मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

बेगुन का गुनग्राहक


कौन नहीं जानता कि जयराम रमेश नव पूंजीवाद और उदारीकरण के घनघोर समर्थक हैं। लेकिन बीटी बैगन के मामले में उन्होंने पर्यावरण मंत्री के नाते जो फैसला लिया, वह उनकी अपनी आर्थिक विचारधारा के उलट था। उनकी नजर इस बहस के सामाजिक पहलू को नहीं काट पाई और उन्होंने फिलहाल उस पर रोक लगा दी। उनके इस फैसले पर अब वे बीटी बैगन विरोधी भी वाह-वाह कर रहे हैं, जिनके लिए तैश खाकर जयराम रमेश ने कहा था कि उन लोगों को अपने दिमाग का इलाज कराना चाहिए। वैसे भी रमेश तैश में आकर ऐसे बयान देते रहते हैं जो आगे बड़े विवाद बनते हैं।

पर्यावरण से प्यार है उन्हें। आज से नहीं, नौ साल की उम्र से, जब ब्रिटिश लेखक एडवर्ड प्रिचार्ड गी की पुस्तक ‘द वाइल्ड लाइफ ऑफ इंडियाज् हाथ आई। पर्यावरण से इस विशेष लगाव की वजह से ही शायद यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की जिम्मेदारी के लिए उन्हें चुना। ये हैं जयराम रमेश। वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य भी हैं। इससे पहले की यूपीए सरकार में वे वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री रह चुके हैं।
यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में पर्यावरण व मंत्री के रूप में जयराम रमेश अक्सर विवादों में रहे। कभी जलवायु परिवर्तन पर उनके बयान ने विपक्ष को नाराज किया तो कभी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कंपनी के परिसर स्थल का दौरा करने के बाद दिए गए उनके बयान ने आम लोगों को नाराज कर दिया। इन दिनों वह बीटी बैंगन को लेकर चर्चा में हैं। हालांकि लोगों के भारी विरोध के बाद इसे भारतीय कृषि जगत में उतारने पर रोक लगा दी गई है, लेकिन इसे लेकर उनका आग्रह किसी से छिपा नहीं है। इसका विरोध करने वालों को उन्होंने ‘मानसिक इलाजज् की सलाह तक दे डाली।
रमेश कांग्रेस के उन खास नेताओं में हैं, जिनकी गिनती गांधी-नेहरू परिवार के करीबी नेताओं में होती है। यही वजह रही कि पिछले साल लोकसभा चुनाव अभियान की जिम्मेदारी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें सौंपी। रमेश ने भी उन्हें निराश नहीं किया। पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता की तरह उन्होंने तुरंत वाणिज्य व उद्योग राज्य मंत्री के पद से इस्तीफा दिया और जुट गए चुनाव की रणनीति तैयार करने में। चुनाव अभियान को लेकर बनाई गई उनकी रणनीति कामयाब रही और यूपीए पिछली बार की तुलना में अधिक सीटें लेकर एकबार फिर सत्तासीन हुई, जिसमें उन्हें पर्यावरण व वन मंत्रालय का स्वतंत्र कार्यभार सौंपा गया।
लेकिन यूपीए सरकार के अन्य मंत्रियों से अलग उनके कमरे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी की तस्वीर नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के देवी-देवताओं को दर्शाती तंजौर पेंटिंग और बौद्ध धर्म के कुछ चिह्न् हैं। इसके अलावा कोई तस्वीर है तो वह महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की है, वह भी गंभीर बहस की म्रुा में। हालांकि उनकी आदर्श इंदिरा गांधी हैं। रमेश के मुताबिक, हर क्षेत्र में उन्होंने बेहतर काम किया। पर्यावरण भी इसका अपवाद नहीं है। अगर बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने वन संरक्षण की दिशा में जरूरी कदम नहीं उठाए होते, तो आज यह पूरी तरह खत्म हो चुका होता।
कर्नाटक के चिकमगलूर में नौ अप्रैल, 1954 को जन्मे रमेश तकनीक व आधुनिकीकरण के हिमायती हैं। इसकी वजह शायद उनकी शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि रही है। उनके पिता प्रो. सीके रमेश आईआईटी, बॉम्बे के सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष थे। तीसरी से पांचवीं की स्कूली शिक्षा उन्होंने रांची के सेंट जेवियर स्कूल से पूरी की। 1970 में उन्होंने आईआईटी, बॉम्बे में दाखिला लिया और वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीटेक किया। 1975-77 में उन्होंने अमेरिका के कार्नेगी यूनिवर्सिटी से प्रबंधन और लोक नीति में मास्टर डिग्री ली।
पढ़ाई खत्म करने के बाद वे विश्व बैंक से जुड़े। दिसंबर, 1979 में वे भारत लौटे और यहां योजना आयोग सहित कें्र सरकार के उद्योग व आर्थिक विभाग से संबंधित विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई। वे 1991 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार भी रहे। वे राजीव गांधी के भी करीबी रहे। 1989 में जब कांग्रेस चुनाव हार हार गई थी, तो कांग्रेस के पुनर्जीवन के लिए उन्होंने राजीव गांधी के सलाहकार की भूमिका निभाई थी। आज उसी भूमिका में वे सोनिया गांधी के साथ हैं।
रमेश आंध्र प्रदेश से राज्य सभा के सदस्य हैं। उनकी मातृभाषा तेलुगू है। कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम में उन्हें खासी दिलचस्पी है। वे चीन के साथ भारत के अच्छे संबंधों के पैरोकार रहे हैं। उनका कहना है कि दोनों देशों के बीच व्यापार, कला, संस्कृति सहित अन्य क्षेत्रों में भी सहयोग की भरपूर गुंजाइश है और इससे दोनों पक्ष लाभान्वित होंगे। उन्होंने भारत-चीन संबंधों पर आधारित ‘मेकिंग सेंस ऑफ चीनींडिया : रिफ्लेक्शन ऑन चाइना एंड इंडियाज् नामक पुस्तक भी लिखी। जयवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान भी उन्होंने ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन के साथ मिलकर प्रभावशाली तरीके से विकासशील देशों का पक्ष रखने की मुहिम चलाई। उन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड, बिजनेस टुडे, द टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडिया टुडे के लिए कॉलम भी लिखा है। साथ ही टेलीविजन पर भी बिजनेस और अर्थ से जुड़े कई कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
लेकिन कई बार उनके बयानों ने विवाद पैदा किया, जिस पर खासा हंगामा हुआ। देश के पहले जीन परिवर्धित बीटी बैंगन को व्यावसायिक मंजूरी से पहले उन्होंने लोगों से इस बारे में परामर्श लेना जरूरी समझा। इसके लिए उन्होंने हैदराबाद में लोगों को आमंत्रित कर अनूठी पहल की। वहां देश के सात शहरों से करीब आठ हजार लोग पहुंचे। इस दौरान लोगों ने विरोध प्रदर्शन भी किए, जिसके जवाब में रमेश ने यहां तक कह डाला कि बीटी बैंगन का विरोध करने वालों को ‘मानसिक इलाजज् की जरूरत है। इसी तरह, यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री के ब्राजील दौरे से ठीक पहले उन्होंने यह कहकर विदेश मंत्रालय के लिए मुश्किल खड़ी कर दी कि आखिर ऐसे देश से व्यापार समझौते की क्या उपयोगिता है, जो हमसे काफी दूर है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कंपनी से हुए गैस रिसाव ने स्थानीय लोगों को जो घाव दिए, वे आज भी नहीं भरे हैं। इसे लेकर आज भी लोगों में रोष है। लेकिन रमेश ने कंपनी परिसर में पहुंचकर और वहां से हाथ में मिट्टी उठाकर यह कहते हुए लोगों को नाराज कर दिया कि देखिये, यह मेरे हाथ में है, फिर भी मैं जिंदा हूं। जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर दिए गए उनके बयान ने भी खासा हंगामा बरपाया।