शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

यह कैसा हक?

रविवार का दिन था। घर से निकली थी एक दोस्त के यहां जाने के लिए। काफी दिनों से सोच रही थी। आज का ही दिन मिल पाया। सुबह जल्दी-जल्दी करने के बाद भी देर हो ही गई। खर, जल्दी-जल्द बस स्टॉप पहुंची। इंतजार कर रही थी बस का। करीब 15-20 मिनट के इंतजार के बाद वह बस आई, जिसमें मुङो जाना था। बस रुकी और मैं चढ़ गई। बड़ा सुकून मिला यह देखकर कि महिलाओं के लिए आरक्षित कुछ सीटें खाली पड़ी थीं। आखिर लंबा सफर जो तय करना था।

बस चल पड़ी। दो-तीन स्टॉप बाद बस में एक बुजुर्ग चढ़े। उम्र 60 के पार होगी। वह मेरी सीट के आधे हिस्से पर बैठ गए, क्योंकि तब वही एक सीट खाली पड़ी थी। मुङो अच्छा लगा, यह देखकर कि बाबा को सीट मिल गई। बस कुछ ही दूर और चल पाई होगी। करीब दो स्टॉप आगे। वहां दो लड़की और एक लड़का चढ़े बस में। उम्र यही कोई 18-19 साल होगी। वे वहीं आकर खड़े हो गए, जहां हम बैठे थे। शायद अपेक्षा कर रहे थे कि बाबा महिलाओं के लिए आरक्षित जिस सीट पर बैठे थे, उसे खाली कर दें। मैंने बारी-बारी से दोनों को देखा। बाबा को भी, लड़के-लड़कियों को भी। बाबा कुछ कसमसाए। शायद यह सोच रहे थे कि ‘उनके कहने से पहले ही सीट खाली कर दूं या बैठा रहूं!ज् तभी लड़के ने दबी जुबान से कहा, ‘महिलाओं की सीट है। दे दीजिए प्लीज।ज् पलभर की देरी किए बगैर बाबा ने सीट छोड़ दी। मुङो बुरा लगा। मैं काफी देर तक उन लड़के-लड़कियों की तरफ देखती रही। सोचा जसे ही मेरी तरफ देखेंगे, पूछूंगी, ‘बाबा को खड़ा करवाना क्या इतना जरूरी था?ज् लेकिन उन्होंने देखा नहीं और मैंने पूछा नहीं।

इसके बाद चलने लगा मेरे मन में द्वंद्व। ‘क्या मैं अपनी सीट दे दूं? लेकिन अगर किसी और महिला या लड़की ने उन्हें यह कहकर उठा दिया कि यह महिलाओं के लिए आरक्षित सीट है, तो? फिर तो सीट न मेरी रहेगी, न उनकी। इससे तो बेहतर है कि मैं ही बैठी रहूं।ज् यह भी खयाल आया कि ‘आखिर मैं क्यों इतना सोच रही हूं? मैंने तो उनसे सीट खाली नहीं करवाई।ज् इसी उधेड़बुन में चार स्टॉप और निकल गए। पर द्वंद्व खत्म नहीं हुआ। आखिर मुझसे नहीं रहा गया। पांचवां स्टॉप आते-आते मैंने उन्हें अपनी सीट देने की पेशकश की। कहा, ‘आप यहां बैठ जाइये।ज् लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उस चार स्टॉप के बाद आने वाला पांचवां स्टॉप उनका गंतव्य था। उन्होंने बड़ी शालीनता से कहा, ‘कोई बात नहीं। बैठी रहो। मेरा स्टॉप आ गया। मुङो उतरना है।ज्

उन्होंने इतना कहा और बढ़ने लगे बस के अगले गेट की तरफ, उतरने के लिए। पर मुङो छोड़ गए शर्मिदगी, आत्मग्लानि और अपराधबोध के साथ। पलभर के लिए मुङो लगा जसे किसी ने मुझपर घड़ों पानी डज्ञल दिया हो। उस बुजुर्ग व्यक्ति ने कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया था। मुङो तत्काल सबक मिल गया था और शायद आसपास बैठे व खड़े लोगों ने भी कुछ तो महसूस किया ही होगा। सबक लिया या नहीं, मुङो नहीं मालूम।

लेकिन इसके बाद भी अपराधबोध और आत्मग्लानि ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। रास्तेभर वही खयाल मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे। दोस्त के घर से लौटने के बाद भी यही हाल था। मन में बार-बार यही खयाल आता रहा। खुद को कोसती रही यह सोच-सोच कर कि ‘आखिर क्यों इतनी देर कर दी मैंने? क्यों नहीं उनके उठते ही अपनी सीट दे दी उन्हें? क्यों सोचती रही इतनी देर तक?ज् और यह भी कि ‘जिसके लिए अब मुङो ग्लानि हो रही है, उसकी जिम्मेदार तो मैं भी उतनी ही हूं। आखिर मैं उन लड़के-लड़कियों को बोल सकती थी। क्यों इंतजार करती रही कि वे मेरी तरफ देखेंगे, तभी कुछ कहूंगी। सबसे बड़ी गलती तो यह हुई कि उनके उठते ही मैंने उन्हें अपनी सीट नहीं दी बैठने के लिए, जबकि उनकी उम्र को देखते हुए उसकी जरूरत उन्हें मुझसे कहीं अधिक थी।ज्

यह सोचकर मैंने दोस्तों को बताया, कई दूसरे लोगों से भी इस बारे में बात की कि शायद दिल का बोझ कुछ हल्का हो जाए। सभी ने यही कहा कि ‘दिल्ली की बसों में तो यह आम नजारा है। आए दिन ऐसे वाकये होते ही रहते हैं। तुम बस से अक्सर छोटी दूरी की यात्रा करती हो, इसलिए कभी देखा नहीं होगा। हम तो अक्सर देखते हैं।ज् उनके ये सब कहने का असर था या वक्त की धूल, मैं नहीं जानती। कुछ दिनों बाद उस घटना की याद मेरे जेहन में धुंधली पड़ने लगी। लेकिन इन सवालों के जवाब की तलाश मुङो आज भी है कि ‘आखिर क्या हो गया है हमारी युवा पीढ़ी (निस्संदेह इसमें लड़कियां भी आती हैं) को? अपने बुजुर्गो के प्रति इतनी संवेदनहीनता क्यों?ज् और यह भी कि ‘क्या बस में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करवाने का यह मतलब है कि स्कूल-कॉलेज की लड़कियों को भी पुरुष बुजुर्गो से सीट छीनने का हक मिल गया? अगर हां, तो यह कैसा हक है?ज्

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