मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कैमरावाली वयरावाला

अनठानवे साल की होमाय वयरावाला ने सत्तर के दशक में कैमरा अलग धर दिया। पति और फिर बेटे की मृत्यु के बाद उन्हें लगा कि जीवन की सारी अच्छी चीजें चली गईं। इन उम्दा चीजों में वह जमाना भी था, जिसमें वे असीम ऊर्जा और गहरी रचनात्मकता के साथ सक्रिय थीं। चाहे वे साथ काम करने वाले हों या प्रतिस्पर्धी फोटोग्राफर या उस वक्त के, जिसे नेहरू युग के तौर पर जाना जाता है, नेता हों। इसलिए जब जमाना उनके लायक या वे जमाने के लायक नहीं रह गईं तो अपनी सहज शालीनता के साथ ‘रंगमंचज् से हट गईं। वयरावाला कभी बहुत नामवर नहीं रहीं और कोई ऐसी चाहत उन्हें कभी उकसा नहीं पाई। वे हमेशा एक ‘स्मरणीय पलज् का इंतजार करती रहतीं, जबकि और लोग रूटीन शॉट लेकर चले जाते। आज वयरावाला के अनेकानेक चित्र हमारे बेहद उथल-पुथल दौर की विरासत की तरह हैं। खुद होमाय भी बीते दौर के संघर्ष, लगन और जीवट के साथ उस मासूम और पारदर्शी समय की जीवंत मिसाल की तरह हमारे बीच मौजूद हैं।


सच, तस्वीरें बोलती हैं। बयां कर देती हैं हजारों शब्द। लेकिन कमाल सिर्फ तस्वीरों का नहीं होता। असली कलाकारी तो तस्वीर लेने वाले की होती है, जो क्लिक सही समय पर करता है। हां, सारा माजरा बस एक क्लिक का होता है, लेकिन यह कब हो; इसी से तय होती है तस्वीरों की किस्मत। एक सही क्लिक ही तय करता है कि कौन सी तस्वीर ऐतिहासिक होगी और कौन साधारण, जो समय के साथ भुला दी जाएगी। होमाय वयरावाला एक ऐसी ही फोटोग्राफर हैं। देश की पहली महिला फोटोग्राफर, जिन्होंने अपने कैमरे में कैद किए कई ऐतिहासिक पल। उनकी खिंची तस्वीरें आज धरोधर हैं। तस्वीरें आजादी के पहले की भी और उसके बाद की भी। ये गवाह हैं कई ऐतिहासिक घटनाओं की, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आने वाले बदलावों की और उसके बाद की परिस्थितियों की भी। यानी वयरावाला की तस्वीरों से हमने परतंत्र भारत व उस वक्त की गतिविधियों को भी देखा और आजाद भारत को भी देखा। हालांकि उनकी तस्वीरें 1970 तक के दशक को ही दर्शाती हैं, क्योंकि उसके बाद उन्होंने लेंस से दूरी बना ली।

‘डालडा 13ज् के नाम से मशहूर वयरावाला की गिनती कभी हाई-प्रोफाइल फोटो जर्नलिस्ट के रूप में नहीं हुई। उन्होंने खुद को इससे बचाए रखा। वे सिर्फ अपने काम से मतलब रखती थीं। अनावश्यक मुस्कराना उनकी फितरत में नहीं था। साड़ी पहने और कंधे पर कैमरा टांगे वे साइकिल से निकल पड़ती थीं दिल्ली नापने। हालांकि फोटोग्राफी का कॅरियर उन्होंने बंबई से शुरू किया था, लेकिन दिल्ली उनकी कार्यस्थली रही। ‘डालडा 13ज्, वयरावाला का यह नाम क्यों पड़ा, इसके पीछे भी एक रोचक किस्सा है। उनका जन्म 1913 में हुआ, पति मानेकशॉ से 13 वर्ष की उम्र में ही मिलीं और दिल्ली में जब उन्होंने अपनी कार ली तो उसका नंबर उन्हें ‘डीएलडी 13ज् मिला। बस यहीं से लोग, खासकर सहकर्मी उन्हें ‘डालडा 13ज् के नाम से बुलाने लगे।

बॉम्बे में 1930 के दशक में बतौर फ्रीलांसर उन्होंने काम करना शुरू किया। पहली बार 1938 में उनकी आठ तस्वीरें द बॉम्बे क्रॉनिकल में छपीं और हर तस्वीर के लिए उन्हें एक-एक रुपया मिला। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ‘इलस्ट्रेटेड वीकलीज् के लिए उन्होंने युद्धकालीन परिस्थितियों की तस्वीरें खींची, जिसमें अस्पताल, फायर ब्रिगेड, एंबुलेंस वर्कर्स, राहतकर्मियों की तस्वीरें थीं, जो किसी भी आपातकालीन परिस्थिति के लिए तैयार थे। वर्सोवा के सम्रुी तटों की तस्वीरें लेकर उन्होंने मछुआरों के जीवन को दर्शाने का प्रयत्न किया। उनका लेंस कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिलाओं की ओर भी घूमा। इसके बाद उन्होंने दिल्ली का रुख किया। 1942 में वे पति के साथ दिल्ली आ गईं और तब से यहां के राजनीतिक गलियारों में उनका कैमरा खूब घूमा। उन्होंने देर रात होने वाली हाई-प्रोफाइल लोगों की पार्टी भी कवर की। फोटोग्राफी के लिए पंडित नेहरू उनके प्रिय चरित्र रहे। वे याद करती हैं, ‘फोटोग्राफरों के लिए नेहरू का रवैया बेहद सहयोगात्मक था। यहां तक कि ऊंघते हुए भी उनकी तस्वीर ली जा सकती थी और जसे ही क्लिक की आवाज से उनकी आखें खुलतीं, वे एक प्यारी सी मुस्कराहट देते थे।ज्

वयरावाला की कालजयी तस्वीरें द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान के हालात दर्शाती हैं, तो आजाद भारत की नई उम्मीदों और आशाओं को भी। दुनिया ने उनकी तस्वीरों के माध्यम से आजाद भारत के नए रूप को भी देखा और स्वाधीनता के उत्सव को भी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान की कई गतिविधियों को उन्होंने अपने कैमरे में कैद किया। उन दिनों जब स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था, लार्ड माउंटबेटन के भारत आगमन; आजादी से ठीक पहले विभाजन को लेकर हुई कांग्रेस की बैठक और आजादी के ठीक बाद 16 अगस्त, 1947 को लाल किले की प्राचीर से पंडित जवाहर लाल नेहरू का देश को संबोधन सहित कुछ ऐसी तस्वीरें हैं, जो अमूल्य निधि हैं। हालांकि उन्हें आधी रात को हुई उस बैठक में जाने की अनुमति नहीं मिली थी, जिसमें आजादी का फैसला किया गया था। तत्कालीन नौकरशाहों ने उन्हें यह अनुमति इसलिए नहीं दी, क्योंकि तब वे ब्रिटिश कंपनी के लिए काम करती थीं।

महारानी एजिलाबेथ द्वितीय और उनके पति ड्यूक एडिनबर्ग से लेकर हो ची मिन्ह, हेलेन केलर, एडमंड हिलेरी तक के भारत आगमन को उन्होंने अपने कैमरे में कैद किया। उनकी पसंदीदा तस्वीर विजयलक्ष्मी पंडित और जवाहलाल नेहरू की वह तस्वीर है, जो उन्होंने दिल्ली एयरपोर्ट पर खींची थी। पंडित नेहरू सोवियत संघ से लौट रहीं भारत की राजदूत व अपनी बहन की अगवानी के लिए खुद वहां पहुंचे थे। वयरावाला ने दोनों भाई-बहनों के गले मिलते ही ‘क्लिकज् किया। उस तस्वीर की जीवंतता आज भी देखते ही बनती है। उनकी वह तस्वीर भी कालजयी है, जिसमें पंडित नेहरू भारत में ब्रिटिश उच्चायुक्त की पत्नी साइमन के होठों के बीच दबी सिगरेट जला रहे हैं। यह तस्वीर उन्होंने लंदन से दिल्ली आ रहे विमान में खीचीं थी। लेकिन बतौर फोटोग्राफर उन्हें आज तक इस बात का अफसोस है कि 30 जनवरी, 1948 को जब महात्मा गांधी की हत्या हुई थी, वे प्रार्थना सभा में मौजूद नहीं थीं। हालांकि बाद में उन्होंने घटना के बाद उमड़े जनसैलाब और अन्य हालातों की तस्वीरें खींचीं, लेकिन प्रार्थना सभा में अनुपस्थिति पर उनका फोटोग्राफर मन आज भी अफसोस जाहिर करता है।

उन्होंने आजादी के आंदोलन में कभी शिरकत नहीं की और इसकी वजह वे अपने काम की व्यस्तता को बताती हैं। आजादी के बारे में उनका कहना है कि यह हमें बड़ी आसानी से मिल गई। कुछ ही लोगों ने इसके लिए बलिदान दिया और तकलीफें सही, जबकि आजादी का सुख सबको मिला। मूलत: गुजरात की रहने वाली वयरावाला का जन्म 1913 में गुजरात के एक छोटे से शहर नवसारी में हुआ था। पिता उर्दू-पारसी थियेटर के कलाकार थे। वहीं शुरुआती शिक्षा हुई। लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए घरवालों ने उन्हें बॉम्बे भेज दिया। वहां बॉम्बे विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की डिग्री ली और जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स से कला में डिप्लोमा लिया। यहीं उनकी मुलाकात मानेकशॉ से हुई और बाद में दोनों विवाह बंधन में बंध गए। फोटोग्राफी के क्षेत्र में वे पति मानेकशॉ के कारण ही आईं। फोटोग्राफी की नई-नई परवान चढ़ती विधा में मानेकशॉ की दिलचस्पी थी। वयरावाला कहती हैं, ‘अगर मानेक आर्किटेक्ट होते तो मैं भी आर्किटेक्ट ही होती।ज् लेकिन 1969 में मानेकशॉ की मौत के बाद ये सारी चीजें उनके लिए निर्थक हो गई। बकौल, वयरावाला उनके दौर की सभी अच्छी चीजें खत्म हो चुकी थीं। अच्छे नेताओं का निधन हो चुका था या जा वहां से जा चुके थे। पति की मौत के बाद वयरावाला भी बेटे के साथ पिलानी चली गईं, जो वहीं बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में केमिकल इंजीनियरिंग पढ़ाते थे। ग्यारह वर्ष वहां रहने के बाद मां-बेटे बडोदरा चले गए। लेकिन कुछ ही सालों बाद 1989 में बेटे की भी कैंसर से मौत हो गई, जिसके बाद वे नितांत अकेली रह गईं। उनके अनुसार यहीं उनका जीवन खत्म हो गया।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

दाग-दाग उजाला, हक अदा न हुआ

वरिष्ठ पत्रकार व चिंतक देवदत्त से बातचीत पर आधारित


फैज ने आजादी मिलने के वक्त ही कहा था कि ‘वह सुबह अभी नहीं आई।ज् अब हमें स्वतंत्र हुए तिरसठ साल हो गए हैं पर लगता यही है कि जिस आजादी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी, जिन उद्देश्यों और सपनों के लिए लाखों-लाख लोगों ने कुर्बानियां दीं, वह आजादी अब भी लाहासिल ही है। देश में विकास बेशक हुआ। कई मामलों में आशातीत सफलता हमने पाई लेकिन फिर भी एक समतामूलक, सबको समान अवसरों वाला और सबके लिए जीवन के जरूरी संसाधन जुटाने वाला समाज हम नहीं बना पाए। समाज में हिंसा और विभाजन बढ़ा है। पैसे की ताकत का बोलबाला है। आम जन हाशिये पर है। लोक पर तंत्र हावी है और भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है। निश्चय ही स्वतंत्रता एक महान उपलब्धि है, लेकिन उसके उद्देश्य अभी आधे-अधूरे हैं। हमने विकास का लाभोन्मुख मॉडल चुना है जनोन्मुख नहीं।



बेशक आजादी हमें 1947 में मिली और जब भी हम आजादी के आंदोलन को याद करते हैं तो महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चं्र बोस, भगत सिंह, रासबिहारी बोस जसे आंदोलनकारियों की छवि बरबस ही सामने आ जाती है। लेकिन हम अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं, जिन्होंने आजादी के आंदोलन में सबसे अधिक और शुरुआती दिनों में योगदान दिया। सच कहें तो आजादी की लड़ाई उन्हीं लोगों ने शुरू की, जिसे बाद में गांधी, नेहरू जसे लोगों ने आगे बढ़ाया। ये हैं देश के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले आदिवासी, जो 18वीं सदी से ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन आजादी के आंदोलन को याद करते वक्त हम अक्सर उन्हें भुला देते हैं। खासकर देश का अभिजात्य वर्ग उनके योगदान के प्रति आंखें मूंदे रहता है। इस प्रवृत्ति को दूर करने की जरूरत है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आजादी निस्संदेह एक महान उपलब्धि है और 1947 से हर साल 15 अगस्त को हम इसका जश्न मनाते हैं। यह सही भी है, लेकिन इस जश्न और जलसे में एक उदासी भी होनी चाहिए। स्वतंत्रता के ठीक बाद हुई हिंसा को लेकर, दंगों को लेकर, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और बेघर हुए। यह विडंबना ही है कि आजाद भारत में 1947 के बाद जब भी कहीं कोई दंगा-फसाद या हिंसा हुई, उसकी जांच के लिए आयोग बने। लेकिन आजादी के ठीक बाद की हिंसा की जांच के लिए अब तक कोई आयोग नहीं बनाया गया। साफ है कि हमारे हुक्मरानों ने उस हिंसक वारदात से कुछ भी सीखने की जरूरत महसूस नहीं की, जबकि हमें उससे सबक लेने की जरूरत है। वह घटना भारतीय जनमानस के एक पक्ष को भी उजागर करती है। आज समाज में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्तियों को समझने के लिए भी उसे जानना और समझना जरूरी है।

यह भी मेरी समझ से परे है कि हर साल आजादी का जश्न लाल किले में ही क्यों मनाया जाता है? क्यों प्रधानमंत्री वहीं से देश की जनता को संबोधित करते हैं, जबकि यह आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों का नहीं, बल्कि मुगल सल्तनत का प्रतीक है। इसी तरह गणतंत्र दिवस समारोह के लिए इंडिया गेट को चुना गया, जो ब्रिटिश शासन का प्रतीक है। साफ है कि जिसके खून-पसीने से हमें आजादी मिली, हमने उसे ही भुला दिया। जलसे और जश्न के लिए हमें किसी ऐसी जगह को चुनना चाहिए था, जो लोगों की लड़ाई से जुड़ा था।

जहां तक उन सपनों के पूरे होने की बात है, जो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों ने देखे थे, तो कहा जा सकता है कि वे अब तक पूरे नहीं हुए हैं। स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के लिए जो लड़ाई लड़ी गई थी, वह अब तक लोगों को नहीं मिली है। आदिवासियों को, जिन्होंने आजादी की लड़ाई शुरू की, अब तक व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिली और न ही हक। मौजूदा समय में नक्सली आंदोलन की यह एक बहुत बड़ी वजह है। कहा जा सकता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में आदिवासियों का जो आंदोलन थम गया था, आज एक बार फिर शुरू हो चुका है। यानी आदिवासियों के लिए जो स्थिति ब्रिटिश शासनकाल में थी, वही आजाद भारत में भी है और इसलिए एक बार फिर उन्होंने शासन के खिलाफ बगावत कर दी है।

हरिजनों, दलितों का उत्थान हुआ है, लेकिन इस दिशा में और काम करने की जरूरत है। गांधी ने स्वतंत्र भारत में छुआछूत और जातिवाद की कल्पना नहीं की थी। इन्हें दूर करने के लिए उन्होंने अथक प्रयास भी किए। उन्होंने हिंदुओं को छुआछूत से दूर रहने की नसीहत दी तो दलितों को भी अपना समाज सुधारने के लिए कहा था। लेकिन आजादी के छह दशक बाद भी देश इन कुरीतियों के जंजाल से पूरी तरह नहीं छूटा है। छुआछूत जसी कुरीतियां कम हुई हैं, पर समाप्त नहीं। बड़े शहरों में इनका असर भले देखने को न मिले, लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और दूरदराज के इलाकों में ये कुरीतियां अब भी देखी जा सकती हैं। जाति का बंधन भी आसानी से टूटता नहीं दिखता। कई राजनीतिक दलों की राजनीति का आधार ही जाति है। यानी सुधार की जो प्रक्रिया गांधी ने शुरू की थी, वह अधूरी रह गई है और दुखद यह कि सरकार इसके प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती।

अगर लोकतंत्र की बात की जाए तो गांधी ने जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना की थी, वह केवल पंचायती राज संस्थाओं में परिलक्षित हुआ। वह भी काफी देर से। यहां लोगों को दिया गया मताधिकार निश्चय ही एक ऐतिहासिक फैसला था। ऐसे में जबकि दुनियाभर में मताधिकार के लिए लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी, भारत में वयस्कों को यह अधिकार रातों-रात मिल गया।

आजादी के तुरंत बाद इसकी घोषणा हुई। लेकिन लोकतंत्र का जो स्वरूप यहां स्थापित हुआ, वह प्रतिनिध्यात्मक बनकर रह गया, उदारवादी नहीं। इस कड़ी में आपातकाल को नहीं भूला जा सकता। यह भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा और दुखद अध्याय है, जिसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी गईं। लेकिन अब तक किसी सरकार ने उससे सबक सीखने की जरूरत महसूस नहीं की। भारतीय इतिहास के उस काले अध्याय से सबक लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाने की जरूरत है।

भूख आज भी एक बड़ी समस्या है। लेकिन सरकारी नीतियों का फोकस भुखमरी को दूर करने पर नहीं है। देश के करीब 47 प्रतिशत लोग कुपोषण के शिकार हैं। गरीबी से लोगों को निजात नहीं मिल रही। यानी जनता की समस्याएं जस की तस हैं। 1990-91 में वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की जो प्रक्रिया शुरू की थी, वह लाभोन्मुखी तो है, लेकिन जनोन्मुखी नहीं। इस व्यवस्था में सारा ध्यान उत्पादन बढ़ाने पर दिया जा रहा है, उसके समुचित वितरण पर नहीं। यही वजह है कि इस नीति से भले ही देश की आर्थिक विकास दर कई गुना बढ़ जाए, लेकिन जनता को इसका सीधा लाभ मिलता नहीं दिखाई दे रहा। जनता के एक बड़े वर्ग का गरीबी रेखा के नीचे होना सरकारी नीति की विफलता का ही प्रमाण है।

सभी चित्र गूगल से साभार. रेखाचित्र आज समाज दैनिक से साभार.