बुधवार, 3 मार्च 2010

दर-बदर अब कतर


कैसी विडंबना है! महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन अब ‘भारतीय मूलज् के रह गए। अब वे कतर के नागरिक हो जाएंगे। कई साल से वे मजबूरी में अपने देश से बाहर रह रहे थे। उस देश से जिसको वे बेहद प्यार करते हैं और जहां पर रहकर और काम करके ही वे और उनकी कला दुनियाभर में मकबूल हुई। लेकिन संस्कृति के ठेकेदार हिंदू कट्टरपंथियों को तब तक चैन नहीं आया जब तक वे देश छोड़कर नहीं चले गए। यहां इन फासीवादी ताकतों ने उन पर हरसंभव हमला किया। ताज्जुब की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वोट बटोरने वाली सरकार उस कलाकार को सुरक्षा और निर्द्वद्व काम करने का वातावरण देने का ठोस भरोसा नहीं दे सकी। अब जब कतर ने उन्हें खुद अपनी नागरिकता देने का प्रस्ताव किया है तो सरकार फिर कह रही है कि उन्हें सुरक्षा दी जाएगी।

मकबूल फिदा हुसैन, दुनिया के मशहूर पेंटर और सबसे महंगे भी। लेकिन उतने ही विवादास्पद। वे फिल्मकार भी हैं। फिल्मों का उन्हें नशा ही है। ‘गजगामिनीज् और ‘मिनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीजज् जसी फिल्में उन्होंने बनाईं। लेकिन उनकी डॉक्यूमेंट्री ‘थ्रू द आईज ऑफ अ पेंटरज् को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन बीयर पुरस्कार मिला।
जिस कला ने उन्हें दुनियाभर में चर्चित किया, एक पहचान दी, उसी से वे विवादों में आए। विवाद भी इतने गहरे कि उन पर एक हजार से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हो गए। कुछ अतिवादी संगठनों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी, आखें फोड़ डालने और उन हाथों को काट डालने की धमकी दी, जिससे वे कैनवास पर रंग उकरते हैं। विभिन्न मामलों की सुनवाई के दौरान अदालतों ने कई बार उन्हें समन जारी किया, लेकिन वे उपस्थित नहीं हुए। ऐसे में उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी हो गया और गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्हें देश छोड़ना पड़ा।
हालांकि निर्वासन का विकल्प उन्होंने खुद चुना, लेकिन ऐसा उन्होंने स्वेच्छा से नहीं, मजबूरन किया। ‘भीड़तंत्रज् के खौफ से देश छोड़ने की टीस उनके मन में हमेशा रही और यह भी कि सरकार ने उनकी सुरक्षा के लिए कुछ विशेष नहीं किया। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में उनके खिलाफ जारी गिरफ्तारी वारंटों को निलंबित कर दिया था, लेकिन उनका खौफ अब भी बरकरार है, जो कानून अपने हाथ में लेकर घूमते हैं और कला-संस्कृति को अपनी जागीर समझते हैं। शायद यही वजह है कि हुसैन की देश वापसी नामुमकिन-सी हो गई है।
उन्हें चर्चा में रहने का भी कम शौक नहीं है। इस समय वे एक बार फिर चर्चा में हैं, लेकिन इस बार उनकी चर्चा किसी पेंटिंग या फिल्म को लेकर नहीं है, बल्कि उनकी नागरिकता को लेकर है। जहां जन्मे, पले-बढ़े, वहां से उनकी कला को तो पहचान मिली, लेकिन उन्हें सुरक्षा नहीं मिली। अतिवादी संगठनों की धमकियों और कानूनी उलझनों ने उन्हें देश से दूर कर दिया। लेकिन आज जबकि 95 वर्ष की उम्र में कतर उन्हें अपनी नागरिकता से नवाज रहा है और उनके हमेशा के लिए देश से दूर जाने का अंदेशा हो गया है, तो देश में हलचल मची है। सरकार देश वापसी पर उन्हें पूरी सुरक्षा मुहैया कराने को कह रही है, तो कला प्रेमियों में इस बात को लेकर नाराजगी है कि एक कलाकार की सुरक्षा को लेकर इतनी असंवेदनशीलता क्यों? इतनी देर क्यों? सरकार के रवैये पर कला प्रेमी और हुसैन प्रेमी अपनी शर्मिदगी का इजहार कर रहे हैं।
हुसैन अपनी कला की प्रयोगधर्मिता के लिए जाने जाते हैं। पेंटिंग से लेकर फिल्म निर्माण तक में उन्होंने नित-नए प्रयोग किए और सफल भी हुए। यही वजह रही कि किसी ने उन्हें भारत का जीवित किंवदंती कहा, तो अमेरिका की फोर्ब्स मैगजीन ने ‘भारत का पिकासोज्। वे दुनियाभर में कला के क्षेत्र में एक आइकॉन बन चुके हैं। लेकिन अब शायद हम उन्हें गर्व से ‘अपनाज् नहीं कह सकेंगे। उनकी सुरक्षा को लेकर सरकार की उदासीनता और अतिवादियों का खौफ हमारे इस पिकासो और जीवित किंवदंती को हमसे दूर कर रहा है।
हुसैन की पेंटिंग में मानवीय स्थिति का चित्रण होता है और यही उनकी खासियत भी है। अपनी फिल्मों के जरिए भी उन्होंने यही दिखाने की कोशिश की। उन्होंने महाभारत और रामायण से प्रेरणा लेकर सैकड़ों चित्र बनाए, जो देश-विदेश में खूब बिके। लेकिन उनके बनाए हिंदू देवी-देवताओं के प्रयोगधर्मी चित्रों से हिंदू कट्टरपंथी नाराज हो गए। उनके खिलाफ अश्लीलता फैलाने एवं जान-बूझकर लोगों की भावनाएं आहत करने के कई मामले देशभर की अदालतों में दर्ज हो गए और लोगों का रुख भी उन्हें लेकर आक्रामक हो गया। वैसे, यह आज भी समझ से परे है कि जो चित्र उन्होंने 1970 के दशक में बनाए थे, उसे लेकर विवाद 1996 में क्यों हुआ, जब वे चित्र हिन्दी मासिक ‘विचार मीमांसाज् में प्रकाशित हुए? लोग यह भी भूल जाते हैं कि हुसैन ने डॉ. राममनोहर लोहिया के कहने पर रामायण की कथा पर आधारित चित्रों की श्रंखला बनाई थी। कला की प्रयोगधर्मिता और उसे आधुनिक रूप देने की कोशिश उनके लिए काफी महंगी साबित हुई।
सत्रह सितंबर, 1915 को महाराष्ट्र के पंढरपुर में जन्मे हुसैन ने कामयाबी विरासत में नहीं पाई। वे सिर्फ एक साल के थे, जब मां का साया सिर से छिन गया। शुरुआती दिनों में वे फिल्मी होर्डिग्स की पेंटिंग बनाया करते थे, जिसके लिए उन्हें काफी कम पैसे मिलते थे। एक चित्रकार के रूप में हुसैन को पहचान 1947 में मिली, जब बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की वार्षिक प्रदर्शनी में उनकी पेंटिंग ‘सुनहरा संसारज् को अवार्ड मिला। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1952 में उनकी पहली एकल चित्र प्रदर्शनी ज्यूरिख में लगी। भारत, अमेरिका, यूरोप सहित दुनियाभर में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी, जिसमें उन्होंने कई पुरस्कार जीते। इस बीच उन्हें पद्मश्री (1966) पद्म भूषण (1973) और पद्म विभूपषण (1991) जसे नागरिक सम्मानों से नवाजा गया। 1986 में वे राज्यसभा के लिए भी नामित हुए।