सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

अमर नहीं था प्रेम


अमर सिंह कब खबरों में नहीं रहते। लेकिन इधर खूब थे और वह भी उलट कारणों से। पहले उनका खबरों में होना समाजवादी पार्टी के लिए होता था। इस बार सपा से उनकी बेआबरू विदाई इसका कारण बनी। मुलायम-अमर की जोड़ी टूट गई। दोस्त-दोस्त न रहा। प्यार, प्यार न रहा!

अमर सिंह, भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट नुमाइंदे। एक ऐसे कारोबारी नेता, जिसने धुर समाजवादी पार्टी को दिया पूंजीवादी चेहरा। पैसा हाथ बदलते हैं, यह कहावत जानी-मानी। लेकिन वह हाथ ही बदल देता है मनुष्य को भी। गरीब-गुरबों की राजनीति करने वाली पार्टी अचानक हो गई पांच सितारा। कॉरपोरेट और फिल्मी सितारों से लकदक। खांटी समाजवादी हाशिये पर। जनता भी पार्टी से होती गई दूर। तब कहीं ‘नेताजीज् को एहसास हुआ कि पूंजीवाद ने उनके समाजवाद का निकाल दिया दीवाला। यह समझने में लग गए पूरे चौदह साल। फिर भी सबकुछ लुटा के आखिर होश में आ ही गए। अमर सिंह पार्टी से बाहर हो गए, इस आरोप के साथ कि वे समाजवाद की नींव हिलाने की एक साजिश के रूप में पार्टी में शामिल हुए थे। इस तरह, समाजवाद और पूंजीवाद का प्रेम अमर नहीं हो पाया।
करीब चौदह साल पहले 1996 में अमर सिंह समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे। तब सपा का अपना जनाधार था। पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बन चुके थे। कें्र में जब संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो वे रक्षा मंत्री बने। ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक; जिसकी वे राजनीति करते थे, उनके साथ थे। लेकिन अमर सिंह के आने के बाद पार्टी की रीति-नीति बदलने लगी। पूंजीपतियों और उद्योगपतियों की भूमिका बढ़ी। अमर सिंह पार्टी और उनके बीच संपर्क सूत्र का काम करने लगे। रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह के प्रमुख अनिल अंबानी जसे उद्योगपति और अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, जया प्रदा, राजबब्बर, संजय दत्त, मनोज तिवारी जसी फिल्मी हस्तियां पार्टी से जुड़ीं। पार्टी को बड़ी मात्रा में वित्तीय अनुदान मिलने लगा, जिसकी उसे सख्त जरूरत थी।
पैसे की ताकत के अलावा उनके पास वक्तृत्व कला भी थी। शेरो-शायरी से लेकर अंग्रेजी भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ है, जो सपा के दूसरे नेताओं में नहीं थी। जो गिने-चुने नेता अंग्रेदां थे भी, वे नेताजी के विश्वासपात्र नहीं बन पाए। उनके इन्हीं गुणों और पैसे की धमक ने उन्हें नेताजी के करीब ला दिया। इतने करीब कि नेताजी बहुत से फैसलों के लिए उन पर निर्भर हो गए। जयललिता से बात करनी हो या चं्रबाबू नायडू से, सपा के प्रतिनिधि अमर सिंह ही होते थे। वे सपा प्रमुख की एक बड़ी जरूरत बन गए। नेटवर्क में माहिर अमर सिंह को नेटवर्क नेता के रूप में भी जाना जाता है।
अमर सिंह पार्टी के लिए राजपूत वोट बैंक की दृष्टि से भी फायदेमंद थे। सपा जो केवल पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की राजनीति के लिए जानी जाती थी, को राजपूतों का वोट मिलने की उम्मीद भी बंध गई। उनके आने के बाद पार्टी से कई राजपूत नेता जुड़े भी। लेकिन आजम खां जसे पुराने व जनाधार वाले नेता पार्टी से अलग भी हुए।
अमर सिंह के बोलबाले के दौर में पार्टी उस कांग्रेस के करीब जाने लगी, जिसका विरोध ही उसकी राजनीति का आधार था। कल्याण सिंह जसे नेता भी पार्टी में आए, जिसकी वजह से सपा के परंपरागत मुसलमान वोटर नाराज हो गए। एक अरसे से अमर नीति से परेशान सपा के जमीनी कार्यकर्ताओं में विरोध के स्वर मुखर होने लगे। इस बीच अपनी भूमिका कमजोर होती देख अमर सिंह ने पार्टी सुप्रीमो पर दबाव बनाने के लिए इस्तीफे की राजनीति अपनाई। पार्टी के सभी पदों से उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पार्टी में रहते हुए ही उन्होंेने स्वयं को राजपूतों का सच्चा प्रतिनिधि बताते हुए लोकमंच का गठन किया। निश्चय ही उनका यह कदम पार्टी के खिलाफ बगावत का बिगुल था।
अमर सिंह का विवादों से हमेशा चोली-दामन का साथ रहा है। ‘वोट के बदले नोटज् कांड ऐसा ही एक मामला है। वर्ष 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर जब वामपंथी दलों ने कें्र की संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, तब अमर सिंह ही सरकार के लिए तारणहार बनकर आए थे। कांग्रेस को समर्थन के लिए उन्होंने सपा प्रमुख को मनाया। कहा तो यहां तक गया कि लोकसभा में नोटों से भरा जो बैग लहराया गया था, वह अमर सिंह ने ही भाजपा सांसदों को संप्रग के पक्ष में मतदान के लिए दिया था। अब सपा के नेता भी दबी जुबान से यह कहने लगे हैं, हालांकि तब उन्होंने इससे इनकार किया था। सपा के इस रवैये ने उसके परंपरागत वोट बैंक मुसलमानों को नाराज कर दिया, क्योंकि वे इस समझौते का विरोध कर रहे थे।
दिल्ली के जामिया नगर में हुए मुठभेड़ की जांच की मांग कर उन्होंने एक नए विवाद को जन्म दिया, जबकि इससे पहले उन्होंने मुठभेड़ में शहीद हुए दिल्ली पुलिस के जवान मोहन चंद शर्मा के परिवार को दस लाख रुपए की सहायता राशि देकर अपनी संवेदना जताई थी। 26/11 के बाद यह बयान देकर उन्होंने पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी कि यदि हमलावर पाकिस्तान के नागरिक नहीं हुए तो सपा कें्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लेगी। ऐसे गंभीर हालात में अमर सिंह के इस बयान ने पार्टी को हंसी का पात्र बना दिया। हाल ही में अमर सिंह की रुचि ‘ब्लॉगिंगज् में भी हो गई है। ‘बड़े भाईज् अमिताभ बच्चन से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपना ब्लॉग भी शुरू किया।
अमर सिंह का जन्म सत्ताइस जनवरी, 1956 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ। उनकी शुरुआती शिक्षा जिले के हिंदी माध्यम स्कूलों से ही हुई। लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल का रुख किया। वहां कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत उन्होंने कांग्रेस से की। सपा में शामिल होने से पहले वे कोलकाता में कांग्रेस के हार्डकोर नेता थे। 1980 के दशक में कांग्रेस के तत्कालीन नेता माधव राव सिंधिया ने उन्हें ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के लिए भी नामांकित किया था, क्योंकि कोलकता में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष के लिए हुए चुनाव में उन्होंने जगमोहन डालमिया को हराने में सिंधिया की मदद की थी। बाद में वे हिंदुस्तान टाइम्स, सहारा इंडिया सहित कई अन्य कंपनियों के निदेशक भी बने। अब सपा से बाहर होने के बाद कहा जा रहा है कि वे घर वापसी यानी कांग्रेस में जाने की सोच रहे हैं। सपा नेताओं का भी आरोप है कि पिछले एक साल में कांग्रेस से उनकी नजदीकियां बढ़ी हैं।