मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

बहुत शोर था . . . लिब्रहान . . .!

न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान ने तीन महीने के लिए बने आयोग की रिपोर्ट सत्रह साल बाद सौंपी और पिछले हफ्ते वह संसद में रखी गई। बाबरी मस्जिद ध्वंस को लेकर बने इस जांच आयोग पर सबकी नजरें थीं। पर साल-दर-साल माहौल-मूल्य-मुद्दे बदलते गए और अब जब यह नुमायां हो गई है, तो हम पाते हैं कि अब वह मुद्दा ही बेदम हो चुका है कि जिसके कारण बाबरी ध्वंस की शर्मनाक घटना घटी। फिर भी लोगों को दिलचस्पी तो थी ही। लेकिन वह भी रिपोर्ट के निष्कर्ष से शांत हो गई, क्योंकि इसमें आमतौर पर वही है, जिसका अंदाजा था। वही संघ परिवार और भाजपा इसमें षड्यंत्रकारी बताए गए हैं, जिन्हें देश का आमजन भी इस धत्कर्म का दोषी माने हुए था। अटल बिहारी वाजपेयी को दोषियों में रखना और तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को बख्श देना जरूर इसमें ऐसी बातें रहीं, जिन पर काफी कोहराम मचा।

देश के सर्वाधिक विवादास्पद, संवेनशील और दो समुदायों की धार्मिक भावनाओं से जुड़े बहुप्रतीक्षित बाबरी विध्वंस मामले पर रिपोर्ट आ गई है। रिपोर्ट में यूं तो कोई नई बात नहीं है। जसा कि उम्मीद थी, भगवा बिग्रेट को इसमें जमकर लताड़ लगाई गई है। लेकिन पूरे प्रकरण में भाजपा के उदारवादी माने जाने वाले वरिष्ठ नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम ने राजनीतिक हलके में तूफान मचा दिया। रिपोर्ट सीधे तौर पर वाजपेयी को दोषी नहीं बताती। लेकिन यह कह कर एक बड़ा आरोप तय करती है कि बाबरी विध्वंस कोई अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति थी और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सहित अटल बिहारी वाजपेयी भी इससे पूरी तरह वाकिफ थे। इन नेताओं ने जानबूझकर पूरे प्रकरण से दूरी बनाए रखी। वास्तव में इन्होंने जनता के विश्वास व लोकतंत्र को धोखा दिया है और इसलिए वे उनके अपराधी हैं।
बाबरी विध्वंस पर यह रिपोर्ट न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान के नेतृत्व में गठित लिब्रहान आयोग ने दी है। छह दिसंबर, 1992 को कारसेवकों द्वारा बाबरी विध्वंस को अंजाम देने के करीब दस दिन बाद ही यानी 16 दिसंबर 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस आयोग का गठन किया था और म्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान को मामले की जांच का जिम्मा सौंपा था। तब मामले की जांच के लिए उन्हें तीन माह का समय दिया गया था। लेकिन जांच पूरी होते-होते 17 साल लग गए, जिसके लिए कुल 48 बार आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया। इन 17 सालों में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कई लोगों के बयान लिए, ऑडियो-वीडियो टेप की जांच की और उसके बाद अपनी रिपोर्ट दी। एक सदस्यीय इस आयोग की जांच पर करीब आठ करोड़ रुपए का खर्च आया है।
तकरीबन एक हजार पन्ने की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं सहित 68 लोगों को नामजद किया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बाबरी विध्वंस का मुख्य साजिशकर्ता करार देते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार को इस साजिश को अमल में लाने का दोषी करार दिया है। साथ ही कें्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हाराव सरकार को भी यह कहते हुए आड़े हाथों लिया है कि उसने बाबरी विध्वंस को रोकने के लिए कोई गंभीर कदम नहीं उठाए। हालांकि यह कहकर उनका बचाव किया कि राज्य सरकार की ओर से कें्र से किसी तरह की मदद नहीं मांगी गई।
अपनी रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व अटल बिहारी वाजपेयी को पर्दे के पीछे से भूमिका निभाने वाला करार दिया है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ये नेता बाबरी विध्वंस की आरएसएस की साजिश से पूरी तरह वाकिफ थे और उन्होंने जानबूझकर राम जन्मभूमि अभियान से दूरी बनाए रखी। अपनी रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान नेताओं पर भी खूब बरसे। उन्होंने किसी दल विशेष का नाम लिए बगैर सभी नेताओं को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि अपने क्ष्रु राजनीतिक स्वार्थ के लिए वे एक महान राष्ट्र व दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में से एक को असहिष्णुता और बर्बरता की ओर ढकेल रहे हैं।
बाबरी विध्वंस पर लिब्रहान आयोग की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट कई तरह से विवादों में घिरी है। सबसे पहले तो भाजपा और सहयोगी दलों ने रिपोर्ट लीक होने को लेकर हंगामा किया। रिपोर्ट लीक होने का आरोप सरकार पर लगा, अंगुली न्यायमूर्ति लिब्रहान पर भी उठी। लेकिन इन आरोपों को लेकर न्यायमूर्ति लिब्रहान का रवैया ‘नो कमेंटज् का रहा। उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। हालांकि रिपोर्ट लीक होने के मामले में वह मीडिया पर भड़के जरूर।
रिपोर्ट का एक अन्य विवादास्पद पहलू इसका अत्यधिक समय लेना है। सरकार ने इसके लिए तीन माह की समय सीमा निर्धारित की थी, जबकि रिपोर्ट सौंपते-सौंपते न्यायमूर्ति लिब्रहान को 17 साल लग गए। इसके लिए उन्होंने प्रमुख गवाहों के असहयोगात्मक रवैये और आयोग के कामकाज के शुरुआती दिनों में ही कर्मचारियों के लगातार स्थानांतरण को जिम्मेदार ठहराया। रिपोर्ट में देरी की एक प्रमुख वजह न्यायमूर्ति लिब्रहान ने आयोग के सलाहकार अनुपम गुप्ता के असहयोगात्म रवैये को भी बताया है। तकरीबन एक हजार पन्ने की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने 18 पन्नों में इस बात का जिक्र किया है कि आखिर क्यों जांच पूरी करने में उन्हें 17 साल लग गए।
अनुपम गुप्ता के असहयोगात्म रवैये का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कहा है कि निहित कारणों से गुप्ता ने आयोग के सलाहकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभाई, जिसके चलते उन्हें बार-बार परेशानी हुई और अंतत: उन्हें इसके लिए दूसरे अधिवक्ता की मदद लेनी पड़ी। वहीं, अनुपम गुप्ता ने न्यायमूर्ति लिब्रहान पर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बचाने का आरोप लगाते हुए 2007 में ही आयोग के सलाहकार का पद छोड़ दिया था।
इसके अलावा बिना सुनवाई के रिपोर्ट में वाजयपेयी का नाम आने से भी न्यायमूर्ति लिब्रहान की किरकिरी हो रही है। प्रेक्षक जांच आयोग अधिनियम, 1952 की धारा 8बी का हवाला देते हुए रिपोर्ट में वाजपेयी को नामजद करने पर सवाल उठा रहे हैं, जिसमें किसी भी व्यक्ति पर आरोप तय करने से पहले उसका पक्ष जानने का प्रावधान है। साथ ही वे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का भी हवाला दे रहे हैं, जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने से पहले उसे सुनवाई का अधिकार होना चाहिए। इसे मानहानि से जोड़कर भी देखा जा रहा है।

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