय समुदाय और अमेरिकियों के बीच नजदीकियां व सामंजस्य स्थापित करने में किया। शायद यही वजह रही कि उन्हें पंजाब सरकार ने अप्रैल, 1999 में उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ खालसाज् सम्मान से नवाजा। यह सम्मान पाने वाले वे भारतीय मूल के एकमात्र अमेरिकी हैं।