सोमवार, 29 मार्च 2010

पानी की करुण कहानी


जल संकट दुनिया भर की समस्या है, लेकिन हमारे यहां यह अभाव है। हर स्तर पर पानी के साथ खिलवाड़ हो रहा है। नदियां सूख गईं या प्रदूषित हैं। तालाब, कुएं गायब हो गए। भूजल नीचे जा रहा है। प्यास बढ़ रही है, पानी खत्म हो रहा है। आजादी के बाद हमने सोचा जरूर, किया कुछ नहीं। दोषपूर्ण सरकारी परियोनाओं ने पानी के स्रोत को बिगाड़ दिया। बढ़ती आबादी के साथ भविष्य के लिए कोई कारगर योजना नहीं बनाई। समाज भी बेखबर और लापरवाह रहा। अपने जीवन के मूल तत्वों से उसकी इस बेरुखी का नतीजा है जल संकट। बल्कि हम जिस पर्यावरण विनाश से जूझ रहे हैं, उसमें भी इसका कम दोष नहीं है। लालच प्रकृति के अथाह खजाने को खाली कर रहा है। आज जल दिवस पर हमें इन खतरों के प्रति सचेत होकर इनसे लड़ने और सबक लेने का संकल्प करना चाहिए। हमारा उद्देश्य देश-समाज को हरा-भरा रखने का होना चाहिए और इसके लिए हरित अभियान छेड़ देना चाहिए।

इन दिनों पूरी दुनिया जल संकट से जूझ रही है। भारत भी इस समस्या से अछूता नहीं है, बल्कि यहां पानी का संकट दूसरे देशों के मुकाबले कहीं अधिक है। भूजल स्तर निरंतर नीचे गिर रहा है। कहीं-कहीं तो भूजल भंडार बिल्कुल खाली हो गया है। नदियों का पानी पीने लायक नहीं बचा। कहीं नदियां सूख गईं तो कहीं बुरी तरह प्रदूषित हैं।
आजादी के पिछले छह दशक में यह संकट कई गुना बढ़ा है। आजादी के समय जहां केवल 232 गांव ऐसे थे, जहां पीने का पानी नहीं था, वहीं अब ऐसे गांवों की संख्या सवा दो लाख हो गई है। गांव, शहर हर जगह लोग पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। शहरों में भी विभिन्न स्थानों पर टैंकरों से पानी पहुंचाया जा रहा है। लोग बाल्टियां, डिब्बे आदि लेकर टैंकरों का बेसब्री से इंतजार करते हैं और उसे देखते ही टूट पड़ते हैं। ऐसे में कौन-कब-किस पर गिर पड़े और वहां लड़ाई-झगड़े की स्थिति पैदा हो जाए कोई नहीं कह सकता।
दरअसल, भूजल के भंडारों को पुनजीर्वित करने का काम नदियां करती हैं, लेकिन आज नदियां ही सूख गई हैं। कई जगह नदियां नालों में तब्दील हो गई हैं। नदियों में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया है कि भूजल भंडार भी इसकी चपेट में आ गए हैं। इसलिए जल जनित बीमारियों की संख्या भी बढ़ी है। यूएन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 21 प्रतिशत बीमारियां जल जनित होती हैं।
पानी के संकट को देखते हुए यदि ऐसा कहा जा रहा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा तो यह गलत नहीं है। बल्कि मुङो तो लगता है पानी के लिए झगड़े की शुरुआत हो चुकी है। गली-मोहल्लों में पानी के लिए टैंकर के इंतजार में खड़े लोगों में तू-तू मैं-मैं आम चीज है। राजस्थान में पानी की लड़ाई में 15 लोग जान गंवा चुके हैं। ऐसी स्थिति दुनिया के अन्य हिस्सों में भी है।
पानी के इस बढ़ते संकट के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि विकास के नाम पर सरकारों ने पानी की जो परियोजनाएं चलाईं, उससे उसका मूल स्रोत बिगड़ा। दूर-दूर से पानी लाकर शहरों को देने और बांध बनाने की जो नीति सरकार के अपनाई, उससे पानी का विकें्िरत प्रबंधन समाप्त हो गया और इसका स्थान कें्रीकृत प्रबंधन ने ले लिया। ऐसा करके सरकार ने एक तरह से समाज को इसकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया, जबकि पानी का बेहतर प्रबंधन सामुदायिक तरीके से ही हो सकता है। पहले ऐसा होता भी था। तब लोग जल संचयन के जोहड़ों का निर्माण करते थे। लेकिन जबसे सरकार ने इसका प्रबंधन अपने जिम्मे लिया, जोहड़ उपेक्षित रह गए और अंतत: सूख गए।
दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह है कि आजादी के बाद हमने पानी के पर्यावरणीय प्रवाह का हिसाब-किताब नहीं रखा। सरकार ने तय तो यह कर रखा है कि लोगों तक पीने का पानी पहुंचाना उसकी प्राथमिकता होगी, लेकिन पानी पहुंचाए जाते हैं उद्योगों को, खेती को। औद्योगिक जरूरतों के साथ-साथ कृषि कार्य के लिए भी भूमिगत जल का ही दोहन होता है।
बढ़ते जल संकट का तीसरा महत्वपूर्ण कारण लोगों द्वारा इसका अनुशासित उपयोग नहीं करना है। अक्सर लोग नलके खुला छोड़ ब्रश करना शुरू कर देते हैं। नहाने-कपड़े धोने के लिए बाल्टियों पानी का इस्तेमाल करते हैं। रास्तों और सार्वजनिक स्थलों पर लोगों के लिए लगाए गए नलके अक्सर खुले पाए जाते हैं। बहुत कम लोग आगे बढ़कर उसे बंद करने की जहमत उठाते हैं।
यदि यही स्थिति जारी रही और यूं ही भूमिगत जल का दोहन होता रहा तो आने वाले दिनों में स्थिति और बिगड़ेगी। इसलिए हमें अभी से इसके संरक्षण के उपाय सोचने होंगे। सबसे पहले तो हमें नदी और सीवर को अलग कर देने की जरूरत है। कई जगह सीवरों को नदियों में मिला दिया गया है, जिससे प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। यमुना इसका उदाहरण है। इसके अतिरिक्त हमारे यहां सबसे अधिक भूमिगत जल का दोहन कृषि कार्यो के लिए होता है। इसे नियंत्रित करने की जरूरत है। कृषि एवं उद्योगों के लिए सीवरों के पानी का इस्तेमाल होना चाहिए, न कि भूमिगत जल का। भूमिगत जल का उपयोग केवल पीने के पानी के लिए किया जाना चाहिए।
नदियों के किनारे सीमेंट और कंक्रीट के जंगल बनाने के बजाय हमें ऐसे पेड़-पौधे लगाने चाहिए, जिससे भूमि का कटाव रुके। साथ ही लोगों को पानी के अनुशासनात्मक इस्तेमाल के लिए प्रेरित करना होगा। इसके लिए नियम-कायदे-कानून बनाने की भी जरूरत है। इसके अलावा सरकार ने पानी के प्रबंधन की जो कें्रीकृत नीति शुरू की है, उसे बदलने की जरूरत है। पानी के प्रबंधन के लिए सामुदायिक विकें्रीकरण को बढ़ावा देना होगा और जनमानस को वर्षा जल संचयन से जोड़ना होगा।

(राजें्र सिंह से बातचीत पर आधारित)

बांड बाला बड़ी बात


फ्रीडा पिंटो की अभी फिल्मी उम्र ही क्या है! बस एक मशहूर फिल्म। लेकिन वे अहर्निश चालू रहने वाले अफवाह कारखाने में भरपूर जगह पा गई हैं। पहले देव पटले के साथ रोमांस के चर्चे और अब जेम्स बांड फिल्मों के ऑफर की बात। सब कुछ इस तरह बताया गया कि लोग हैरत खा गए। फीस भी पच्चीस करोड़ रुपए। फिर आया सच कि ऐसा कोई करार नहीं। अखबारों ने भी लिखा, यह काई कम बड़ी बात नहीं कि बांड फिल्म के लिए नाम चला। यह वैसे ही कि आस्कर भले न मिले उसके लिए नामांकित होना ही बड़ी बात। आगे-आगे देखते रहिए फ्रीडा को।

फ्रीडा पिंटो, बॉलीवुड की उभरती अदाकारा। एक ऐसी अभिनेत्री, जिन्होंने अपनी पहली ही फिल्म से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। बहुत कम अभिनेता-अभिनेत्रियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होने का ऐसा मौका मिला। बचपन से ही अभिनेत्री बनने का सपना देखने वाली फ्रीडा ने भी शायद ही अपने करियर की ऐसी शानदार शुरुआत की कल्पना की हो। लेकिन एक बार जब कामयाबी मिली तो फिर अभी उनके पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं है।
हाल ही में फ्रीडा का नाम ‘बांड गर्लज् के रूप में सामने आया। किसी भी अदाकारा का सपना होता है यह किरदार निभाना। चर्चा जोरों पर थी कि फ्रीडा ने इस किरदार के लिए हामी भर दी है। पर्दे पर वे हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता डेनियर क्रेग, जो लाखों हसीनाओं के दिल की धड़कन हैं, के साथ रोमांस करती नजर आएंगी। यह भी कहा गया कि उहोंने इसके लिए करोड़ों रुपए का करार किया है। लेकिन फ्रीडा के प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि उन्होंने ऐसा कोई करार नहीं किया है। वे क्रेग के साथ ‘बांड गर्लज् के रूप में कोई किरदार नहीं करने जा रही हैं। पर साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ‘बांड गर्लज् के रूप में चर्चा पाना भी किसी कामयाबी से कम नहीं है। वह भी ऐसी अभिनेत्री के लिए जिसकी उम्र महज 26 साल हो और जिसने अपने फिल्मी करियर की अभी-अभी शुरुआत की हो।
सच है, यह कामयाबी सभी अभिनेत्रियों को नहीं मिलती। बॉलीवुड से यह कामयाबी अब तक किसी अभिनेत्री को नहीं मिली है। अगर ‘बांड गर्लज् के रूप में फ्रीडा के होने की चर्चा सच होती तो यह कामयाबी पाने वाली वे बॉलीवुड की पहली अभिनेत्री होतीं। इससे पहले ‘बांड गर्लज् के रूप में पूर्व मिस वर्ल्ड और बॉलीवुड की सफल अभिनेत्री ऐश्वर्य राय का नाम सामने आया था। लेकिन वह भी मात्र अफवाह साबित हुई।
बतौर अभिनेत्री ‘स्लमडॉग मिलिनियरज् फ्रीडा की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होंने झुग्गी में रहने वाले और बाद में एक टीवी शो के जरिये करोड़ों रुपए जीतने वाले जमाल की प्रेमिका लतिका का किरदार निभाया था। यह फिल्म उनके करियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। डेनी बॉयल निर्देशित इस फिल्म ने ऑस्कर, ग्लोडन ग्लोब, बाफ्टा जसे कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में अवार्ड जीते। फ्रीडा हर समारोह में मौजूद रहीं और अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराती रहीं।
इस फिल्म में बेहतरीन अदाकारी के लिए उन्हें स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड अवार्ड मिला। पाम स्प्रिंग्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उन्होंने सफल प्रदर्शन का अवार्ड जीता। बाफ्टा अवार्ड के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के रूप में नामांकित किया गया। हालांकि वे यह अवार्ड जीत नहीं पाईं, लेकिन शुरुआती फिल्म से ही नामांकन की कामयाबी भी कम करके नहीं आंकी जा सकती। एमटीवी ने भी उन्हें कई श्रेणियों में अवार्ड के लिए नामांकित किया।
एक बार जब कामयाबी मिली उसका सिलसिला आज तक जारी है। आज उनकी झोली में कई फिल्में हैं, जिनमें से ज्यादातर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हैं। हाल ही में उन्होंने हॉलीवुड के ख्याति प्राप्त निर्माता-निर्देशक जूलियन श्नाबेल की फिल्म ‘मिरालज् की शूटिंग पूरी है। वूडी एलन की फिल्म ‘यू विल मीट अ टॉल डार्क स्ट्रेंजरज् में भी वे कई नामचीन हस्तियों के साथ काम कर रही हैं, जिसमें बॉलीवुड के अभिनेता अनुपम खेर भी हैं।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई पत्र-पत्रिकाओं ने बॉलीवुड की इस अदाकारा को सबसे खूबसूरत और स्टाइलिस्ट अभिनेत्री बताया है। आस्कमेन डॉट कॉम ने उन्हें पुरुषों की पसंदीदा महिला बताया है, तो डेली टेलीग्राफ के अनुसार इस समय वे बॉलीवुड में सबसे अधिक मेहनताना पाने वाली अभिनेत्री हैं। उनके ड्रेसिंग सेंस की भी खूब तारीफ हुई।
‘स्लमडॉग मिलिनियरज् ने फ्रीडा को व्यावसायिक कामयाबी दी तो उनकी निजी जिंदगी को भी प्रभावित किया। पिंटो ने, जो फिल्म साइन करने से पहले ही अपने बचपन के दोस्त रोहन अंटाओ से सगाई कर चुकी थीं, फिल्म की कामयाबी के बाद करियर का हवाला देकर सगाई तोड़ दी। इस बीच उन्हें कई जगह फिल्म के अभिनेता देव पटेल के साथ देखा गया। चर्चा जोरों पर रही कि देव के साथ उनका रोमांस चल रहा है।
अट्ठारह अक्टूबर, 1984 को मुंबई में एक मंगलोरियन कैथोलिक परिवार में जन्मी फ्रीडा पांच साल की उम्र से ही फिल्म अभिनेत्री बनने का सपना देखा करती थीं, जबकि इस उम्र में बच्चे आम तौर पर खेलकूद में मशरूफ रहते हैं। 1994 में सुष्मिता सेन के मिस यूनीवर्स बनने की घटना ने फ्रीडा के जीवन और सपनों को गहरे ढंग से प्रभावित किया। तब उनकी उम्र केवल दस साल थी। हालांकि घर का माहौल फिल्मी बिल्कुल नहीं था। मां गोरेगांव के एक स्कूल में प्रिंसिपल थीं तो पिता बैंक में मैनेजर और बहन एक प्रसिद्ध समचार चैनल में एसोसिएट प्रोड्यूसर। लेकिन फ्रीडा तो दिन-रात फिल्मों के सपने देखती थी। मलाड के सेंट जोसेफ स्कूल से शुरुआती शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में बीए की डिग्री ली। इस दौरान वे रंगमंच से भी जुड़ी रहीं और कई नाटकों में अभिनय किया। वे बेहतरीन नृत्यांगना भी हैं। खासकर सालसा नृत्य में उन्हें महारत हासिल है।
फ्रीडा ने अपने करियर की शुरुआत मॉडल के रूप में की। कॉलेज खत्म होने के बाद वे प्रसिद्ध मॉडलिंग एजेंसी ‘एलीट मॉडल मैनेजमेंटज् से जुड़ीं और करीब ढाई साल तक उसके लिए मॉडलिंग की। ‘स्लमडॉग मिलिनियरज् साइन करने से पहले उन्होंने टेलीविजन और पिंट्र मीडिया के लिए कई उत्पादों की मॉडलिंग की। उनका मॉडलिंग करियर करीब चार साल का रहा, जिस दौरान उन्होंने कई शो में रैंप पर चहलकदमी की और कई पत्रिकाओं के कवर पेज पर छपीं। बेरी जॉन के अंधेरी स्थित एक्टिंग स्टूडियो से उन्होंने अभिनय की तालीम भी ली, जहां उन्हें स्वयं प्रसिद्ध थिएटर निर्देशक बेरी जॉन ने प्रशिक्षित किया। यह अभिनय की दुनिया में उनके संघर्ष के दिन थे। तभी डेनी बॉयल ने अपनी फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियरज् के लिए ऑडीशन टेस्ट लेने की घोषणा की। फ्रीडा ने भी किस्मत आजमाई और लगभग छह महीने के ऑडीशन के बाद वे चुन ली गईं, लतिका के किरदार के लिए।

रविवार, 21 मार्च 2010

वही कसक, छह दशक


अल्पसंख्यकों के साथ दलित राजनीति भी हमारी चुनाव रणनीति का अभिन्न हिस्सा। दलितों समेत कमजोर/वंचितों के लिए कई कदम उठाए गए। उनके नेताओं को सत्ता भी मिली, लेकिन संतोष करने लायक कुछ नहीं बदला। दलित आज भी वंचित और दमित हैं।
बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर आजाद भारत में दलितों के लिए भी वही स्थान चाहते थे, जो उच्च जाति को बहुत पहले से प्राप्त था। वे जानते थे कि सदियों से पिछड़े व शोषित दलित आजाद भारत में और हाशिये पर जा सकते हैं। उनका यह भी मानना था कि जब तक दलितों को राजनीतिक सत्ता नहीं मिलती, उनका उत्थान संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने संविधान में दलितों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। हालांकि पहले यह केवल दस साल के लिए तय किया गया और लक्ष्य रखा गया कि इन दस सालों में दलित राजनीतिक ताकत हासिल कर लेंगे। लेकिन बाबा साहब का यह सपना आजादी के साठ दशक बाद भी पूरा नहीं हुआ और आरक्षण का प्रावधान हर दस साल पर बढ़ता रहा।
हालांकि इस बीच मायावती, राम विलास पासवान जसे कुछ दलित नेता उभरकर सामने आए और उन्होंने सत्ता भी हासिल की, लेकिन दलितों की स्थिति में जिस सुधार की उम्मीद थी, वह नहीं हुई। आजादी के इन साठ सालों में देश के विकास से जितना फायदा समाज की अगड़ी जातियों को हुआ, उतना दलितों को नहीं हुआ। आज भी वे हाशिये पर हैं। संविधान में उनके लिए अनिवार्य व नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होने के बावजूद उनमें शिक्षा की दर काफी कम है।
दलितों में शिक्षा के स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में जितने भी अशिक्षित लोग हैं, उनमें 95 प्रतिशत दलित हैं। दलितों में, जिनकी संख्या देश में तकरीबन 25 करोड़ है और जो हमारी कुल आबादी का 24.4 प्रतिशत हैं, पुरुषों की साक्षरता दर 31.48 प्रतिशत और महिलाओं की 10.93 फीसदी है। साफ है कि संविधान में उनके शैक्षणिक उत्थान के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, उसका पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल रहा। इसकी कई वजह है, जिनमें से एक प्रमुख वजह उनके भीतर घर कर गई सामाजिक असुरक्षा की भावना है। ऊंची जातियों के शोषण से डरा-सहमा समाज का यह तबका आज भी अपने बच्चों को स्कूल भेजते समय एक अनजाने डर से ग्रस्त रहता है। कई इलाकों में दलित महिला कर्मियों ने ऊंची जाति के अपने पुरुष सहकर्मियों के खिलाफ छेड़खानी, शोषण या उन्हें परेशान करने की शिकायत की है। आज भी तकरीबन 80 प्रतिशत दलित देश के दूर-दराज व ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य जसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। तकरीब 60 प्रतिशत दलित आज भी भूमिहीन हैं, जबकि लगभग 37 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं। दलित बच्चों में कुपोषण की दर 54 फीसदी तक है, जिनमें से 21 प्रतिशत का वजन स्वास्थ्य के लिए निर्धारित मापदंड से काफी कम है, जबकि कुपोषण के कारण 12 प्रतिशत दलित बच्चों की मौत पांच साल से पहले हो जाती है।
छुआछूत को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद उनके साथ अछूतों का व्यवहार समाप्त नहीं हुआ है। खासकर, ग्रामीण इलाकों में और दक्षिणी राज्यों में इसका प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। आज भी उन्हें स्कूलों व ग्राम सभाओं की बैठक में एकसाथ बैठने की अनुमति नहीं है। मंदिरों, धर्मशालाओं और थानों में उनका प्रवेश वर्जित है। डॉक्टर उन्हें स्वास्थ्य सेवा देने से मना कर देते हैं। डाकिये भी उनके गांवों में डाक पहुंचाने से इनकार कर देते हैं। यहां तक कि मौत के बाद भी उन्हें समानता का हक नहीं मिलता। उन्हें न तो सार्वजनिक रास्तों के इस्तेमाल की अनुमति होती है और न ही सार्वजिक श्मशान के इस्तेमाल की। आंकड़ों के मुताबिक करीब 37.8 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में दलित और ऊंची जाति के बच्चे भोजन के समय अलग-अलग बैठते हैं। ये सब आजाद भारत का ऐसा सच है, जिसे शहरों में बैठे नहीं देखा जा सकता, जहां जाति बंधन धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा है।
देश के आर्थिक विकास में इस वर्ग का अहम योगदान है। खासकर कृषि क्षेत्र में, जहां ज्यादातर मजदूर दलित ही होते हैं। लेकिन विकास की दौड़ में वे स्वयं काफी पीछे रह गए हैं। भूस्वामियों द्वारा उनका शोषण किसी से छिपा नहीं है। दिनभर खेतों में काम करने के बाजवूद उन्हें नाममात्र का वेतन दिया जाता है। कार्य सहभागिता दर दलित महिलाओं की 25.98 फीसदी तो पुरुषों की 22.25 प्रतिशत है, लेकिन आज भी उनके श्रम का इस्तेमाल आम तौर पर चमड़ा उद्योग, बीड़ी उद्योग जसे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और बुनकर, मेहतर, कारीगर के रूप में ही होता है, जहां उनका जमकर आर्थिक शोषण होता है।
तमाम संवधानिक सुरक्षा के बावजूद दलितों का शोषण और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश नहीं लग रहा। आंकड़ों पर यकीन करें तो प्रतिदिन करीब तीन दलित महिलाएं बलात्कार की शिकार होती हैं, जबकि दो दलितों की हत्या कर दी जाती है और इतने के ही घर जला दिए जाते हैं। करीब ग्यारह दलित प्रतिदिन पीटे जाते हैं। दरअसल, हमारा सामाजिक ताना-बाना ही कुछ इस तरह का है कि संवैधानिक प्रावधान उसके सामने बौने हो जाते हैं। पुलिस-प्रशासन सब जाति-व्यवस्था के आगे बेबस हो जाते हैं। दलितों की स्थिति में यदि वास्तव में सुधार लाना है, तो हमें सबसे पहले इस सामाजिक ताने-बाने को बदलना होगा और दलितों में शिक्षा का स्तर व जागरुकता बढ़ानी होगी, जिसकी बात बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने भी कही थी। तभी वास्तव में उनका विकास हो पाएगा और आजाद भारत में उन्हें वह स्थान मिलेगा, जिसका सपना बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने देखा था। हालांकि 1960 के दशक में भू सुधार आंदोलन लागू होने के बाद दलितों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। उनमें अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता भी आई है, जिसकी वजह से समाज के कुछ हिस्सों से ही सही छुआछूत जसी कुरीतियां मिटने लगी हैं। दलित अब समाज में अपने हक के लिए आवाज उठाने लगे हैं। लेकिन आज भी उनके उत्थान के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

एक मकसद मुइवा


थुइंगलेंग मुइवा नगा जनजातियों के नेता हैं। उन पर लोगों का जबरदस्त भरोसा है। वे प्रतिबंधित नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम के इसाक-मुइवा धड़े के महासचिव हैं। कई दशकों से वे वृहत्तर नगालैंड के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इससे कम पर वे राजी नहीं। वे गांधी और अहिंसा को आदर्श मानते हैं, लेकिन अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने हथियार उठाए। उनका यकीन माननवाधिकारों पर है, लेकिन उनके संगठन के हाथों मारे जाने वाले भारतीय फौजियों को वे इसकी परिधि से बाहर रखते हैं। उन्हें संतोष है कि भारत सरकार भी अब उनकी ताकत और उनके जज्बे को भांपकर समझने लगी है कि इस मामले का समाधान सैनिक कार्रवाई से नहीं हो सकता।

थुइंगलेंग मुइवा, प्रतिबंधित संगठन नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा (आईएम) धड़े के महासचिव हैं। एनएससीएन-आईएम, जो उत्तर-पूर्वी राज्यों में पिछले करीब छह दशक से वृहत्तर नगालैंड की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा है। मुइवा नगा जनजातियों के सर्वाधिक विश्वसनीय नेता हैं। उन पर लोगों को भरोसा है कि वे उनकी संप्रभुता की मांग से कोई समझौता नहीं करेंगे। संप्रभुता भी वृहत्तर नगालैंड की, जिसमें नगालैंड के अलावा आसपास के राज्यों और म्यांमार में रहने वाले नगा जनजाति के लोग भी शामिल होंगे।
मुइवा को नगा स्वतंत्रता और संप्रभुता से कम कुछ भी स्वीकार नहीं। वे न खुद को और न ही नगा लोगों को भारत का हिस्सा मानते हैं। इसलिए उनका विश्वास भारतीय लोकतंत्र में भी नहीं है, हालांकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनका यकीन है। नगालैंड में उनकी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ नगालैंड नाम से समानांतर सरकार है, जो नगा जनजातियों के लिए सभी प्रशासनिक कामकाज देखती है। यह सरकार जनता से टैक्स भी वसूलती है और उससे उनके लिए सुविधाएं जुटाती है। वे नगा स्वाधीनता के लिए भारत सरकार अधिनियम, 1935 का हवाला देते हैं, जिसमें नगा हिल्स को ब्रिटिश इंडिया से बाहर रखने की बात कही गई थी।
मुइवा, जो महात्मा गांधी को पढ़ते हुए बड़े हुए और उनके अहिंसा व सविनय अवज्ञा आंदोलन जसे सिद्धांतों को आदर्श बताते हैं, लेकिन नगा समस्या के समाधान के लिए इन्हें कारगर नहीं मानते। यही वजह रही कि उन्होंने हथियार उठा लिया और लोगों को भारतीय सेना के खिलाफ लामबंद किया। उनका कहना है कि नगा स्वभाव से शांति प्रिय लोग हैं, लेकिन भारत सरकार ने नगालैंड में सेना भेजकर जो दमनचक्र चलाया, उसके बाद लोगों के पास हथियार उठाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया। मुइवा आज भी गांधी के उस आश्वासन को याद करते हैं, जो उन्होंने नगा स्वतंत्रता के पक्ष में दिया था और जिससे लोगों को भरोसा हो चला था कि इस समस्या का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से निकाला जाएगा। लेकिन उनकी हत्या के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शांतिपूर्ण समाधान के सभी रास्ते बंद कर दिए। वहां सेना भेज दी गई, लोगों के घर जला दिए गए, महिलाओं की अस्मत पर हमला हुआ, जिसके बाद लोगों को जंगलों में भागकर जान बचानी पड़ी। ऐसे ही लोगों में मुइवा का परिवार भी था।
यहीं से शुरू हुआ मुइवा का संघर्ष। नगा स्वतंत्रता का संघर्ष, नगा जनजातियों के लिए सम्मान का संघर्ष, आत्म निर्णय का संघर्ष। जब सेना के कहर से उनके परिवार को जंगल का रुख करना पड़ा, मुइवा की उम्र बहुत छोटी थी। लेकिन इस घटनाक्रम ने किशोर मुइवा के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी। अन्य नगा जनजातीय परिवारों की भांति ही उनका परिवार भी गरीबी से जूझ रहा था। माता-पिता अशिक्षित थे, लेकिन ईसाई धर्म में उनकी गहरी आस्था थी, जिससे उन्हें हर संकट से उबर जाने की ताकत मिलती रही। मुइवा माता-पिता से ईसा मसीह की कहानियां सुनकर बड़े हुए। इन कहानियों ने किशोर मुइवा के मन पर अमिट छाप छोड़ी। क्रिश्चनिटी में उनकी आस्था इतनी गहरी हो गई कि ‘नगालिम फॉर क्राइस्टज् और ‘नगालैंड फॉर क्राइस्टज् उनके आंदोलन का नारा बन गया।
इस बीच, उन्होंने गांधी, माओत्से तुंग, मार्क्स, लेनिन सहित दुनिया के कई बड़े नेताओं को पढ़ा। उनके दर्शन को समझा, जिससे सेना के दमन के खिलाफ और नगालैंड की स्वतंत्रता के लिए उनके संघर्ष को बल मिलता रहा। मुइवा आज करीब 68 साल के हो चुके हैं, लेकिन उनका संघर्ष अब भी खत्म नहीं हुआ है। नगालैंड के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने जीवन के 27 साल जंगलों में बिता दिए। पिछले करीब तीन साल से वे भारत से बाहर आम्सटर्डम में थे। लेकिन उन्हें संतोष इस बात है कि पिछले करीब छह दशक का उनका संघर्ष रंग लाया। जो भारत सरकार कभी कहा करती थी कि नगा संघर्ष को कुचलने के लिए सेना को महज कुछ दिन लगेंगे, वह अब मानने लगी है कि नगा समस्या का सैनिक समाधान नहीं हो सकता।
मुइवा की वृहत्तर नगालैंड की अवधारणा माओत्से तुंग की विचारधारा पर आधारित है। वे वृहत्तर नगालैंड में एक ऐसा समाजवाद चाहते हैं, जिसमें सभी के लिए समान आर्थिक विकास हो। लेकिन राज्य का स्वरूप वे धार्मिक रखना चाहते हैं, जो ईसाई आस्था पर आधारित होगा। वृहत्तर नगालैंड की लड़ाई के लिए ही उन्होंने जनवरी 1980 में इशाक कीसी सू के साथ मिलकर एनएससीएन बनाया था, जब नगा स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहे नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) ने 1975 में भारत के साथ ‘शिलांग समझौताज् कर भारतीय संविधान को स्वीकार कर लिया और अपने हथियार छोड़ दिए। मुइवा ने इसे नगा लोगों के साथ धोखा करार दिया। हालांकि मुइवा के एनएससीएन में भी एकजुटता नहीं रह सकी और एसएस खपलांग के नेतृत्व में एक गुट 1988 में इससे अलग हो गया।
थाइलैंड, म्यांमार, चीन से उनके बेहतर संबंध हैं और उनका कहना है कि यह उनकी राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मुइवा नगा समस्या के शांतिपूर्ण समाधान की बात करते हैं, लेकिन एनएनसी की तरह हथियार छोड़ना उन्हें मंजूर नहीं है। उनका साफ कहना है कि नगा समस्या के पूर्ण समाधान तक उनके नेतृत्व में एनएससीएन शस्त्र, स्वतंत्रता और अपनी भूमि कभी नहीं छोड़ेगा। मुइवा नगालैंड की चुनी हुई सरकार को कठपुतली सरकार मानते हैं।
उनका मानवाधिकारों में यकीन है, लेकिन नगा व्रिोहियों द्वारा सेना के जवानों की हत्या को वे मानवाधिकारों की परिधि से बाहर मानते हैं। उनका मानना है कि नगालैंड में भारतीय सेना की उपस्थिति अवैध है और वे स्थानीय लोगों के मानवाधिकारों का हनन करते हैं। लेकिन संघर्ष में सेना के जो जवान मारे जा रहे हैं, वे नगा सेना के हाथों जान गंवा रहे हैं। मतलब यह एक सेना की दूसरी सेना से लड़ाई है। किसी के मानवाधिकारों का हनन नहीं।

क्या इतिहास बनाएगा महिला दिवस!


एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश होने को तैयार है। तेरह वर्षो से टलते आए इस विधेयक को लेकर सरकार इस बार आशान्वित है। उसे भाजपा और वाम दलों का समर्थन प्राप्त है। महिला दिवस पर यह पेश होगा। अगर यह पारित हो जाता है, तो यह एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घटना होगी। भारतीय महिलाओं के लंबे संघर्ष की सबसे बड़ी सफलता।

कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश होने को तैयार है। बहुमत की दृष्टि से देखा जाए तो इसके पारित होने में कोई परेशानी नजर नहीं आती। कांग्रेस, भाजपा और वाम दलों का समर्थन इसे हासिल है, लेकिन राजद, सपा के साथ-साथ बसपा भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के अंदर दलित व पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करके इसमें अड़ंगा लगाने की तैयारी में है। पिछले करीब डेढ़ दशक से यह विधेयक आम सहमति के अभाव में लटका पड़ा है। सरकार चाहे भाजपा की रही हो या कांग्रेस की, कई विधेयक बहुमत के आधार पर पारित कराए गए, लेकिन यह एक मात्र विधेयक है, जिसे आम सहमति से पारित कराने की बात कहकर लगातार टाला जा रहा है।
इस बार हालांकि इसके पारित हो जाने की संभावना दिखती है। माहौल पूरी तरह इसके पक्ष में है। महंगाई के मुद्दे पर एकजुट हुआ विपक्ष इस मुद्दे पर अलग-थलग नजर आता है। भाजपा और वाम दल इस विधेयक को पारित कराने के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ नजर आते हैं, लेकिन संशय अब भी बरकार है। कहीं आम सहमति का जिन्न फिर से न बाहर आ जाए और एक बार फिर यह विधेयक संसद में सिर्फ पेश होकर न रह जाए। दअसल, आजादी के पिछले छह दशक में पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के साथ जिस तरह दोयम दज्रे का व्यवहार होता रहा है, उससे इस संशय को और बल मिलता है।
बेशक आजादी के पिछले छह दशक में देश ने कई क्षेत्रों में प्रगति की। महिला सशक्तिकरण की बात भी जोर-शोर से उठाई गई। कई क्षेत्रों में महिलाओं ने कामयाबी के झंडे गाड़े। इस वक्त राष्ट्रपति से लेकर लोकसभा अध्यक्ष तक महिला हैं और अब विपक्ष की नेता सभी महिलाएं हैं। लेकिन यह महिला सशक्तिकरण के सिक्के का एक ही पहलू है। दूसरा पहलू आज भी महिलाओं दयनीय स्थिति को दर्शाता है। चाहे, स्वास्थ्य का मामला हो या शिक्षा का, महिलाओं को कभी बराबरी का हक नहीं मिला। हालांकि संविधान और कानून समानता की बात करते हैं, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर स्थिति बिल्कुल भिन्न है।
महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए सरकार ने दहेज निषेध कानून बनाया; सबको समान शिक्षा मिल सके, इसके लिए शिक्षा के अधिकार का अधिनियम भी पारित किया; महिलाओं को घरेलू हिंसा ने निजात दिलाने के लिए भी कानून बनाए गए, लेकिन इनकी समुचित अनुपालना के अभाव में आज भी प्रति दिन औसतन छह नववधुएं दहेज की भेंट चढ़ती हैं, महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं। समान और नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होने के बावजूद केवल 39 प्रतिशत महिलाएं प्राथमिक स्कूलों का मुंह देख पाती हैं। माता-पिता उन्हें इसलिए स्कूल नहीं भेजते, क्योंकि उन्हें घर के कामकाज में हाथ बंटाना होता है। अधिकांश क्षेत्रों में महिलाएं आज भी पुरुषों के भोजन करने के बाद ही खाना खाती हैं और अगर भोजन कम पड़ जाए तो पुरुषों के खाने के बाद बचे भोजन से ही उसे अपनी भूख मिटानी होती है। फिर उनके स्वास्थ्य की फिक्र कौन करे? यहां बराबरी का कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। देश के कई क्षेत्रों में कन्या भ्रूण की पहचान कर गर्भ में ही उनकी हत्या कर दी जाती है।
महिला आरक्षण विधेयक भी महिलाओं के प्रति पुरुष प्रधान राजनीति के इसी दोयम दज्रे के रुख का शिकार हुआ है। अब तक इस पर सिर्फ राजनीति की जाती रही है, इसे पारित कराने को लेकर किसी भी राजनीतिक दल या सरकार में इच्छाशक्ति नजर नहीं आई। संयुक्त मोर्चा और भाजपा की सरकार ने बारी-बारी से इसे संसद में पेश तो किया, लेकिन आम सहमति का हवाला देकर इसे पारित होने से रोके रखा। 2004 में सत्ता में आने के बाद कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने इसे अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल किया। लेकिन यूपीए सरकार इसे संसद में पेश करने में नाकाम रही। दूसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद यूपीए सरकार इसे संसद में पेश करने और पारित करने की तैयारी में है। हालांकि इस पर उसे भाजपा और वाम दलों का साथ तो है, लेकिन मुलायम, शरद, लालू के रुख आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग को लेकर बेहद कड़े हैं। विधेयक का हश्र पहले की तरह होगा या इस बार कुछ नया, यह तो आठ मार्च के बाद ही पता चलेगा, जब इसे राज्यसभा में पेश किया जाएगा।


अड़ंगा-दर-अड़ंगा
सबसे पहले सितंबर, 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल में विधि मंत्री रमाकांत डी खालप ने इसे लोकसभा में पेश किया। लेकिन मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद ने आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग कर इसे पारित होने से रोक दिया। जून, 1998 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में भी इसे पेश किया गया, लेकिन बात नहीं बनी। नवंबर, 1999 में राजग सरकार ने इसे एक बार फिर लोकसभा में पेश किया, लेकिन कांग्रेस और वाम दलों के समर्थन के लिखित आश्वासन के बावजूद यह पारित नहीं हो सका। वर्ष 2002 और 2003 में भी इसे लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला रहा।

बुधवार, 3 मार्च 2010

दर-बदर अब कतर


कैसी विडंबना है! महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन अब ‘भारतीय मूलज् के रह गए। अब वे कतर के नागरिक हो जाएंगे। कई साल से वे मजबूरी में अपने देश से बाहर रह रहे थे। उस देश से जिसको वे बेहद प्यार करते हैं और जहां पर रहकर और काम करके ही वे और उनकी कला दुनियाभर में मकबूल हुई। लेकिन संस्कृति के ठेकेदार हिंदू कट्टरपंथियों को तब तक चैन नहीं आया जब तक वे देश छोड़कर नहीं चले गए। यहां इन फासीवादी ताकतों ने उन पर हरसंभव हमला किया। ताज्जुब की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वोट बटोरने वाली सरकार उस कलाकार को सुरक्षा और निर्द्वद्व काम करने का वातावरण देने का ठोस भरोसा नहीं दे सकी। अब जब कतर ने उन्हें खुद अपनी नागरिकता देने का प्रस्ताव किया है तो सरकार फिर कह रही है कि उन्हें सुरक्षा दी जाएगी।

मकबूल फिदा हुसैन, दुनिया के मशहूर पेंटर और सबसे महंगे भी। लेकिन उतने ही विवादास्पद। वे फिल्मकार भी हैं। फिल्मों का उन्हें नशा ही है। ‘गजगामिनीज् और ‘मिनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीजज् जसी फिल्में उन्होंने बनाईं। लेकिन उनकी डॉक्यूमेंट्री ‘थ्रू द आईज ऑफ अ पेंटरज् को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन बीयर पुरस्कार मिला।
जिस कला ने उन्हें दुनियाभर में चर्चित किया, एक पहचान दी, उसी से वे विवादों में आए। विवाद भी इतने गहरे कि उन पर एक हजार से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हो गए। कुछ अतिवादी संगठनों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी, आखें फोड़ डालने और उन हाथों को काट डालने की धमकी दी, जिससे वे कैनवास पर रंग उकरते हैं। विभिन्न मामलों की सुनवाई के दौरान अदालतों ने कई बार उन्हें समन जारी किया, लेकिन वे उपस्थित नहीं हुए। ऐसे में उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी हो गया और गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्हें देश छोड़ना पड़ा।
हालांकि निर्वासन का विकल्प उन्होंने खुद चुना, लेकिन ऐसा उन्होंने स्वेच्छा से नहीं, मजबूरन किया। ‘भीड़तंत्रज् के खौफ से देश छोड़ने की टीस उनके मन में हमेशा रही और यह भी कि सरकार ने उनकी सुरक्षा के लिए कुछ विशेष नहीं किया। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में उनके खिलाफ जारी गिरफ्तारी वारंटों को निलंबित कर दिया था, लेकिन उनका खौफ अब भी बरकरार है, जो कानून अपने हाथ में लेकर घूमते हैं और कला-संस्कृति को अपनी जागीर समझते हैं। शायद यही वजह है कि हुसैन की देश वापसी नामुमकिन-सी हो गई है।
उन्हें चर्चा में रहने का भी कम शौक नहीं है। इस समय वे एक बार फिर चर्चा में हैं, लेकिन इस बार उनकी चर्चा किसी पेंटिंग या फिल्म को लेकर नहीं है, बल्कि उनकी नागरिकता को लेकर है। जहां जन्मे, पले-बढ़े, वहां से उनकी कला को तो पहचान मिली, लेकिन उन्हें सुरक्षा नहीं मिली। अतिवादी संगठनों की धमकियों और कानूनी उलझनों ने उन्हें देश से दूर कर दिया। लेकिन आज जबकि 95 वर्ष की उम्र में कतर उन्हें अपनी नागरिकता से नवाज रहा है और उनके हमेशा के लिए देश से दूर जाने का अंदेशा हो गया है, तो देश में हलचल मची है। सरकार देश वापसी पर उन्हें पूरी सुरक्षा मुहैया कराने को कह रही है, तो कला प्रेमियों में इस बात को लेकर नाराजगी है कि एक कलाकार की सुरक्षा को लेकर इतनी असंवेदनशीलता क्यों? इतनी देर क्यों? सरकार के रवैये पर कला प्रेमी और हुसैन प्रेमी अपनी शर्मिदगी का इजहार कर रहे हैं।
हुसैन अपनी कला की प्रयोगधर्मिता के लिए जाने जाते हैं। पेंटिंग से लेकर फिल्म निर्माण तक में उन्होंने नित-नए प्रयोग किए और सफल भी हुए। यही वजह रही कि किसी ने उन्हें भारत का जीवित किंवदंती कहा, तो अमेरिका की फोर्ब्स मैगजीन ने ‘भारत का पिकासोज्। वे दुनियाभर में कला के क्षेत्र में एक आइकॉन बन चुके हैं। लेकिन अब शायद हम उन्हें गर्व से ‘अपनाज् नहीं कह सकेंगे। उनकी सुरक्षा को लेकर सरकार की उदासीनता और अतिवादियों का खौफ हमारे इस पिकासो और जीवित किंवदंती को हमसे दूर कर रहा है।
हुसैन की पेंटिंग में मानवीय स्थिति का चित्रण होता है और यही उनकी खासियत भी है। अपनी फिल्मों के जरिए भी उन्होंने यही दिखाने की कोशिश की। उन्होंने महाभारत और रामायण से प्रेरणा लेकर सैकड़ों चित्र बनाए, जो देश-विदेश में खूब बिके। लेकिन उनके बनाए हिंदू देवी-देवताओं के प्रयोगधर्मी चित्रों से हिंदू कट्टरपंथी नाराज हो गए। उनके खिलाफ अश्लीलता फैलाने एवं जान-बूझकर लोगों की भावनाएं आहत करने के कई मामले देशभर की अदालतों में दर्ज हो गए और लोगों का रुख भी उन्हें लेकर आक्रामक हो गया। वैसे, यह आज भी समझ से परे है कि जो चित्र उन्होंने 1970 के दशक में बनाए थे, उसे लेकर विवाद 1996 में क्यों हुआ, जब वे चित्र हिन्दी मासिक ‘विचार मीमांसाज् में प्रकाशित हुए? लोग यह भी भूल जाते हैं कि हुसैन ने डॉ. राममनोहर लोहिया के कहने पर रामायण की कथा पर आधारित चित्रों की श्रंखला बनाई थी। कला की प्रयोगधर्मिता और उसे आधुनिक रूप देने की कोशिश उनके लिए काफी महंगी साबित हुई।
सत्रह सितंबर, 1915 को महाराष्ट्र के पंढरपुर में जन्मे हुसैन ने कामयाबी विरासत में नहीं पाई। वे सिर्फ एक साल के थे, जब मां का साया सिर से छिन गया। शुरुआती दिनों में वे फिल्मी होर्डिग्स की पेंटिंग बनाया करते थे, जिसके लिए उन्हें काफी कम पैसे मिलते थे। एक चित्रकार के रूप में हुसैन को पहचान 1947 में मिली, जब बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की वार्षिक प्रदर्शनी में उनकी पेंटिंग ‘सुनहरा संसारज् को अवार्ड मिला। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1952 में उनकी पहली एकल चित्र प्रदर्शनी ज्यूरिख में लगी। भारत, अमेरिका, यूरोप सहित दुनियाभर में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी, जिसमें उन्होंने कई पुरस्कार जीते। इस बीच उन्हें पद्मश्री (1966) पद्म भूषण (1973) और पद्म विभूपषण (1991) जसे नागरिक सम्मानों से नवाजा गया। 1986 में वे राज्यसभा के लिए भी नामित हुए।