बुधवार, 29 दिसंबर 2010

मन मसोसते मोहन

ऐसा नहीं कि यूपीए-एक के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आफतें नहीं आईं, लेकिन अंत-अंत में उन्होंने अपने को मजबूत प्रधानमंत्री साबित किया। खासतौर पर परमाणु करार के मुद्दे पर। स्वभाव के विपरीत वे विपक्ष पर आक्रमक भी हुए। जनता ने भी उन्हें सिर-आंखों पर लिया, जिसकी बदौलत आज वे फिर प्रधानमंत्री हैं। लेकिन दूसरे कार्यकाल का डेढ़ साल हाय-हाय करते ही बीता। घोटाले पर घोटाला और महंगाई समेत कई मुसीबतें उनकी सरकार को घेरे हुए हैं। हद तो यह हो गई है कि उन्हें छोड़ते हुए उनकी सरकार को जो विपक्ष पूरे दम से कोसता रहा है अब वह सीधे उनसे ही इस्तीफा मांग रहा हैं।



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन दिनों विपक्ष के निशाने पर हैं। 2जी स्पेक्ट्रम सहित अन्य घोटालों और घपलों पर विपक्ष उनसे इस्तीफा मांग रहा है। अब तक प्रधानमंत्री को विवादों से परे रखने वाला विपक्ष अचानक आक्रामक हो गया है। वह उन्हें ही भ्रष्टाचार की जड़ मान रहा है और बतौर प्रधानमंत्री यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए सभी घोटालों के लिए जिम्मेदार भी। लेकिन हमेशा की तरह पार्टी उनके साथ मजबूती से खड़ी है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पर होने वाले हर हमले का जवाब देती हैं। राहुल गांधी भी मनमोहन के कार्यकलापों का बखान करने से नहीं चूकते। यह हैरत की बात है कि डेढ़ साल पहले आम चुनाव के वक्त भाजपा उन्हें कमजोर और मजबूर प्रधानमंत्री बताते हुए उनके पीछे पड़ी थी, लेकिन जनता ने उन्हें फिर प्रधानमंत्री बनाया। पर डेढ़ साल में ही वे फजीहत में हैं।

बेदाग और साफ-सुथरी छवि के मनमोहन सिंह को लेकर अब तक विपक्ष के तेवर कभी इतने कड़े नहीं हुए थे। वह यूपीए पर तो हमला करता रहा। सोनिया भी उसके निशाने पर रहीं। लेकिन प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत तौर पर वह ईमानदार बताता रहा। लेकिन 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद विपक्ष अधिक हमलावर हो गया। अब उसके निशाने पर सीधे प्रधानमंत्री हैं। पूरे मामले में उनकी चुप्पी का हवाला देते हुए विपक्षी दल के नेता अब इसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते हुए उनसे इस्तीफे की मांग रहे हैं।

भारतीय राजनीति में मनमोहन सिंह की गिनती एक ऐसे नेता के रूप में की जाती है, जो राजनीतिज्ञ कम और आर्थिक जानकार अधिक हैं। 2004 में जब सोनिया गांधी ने उन्हें यूपीए सरकार के नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी तो विपक्ष ने यही कहकर आलोचना की थी कि उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता सरकार के कामकाज को प्रभावित करेगी। लेकिन पांच साल के पहले कार्यकाल में उन्होंने सरकार के कामकाज से विपक्ष को उसकी आलोचनाओं का जवाब दे दिया। विपक्ष अक्सर यह कहकर भी उनकी खिल्ली उड़ाता रहा है कि वे कोई लोकसभा चुनाव नहीं जीत सकते। वे फिलहाल असम से राज्यसभा के सदस्य हैं। 1999 में वे पहली बार लोकसभा चुनाव मैदान में उतरे थे। लेकिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था।

2009 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा अक्सर उन्हें ‘कमजोर प्रधानमंत्रीज् बताती रही। लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें टेलीविजन पर सीधी बहस के लिए चुनौती दी थी। लेकिन मनमोहन सिंह ने खामोश रहकर विपक्ष की इन चुनौतियों और आलोचनाओं का करारा जवाब दिया। वे हमेशा कहते रहे, चुनाव में उनका काम बोलेगा। हुआ भी यही। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपानीत राजग की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए यूपीए एकबार फिर सत्ता में आई। जनता ने फिर मनमोहन के नेतृत्व में आस्था जताई।

यूपीए सरकार में मनमोहन सिंह का यह दूसरा कार्यकाल है। इससे पहले 1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी सरकार में वे वित्त मंत्री रह चुके हैं। भारत में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया उन्होंने ही शुरू की और बतौर प्रधानमंत्री इसे आगे बढ़ाया। 2004 में जब सोनिया गांधी ने उन्हें एक नाटकीय घटनाक्रम में यह जिम्मेदारी सौंपी तो अटकलें लगाई जा रही थीं कि वे शायद ही गांधी परिवार की छाया से मुक्त सरकार देने में सक्षम हो पाएं, लेकिन अपने कामकाज से उन्होंने न केवल ऐसी अटकलों को निराधार साबित किया, बल्कि अपनी एक स्वतंत्र पहचान भी बनाई।

बतौर प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार कानून उनकी सरकार की अहम उपलब्धियों में है। दूसरे कार्यकाल में शिक्षा का अधिकार कानून एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि है। हालांकि महंगाई के मोर्चे पर सरकार शुरू से ही लड़ती रही। यूपीए के पहले कार्यकाल में भी जनता महंगाई की मार से जूझती रही। दूसरे कार्यकाल में भी यही हाल है। खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। लोगों को राहत मिलती नहीं दिख रही और यहां आर्थिक विशेषज्ञ प्रधानमंत्री विफल साबित हो रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मार्चे पर सरकार सफल नजर आती है। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में दुनिया के सबसे सशक्त देश अमेरिका से हमारी नजदीकियां बढ़ी है। भारत का परमाणु वनवास लगभग समाप्त हो गया और अमेरिका सहित कई देशों से नागरिक परमाणु समझौता मुकाम तक पहुंचा। वैश्विक मंच पर देश एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है। पूर्ववर्ती सरकारों की भांति मनमोहन सरकार ने भी पड़ोसी देशों, खासकर पाकिस्तान से संबंध सुधारने को तवज्जो दी और इस दिशा में कई प्रयास किए।

नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताने वाले मनमोहन सिंह अब आतंकवाद को भी इस दृष्टि से कम खतरनाक नहीं मानते। लेकिन आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) को हटाने के लिए वे अब भी विपक्ष के निशाने पर हैं। मुंबई में 2008 के आतंकवादी हमलों का हवाला देकर विपक्ष मनमोहन सरकार के इस फैसले पर लगातार सवाल उठा रहा है।

छब्बीस सितंबर, 1932 को पंजाब के गाह में गुरुमुख ¨सह और अमृत कौर की संतान के रूप में जन्मे मनमोहन सिंह की परवरिश उनकी दादी ने की, क्योंकि मां का निधन उनकी बहुत छोटी उम्र में हो गया था। यही वजह रही कि वे दादी के काफी करीब रहे। बंटवारे के बाद गाह पाकिस्तान के हिस्से में पड़ा और मनमोहन सिंह का परिवार अमृतसर चला आया। यहां के हिन्दू कॉलेज से उन्होंने शुरुआती शिक्षा पाई। पंजाब यूनिवर्सिटी से 1952 और 1954 में उन्होंने अर्थशास्त्र में क्रमश: स्नातक तथा एमए किया। आगे की पढ़ाई उन्होंने कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से की। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे संयुक्त राष्ट्र के व्यापार एवं विकास कार्यक्रम से जुड़ गए। इसके बाद 1970 के दशक में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया। 1982 में वे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर बने और पांच साल तक इस पद पर रहे। 1985-87 के बीच वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। 1991 में वे पहली बार सरकार से जुड़े और नरसिम्हा राव सरकार में बतौर वित्त मंत्री भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की।









गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

मेरी मुक्का.कॉम

चार सौ मीटर दौड़ और भाला फेंकने में महारत रखने वाली मेरी कॉम को आज दुनिया मुक्केबाज के रूप में जानती-पहचानती है। उनकी सफलता गरीबी, अभाव, वर्जनाओं पर समर्पण, लगन और अदम्य इच्छाशक्ति की विजय की महागाथा है। विश्व महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप जीतकर उन्होंने इतिहास रच दिया.


यूं तो कोई भी क्षेत्र महिलाओं की सफलता से अछूता नहीं है, लेकिन सफलता यूं ही नहीं मिल जाती। जीतोड़ मेहनत और कुछ कर गुजरने का जज्बा ही उन्हें आगे ले जाता है। लेकिन कुछ अलग करने की कोशिश में कई बार अपने नाराज होते हैं तो राह में मुश्किलें भी कम नहीं आतीं। मेरी कॉम ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्होंने अपने जज्बे से दुनिया जीत ली और उनके दिल भी जो मुक्केबाजी के रिंग में उतरने के उनके फैसले से नाराज थे। आज वे युवा खिलाड़ियों के लिए एक उम्मीद हैं, प्रेरणा हैं और देश की गौरव तो हैं ही।



अठारह साल की उम्र में उन्होंने रिंग में उतरने का फैसला किया था। तब महिलाओं के लिए यह क्षेत्र लगभग वर्जित था। परिवार के लोग भी नहीं चाहते थे कि वे ऐसा कुछ करें। पिता इस कदर नाराज थे कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि अब उन्हें अपने विवाह के बारे में भूल जाना चाहिए, क्योंकि कोई उनसे विवाह नहीं करेगा। लेकिन पिता और परिवार के कड़े रुख के बावजूद मुक्केबाजी को लेकर उनका समर्पण कम नहीं हुआ। अपने जज्बे और मेहनत से उन्होंने मुक्केबाजी के क्षेत्र में जो कुछ भी हासिल किया है, उससे न केवल उनके पिता खुश हैं, देश भी गौरवान्वित महसूस कर रहा है। युवतियों व अन्य उभरते खिलाड़ियों के लिए तो वे प्रेरणास्रोत हो गई हैं।



यह भी दिलचस्प है कि एक मुक्केबाज के रूप में जानी और पहचानी जाने से पहले वे एक एथलीट थीं। चार सौ मीटर दौड़ और भाला फेंकने में उन्हें महारत हासिल थी। लेकिन 1998 के एशियाई खेलों में डिंगको सिंह की कामयाबी ने मेरी कॉम को एथलीट से मुक्केबाज बना दिया। डिंगको सिंह बैंकॉक से मुक्केबाजी में सोना लेकर लौटे थे। तब मेरी को भी लगा कि उन्हें मुक्केबाजी में किस्मत आजमाना चाहिए। अगले दो साल यानी वर्ष 2000 में उन्होंने मुक्केबाजी शुरू कर दी। सिर्फ दो सप्ताह में वे मुक्केबाजी के शुरुआती गुर सीख गईं। कुछ ही दिनों में उन्होंने अपनी क्षमता भी पहचान ली और समझ गईं कि ईश्वर ने उन्हें जो प्रतिभा दी है, वह मुक्केबाजी के लिए ही है। तब शायद ही उन्होंने सोचा था कि महिला मुक्केबाजी के क्षेत्र में एक दिन वे विश्व स्तर पर सफलता के परचम लहराएंगी। लेकिन उसी साल राज्य स्तरीय महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में जीत हासिल कर उन्होंने इस दिशा में कदम बढ़ा दिए। अखबारों में छपी उनकी फोटो और जीत की खबरों ने पिता का गुस्सा भी शांत कर दिया। मेरी कॉम की प्रतिभा अब सबके सामने थी और पिता को बेटी पर फख्र होने लगा था।



राज्य स्तरीय महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में जीत के बाद मेरी कॉम ने पीछे मु़ड़कर नहीं देखा। वर्ष 2000 से 2005 के बीच उन्होंने ईस्ट इंडिया बॉक्सिंग चैम्पियनशिप के अतिरिक्त पांच राष्ट्रीय चैम्पियनशिप लगातार जीते। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताओं में भी शिरकत की और वहां भी अपनी सफलता के परचम लहराए। विश्व महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप वे पांच बार जीत चुकी हैं, जिसमें चार बार उन्होंने स्वर्ण हासिल किया। दो बार वे एशियाई महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप जीत चुकी हैं, जबकि एकबार उप विजेता रहीं। अब उनका सपना 2010 के लंदन ओलम्पिक में स्वर्ण जीतना है। वे इसके लिए हर संभव कोशिश कर रही हैं कि ओलम्पिक में महिला मुक्केबाजी को भी शामिल कर लिया जाए।



सत्ताइस वर्षीय इस महिला मुक्केबाज का बचपन गरीबी व अभाव में बीता। परिवार की सीमित आय होने के कारण उनके भाई-बहन बहुत पढ़ाई नहीं कर पाए। लेकिन मेरी कॉम की शिक्षा-दीक्षा क्रिश्चयन स्कूल से हुई। स्कूल के दिनों में ही उन्होंने एथलीट बनने की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे। लेकिन तब इसकी वजह खेल को लेकर उत्साह से अधिक परिवार की जरूरतें पूरी करना था। परिवार की आय में हाथ बंटाने के लिए ही उन्होंने खेलकूद की विभिन्न प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन आगे चलकर यह उनका शौक बन गया और आज उनके जीवन का मकसद। आज वे ऐसे बच्चों के लिए प्रशिक्षण एकेडमी चला रही हैं, जिनकी प्रतिभाएं उचित सुविधाओं के अभाव में सामने नहीं आ पाती और समय से पहले ही दम तोड़ देती हैं। उनकी एकेडमी में करीब 15 लड़के-लड़कियां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं, जिन्हें आवास व भोजन के साथ-साथ वे तमाम संसाधन भी मुहैया कराए जा रहे हैं, जो मुक्केबाजी के लिए जरूरी हैं। वे सभी मेरी कॉम की तरह बनना चाहती हैं।



मुक्केबाजी से हुई आय से उन्होंने नया घर खरीदा और माता-पिता के लिए जमीन भी। छोटे भाई-बहन, जो गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाए, के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने उनके लिए भी पैसे जमा कर दिए। उनकी बस यही कोशिश है कि जो अभाव उन्होंने ङोला, वह उनके भाई-बहनों या अन्य प्रतिभावान लड़के-लड़कियों की न हो।



मेरी कॉम आज दो बच्चों की मां हैं और करीब दो साल बाद मुक्केबाजी के रिंग में उतरने के बावजूद उन्होंने किसी को निराश नहीं किया। इसकी वजह वे अपनी फिटनेस और लगातार अभ्यास को बताती हैं। वे रोजाना दिन में पांच से छह घंटे अभ्यास करती हैं। अपनी लंबाई (पांच फुट) को लेकर उन्हें थोड़ी परेशानी जरूर है, लेकिन खुद को फिट रखकर और मुक्केबाजी के तमाम गुर अपनाकर वे विरोधियों पर भारी पड़ती हैं। सफलता के लिए वे न केवल अपनी मुट्ठियों पर भरोसा करती हैं, बल्कि दिमाग का भी बखूबी इस्तेमाल करती हैं। उनका साफ कहना है कि एक सफल मुक्केबाज बनने के लिए शारीरिक फिटनेस के अलावा दिल का मजबूत होना भी जरूरी है और उसे लेकर उत्साह व भावना भी। मुक्केबाजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए सरकार उन्हें अर्जुन अवार्ड से सम्मानित कर चुकी है। यह सम्मान पाने वाली वह देश की पहली महिला हैं। उन्हें पद्मश्री भी मिल चुका है और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार भी। लेकिन उन्हें इस बात की शिकायत है कि देश में महिला मुक्केबाजों को आर्थिक संरक्षण नहीं मिलता, जबकि टेनिस और क्रिकेट के साथ स्थिति बिल्कुल भिन्न है। उनका सवाल बिल्कुल जायज दीख पड़ता है कि क्या इस देश में टेनिस और क्रिकेट के अलावा कोई अन्य खेल नहीं है?