शनिवार, 5 दिसंबर 2009

बेहतर दुनिया तीन कदम

(देवें्र शर्मा से बातचीत पर आधारित)

जलवायु परिवर्तन के शोर में हम एक गहरे विरोधाभास को नजरअंदाज कर रहे हैं। एक ओर कोपेनहेगन है तो दूसरी तरफ जेनेवा, जहां विश्व व्यापार संगठन व्यापार बढ़ाने का आह्वान कर रहा है। व्यापार बढ़ेगा तो पर्यावरण बिगड़ेगा ही। दरअसल तीन बातें जरूरी हैं- अमेरिकी मॉडल का त्याग, व्यापार में कटौती और लोगों को जागरूक बनाना। हमारे कई संकटों का यही हल है।

आज हर तरफ जलवायु परिवर्तन की चर्चा है। इससे होने वाले नुकसान को लेकर दुनिया आशंकित है। खास तौर पर सम्रु के किनारे रहने वाले क्षेत्रों में इसका सबसे अधिक नुकसान हो सकता है। आनेवाले सालों में ये क्षेत्र पूरी तरह से डूब सकते हैं। मालदीव सहित भारत के लक्ष्यद्वीप और पश्चिम बंगाल में सुंदरवन को सबसे अधिक नुकसान हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के खतरे से पूरी तरह आगाह मालदीव ने हाल ही में सम्रु के अंदर कैबिनेट की बैठक बुलाकर दुनिया को एक संदेश देने की कोशिश की। लेकिन इसे लेकर कहीं कोई कारगर कोशिश होती नहीं दिखती।
भारत में अक्सर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन गैसों के उत्सर्जन के लिए हम उतने जिम्मेदार नहीं हैं, जितने अमेरिका, चीन या अन्य विकसित देश। इसके लिए कार्बन गैसों के उत्सर्जन में प्रति व्यक्ति योगदान का हवाला दिया जाता है। लेकिन यह गलत है, क्योंकि गैस उत्सर्जन के लिए प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारी का प्रतिशत जब निकाला जाता है, तो उसमें देश की पूरी जनसंख्या को शामिल किया जाता है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र की आबादी का इसमें कोई योगदान नहीं होता। कार्बन उत्सर्जन के लिए शहरों व महानगरों के लोग और वहां मौजूद औद्योगिक इकाइयां जिम्मेदार हैं। साफ तौर पर जलवायु परिवर्तन के लिए हम भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने अमेरिका, चीन या अन्य विकसित देश। इसलिए आज अगर जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक चर्चा हो रही है, तो सबसे पहले हमें अपना घर सुधारना होगा।
दरअसल, अमेरिका की राह पर चलते हुए हमने विकास का एक ऐसा मॉडल चुना है, जो पर्यावरण प्रदूषण की मात्रा भी साथ-साथ बढ़ाता है। कार, फ्रिज, टेलीविजन, एयरकंडीशन सहित अन्य बाजारी सुविधाएं को विकास का पैमाना माना जाने लगा है। लेकिन कोई इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान की चर्चा नहीं करता। कार से जो प्रदूषण फैलता है, वह अगले सौ साल तक पर्यावरण में मौजूद रहता है और इस वक्त देश में तकरीबन 170 लाख कार हैं। आखिर हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को कितना सुरक्षित पर्यावरण देंगे?
जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर विकसित देश हायतौबा तो खूब मचा रहे हैं, लेकिन इसे कम करने को लेकर ईमानदार व गंभीर कोशिश कहीं नहीं दिखती। दरअसल सारा खेल 200 मिलियन डॉलर का है। वास्तव में, कार्बन गैसों का उत्सर्जन रोकने और पर्यावरण को सुरक्षित बनाने के नाम पर वे विकासशील देशों को ऐसी तकनीक बेचना और वहां निवेश करना चाहते हैं, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था को फायदा हो सके। भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका भी इसी दौड़ में शामिल है और इसलिए इन देशों में जलवायु परिवर्तन का शोर अधिक सुनाई देता है।
यदि वास्तव में दुनिया इसके प्रति गंभीर होती तो इसे लेकर विरोधाभास नहीं दिखता। यह विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि एक ओर जेनेवा में विश्व व्यापार संगठन जसी संस्था व्यापार बढ़ाने पर जोर दे रही है, तो कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन और इसके खतरों पर चर्चा होने जा रही है। लेकिन कोई इस बारे में बात नहीं करता कि यदि व्यापार बढ़ेगा तो क्या प्रदूषण नहीं बढ़ेगा? आखिर व्यापार जहाजों और विमान से ही किया जाएगा, जिसके चलने व उड़ान भरने में बड़ी मात्रा में ऊर्जा खपत होती है और कार्बन गैसों का उत्सर्जन होता है।
जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण अमेरिका की आरामपसंद जीवन शैली है, जिसमें अधिकतर चीजों का मशीनीकरण हो गया है। आज अगर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन और इसके खतरों की चर्चा हो रही है, तो हमें अमेरिकी जीवनशैली को टेबल पर रखने की जरूरत है। हालांकि अमेरिका पहले ही इसमें किसी तरह के फेरबदल से इनकार कर चुका है, लेकिन जब तक इसे परिवर्तनीय नहीं बनाया जाता, खतरे को कम नहीं किया जा सकता।
यदि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करना है, तो इसके लिए तीन चीजों पर खास ध्यान देना होगा। सबसे पहले तो विकास के अमेरिकी मॉडल का अनुसरण बंद करना होगा। दूसरे, व्यापार में कटौती करनी होगी और तीसरे, लोगों में जागरुकता लानी होगी। इसके लिए हम स्वीडेन को आदर्श मान सकते हैं, जहां सभी उत्पाद सामग्रियों पर कार्बन फुट प्रिंट होता है। इससे लोगों को पता चलता है कि विभिन्न स्थानों से आयाजित सामानों में कार्बन उत्सर्जन कितना हुआ है। यदि भारत में भी यही चीज शुरू की जाए तो लोगों में जागरुकता जरूर आएगी और धीरे-धीरे लोग उन चीजों को खरीदना बंद कर देंगे, जिसके आयात में कार्बन गैसों का उत्सर्जन अधिक हुआ हो। जलवायु परिवर्तन को कम करने की दिशा में यह एक कारगर कदम हो सकता है।

गिलट नहीं गिलानी

कम चर्चित और बेहद संकोची राजनेता से शुरू हुआ सैयद युसुफ रजा गिलानी का राजनीतिक जीवन। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री वे बने या बनाए गए, अपने इन्हीं गुणों के कारण। लेकिन कुछ ही समय में गिलानी अपने तेजतर्रार नए अवतार में उभरने लगे। अब वे पूर्णावतार ले चुके हैं। जरदारी पिछड़ रहे हैं। खुद गिलानी उन्हें सिर्फ राष्ट्राध्यक्ष और स्वयं को शासन का प्रमुख कर्ताधर्ता बता रहे हैं।

सैयद युसुफ रजा गिलानी, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, जो अपने समर्थकों के बीच ‘हमेशा सही काम करने वाले नेताज् के रूप में जाने जाते हैं, भले ही व्यक्तिगत रूप से इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े। उनकी पहचान एक मृदुभाषी राजनीतिज्ञ के रूप में भी रही है। पाकिस्तान में करीब एक दशक के सैनिक शासन के बाद 2008 में जब उन्होंने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का नेतृत्व संभाला तो गिलानी कोई हाईप्रोफाइल राजनीतिज्ञ नहीं थे।
सच कहा जाए तो बेनजीर की हत्या के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुना भी इसलिए था। इसके लिए पार्टी के तत्कालीन सबसे चर्चित नेता अमीन फहीम की दावेदारी को दरकिनार कर दिया गया। समझा जा रहा था कि इस कम चर्चित नेता के जरिये बेनजीर के पति व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के लिए पाकिस्तान के शासन में हस्तक्षेप आसान रहेगा और कुछ ही महीनों में गिलानी के हाथ से सत्ता अपने हाथ में लेना उनके लिए आसान होगा। हालांकि बेनजीर के प्रति कुछ उनकी वफादारी भी थी, जिसके लिए उन्हें यह इनाम मिला।
लेकिन गिलानी जब एकबार पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज हुए तो उनकी कम चर्चित व संकोची राजनेता की छवि जाती रही। वे धीरे-धीरे सत्ता के प्रमुख कें्र के रूप में उभरने लगे और अब जरदारी को किनारे करते हुए उन्होंने दो टूक कह दिया है कि असली सरकार वे ही चला रहे हैं। जरदारी राष्ट्राध्यक्ष हैं, न कि शासनाध्यक्ष। उन्होंने इन दावों को भी खरिज कर दिया कि पाकिस्तान का शासन नेतृत्वविहीन है और इसके कई कें्र हैं। साफ है, जरदारी की अगर ऐसी कोई चाह थी कि गिलानी के जरिये वे अपनी मर्जी चला सकेंगे, तो गिलानी उसे पूरा करने के मूड में नहीं हैं।
पाकिस्तान में, जहां संवैधानिक रूप से सत्ता संसद में निहित है, सत्ता परिवर्तन के बाद शासन के कई कें्र नजर आने लगे। यह सब शुरू हुआ 1999 के सैनिक तख्ता पलट से, जब पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल) की नवाज शरीफ सरकार को सत्ता से बेदखल करते हुए सत्ता हथिया ली थी। बाद में इसे लोकतांत्रिक रूप देने के लिए उन्होंने सैन्य शासक का चोंगा उतार फेंका और राष्ट्रपति बन बैठे। लेकिन सत्ता की कुंजी अपने हाथ में ही रखी। उन्होंने संविधान में कई संशोधन किए और वे सारी शक्तियां, जो संसद व प्रधानमंत्री के पास थीं, अपने हाथों में ले ली।
सत्ताइस दिसंबर 2007 को पीपीपी अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद हुए आम चुनाव और उसके बाद बने नए निजाम में गिलानी प्रधानमंत्री व जरदारी राष्ट्रपति बने। उम्मीद की गई कि पाकिस्तान में एक बार फिर संसदीय शासन प्रणाली से कामकाज होगा। प्रधानमंत्री शासन का कें्र होगा और प्रमुख शक्तियां उसके हाथों में ही होंगी। लेकिन जरदारी ने मुशर्रफ द्वारा संशोधन के बाद राष्ट्रपति में निहित की गई शक्तियों को लौटाने की उदारता नहीं दिखाई। यहीं से शुरू हुआ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की सत्ता में टकराव। गिलानी के शासन में जरदारी की टोकाटाकी व हस्तक्षेप बढ़ता रहा। लेकिन अंतत: गिलानी ने जरदारी के हर हुक्म की तामील करना मुनासिब नहीं समझा। इसका कारण शायद उन्हें विरासत में मिली राजनीतिक सूझबूझ रही।
अपनी सूझबूझ से ही उन्होंने धीरे-धीरे सत्ता अपने हाथ में ले ली। वे सबसे अधिक चर्चित हुए पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की पुनर्बहाली करवाकर, जिन्हें जनरल मुशर्रफ ने बर्खास्त कर दिया था। जरदारी उनकी बहाली के लिए आसानी से तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्हें अपने खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मामले खुल जाने का अंदेशा था। लेकिन गिलानी ने जरदारी को आश्वस्त किया और न्यायाधीश बहाल हुए। हाल के दिनों में जरदारी ने परमाणु आयुध के नियंत्रण का अधिकार भी प्रधानमंत्री गिलानी को सौंप दिया। गिलानी अन्य शक्तियां भी राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री को स्थानांतरित करने में लगे हैं।
गिलानी का जन्म नौ जून 1952 को कराची में हुआ था, हालांकि उनका परिवार पंजाब प्रांत से ताल्लुक रखता है। गिलानी परिवार पंजाब के मुल्तान का एक प्रभावी राजनीतिक व आध्यात्मिक परिवार है। गिलानी के पिता मखदूम आलमदार हुसैन गिलानी पाकिस्तान के निर्माण के बने प्रस्ताव के प्रमुख हस्ताक्षरी थे। गिलानी की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा मुल्तान में ही ला सल्ले हाई स्कूल में हुई। उच्च शिक्षा उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिश्चयन कॉलेज से पाई। पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की।
गिलानी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1978 में पिता की मौत के बाद जनरल जिया-उल-हक के सैनिक शासन के दौरान की थी। वह पीएमएल की कें्रीय कार्य समिति में शामिल हुए। प्रधानमंत्री मुहम्मद खान जुनेजो की सरकार में वह मंत्री भी बने। लेकिन जल्द ही पीएमएल से उनका मोहभंग हो गया और 1988 में वह पीपीपी में शामिल हो गए। पीपीपी में शामिल होने की अर्जी लेकर जब वे बेनजीर भुट्टो से मिलने गए थे, तब पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक का ही शासन था और पीपीपी अनिश्चतता के दौर से गुजर रहा था। बेनजीर ने कहा भी था कि वे उन्हें कुछ भी दे पाने की स्थिति में नहीं हैं, फिर क्यों वे पीपीपी का दामन थामना चाहते हैं? तब गिलानी ने कहा था, ‘दुनिया में तीन तरह के लोग हैं, एक वे जो सम्मान चाहते हैं, दूसरे वे जो बुद्धि चाहते हैं और तीसरे वे जो दौलत चाहते हैं। मैं पहले तरह का इंसान हूं और इसलिए पीपीपी में शामिल होना चाहताा हूं।ज् इसके बाद शक व शुबहे की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई। गिलानी की यह वफादारी बेनजीर की आखिरी सांस तक उनके साथ बनी रही।
यही वजह रही कि 2001 में उन्होंने परवेज मुशर्रफ के साथ समझौते से इनकार कर दिया, जिसके तहत उन्हें पीपीपी के जनाधार वाले नेताओं को साइडलाइन करना था। उन्हें इसकी कीमत जेल जाकर चुकानी पड़ी। मुशर्रफ शासन ने उन पर सरकार में रहते हुए गैर-कानूनी नियुक्तियां करने का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया। 7 अक्टूबर 2006 को वह जेल से रिहा हुए। जेल में उन्होंने एक किताब लिखी, ‘चाह-ए-युसुफ की सदा।ज् पुस्तक में उन्होंने पीएमएल छोड़ने और पीपीपी में शामिल होने के कारणों का जिक्र किया है। इससे पहले जनरल जिया की मौत के बाद 1988-90 की बेनजीर की सरकार में वे मंत्री बने। बेनजीर के दूसरे कार्यकाल में 1993-97 के बीच उन्होंने पाकिस्तान की नेशनल एसेम्बली के स्पीकर के रूप में अपनी सेवा दी।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

बहुत शोर था . . . लिब्रहान . . .!

न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान ने तीन महीने के लिए बने आयोग की रिपोर्ट सत्रह साल बाद सौंपी और पिछले हफ्ते वह संसद में रखी गई। बाबरी मस्जिद ध्वंस को लेकर बने इस जांच आयोग पर सबकी नजरें थीं। पर साल-दर-साल माहौल-मूल्य-मुद्दे बदलते गए और अब जब यह नुमायां हो गई है, तो हम पाते हैं कि अब वह मुद्दा ही बेदम हो चुका है कि जिसके कारण बाबरी ध्वंस की शर्मनाक घटना घटी। फिर भी लोगों को दिलचस्पी तो थी ही। लेकिन वह भी रिपोर्ट के निष्कर्ष से शांत हो गई, क्योंकि इसमें आमतौर पर वही है, जिसका अंदाजा था। वही संघ परिवार और भाजपा इसमें षड्यंत्रकारी बताए गए हैं, जिन्हें देश का आमजन भी इस धत्कर्म का दोषी माने हुए था। अटल बिहारी वाजपेयी को दोषियों में रखना और तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को बख्श देना जरूर इसमें ऐसी बातें रहीं, जिन पर काफी कोहराम मचा।

देश के सर्वाधिक विवादास्पद, संवेनशील और दो समुदायों की धार्मिक भावनाओं से जुड़े बहुप्रतीक्षित बाबरी विध्वंस मामले पर रिपोर्ट आ गई है। रिपोर्ट में यूं तो कोई नई बात नहीं है। जसा कि उम्मीद थी, भगवा बिग्रेट को इसमें जमकर लताड़ लगाई गई है। लेकिन पूरे प्रकरण में भाजपा के उदारवादी माने जाने वाले वरिष्ठ नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम ने राजनीतिक हलके में तूफान मचा दिया। रिपोर्ट सीधे तौर पर वाजपेयी को दोषी नहीं बताती। लेकिन यह कह कर एक बड़ा आरोप तय करती है कि बाबरी विध्वंस कोई अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति थी और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सहित अटल बिहारी वाजपेयी भी इससे पूरी तरह वाकिफ थे। इन नेताओं ने जानबूझकर पूरे प्रकरण से दूरी बनाए रखी। वास्तव में इन्होंने जनता के विश्वास व लोकतंत्र को धोखा दिया है और इसलिए वे उनके अपराधी हैं।
बाबरी विध्वंस पर यह रिपोर्ट न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान के नेतृत्व में गठित लिब्रहान आयोग ने दी है। छह दिसंबर, 1992 को कारसेवकों द्वारा बाबरी विध्वंस को अंजाम देने के करीब दस दिन बाद ही यानी 16 दिसंबर 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस आयोग का गठन किया था और म्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान को मामले की जांच का जिम्मा सौंपा था। तब मामले की जांच के लिए उन्हें तीन माह का समय दिया गया था। लेकिन जांच पूरी होते-होते 17 साल लग गए, जिसके लिए कुल 48 बार आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया। इन 17 सालों में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कई लोगों के बयान लिए, ऑडियो-वीडियो टेप की जांच की और उसके बाद अपनी रिपोर्ट दी। एक सदस्यीय इस आयोग की जांच पर करीब आठ करोड़ रुपए का खर्च आया है।
तकरीबन एक हजार पन्ने की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं सहित 68 लोगों को नामजद किया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बाबरी विध्वंस का मुख्य साजिशकर्ता करार देते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार को इस साजिश को अमल में लाने का दोषी करार दिया है। साथ ही कें्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हाराव सरकार को भी यह कहते हुए आड़े हाथों लिया है कि उसने बाबरी विध्वंस को रोकने के लिए कोई गंभीर कदम नहीं उठाए। हालांकि यह कहकर उनका बचाव किया कि राज्य सरकार की ओर से कें्र से किसी तरह की मदद नहीं मांगी गई।
अपनी रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व अटल बिहारी वाजपेयी को पर्दे के पीछे से भूमिका निभाने वाला करार दिया है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ये नेता बाबरी विध्वंस की आरएसएस की साजिश से पूरी तरह वाकिफ थे और उन्होंने जानबूझकर राम जन्मभूमि अभियान से दूरी बनाए रखी। अपनी रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान नेताओं पर भी खूब बरसे। उन्होंने किसी दल विशेष का नाम लिए बगैर सभी नेताओं को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि अपने क्ष्रु राजनीतिक स्वार्थ के लिए वे एक महान राष्ट्र व दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में से एक को असहिष्णुता और बर्बरता की ओर ढकेल रहे हैं।
बाबरी विध्वंस पर लिब्रहान आयोग की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट कई तरह से विवादों में घिरी है। सबसे पहले तो भाजपा और सहयोगी दलों ने रिपोर्ट लीक होने को लेकर हंगामा किया। रिपोर्ट लीक होने का आरोप सरकार पर लगा, अंगुली न्यायमूर्ति लिब्रहान पर भी उठी। लेकिन इन आरोपों को लेकर न्यायमूर्ति लिब्रहान का रवैया ‘नो कमेंटज् का रहा। उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। हालांकि रिपोर्ट लीक होने के मामले में वह मीडिया पर भड़के जरूर।
रिपोर्ट का एक अन्य विवादास्पद पहलू इसका अत्यधिक समय लेना है। सरकार ने इसके लिए तीन माह की समय सीमा निर्धारित की थी, जबकि रिपोर्ट सौंपते-सौंपते न्यायमूर्ति लिब्रहान को 17 साल लग गए। इसके लिए उन्होंने प्रमुख गवाहों के असहयोगात्मक रवैये और आयोग के कामकाज के शुरुआती दिनों में ही कर्मचारियों के लगातार स्थानांतरण को जिम्मेदार ठहराया। रिपोर्ट में देरी की एक प्रमुख वजह न्यायमूर्ति लिब्रहान ने आयोग के सलाहकार अनुपम गुप्ता के असहयोगात्म रवैये को भी बताया है। तकरीबन एक हजार पन्ने की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने 18 पन्नों में इस बात का जिक्र किया है कि आखिर क्यों जांच पूरी करने में उन्हें 17 साल लग गए।
अनुपम गुप्ता के असहयोगात्म रवैये का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कहा है कि निहित कारणों से गुप्ता ने आयोग के सलाहकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभाई, जिसके चलते उन्हें बार-बार परेशानी हुई और अंतत: उन्हें इसके लिए दूसरे अधिवक्ता की मदद लेनी पड़ी। वहीं, अनुपम गुप्ता ने न्यायमूर्ति लिब्रहान पर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बचाने का आरोप लगाते हुए 2007 में ही आयोग के सलाहकार का पद छोड़ दिया था।
इसके अलावा बिना सुनवाई के रिपोर्ट में वाजयपेयी का नाम आने से भी न्यायमूर्ति लिब्रहान की किरकिरी हो रही है। प्रेक्षक जांच आयोग अधिनियम, 1952 की धारा 8बी का हवाला देते हुए रिपोर्ट में वाजपेयी को नामजद करने पर सवाल उठा रहे हैं, जिसमें किसी भी व्यक्ति पर आरोप तय करने से पहले उसका पक्ष जानने का प्रावधान है। साथ ही वे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का भी हवाला दे रहे हैं, जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने से पहले उसे सुनवाई का अधिकार होना चाहिए। इसे मानहानि से जोड़कर भी देखा जा रहा है।

डेडली हेडली

मुंबई पर आतंकवादी हमले यानी 26/11 को एक साल होने में अब कुछ दिन बाकी हैं। पाक पूरे मामले को दबाकर बैठा है, जबकि सारे जवाब उसी के पास हैं और उसी को देना है। इस बीच जो खुलासे हो रहे हैं और जो नए नाम सामने आ रहे हैं, उनकी शक की सुई भी पाक की ओर है। डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गिलानी ऐसा ही एक नाम है। पाक मूल के इस अमेरिकी नागरिक की गिरफ्तारी के बाद जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे जांच एजेंसियों को शक है कि 26/11 की वारदात में उसका भी हाथ था। आश्चर्य की बात यह कि 2006 से 2009 तक वह नौ बार भारत आया। कई शहरों में गया और वीसा एजेंसी के जरिये अपने आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के लिए भर्ती करता रहा। फिर भी, उसके दहशतगर्दी इरादों को कोई भांप नहीं पाया।

डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गिलानी। पाकिस्तानी मूल का अमेरिकी नागरिक। अमेरिका में शिकागो के ओज्हेयर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से गिरफ्तार यह शख्स एक और आतंकवादी वारदात को अंजाम देने की फिराक में था। उसके निशाने पर था अमेरिका और भारत। इसके अलावा भी कई अन्य देशों में वह आतंक फैलाने का मंसूबा पाले था और यह सब वह कर रहा था पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के इशारे पर।
गिरफ्तारी के वक्त वह पाकिस्तान जाने के लिए फिलाडेल्फिया की उड़ान पर था, जहां वह अपने आकाओं के साथ मिलकर नए खौफनाक हमले की रूपरेखा तय करने वाला था। समझा जाता है कि वह भारत में 26/11 जसा ही एक और हमला अंजाम देने का षड्यंत्र रच रहा था। उसे गिरफ्तार करने वाली अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (एफबीआई) के अधिकारियों ने उससे पूछताछ के आधार पर जो खुलासा किया है, उसके अनुसार हेडली के निशाने पर थे देश के दो महत्वपूर्ण व लोकप्रिय बोर्डिग स्कूल- देहरादून स्थित दून स्कूल और मसूरी स्थित वूडस्टॉक स्कूल। साथ ही नई दिल्ली में नेशनल डिफेंस कॉलेज भी उसके निशाने पर था।
हेडली 2006 में बिजनेस वीसा पर भारत आया और 2006 से 2009 के बीच कुल नौ बार उसने भारत का दौरा किया। इस दौरान वह देश के कई शहरों में गया। अहमदाबाद, पुणे, लखनऊ, आगरा और दिल्ली का उसने दौरा किया। जुलाई 2008 तक वह मुंबई में रहा और करीब दो साल तक उसने वहां वीसा एजेंसी चलाई। अपनी इस वीसा एजेंसी के जरिये उसने कई लोगों को भारत से बाहर खाड़ी देशों में भेजा। लेकिन वह उन्हें किसी व्यवसाय के सिलसिले में खाड़ी देश नहीं भेज रहा था, बल्कि लश्कर-ए-तैयबा के कैडर के रूप में उनकी भर्ती कर रहा था।
अपने मुंबई प्रवास के दौरान वह होटल ट्रिडेंट में रुका। कुछ दिन छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) के पास एक गेस्ट हाऊस में रहा और ताज होटल में भी उसने कमरा लिया था। इस आधार पर मुंबई हमले में भी उसका हाथ होने की आशंका जाहिर की जा रही है। एफबीआई के अधिकारी भी इस बात से इनकार नहीं करते। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने भी हमले में उसका हाथ होने की आशंका जाहिर करते हुए इसकी जांच की बात कही है। गौरतलब है कि मुंबई हमले के दौरान होटल ट्रिडेंट, सीएसटी और होटल ताज, ये तीनों आतंकवादियों के हमले के शिकार हुए थे। जांच एजेंसियां इस बात की भी जानकारी जुटा रही हैं कि क्या हेडली लश्कर-ए-तैयबा के किसी प्रशिक्षण शिविर में भी शामिल हुआ था, जिसमें मुंबई हमले को अंजाम देने वाले दस आतंकवादियों ने प्रशिक्षण लिया था?
हेडली ने, जिसका मूल नाम दाऊद गिलानी है, पहचान छिपाने के लिए अपना नाम तक बदल लिया। उसने भारत के कई शहरों का और कई बार दौरा किया। इस दौरान वह कई होटलों में रुका, मुंबई में उसने दलालों के माध्यम से किराए पर मकान भी लिया। इस दौरान निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के बेटे राहुल भट्ट से भी उसकी मुलकात हुई। राहुल से अपने संपर्क का इस्तेमाल उसने मुंबई में अपना कारोबार जमाने में किया और उससे कई तरह की मदद ली। पुलिस को दी जानकारी में राहुल ने बताया है कि हेडली से उसकी मुलाकात एक जिम में हुई थी। वह अक्सर उससे स्वास्थ्य और व्यायाम के बारे में ढेर सारी बातें करता था। इस तरह जाहिर होता है कि हेडली स्वास्थ्य को लेकर काफी सजग व गंभीर था। इस बीच कहीं कोई उसके खतरनाक मंसूबों को भांप नहीं पाया। लेकिन अब जबकि वह जांच एजेंसियों की गिरफ्त में आ चुका है, दुनिया के अन्य आतंकवादी हमलों और षड्यंत्रों में भी उसका नाम सामने आ रहा है। उस पर आतंकवादियों को हर तरह की सहायता मुहैया कराने के भी आरोप हैं।
डेनमार्क का समाचार-पत्र ‘जिलैंड्स-पोस्टेनज् भी उसके निशाने पर था, जिसने 2005 में पैगम्बर मुहम्मद साहब के 12 कार्टून प्रकाशित किए थे। इसके लिए उसने पाकिस्तान में अल कायदा के फील्ड कमांडर इलियास कश्मीरी और लश्कर-ए-तैयबा के दो अन्य कमांडर से भी मुलाकात की थी। इलियास कश्मीरी पाक अधिकृत कश्मीर में हरकत-ऊल-जिहाद इस्लामी (हुजी) का सरगना है, जिसके तार अलकायदा से जुड़े हैं। उल्लेखनीय है कि ‘जिलैंड्स-पोस्टेनज् में पैगम्बर मुहम्मद साहब के कार्टून के प्रकाशन के बाद दुनियाभर में इस्लामिक जगत में उबाल आ गया था और अखबार के संपादक के खिलाफ फतवा भी जारी किया गया था। समझा जाता है कि इसी बीच हेडली ने कई बार अखबार के दफ्तर का मुआयना किया और आतंकवादियों को इसके बारे में अंदरूनी जानकारी दी।

सत्याग्रही शर्मिला

इरोम शर्मिला को अनशन करते अब दसवां साल लग गया है। अनशन तुड़ाने के तमाम सरकारी दांवपेंच और उनकी मांग को लेकर घोर असंवेदनशीलता से शर्मिला का हौसला पस्त नहीं हुआ, बल्कि इरादा और पुख्ता हो गया। वे मणिपुर की जनता को आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट से मुक्ति दिलाना चाहती हैं। मणिपुर इरोम के साथ है और सरकार की दुविधा भी यही है। मणिपुर ही नहीं, इरोम शर्मिला पूरे देश में नैतिकता, साहस और प्रतिरोध की प्रतीक बन चुकी हैं।

इरोम शर्मिला का नाम लेते ही उभरती है एक ऐसी छवि, जिसने अपने शांतिपूर्ण विरोध से पिछले नौ साल से कें्र और मणिपुर सरकार की नाक में दम कर रखा है। एक ऐसी महिला, जो अपने साहस और जीवट से लाखों लोगों उम्मीद बन गई है; जिसने लोगों के दिलों में यह एहसास जगाया कि आज नहीं तो कल उनकी बात सुनी जाएगी और मणिपुर के लोगों को आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट से छुटकारा मिलेगा। एक ऐसा कानून, जो ‘शांति विघ्नज् की स्थिति में देश के किसी भी हिस्से में थोपा जा सकता है, जिसकी आड़ में अक्सर सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है और जिसकी वजह से मणिपुर के लोग खुली हवा में सांस तक नहीं ले पा रहे। अपने स्वतंत्र देश में उन्हें उसी सेना के डर और आतंक के साए में जीना पड़ रहा है, जो उनकी ‘सुरक्षाज् के लिए है। शर्मिला इसी कानून को हटाने की मांग कर रही हैं, जिसके लिए वे पिछले नौ साल से आमरण अनशन पर बैठी हैं। दो नवंबर को उनका अनशन दसवें साल में प्रवेश कर गया।
इस कानून को लेकर मणिपुर की जनता में आक्रोश बहुत पहले से है, जिसे और बुलंद किया ईरोम शर्मिला ने। उन्होंने मणिपुर की जनता के लिए स्वयं को होम कर दिया। इस बात की परवाह नहीं की कि आमरण अनशन की उनकी जिद उन्हें मौत के द्वार तक ले जा सकती है। उनकी उम्र केवल 35 साल है, लेकिन वे इससे कहीं अधिक दिखती हैं। लेकिन इन सबकी परवाह उन्हें कहां? वे तो अपना जीवन जनता के लिए समर्पित कर चुकी हैं। स्वयं शर्मिला के शब्दों में कहें तो, ‘हम सबके जीवन का एक मकसद है, हम इस दुनिया में कुछ करने आए हैं। जहां तक शरीर की बात है तो एक न एक दिन इसे खत्म होना है। लेकिन जरूरी यह है कि हम जो करने यहां आए हैं, उसे पूरा करें।ज् आखिर कौन न शर्मिला की इस बेबाकी का मुरीद हो जाए? और मणिपुर की जनता, जिसके लिए उन्होंने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी, क्यों न उन्हें अपने तारणहार के रूप में देखे?
मणिपुर की जनता के लिए उनके इसी प्रेम ने उन्हें लोगों के बीच कुछ इस तरह लोकप्रिय बना दिया कि लोग अपने हर कदम के लिए उनके इशारे की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उनके इस साहसपूर्ण कदम ने उन्हें मणिपुर के साथ-साथ देशभर में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई। देशभर के बुद्धिजीवी व मानवाधिकार कार्यकर्ता उन्हें खुलकर अपना वैचारिक समर्थन दे रहे हैं, तो जनता में उनके लिए गजब की सहानुभूति है। ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्ता व नोबेल पुरस्कार से सम्मानित शिरीन ईबादी भी उनसे मिलकर उन्हें अपना समर्थन घोषित कर चुकी हैं। सरकार भी जानती है कि अगर उन्हें कुछ हो गया, तो मणिपुर की जनता में जो उबाल आएगा, उसे दबाना उसके बूते में नहीं होगा। अगर वह इसमें काययाब हो भी जाए तो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी जो थू-थू होगी, उससे वह कैसे उबरेगी? आखिर किस-किसको और क्या जवाब देगी सरकार? शायद इसलिए पूरा सरकारी अमला शर्मिला को जिंदा रखने में जुटा है। वे भोजन नहीं कर रहीं, तो प्रशासन ने इसकी भी तैयारी कर ली है। उन्हें पाइप के जरिये नाक से विटमिन व खनिज से भरा पेय पदार्थ दिया जा रहा है, ताकि जिंदा रखा जा सके।
नाक में पाइप लगा है, पूरा अमला अनशन तोड़ने के लिए हर तरह से जोर आजमाइश कर चुका है, लेकिन शर्मिला को मणिपुर से ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्टज् हटाने से कम कुछ भी मंजूर नहीं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आश्वासन देते हैं कि इस कानून में फेरबदल कर सेना के उन अधिकारों को सीमित किया जाएगा, जिससे जनता को परेशानी हो रही है; लेकिन शर्मिला टस से मस नहीं। शर्मिला के आमरण अनशन से डरी सरकार राज्य के कुछ हिस्सों से यह कानून हटा देती है। लेकिन वे तो पूरे राज्य से हटवाना चाहती हैं और वह भी पूरी तरह।
उत्तर-पूर्व की इस शेरनी का जीवट, शांतिपूर्ण विरोध का यह तरीका बरबस ही महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की याद दिला देता है, जिससे उन्होंने अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी थी। नौ साल पहले दो नवंबर, 2000 को शर्मिला ने अपनी मांगों को लेकर उपवास शुरू किया था, जब असम राइफल्स के जवानों ने मालोम में हमला कर दस युवकों को उप्रवी होने के केवल संदेह के आधार पर मार गिराया था। सेना की इस कार्रवाई का आधार भी ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्टज् ही था, जिसके तहत सेना या अर्धसैनिक बल के किसी भी जवान को केवल संदेह के आधार पर नागरिकों को गिरफ्तार करने, बिना वारंट उनके घरों की तलाशी लेने और यहां तक उन्हें गोली मारने और जान से मार डालने का भी अधिकार दिया गया है। सेना की इसी कार्रवाई ने शर्मिला को उद्वेलित किया और वह इस कानून को हटाने के लिए आमरण अनशन पर बैठ गईं। हालांकि तीन दिन बाद ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके खिलाफ आत्महत्या के प्रयास का मामला दर्ज किया गया। बाद में उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। दो अक्टूबर, 2006 को महात्मा गांधी के जन्मदिन पर मणिपुर सरकार ने उन्हें मुक्त कर दिया, लेकिन इस चेतावनी के साथ कि वे दोबारा अनशन पर नहीं बैठेंगी। लेकिन वे तुरंत दिल्ली के लिए कूच कर गईं। वहां वे महात्मा गांधी के समाधिस्थल राजघाट गईं और जंतर-मंतर पर एकबार फिर अनशन शुरू कर दिया। वे एकबार फिर गिरफ्तार कर ली गईं। उन्हें पुलिस की नजरबंदी में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लेकिन शर्मिला की हिम्मत नहीं खोई। उनकी जंग आज भी जारी है और इसमें न केवल मणिुपर की जनता, बल्कि उनका परिवार भी उनके साथ है। मां ने पिछले कई साल से सिर्फ इसलिए बेटी से मुलाकात नहीं कि वह उन्हें देखकर रो देंगी और बेटी उनके आंसुओं से पिघल जाएगी।

नॉट स्टुपिड नशीद

मोहम्मद नशीद लड़ाकू हैं, यह बात वे सब जानते हैं, जो मालदीव में लोकतंत्र के लिए उनके जुझारूपन से परिचित हैं। कई साल जेल में, निर्वासन में बिताने के बाद वह अंतत: जीते और मालदीव के निर्वाचित राष्ट्रपति भी बने। लेकिन वह मानवीय व सामाजिक सरोकारों वाले व्यक्ति हैं और इसमें अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वाले देशों में मालदीव भी होगा। पर्यावरण में बिगाड़ रोकने के लिए नशीद अलख जगाने में लगे हैं। उन्होंने इसके लिए अपने मंत्रिमंडल की बैठक सम्रु के गहरे पानी के अंदर की, ताकि दुनिया का ध्यान इस विकराल समस्या के प्रति आकर्षित हो। असंवेदनशील और नादान लोगों के आज के समय में वह एक संवेदनशील और समझदार राजनेता हैं। ऐसा एक सम्मान वह पा भी चुके हैं।


आज सारी दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर सहमी नजर आ रही है। दुनिया भर से इसको लेकर कुछ सार्थक प्रयास करने की बात कही जा रही है, लेकिन इस दिशा में कारगर कदम क्या हो, इसे लेकर सहमति नहीं बन पा रही। ऐसे में इस खतरे की ओर समूची दुनिया का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने। उन्होंने इसके लिए एक अनोखा तरीका ढूंढ निकाला। सम्रु के अंदर कैबिनेट की बैठक बुलाई और उसमें वैश्विक स्तर पर कार्बन का उत्सर्जन कम करने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया। नशीद इसे दिसंबर में कोपेनहेगन में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन से संबंधित सम्मेलन में पेश करेंगे। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल, जो 2012 में समाप्त हो रहा है, के स्थान पर एक नए प्रस्ताव पर सहमति बनाना है।
नशीद सौ फीसदी मुस्लिम आबादी वाले मालदीव के लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित पहले राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने वहां न सिर्फ लोकतंत्र को मजबूत किया, बल्कि सम्रु से सटे इस छोटे से द्वीपसमूह को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से बचाने की कवायद भी शुरू की। मालदीव उन चंद द्वीप देशों में है, जिन्हें जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा है। मालद्वीपीयन द्वीप सम्रु तल से केवल 1.5 मीटर ऊपर है और जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय पैनल आगाह कर चुका है कि यदि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को नहीं रोका गया तो 21वीं सदी के अंत तक सम्रु के जल स्तर में आधे मीटर की बढ़ोत्तरी हो सकती है और आने वाले दिनों में मालदीव जसे-द्वीप देश पानी में समा जाएंगे।
मोहम्मद नशीद भी कहते हैं कि यदि इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया तो आने वाले दिनों में हमारे नाती-पोते इस द्वीपसमूह को पानी में विलीन पाएंगे। वह जलवायु पविर्तन के खतरों को आतंकवाद से भी अधिक खतरनाक मानते हैं। एक अनुमान के मुताबिक ग्लोबल वार्मिग से हर साल तीन लाख लोग शरणार्थी हो रहे हैं। नशीद कहते हैं कि सम्रु का जल स्तर बढ़ने से न केवल खाद्य संकट पैदा हो रहा है, बल्कि बड़े पैमाने पर लोगों के विस्थापन और बीमारियों की समस्या भी पैदा हो रही है। मालदीव ने जलवायु परिवर्तन के खतरों को बहुत पहल से महसूस करना शुरू कर दिया है। अब दुनिया के अन्य देशों को भी इस दिशा में कारगर कदम उठाने की जरूरत है। वरना आने वाले दिनों में यह उनके लिए भी इसी तरह खतरनाक हो सकता है, जसे आज मालदीव के लिए है।
जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने के लिए वह यह कहकर दुनिया का आह्वान करते हैं कि यदि मनुष्य चांद पर जा सकता है तो एकजुटता से कार्बन गैसों के उत्सर्जन को भी रोका जा सकता है, जो हम सबका समान दुश्मन है। कार्बन गैसों के उत्सर्जन से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को देखते हुए ही नशीद ने सत्ता संभालने के चार महीने बाद ही मालदीव को एक दशक के भीतर कार्बन-रहित और पवन व सौर ऊर्जा पर निर्भर देश बनाने की परिकल्पना रखी। उनका कहना है कि इस पर आने वाला खर्च उससे अधिक कतई नहीं होगा, जो मालदीव अब तक ऊर्जा के अन्य स्रोतों पर खर्च कर चुका है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर नशीद के प्रयासों को अब तक कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। इस साल सितंबर में उन्हें ‘एज ऑफ स्टुपिडज् के वैश्विक प्रीमियर में ‘नॉट स्टुपिडज् का खिताब दिया गया। वहीं, टाइम मैगजीन उन्हें इस साल पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करने वाले दुनिया के चंद नेताओं में शुमार किया।
नशीद केवल जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने के लिए ही मुहिम नहीं चला रहे, बल्कि उन्होंने मालदीव में लोकतंत्र की स्थापना में भी अहम योगदान दिया। वह जेल गए, निर्वासन में रहे, लेकिन लोकतंत्र की लड़ाई के लिए हौसला नहीं छोड़ा। मई 1967 में एक व्यवसायी के घर जन्मे मोहम्मद नशीद की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा मजीदिया स्कूल से हुई। बाद में वह श्रीलंका के कोलंबो चले गए और वहां से ब्रिटेन। 1980 के आखिरी दशक में वह मालदीव लौटे और यहीं से शुरू हो गई उनकी लोकतांत्रिक लड़ाई व उनकी परेशानियों का दौर।
यहां उन्होंने अपनी पत्रिका ‘संगूज् निकाली और उसमें तत्कालीन राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम के शासन को भ्रष्ट और मानव अधिकारों के उल्लंघन का दोषी बताते हुए उसके खिलाफ खोजी रिपोर्टों का प्रकाशन शुरू किया। जाहिर तौर पर अपनी इन गतिविधियों से वह सरकार की नजर में आ गए। पुलिस ने उनकी पत्रिका के दफ्तर पर छापे मारे और नशीद को गिरफ्तार कर लिया। तब उनकी उम्र केवल 23 साल थी। विभिन्न मौकों पर उन्हें 16 बार गिरफ्तार किया गया। छह वर्ष उन्होंने जेल में बिताए, जिनमें से 18 माह वह कालकोठरी में रहे। इस दौरान उनकी दो बच्चियां भी हुईं, लेकिन वह इस मौके पर पत्नी के साथ नहीं रह सके, जिसका अफसोस एक पिता और पति के नाते उन्हें आज भी है।
सरकार के दमन से नवंबर 2003 में उन्हें देश छोड़ना पड़ा। इस दौरान वह श्रीलंका और ब्रिटेन में रहे और वहां निर्वासन में ही मोहम्मद लतीफ के साथ मिलकर मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। 2004 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राजनीतिक शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया। 18 महीने के स्वनिर्वासन के बाद अप्रैल 2005 में वह मालदीव लौटे और यहां अपनी पार्टी का प्रचार-प्रसार शुरू किया। जून में उनकी पार्टी को एक राजनीतिक दल के रूप में मान्यता भी मिल गई। उसी साल अगस्त में उनकी फिर गिरफ्तारी हुई। पहले कहा गया कि यह उनकी सुरक्षा के लिए किया गया, लेकिन बाद में सरकार ने उनके खिलाफ आतंकवाद निरोधी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया। लेकिन इस घटना से उन्हें जबरदस्त फायदा हुआ। जनता में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई। लोग उनके लिए सड़कों पर उतर आए। अक्टूबर 2008 में देश में पहली बार राष्ट्रपति चुनाव में कई राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों ने शिरकत की और डेमोक्रेटिक पार्टी के नशीद विजयी रहे। 11 नवंबर को उन्होंने बतौर राष्ट्रपति मालदीव की सत्ता संभाली। नशीद महात्मा गांधी के घनघोर प्रशंसक हैं और मानते हैं कि आज की अधिकतर समस्याओं के, जिनमें पर्यावरण प्रदूषण भी शामिल है, हमें गांधी के रास्ते पर लौटना होगा।