बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

बखटके खांडू

महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार। हरियाण में वह सरकार बनाने की राह पर। लेकिन इन सबसे अलग और ऊपर अरुणाचल। कांग्रेस जहां महाराष्ट्र में बमुश्किल कामचलाऊ बहुमत जुटा पाई और हरियाणा में छह सीटें कम रह गई, वहीं अरुणाचल में उसने दो तिहाई बहुमत हासिल किया। यह सब करिश्माई दोर्जी खांडू का कमाल था। उनके नेतृत्व में कांग्रेस का कायाकल्प हो गया। इसलिए महाराष्ट्र और हरियाणा में जहां आलाकमान नेता चुनने की मशक्कत में पड़ा है, वहीं खांडू सर्वमान्य रूप से नेता चुने गए।

तीन राज्यों, महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम से कांग्रेस उत्साहित है। हो भी क्यों न, हर जगह लोगों ने पिछले पांच साल के शासन को कमोवेश ठीकठाक मानते हुए दोबारा शासन का जनादेश जो दिया। हालांकि हरियाणा की बहुमत से छह सीटें कम की जीत ने कांग्रेस का उत्साह थोड़ा फीका जरूर किया, लेकिन अरुणाचल की दो तिहाई बहुमत से जीत ने विजय के जश्न को बहुत फीका होने से बचा भी दिया। अरुणाचल में कांग्रेस को यह ऐतिहासिक जीत मिली दोर्जी खांडू के नेतृत्व में, जिन्होंने करीब ढाई साल पहले अप्रैल, 2007 में बतौर मुख्यमंत्री राज्य की सत्ता संभाली थी।
खांडू ने अप्रैल, 2007 में तब मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया था, जब गोगांग अपांग के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के विरोध में पार्टी के अपने ही विधायक खड़े हो गए थे। अपांग पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर कांग्रेसी विधायकों ने दिल्ली में डेरा जमा लिया था। तब साफ लग रहा था कि अगर कांग्रेस ने नेतृत्व के इस मुद्दे को तत्काल नहीं सुलझाया तो पार्टी की अंतर्कलह उसे ले डूबेगी। पार्टी आलाकमान ने भी मामले की गंभीरता समझी और अरुणाचल में कांग्रेस को इस संकट से उबारने का जिम्मा दोर्जी खांडू को सौंपा। खांडू ने पिछले ढाई साल में राज्य में कांग्रेस को एक सफल नेतृत्व दिया, जिसका परिणाम विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिले दो तिहाई बहुमत के रूप में सामने आया।
अरुणाचल की जीत केवल कांग्रेस के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि देश के लिए भी उतनी ही अहम है। चीन की सीमा से सटा यह प्रदेश दोनों देशों के आपसी संबंधों को लेकर काफी संवेदनशील रहा है। चीन बार-बार अरुणाचल के कुछ हिस्सों को अपने नक्शे में दर्शाता रहा है। वह तिब्बतियों के धर्म गुरू दलाई लामा ही नहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भी अरुणाचल दौरे पर सवाल उठाता रहा है। ऐसे मौकों पर खांडू ने चीन को दो टूक जवाब दिया। उन्होंने कहा, ‘अरुणाचल भारत का अभिन्न हिस्सा था, है और रहेगा। हमें उस वक्त रक्षात्मक रवैया अपनाने की कोई जरूरत नहीं है, जब चीन इसे लेकर अनावश्यक शोर मचाता है। दलाई लामा के अरुणाचल दौरे को लेकर भी चीन को किसी तरह की आपत्ति जताने का हक नहीं है।ज्
खांडू के नेतृत्व में प्रदेश की जनता ने जिस उत्साह से चुनाव में भाग लिया और अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया, वह भी चीन के लिए करारा जवाब है। इससे पहले 2004 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने 70.21 प्रतिशत मतदान किया था, जबकि इस बार मतदान का प्रतिशत 72 फीसदी रहा। साफ है कि लोगों ने उनमें भारत से अलगाव की भावना जसे चीन के मिथ्या प्रचार को ठेंगा दिखा दिया। चीन की तमाम कोशिशों के बावजूद मुख्यमंत्री की ही तर्ज पर जनता ने भी बता दिया कि उनकी आस्था भारतीय लोकतंत्र में है, क्योंकि वे स्वयं को इसका अभिन्न हिस्सा मानते हैं। निश्चय ही लोगों में यह भावना विकसित करने में खांडू के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता।
तीन मार्च, 1955 को अरुणाचल के गांगखर गांव में स्व. लेकी दोर्जी के घर में जन्मे खांडू ने राजनीति से पहले सेना के खुफिया विभाग में सात साल तक सेवा दी। खासकर 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय उनकी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय रही, जिसके लिए उन्हें गोल्ड मेडल भी दिया गया। लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यो में शुरू से ही उन्हें विशेष रुचि रही। यही वजह है कि सेना में रहते हुए भी उनका मन सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यो से अलग नहीं हुआ। 1980 तक वह तवांग जिले में लोगों के कल्याणार्थ जुटे रहे। 1982 में वह सांस्कृतिक व को-ऑपरेटिव सोसाइटी के अध्यक्ष बने और दिल्ली में चल रहे एशियाड खेलों में अरुणाचल प्रदेश के सांस्कृतिक दल का प्रतिनिधित्व किया। उनके नेतृत्व में अरुणाचल ने बेहतर प्रदर्शन किया और उसे सिल्वर मेडल मिला।
इस बीच वह पश्चिमी कमांग जिला परिषद के उपाध्यक्ष चुने गए और उन्होंने क्षेत्र में कई विकासात्मक काम किए। 1987-90 तक उन्होंने दूर-दराज के क्षेत्रों में जलापूर्ति, विद्युत, परिवहन व्यस्था दुरुस्त करने और स्कूलों व धार्मिक संस्थाओं के निर्माण पर काम किया। 1990 में वह पहली बार विधनसभा के लिए चुने गए और इसके बाद उनका राजनीतिक सफर रुका नहीं। उन्होंने राज्य में हुए हर विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की और इस बीच कई मंत्रालयों का दायित्व संभाला। नौ अप्रैल, 2007 को कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की बागडोर थमाई, जिसकी जिम्मेदारी भी उन्होंने बखूबी निभाई।
सामाजिक कार्यो के प्रति उनका विशेष लगाव राज्य की बागडोर संभालने के बाद स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए उनके भाषण से भी झलकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम स्वयं को गरीबी, बीमारी, असमानता, सामाजिक अन्याय, असहिष्णुता और भ्रष्टाचार के जंजीर से आजाद करने के लिए दिन-रात मेहनत करें। भूख और गरीबी की जंजीर तोड़े बगैर हम सच्ची स्वतंत्रता को महसूस नहीं कर सकते। प्रदेश में लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि विधानसभा चुनाव में वह निर्विरोध चुने गए।

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

एक खौफनाक मंसूबा महसूद

अभी तीन दिन पहले अखबारों में खबर छपी थी कि तालिबान ने धमकी दी है कि उसका अगला निशाना भारत है। अगला इसलिए कि अभी वह पाकिस्तान को सबक सिखाने पर आमादा है। यहां तालिबान का आशय है ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तानज् से। इसके मुखिया बैतुल्ला के मारे जाने के बाद बिखरते हुए इस संगठन को न सिर्फ मजबूती से एकजुट किया, बल्कि उसमें एक नया उन्माद पैदा किया है उसके नए मुखिया हकीमुल्लाह महसूद ने। महज अट्ठाइस साल के हकीमुल्लाह के इरादे खौफनाक हैं। तबाही का एक नया इतिहास लिखने को वह बेचैन है। पाकिस्तान उसके हमलों से कराह रहा है। महसूद उसे अमेरिकापरस्ती का दंड दे रहा है और चाहता है कि वह इस्लामिक राष्ट्र बने। उसके निशाने पर भारत भी है और इसकी चेतावनी उसने दे दी है।

उम्र केवल 28 साल, पर इरादे खतरनाक। चेहरा और व्यवहार सौम्य, लेकिन मकसद तबाही का। पाकिस्तान के कबायली इलाकों में जन्मा और पला-बढ़ा यह शख्स है हकीमुल्लाह महसूद। उसकी आंखों में है भारत और अमेरिका की तबाही का मकसद। हालांकि फिलहाल वह अपनी गतिविधियों को पाकिस्तान में अंजाम दे रहा है, क्योंकि वह उसे एक इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहता है। उसका अगला निशाना होगा, भारत।
वह पाकिस्तान में तालिबानी संगठन ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तानज् (टीटीपी) का कमांडर है। अमेरिकी ड्रोन हमले में अगस्त में बैतुल्ला महसूद के मारे जाने के बाद वह ‘सर्वसम्मतिज् से इस संगठन का ‘आमिरज् चुना गया। समझा जाता है कि बैतुल्ला की मौत के बाद निराशा व हताशा में बिखराव की कगार पर पहुंच चुके टीटीपी को संभालने और एकजुट रखने में हकीमुल्लाह ने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी। अपनी सूझबूझ व नेतृत्व क्षमता से उसने टीटीपी को एक नई दिशा दी और उसके लड़कों में नया जोश भर दिया।
बैतुल्लाह के बेहद करीबी समङो जाने वाले हकीमुल्लाह ने टीटीपी की कमान संभालने से पहले चालक के रूप में भी काम किया। हकीमुल्लाह का जन्म 1981 में पाकिस्तान के दक्षिणी वजीरिस्तान में जनदोला के पास कोटकई इलाके में हुआ था। उसकी शिक्षा केवल मदरसे की तालीम तक सीमित रही। हंगू जिले के एक छोटे से गांव में मदरसे से उसने शुरुआती तालीम पाई। उस वक्त उस मदरसे में बैतुल्ला महसूद भी था। हकीमुल्लाह वहीं बैतुल्ला के संपर्क में आया।
हालांकि बैतुल्ला ने हकीमुल्लाह से बहुत पहले वह मदरसा छोड़ दिया था, लेकिन दोनों के बीच संपर्क लगातार बना रहा। मदरसे की तालीम पूरी करने के बाद हकीमुल्लाह बैतुल्ला के साथ जिहाद में कूद पड़ा। शुरू में उसने बैतुल्ला के अंगरक्षक व सहयोगी के रूप में काम किया। लेकिन हथियारों के साथ खेलने के उसके शगल और माहरी ने तालिबानियों के बीच उसकी लोकप्रियता बढ़ा दी। एके-47 के संचालन में उसे महारत हासिल है। लड़ाइयों के दौरान उसने अपनी बेहतर क्षमता का प्रदर्शन किया। अपनी इन्हीं योग्यताओं के बल पर वह न केवल तालिबानियों में लोकप्रिय हुआ, बल्कि बैतुल्ला के और करीब होता गया। उसकी लड़ाका क्षमता को देखते हुए ही बैतुल्ला ने उसे टीटीपी का उप कमांडर बनाया था। तालिबानी उसकी लड़ाका क्षमता की तुलना नेक मोहम्मद से करते हैं, जो करिश्माई पश्तून नेता माना जाता है। जून 2004 में अमेरिकी हवाई हमले में उसकी मौत हो गई थी। तालिबानियों के अनुसार नेक मोहम्मद के बाद हकीमुल्लाह में ही वे नेक मोहम्मद के जसी लड़ाका क्षमता देखते हैं।
अपनी इन्हीं क्षमताओं से बैतुल्ला की मौत के बाद उसने टीटीपी को एक मजबूत नेतृत्व दिया और हताश तालिबानी लड़ाकाओं को एक नया जोश। इस बीच कई बार उसकी मौत की खबरें भी आईं। अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया कि बैतुल्ला की मौत के बाद टीटीपी का नया कमांडर चुनने के लिए बुलाई गई ‘शूराज् में तालिबानियों के बीच जमकर गोलीबारी हुई, क्योंकि इस पद के लिए कई तालिबानी सामने आ गए थे। तालिबानियों के बीच इस आपसी लड़ाई में ही हकीमुल्लाह की मौत हो गई। लेकिन पिछले दिनों मीडिया के सामने आकर उसने अपनी मौत की अफवाहों को गलत साबित कर दिया।
आम तालिबानी नेताओं से अलग पाकिस्तान, अमेरिका और भारत तक अपने खतरनाक मंसूबों को पहुंचाने के लिए हकीमुल्लाह ने किसी रिकॉर्डेड सीडी का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि मीडिया कर्मियों को अगवा किया और उन्हें अपने ठिकाने पर ले गया। वहां उसने अमेरिका के प्रति अपना गहरा आक्रोश जाहिर किया। उसने साफ कहा कि वह अमेरिका से बैतुल्ला की मौत की बदला लेकर रहेगा। गौरतलब है कि अगस्त में अमेरिकी ड्रोन हमले में बैतुल्ला की मौत हो गई थी।
इसी तरह पाकिस्तान भी उसके निशाने पर है, क्योंकि यह सरकार अमेरिकी इशारे पर काम कर रही है। उसने हाल के दिनों में पाकिस्तान में हुए कई हमलों की जिम्मेदारी ली और कहा कि जब तक सरकार अमेरिकी सैनिकों को अपनी धरती से रवाना नहीं करेगी, हमले जारी रहेंगे। बकौल हकीमुल्लाह, हम सैनिक, पुलिस और नागरिक सेना से लड़ रहे हैं, क्योंकि वे अमेरिकी आदेश पर काम कर रहे हैं। यदि वे अमेरिकी आदेश का अनुपालन बंद कर दें, तो हम हमले भी रोक देंगे। हकीमुल्लाह ने यह भी साफ किया कि उसका मकसद पाकिस्तान को एक इस्लामिक राष्ट्र बनाना है और इसमें कामयाबी मिलने के बाद उसका अगला निशाना भारत होगा।
हकीमुल्लाह सीधे-सीधे पाकिस्तान के पीपीपी और एएनपी नेताओं को मारने की धमकी देता है, क्योंकि उसके अनुसार पीपीपी और एएनपी के नेताओं ने ही सेना को तालिबानियों के खिलाफ हमले का आदेश दिया। उसने पाकिस्तान सरकार को अमेरिकी समर्थक नीतियां बदलने के लिए अल्टीमेटम दिया और धमकी दी कि यदि वह ऐसा नहीं करती है, तो आने वाले दिनों में तालिबान पेशावर सहित पाकिस्तान के अन्य शहरों पर कब्जा कर लेगा। उसका दावा है कि बैतुल्ला की ‘शहादतज् के बाद उसका संगठन अधिक मजबूत हुआ है और उसके लड़ाके ‘एकजुटज् होकर अमेरिकी और पाकिस्तानी सेना का मुकाबला कर रहे हैं।

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

बड़े हमले की तैयारी में सरकार

नक्सलवाद को समझने के लिए इसके इतिहास को समझना जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि आखिर किन कारणों से यह शुरू हुआ और निरंतर फैलता ही जा रहा है। जब तक यह नहीं समझा जाएगा, इसे खत्म करना मुश्किल है। सरकार भले ही हवाई हमले तक की योजना बना ले, लेकिन इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता।
हमारे देश में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई थी। आर्थिक विषमता, दमन व व्यवस्था के खिलाफ असंतोष ने लोगों को हथियार उठाने के लिए मजबूर किया। तब यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना और इसने पश्चिम बंगाल व आंध्र प्रदेश को बुरी तरह प्रभावित किया। लोगों को पहली बार सामाज में गहराई से व्याप्त विषमता की सच्चाई मालूम हुई। चारु मजूमदार, कानू संन्याल के नेतृत्व में शुरू हुए नक्सलबाड़ी के इस आंदोलन ने देश के सामाजिक ताने-बाने को गहरे रूप में प्रभावित किया।
आखिर सरकार ने भी माना कि दूर-दराज के पिछड़े व जनजातीय इलाकों में विकास की जरूरत है। इसलिए बार-बार उन क्षेत्रों में भूमि सुधार सहित अन्य विकासपरक चीजें लागू करने की बात कही गई। लेकिन वास्तव में कभी इन्हें ठोस रूप नहीं दिया गया। फिर बाद की सरकारों ने इसे एक सामाजिक समस्या तो माना, लेकिन यह भी कहा कि इसके हिंसक स्वरूप से निटने के लिए दमन जरूरी है। पर वास्तव में इनका जोर दमन पर अधिक होता है।
मुङो लगता है कि जिन कारणों से 1967 में यह आंदोलन नक्सलबाड़ी में शुरू हुआ था, आज वे अधिक तीव्रता से मौजूद हैं। ऐसे में नक्सली समस्या का बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि आज सरकार इसे जिस गंभीरता व व्यापकता के साथ प्रचारित-प्रसारित कर रही है, वास्तव में यह वैसा नहीं है। दरअसल, सारा खेल कॉरपोरेट घरानों को सुविधाएं और उन्हें यहां की संपदा लूटने का हक देने का है। उनके हितों को सुरक्षित रखने के लिए सरकार इस समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है, ताकि दमन का रास्ता साफ हो सके और कोई उसकी कार्रवाई पर उंगली न उठा सके।
दरअसल, 1990 में जो आर्थिक नीति शुरू की गई, उसके अनुसार सरकार का काम वास्तव में कॉरपोरेट घरानों को सुविधाएं मुहैया करानाभर रह गया है। इस नीति के तहत सरकार की तकरीबन साढ़े पांच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने की योजना है। इसके लिए जगह-जगह किसानों से जबरन या औने-पौने दाम में जमीन ली जा रही है। जाहिर तौर पर किसान, जिनकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया भूमि व खेती ही है, इसका विरोध कर रहे हैं। अभी सरकार ने इसकी शुरुआतभर की है, लेकिन हर जगह उसे तीव्र विरोध ङोलना पड़ा। उसे मालूम है कि जसे-जसे इस दिशा में वह आगे बढ़ेगी, विरोध तीव्र होता जाएगा। इसलिए पहले से ही उसने नक्सल समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना शुरू कर दिया है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, तो गृह मंत्री पी चिदंबरम कहते हैं कि नक्सल समस्या 20 राज्यों में फैल चुकी है। इसलिए इससे निपटने के लिए ठोस उपाय करने होंगे। यहां तक कि हवाई हमले से भी परहेज नहीं। मैं समझता हूं कि नक्सलियों से निपटने के लिए हवाई हमले की बात कहकर सरकार ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने का हक खो दिया है। आखिर नक्सली कोई आतंकवादी नहीं, वे इसी देश का हिस्सा हैं, जो व्यवस्था से खिन्न हैं, अपने साथ हो रहे अन्याय से नाराज हैं। लेकिन इन सबमें दु:खद पहलू यह है कि आज मीडिया और समाज का बुद्धिजीवी तबका भी सरकार की सुर में सुर मिला रहा है, जबकि आपातकाल की बात हो या कोई अन्य आंदोलन, यह वर्ग हमेशा आंदोलनकारियों का साथ देता रहा है।
नक्सल समस्या की व्यापकता को लेकर खुद सरकारी आंकड़े उसकी पोल खोलते हैं। जरा पीछे जाएं, तो 1998 में तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नक्सल समस्या से निपटने पर विचार-विमर्श के लिए हैदराबाद में चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की बैठक बुलाई थी। इसके बाद 2005 और 2006 में तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने नक्सल प्रभावित राज्यों की बैठक बुलाई तो यह संख्या बढ़कर क्रमश: 13-14 हो गई। अब मौजूदा गृह मंत्री नक्सल प्रभावित राज्यों की संख्या 20 बता रहे हैं। यदि ये आंकड़े सच हैं तो वे करोड़ों रुपए कहां गए, जो सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए खर्च किए।
सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि 20 राज्य नक्सल प्रभावित हैं, तो कितने राज्यों में वह सही तरीके से शासन कर रही है? उत्तर-पूर्व के सात राज्य पहले से ही अशांत हैं। यहां सरकार आर्म फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट के तहत शासन कर रही है। खासतौर से मणिपुर में इसके खिलाफ जबरदस्त जनाक्रोश है। इसी तरह जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से ही अशांत है। इस तरह गृह मंत्री के अनुसार जो 20 राज्य नक्सल प्रभावित हैं, उनमें उत्तर-पूर्व के सात राज्य और जम्मू कश्मीर को भी जोड़ दिया जाए, तो संख्या 28 राज्यों की हो जाती है। तो क्या यह माना जाए कि देश के सभी 28 राज्यों में जनता सरकार से नाखुश है, नाराज है। यदि ऐसा है, तो आखिर किस हक से सरकार शासन कर रही है? साफ है कि सरकार ने शासन का नैतिक अधिकार खो दिया है।
सरकार जो आंकड़े पेश कर रही है, यदि वैसा है, तो यह वास्तव में चिंताजनक है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? इसका सीधा जवाब है, नहीं। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि जिन क्षेत्रों को नक्सल प्रभावित बताया जा रहा है, वे खनिज संपदा से भरपूर हैं। लेकिन वहां के आम लोगों को उसका कोई फायदा आज तक नहीं मिला, बल्कि वहां के प्राकृतिक संसाधनों का सरकार ने अब तक अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया। आगे भी वह यही करने जा रही है। ऐसे में स्थानीय लोगों के मन में असंतोष पनपना स्वाभाविक है, जो एक हद के बाद यह हिंसक हो जाता है।
वास्तव में सरकार जानती है कि जब बाजारी शक्तियां महानगरों से शहरों, कस्बों और गांवों की ओर रुख करेगी, तो आम आदमी की तबाही में इजाफा होगा। स्थानीय शिल्पियों, कुटी उद्योगों, खुदरा व्यापारियों के व्यवसाय पर इसका सीधा असर होगा और इससे जो असंतोष व तनाव पैदा होगा, उससे निपटने के लिए सरकार को पुलिस व सेना की मदद लेनी होगी। ऐसे में सरकार यह तो नहीं कहेगी कि वह उद्योगपतियों को सुविधाएं मुहैया कराने या उनकी मदद के लिए जा रही है। वह तो यही कहेगी कि हम नक्सलियों से निपटने जा रहे हैं। इसलिए अभी से वह नक्सल समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है।
जहां तक माओवादियों द्वारा अपनी मांगें रखने के लिए हथियार उठाने का सवाल है तो विरोध का हर शांतिपूर्ण तरीका विफल हो जाने के बाद ही उन्होंने हथियार उठाया है। वरना जिन लोगों ने हथियार उठाए हैं, वे आदिवासी है, जो अमूमन हथियार उठाने का स्वभाव नहीं रखते। दरअसल, जब दमन होता है, तो प्रतिरोध भी होता है। उस प्रतिरोध को दबाने के लिए सरकार फिर दमन का रास्ता अपनाती है, जिसके बाद प्रतिरोध और उग्र हो जाता है। इस तरह यह एक दुश्चक्र है, जिसमें सरकार खुद ही माओवादी पैदा करती है। इस तरह सरकार अपनी ही नीतियों से देश को गृह युद्ध की तरफ ले जा रही है।
सरकार का यह दावा भी गलत है कि स्थानीय लोगों से नक्सल आंदोलनकारियों को मदद नहीं मिल रही। सच्चाई तो यह है कि स्थानीय मदद के बगैर कोई भी आंदोलन इस हद तक सफल नहीं हो सकता। सरकार ने इस आंदोलन को खत्म करने के लिए ‘मछली को पानी से निकाल देनेज् का अमेरिकी फॉर्मूला अपनाया है और उसी के तहत ऐसा कह रही है। वह इस बात को प्रचारित कर रही है कि आम लोगों की मदद इन्हें नहीं मिल रही और तभी छत्तीसगढ़ में लोगों ने इनके खिलाफ हथियार उठा लिया। सरकार सलवा जुडूम का हवाला देती है, लेकिन यह स्थानीय जनता को आपस में लड़ाने का सरकारी फॉर्मूला है और कुछ नहीं। सलवा जुडूम पूरी तरह विफल हो चुका है।
जहां तक नक्सलियों के इस आंदोलन में आम लोगों के प्रभावित होने का सवाल है, तो इसे पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि किसी भी आंदोलन में कुछ हद तक आम लोग तो प्रभावित होते ही हैं। पर आंदोलनकारियों का यह मकसद नहीं होता। रांची में एक इंस्पेक्टर की जिस तरीके से हत्या की गई, उसे कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन इसे लेकर माओवादियों का कोई स्टैंड फिलहाल सामने नहीं आया है, इसलिए इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
हां, यह सच है कि चुनाव प्रक्रिया में माओवादियों की कोई आस्था नहीं है। लेकिन यह कोई बुरी चीज नहीं है। नेपाल में माओवादियों ने लंबे समय तक सशस्त्र संघर्ष के बाद चुनाव प्रक्रिया में शिरकत की और उसमें भी विजयी रहे। साफ है कि चुनाव में जीतकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सरकारों के इस दावे को गलत साबित किया कि उन्हें आम लोगों का समर्थन नहीं है। भारत में भी यह चीज हो सकती है। यहां के नक्सलवादी भी चुनाव प्रक्रिया में शामिल हो सकते हैं। लेकिन कब और कैसे इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
जहां तक समस्या के समाधान की बात है, तो इसका एकमात्र तरीका माओवादियों से बातचीत है। उनसे बातचीत कर, उनकी समस्याओं को जानकर और उसका समाधान कर ही इससे निजात पाई जा सकती है। जब तक सरकार माओवादी आंदोलन, जो वास्तव में जवाबी हिंसा है और आतंवाद में फर्क नहीं करेगी, इस समस्या का समाधान मुश्किल है।

आनंदस्वरूप वर्मा से बातचीत पर आधारित

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

यह कैसा हक?

रविवार का दिन था। घर से निकली थी एक दोस्त के यहां जाने के लिए। काफी दिनों से सोच रही थी। आज का ही दिन मिल पाया। सुबह जल्दी-जल्दी करने के बाद भी देर हो ही गई। खर, जल्दी-जल्द बस स्टॉप पहुंची। इंतजार कर रही थी बस का। करीब 15-20 मिनट के इंतजार के बाद वह बस आई, जिसमें मुङो जाना था। बस रुकी और मैं चढ़ गई। बड़ा सुकून मिला यह देखकर कि महिलाओं के लिए आरक्षित कुछ सीटें खाली पड़ी थीं। आखिर लंबा सफर जो तय करना था।

बस चल पड़ी। दो-तीन स्टॉप बाद बस में एक बुजुर्ग चढ़े। उम्र 60 के पार होगी। वह मेरी सीट के आधे हिस्से पर बैठ गए, क्योंकि तब वही एक सीट खाली पड़ी थी। मुङो अच्छा लगा, यह देखकर कि बाबा को सीट मिल गई। बस कुछ ही दूर और चल पाई होगी। करीब दो स्टॉप आगे। वहां दो लड़की और एक लड़का चढ़े बस में। उम्र यही कोई 18-19 साल होगी। वे वहीं आकर खड़े हो गए, जहां हम बैठे थे। शायद अपेक्षा कर रहे थे कि बाबा महिलाओं के लिए आरक्षित जिस सीट पर बैठे थे, उसे खाली कर दें। मैंने बारी-बारी से दोनों को देखा। बाबा को भी, लड़के-लड़कियों को भी। बाबा कुछ कसमसाए। शायद यह सोच रहे थे कि ‘उनके कहने से पहले ही सीट खाली कर दूं या बैठा रहूं!ज् तभी लड़के ने दबी जुबान से कहा, ‘महिलाओं की सीट है। दे दीजिए प्लीज।ज् पलभर की देरी किए बगैर बाबा ने सीट छोड़ दी। मुङो बुरा लगा। मैं काफी देर तक उन लड़के-लड़कियों की तरफ देखती रही। सोचा जसे ही मेरी तरफ देखेंगे, पूछूंगी, ‘बाबा को खड़ा करवाना क्या इतना जरूरी था?ज् लेकिन उन्होंने देखा नहीं और मैंने पूछा नहीं।

इसके बाद चलने लगा मेरे मन में द्वंद्व। ‘क्या मैं अपनी सीट दे दूं? लेकिन अगर किसी और महिला या लड़की ने उन्हें यह कहकर उठा दिया कि यह महिलाओं के लिए आरक्षित सीट है, तो? फिर तो सीट न मेरी रहेगी, न उनकी। इससे तो बेहतर है कि मैं ही बैठी रहूं।ज् यह भी खयाल आया कि ‘आखिर मैं क्यों इतना सोच रही हूं? मैंने तो उनसे सीट खाली नहीं करवाई।ज् इसी उधेड़बुन में चार स्टॉप और निकल गए। पर द्वंद्व खत्म नहीं हुआ। आखिर मुझसे नहीं रहा गया। पांचवां स्टॉप आते-आते मैंने उन्हें अपनी सीट देने की पेशकश की। कहा, ‘आप यहां बैठ जाइये।ज् लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उस चार स्टॉप के बाद आने वाला पांचवां स्टॉप उनका गंतव्य था। उन्होंने बड़ी शालीनता से कहा, ‘कोई बात नहीं। बैठी रहो। मेरा स्टॉप आ गया। मुङो उतरना है।ज्

उन्होंने इतना कहा और बढ़ने लगे बस के अगले गेट की तरफ, उतरने के लिए। पर मुङो छोड़ गए शर्मिदगी, आत्मग्लानि और अपराधबोध के साथ। पलभर के लिए मुङो लगा जसे किसी ने मुझपर घड़ों पानी डज्ञल दिया हो। उस बुजुर्ग व्यक्ति ने कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया था। मुङो तत्काल सबक मिल गया था और शायद आसपास बैठे व खड़े लोगों ने भी कुछ तो महसूस किया ही होगा। सबक लिया या नहीं, मुङो नहीं मालूम।

लेकिन इसके बाद भी अपराधबोध और आत्मग्लानि ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। रास्तेभर वही खयाल मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे। दोस्त के घर से लौटने के बाद भी यही हाल था। मन में बार-बार यही खयाल आता रहा। खुद को कोसती रही यह सोच-सोच कर कि ‘आखिर क्यों इतनी देर कर दी मैंने? क्यों नहीं उनके उठते ही अपनी सीट दे दी उन्हें? क्यों सोचती रही इतनी देर तक?ज् और यह भी कि ‘जिसके लिए अब मुङो ग्लानि हो रही है, उसकी जिम्मेदार तो मैं भी उतनी ही हूं। आखिर मैं उन लड़के-लड़कियों को बोल सकती थी। क्यों इंतजार करती रही कि वे मेरी तरफ देखेंगे, तभी कुछ कहूंगी। सबसे बड़ी गलती तो यह हुई कि उनके उठते ही मैंने उन्हें अपनी सीट नहीं दी बैठने के लिए, जबकि उनकी उम्र को देखते हुए उसकी जरूरत उन्हें मुझसे कहीं अधिक थी।ज्

यह सोचकर मैंने दोस्तों को बताया, कई दूसरे लोगों से भी इस बारे में बात की कि शायद दिल का बोझ कुछ हल्का हो जाए। सभी ने यही कहा कि ‘दिल्ली की बसों में तो यह आम नजारा है। आए दिन ऐसे वाकये होते ही रहते हैं। तुम बस से अक्सर छोटी दूरी की यात्रा करती हो, इसलिए कभी देखा नहीं होगा। हम तो अक्सर देखते हैं।ज् उनके ये सब कहने का असर था या वक्त की धूल, मैं नहीं जानती। कुछ दिनों बाद उस घटना की याद मेरे जेहन में धुंधली पड़ने लगी। लेकिन इन सवालों के जवाब की तलाश मुङो आज भी है कि ‘आखिर क्या हो गया है हमारी युवा पीढ़ी (निस्संदेह इसमें लड़कियां भी आती हैं) को? अपने बुजुर्गो के प्रति इतनी संवेदनहीनता क्यों?ज् और यह भी कि ‘क्या बस में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करवाने का यह मतलब है कि स्कूल-कॉलेज की लड़कियों को भी पुरुष बुजुर्गो से सीट छीनने का हक मिल गया? अगर हां, तो यह कैसा हक है?ज्

ऊंचे मकसद वाले माधव

चं्रयान-1 की जिस खोज से आज हिंदुस्तान का हर नागरिक और दुनिया रोमांचित है, उसका श्रेय निस्संदेह इसरो के वैज्ञानिकों के सामूहिक प्रयत्न को जाता है। लेकिन किसी भी संगठन और टीम का एक नेता होता है और उसका सूझबूझ भरा नेतृत्व ही उसकी टीम को कुछ नायाब करने का मकसद और हौसला देता है। इसरो के अध्यक्ष माधवन नायर ऐसे ही व्यक्ति हैं। चं्रमा पर पानी खोज पाने में चं्रयान की सफलता के सूत्रधार भी वे ही हैं। स्वदेशी तकनीक से युक्त प्रक्षेपण यान के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दरअसल, शुरू से ही वे भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को आत्मनिर्भर बनाने में जुटे रहे। यह उनका एक ध्येय रहा है। अपनी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल वह हमेशा से देश की तकनीकी क्षमताएं बढ़ाने में करते रहे हैं। वह ऐसे पहले भारतीय और गैर-अमेरिकी व्यक्ति हैं, जो इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स के अध्यक्ष बने।

आज पूरी दुनिया भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और उसकी उपलब्धियों का लोहा मान रही है। जो काम इतने सालों में दुनिया के विकसित देश नहीं कर पाए, उसे भारत ने कर दिखाया। चांद पर पानी खोज निकाला। इस एक खोज ने दुनियाभर के अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक नई दिशा दी। कई संभावनाओं को जन्म दिया और निश्चय ही इन सबका श्रेय जाता है, इसरो को, इसरो के वैज्ञानिकों को और इसके अध्यक्ष जी. माधवन नायर को।
माधवन नायर; इसरो के अध्यक्ष, कें्र सरकार के अंतरिक्ष विभाग के सचिव, अंतरिक्ष आयोग के चेयरमैन; ने शुरू से ही अपनी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल देश को तकनीक के क्षेत्र में उन्नत व आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में किया। खासतौर पर स्वदेशी तकनीक से युक्त उपग्रह प्रक्षेपण यान (सैटेलाइट लांच वेहिकल) के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है और उसी की बदौलत आज भारत दुनिया भर में प्रक्षेपण यान तकनीक के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है।
उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में इसरो ने 25 मिशन सफलतापूर्वक पूरे किए, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण व चर्चित चं्रयान-1 है। पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से निर्मित व प्रक्षेपित इस मानवरहित यान ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को मजबूती दी और दुनिया भर में भारतीय तकनीक व वैज्ञानिक सूझ-बूझ को नए सिरे से स्थापित किया। 22 अक्टूबर 2008 को भारत ने इसे श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष कें्र से कई उम्मीदों व संभावनाओं की खोज के साथ प्रक्षेपित किया था। तब अंतरिक्ष में दो साल तक इसके संचालन की उम्मीद की गई थी। हालांकि इस साल 29 अगस्त को ही इसरो के साथ इसका संपर्क टूट गया और यह वृहद अंतरिक्ष में कहीं खो गया। लेकिन तब तक यह अपना 95 प्रतिशत काम कर चुका था। 312 दिनों के अपने संचालन में चं्रयान-1 ने अपनी खोज से भारत सहित दुनियाभर को एक नई खोज दी, नई उपलब्धि दी।शुरुआती दिनों में ही चं्रयान-1 के मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद पर तिरंगा लहरा दिया। चांद पर तिरंगा देख करोड़ों देशवासियों के चेहरे मुस्कराए। दिल खुश हुआ, उसी तरह जब देश के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने अप्रैल 1984 में चांद पर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के यह पूछे जाने पर कि वहां से भारत कैसा दिखता है, कहा था कि सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा। आम भारतीयों के चहरे पर इस मुस्कराहट, इस खुशी के पीछे माधवन व उनकी टीम के दिन-रात की मेहनत को भला कौन भूल या कम आंक सकता है?
लेकिन चं्रयान-1 का मकसद चांद पर सिर्फ तिरंगा लहराना नहीं था, बल्कि उसे खंगालना था। वहां की जानकारी जुटानी थी और इन सबमें वह कामयाब रहा। सबसे बड़ी खोज वहां पानी की तलाश रही। अमेरिकी अंतरिक्ष संस्थान नासा ने इसे एक महत्वपूर्ण उलब्धि बताया। एक ऐसी उपलब्धि, जिससे मंगल सहित अन्य ग्रहों-उपग्रहों पर जीवन की खोज में जुटे दुनियाभर के अंतरिक्ष अभियानों को नई दिशा और नया बल मिल सकेगा। चं्रयान-1 की सफलता से उत्साहित इसरो अब इसके दूसरे संस्करण चं्रयान-2 के प्रक्षेपण की योजना बना रहा है, ताकि चांद से जुड़ी और भी जानकारी जुटाई जा सके।
केरल के तिरुवनंतपुरम में 31 अक्टूबर, 1943 को जन्मे माधवन की शुरुआती शिक्षा कन्याकुमारी जिले में हुई। 1966 में केरल विश्वविद्यालय से उन्होंने इलेक्ट्रिकल व कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक किया और प्रशिक्षण के लिए भाभा अटोमिक रिसर्च सेंटर ट्रेनिंग स्कूल, मुंबई चले गए। 1967 में वह थंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लांचिंग स्टेशन (टीईआरएलएस) से जुड़े और इसके बाद कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं व संस्थानों का सफर तय करते हुए आज इसरो के अध्यक्ष हैं। कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी उनकी प्रतिभा व परामर्श का इस्तेमाल किया। अगस्त 2009 में वह इंटरनेशल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स (आईएए) के अध्यक्ष भी बने। वह 2011 तक इस पद पर बने रहेंगे। आईएए के अध्यक्ष बनने वाले वह एकमात्र भारतीय और पहले गैर-अमेरिकी नागरिक हैं।
अपनी वैज्ञानिक सोच व सूझबूझ का इस्तेमाल उन्होंने हमेशा देश की तकनीकी क्षमता बढ़ाने और इसे उन्नत बनाने में किया। वह तकनीक की दृष्टि से भारत को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे और इस दिशा में उन्होंने कई कदम उठाए। सामाजिक आवश्यकताएं हमेशा उनके जेहन में रही। शिक्षा, चिकित्सा से लेकर दूरदराज के क्षेत्रों में किसानों से संपर्क स्थापित करने तक के लिए उन्होंने तकनीक के इस्तेमाल पर बल दिया। टेली-एजुकेशन और टेली-मेडिसन के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान का ही परिणाम है कि आज देशभर में करीब 31 हजार कक्षाएं एडुसेट नेटवर्क से जुड़ी हैं। टेलीमेडिसन से 315 अस्पताल जुड़े हैं, जिनमें से 269 ग्रीमण क्षेत्रों के अस्पताल हैं। उन्होंने विलेज रिसोर्स सेंटर (वीआरसी) की भी शुरुआत की, जिसका मकसद दूर-दराज व ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे गरीबों का जीवन स्तर सुधारना है। आज 430 से अधिक वीआरसी किसानों को मिट्टी, पानी व खेती के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं। किसान इसके माध्यम से सीधे कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क कर सकते हैं और आवश्यक जानकारी जुटा सकते हैं। साथ ही यह किसानों को सरकारी योजनाओं, खेती की पद्धति, मौसम को ध्यान में रखते हुए बनाई जाने वाली कार्य योजना आदि की जानकारी भी देता है।