शनिवार, 5 दिसंबर 2009

बेहतर दुनिया तीन कदम

(देवें्र शर्मा से बातचीत पर आधारित)

जलवायु परिवर्तन के शोर में हम एक गहरे विरोधाभास को नजरअंदाज कर रहे हैं। एक ओर कोपेनहेगन है तो दूसरी तरफ जेनेवा, जहां विश्व व्यापार संगठन व्यापार बढ़ाने का आह्वान कर रहा है। व्यापार बढ़ेगा तो पर्यावरण बिगड़ेगा ही। दरअसल तीन बातें जरूरी हैं- अमेरिकी मॉडल का त्याग, व्यापार में कटौती और लोगों को जागरूक बनाना। हमारे कई संकटों का यही हल है।

आज हर तरफ जलवायु परिवर्तन की चर्चा है। इससे होने वाले नुकसान को लेकर दुनिया आशंकित है। खास तौर पर सम्रु के किनारे रहने वाले क्षेत्रों में इसका सबसे अधिक नुकसान हो सकता है। आनेवाले सालों में ये क्षेत्र पूरी तरह से डूब सकते हैं। मालदीव सहित भारत के लक्ष्यद्वीप और पश्चिम बंगाल में सुंदरवन को सबसे अधिक नुकसान हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के खतरे से पूरी तरह आगाह मालदीव ने हाल ही में सम्रु के अंदर कैबिनेट की बैठक बुलाकर दुनिया को एक संदेश देने की कोशिश की। लेकिन इसे लेकर कहीं कोई कारगर कोशिश होती नहीं दिखती।
भारत में अक्सर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन गैसों के उत्सर्जन के लिए हम उतने जिम्मेदार नहीं हैं, जितने अमेरिका, चीन या अन्य विकसित देश। इसके लिए कार्बन गैसों के उत्सर्जन में प्रति व्यक्ति योगदान का हवाला दिया जाता है। लेकिन यह गलत है, क्योंकि गैस उत्सर्जन के लिए प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारी का प्रतिशत जब निकाला जाता है, तो उसमें देश की पूरी जनसंख्या को शामिल किया जाता है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र की आबादी का इसमें कोई योगदान नहीं होता। कार्बन उत्सर्जन के लिए शहरों व महानगरों के लोग और वहां मौजूद औद्योगिक इकाइयां जिम्मेदार हैं। साफ तौर पर जलवायु परिवर्तन के लिए हम भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने अमेरिका, चीन या अन्य विकसित देश। इसलिए आज अगर जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक चर्चा हो रही है, तो सबसे पहले हमें अपना घर सुधारना होगा।
दरअसल, अमेरिका की राह पर चलते हुए हमने विकास का एक ऐसा मॉडल चुना है, जो पर्यावरण प्रदूषण की मात्रा भी साथ-साथ बढ़ाता है। कार, फ्रिज, टेलीविजन, एयरकंडीशन सहित अन्य बाजारी सुविधाएं को विकास का पैमाना माना जाने लगा है। लेकिन कोई इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान की चर्चा नहीं करता। कार से जो प्रदूषण फैलता है, वह अगले सौ साल तक पर्यावरण में मौजूद रहता है और इस वक्त देश में तकरीबन 170 लाख कार हैं। आखिर हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को कितना सुरक्षित पर्यावरण देंगे?
जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर विकसित देश हायतौबा तो खूब मचा रहे हैं, लेकिन इसे कम करने को लेकर ईमानदार व गंभीर कोशिश कहीं नहीं दिखती। दरअसल सारा खेल 200 मिलियन डॉलर का है। वास्तव में, कार्बन गैसों का उत्सर्जन रोकने और पर्यावरण को सुरक्षित बनाने के नाम पर वे विकासशील देशों को ऐसी तकनीक बेचना और वहां निवेश करना चाहते हैं, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था को फायदा हो सके। भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका भी इसी दौड़ में शामिल है और इसलिए इन देशों में जलवायु परिवर्तन का शोर अधिक सुनाई देता है।
यदि वास्तव में दुनिया इसके प्रति गंभीर होती तो इसे लेकर विरोधाभास नहीं दिखता। यह विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि एक ओर जेनेवा में विश्व व्यापार संगठन जसी संस्था व्यापार बढ़ाने पर जोर दे रही है, तो कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन और इसके खतरों पर चर्चा होने जा रही है। लेकिन कोई इस बारे में बात नहीं करता कि यदि व्यापार बढ़ेगा तो क्या प्रदूषण नहीं बढ़ेगा? आखिर व्यापार जहाजों और विमान से ही किया जाएगा, जिसके चलने व उड़ान भरने में बड़ी मात्रा में ऊर्जा खपत होती है और कार्बन गैसों का उत्सर्जन होता है।
जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण अमेरिका की आरामपसंद जीवन शैली है, जिसमें अधिकतर चीजों का मशीनीकरण हो गया है। आज अगर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन और इसके खतरों की चर्चा हो रही है, तो हमें अमेरिकी जीवनशैली को टेबल पर रखने की जरूरत है। हालांकि अमेरिका पहले ही इसमें किसी तरह के फेरबदल से इनकार कर चुका है, लेकिन जब तक इसे परिवर्तनीय नहीं बनाया जाता, खतरे को कम नहीं किया जा सकता।
यदि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करना है, तो इसके लिए तीन चीजों पर खास ध्यान देना होगा। सबसे पहले तो विकास के अमेरिकी मॉडल का अनुसरण बंद करना होगा। दूसरे, व्यापार में कटौती करनी होगी और तीसरे, लोगों में जागरुकता लानी होगी। इसके लिए हम स्वीडेन को आदर्श मान सकते हैं, जहां सभी उत्पाद सामग्रियों पर कार्बन फुट प्रिंट होता है। इससे लोगों को पता चलता है कि विभिन्न स्थानों से आयाजित सामानों में कार्बन उत्सर्जन कितना हुआ है। यदि भारत में भी यही चीज शुरू की जाए तो लोगों में जागरुकता जरूर आएगी और धीरे-धीरे लोग उन चीजों को खरीदना बंद कर देंगे, जिसके आयात में कार्बन गैसों का उत्सर्जन अधिक हुआ हो। जलवायु परिवर्तन को कम करने की दिशा में यह एक कारगर कदम हो सकता है।

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