मंगलवार, 17 अगस्त 2010

दाग-दाग उजाला, हक अदा न हुआ

वरिष्ठ पत्रकार व चिंतक देवदत्त से बातचीत पर आधारित


फैज ने आजादी मिलने के वक्त ही कहा था कि ‘वह सुबह अभी नहीं आई।ज् अब हमें स्वतंत्र हुए तिरसठ साल हो गए हैं पर लगता यही है कि जिस आजादी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी, जिन उद्देश्यों और सपनों के लिए लाखों-लाख लोगों ने कुर्बानियां दीं, वह आजादी अब भी लाहासिल ही है। देश में विकास बेशक हुआ। कई मामलों में आशातीत सफलता हमने पाई लेकिन फिर भी एक समतामूलक, सबको समान अवसरों वाला और सबके लिए जीवन के जरूरी संसाधन जुटाने वाला समाज हम नहीं बना पाए। समाज में हिंसा और विभाजन बढ़ा है। पैसे की ताकत का बोलबाला है। आम जन हाशिये पर है। लोक पर तंत्र हावी है और भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है। निश्चय ही स्वतंत्रता एक महान उपलब्धि है, लेकिन उसके उद्देश्य अभी आधे-अधूरे हैं। हमने विकास का लाभोन्मुख मॉडल चुना है जनोन्मुख नहीं।



बेशक आजादी हमें 1947 में मिली और जब भी हम आजादी के आंदोलन को याद करते हैं तो महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चं्र बोस, भगत सिंह, रासबिहारी बोस जसे आंदोलनकारियों की छवि बरबस ही सामने आ जाती है। लेकिन हम अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं, जिन्होंने आजादी के आंदोलन में सबसे अधिक और शुरुआती दिनों में योगदान दिया। सच कहें तो आजादी की लड़ाई उन्हीं लोगों ने शुरू की, जिसे बाद में गांधी, नेहरू जसे लोगों ने आगे बढ़ाया। ये हैं देश के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले आदिवासी, जो 18वीं सदी से ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन आजादी के आंदोलन को याद करते वक्त हम अक्सर उन्हें भुला देते हैं। खासकर देश का अभिजात्य वर्ग उनके योगदान के प्रति आंखें मूंदे रहता है। इस प्रवृत्ति को दूर करने की जरूरत है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आजादी निस्संदेह एक महान उपलब्धि है और 1947 से हर साल 15 अगस्त को हम इसका जश्न मनाते हैं। यह सही भी है, लेकिन इस जश्न और जलसे में एक उदासी भी होनी चाहिए। स्वतंत्रता के ठीक बाद हुई हिंसा को लेकर, दंगों को लेकर, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और बेघर हुए। यह विडंबना ही है कि आजाद भारत में 1947 के बाद जब भी कहीं कोई दंगा-फसाद या हिंसा हुई, उसकी जांच के लिए आयोग बने। लेकिन आजादी के ठीक बाद की हिंसा की जांच के लिए अब तक कोई आयोग नहीं बनाया गया। साफ है कि हमारे हुक्मरानों ने उस हिंसक वारदात से कुछ भी सीखने की जरूरत महसूस नहीं की, जबकि हमें उससे सबक लेने की जरूरत है। वह घटना भारतीय जनमानस के एक पक्ष को भी उजागर करती है। आज समाज में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्तियों को समझने के लिए भी उसे जानना और समझना जरूरी है।

यह भी मेरी समझ से परे है कि हर साल आजादी का जश्न लाल किले में ही क्यों मनाया जाता है? क्यों प्रधानमंत्री वहीं से देश की जनता को संबोधित करते हैं, जबकि यह आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों का नहीं, बल्कि मुगल सल्तनत का प्रतीक है। इसी तरह गणतंत्र दिवस समारोह के लिए इंडिया गेट को चुना गया, जो ब्रिटिश शासन का प्रतीक है। साफ है कि जिसके खून-पसीने से हमें आजादी मिली, हमने उसे ही भुला दिया। जलसे और जश्न के लिए हमें किसी ऐसी जगह को चुनना चाहिए था, जो लोगों की लड़ाई से जुड़ा था।

जहां तक उन सपनों के पूरे होने की बात है, जो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोगों ने देखे थे, तो कहा जा सकता है कि वे अब तक पूरे नहीं हुए हैं। स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के लिए जो लड़ाई लड़ी गई थी, वह अब तक लोगों को नहीं मिली है। आदिवासियों को, जिन्होंने आजादी की लड़ाई शुरू की, अब तक व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिली और न ही हक। मौजूदा समय में नक्सली आंदोलन की यह एक बहुत बड़ी वजह है। कहा जा सकता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में आदिवासियों का जो आंदोलन थम गया था, आज एक बार फिर शुरू हो चुका है। यानी आदिवासियों के लिए जो स्थिति ब्रिटिश शासनकाल में थी, वही आजाद भारत में भी है और इसलिए एक बार फिर उन्होंने शासन के खिलाफ बगावत कर दी है।

हरिजनों, दलितों का उत्थान हुआ है, लेकिन इस दिशा में और काम करने की जरूरत है। गांधी ने स्वतंत्र भारत में छुआछूत और जातिवाद की कल्पना नहीं की थी। इन्हें दूर करने के लिए उन्होंने अथक प्रयास भी किए। उन्होंने हिंदुओं को छुआछूत से दूर रहने की नसीहत दी तो दलितों को भी अपना समाज सुधारने के लिए कहा था। लेकिन आजादी के छह दशक बाद भी देश इन कुरीतियों के जंजाल से पूरी तरह नहीं छूटा है। छुआछूत जसी कुरीतियां कम हुई हैं, पर समाप्त नहीं। बड़े शहरों में इनका असर भले देखने को न मिले, लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और दूरदराज के इलाकों में ये कुरीतियां अब भी देखी जा सकती हैं। जाति का बंधन भी आसानी से टूटता नहीं दिखता। कई राजनीतिक दलों की राजनीति का आधार ही जाति है। यानी सुधार की जो प्रक्रिया गांधी ने शुरू की थी, वह अधूरी रह गई है और दुखद यह कि सरकार इसके प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती।

अगर लोकतंत्र की बात की जाए तो गांधी ने जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना की थी, वह केवल पंचायती राज संस्थाओं में परिलक्षित हुआ। वह भी काफी देर से। यहां लोगों को दिया गया मताधिकार निश्चय ही एक ऐतिहासिक फैसला था। ऐसे में जबकि दुनियाभर में मताधिकार के लिए लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी, भारत में वयस्कों को यह अधिकार रातों-रात मिल गया।

आजादी के तुरंत बाद इसकी घोषणा हुई। लेकिन लोकतंत्र का जो स्वरूप यहां स्थापित हुआ, वह प्रतिनिध्यात्मक बनकर रह गया, उदारवादी नहीं। इस कड़ी में आपातकाल को नहीं भूला जा सकता। यह भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा और दुखद अध्याय है, जिसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी गईं। लेकिन अब तक किसी सरकार ने उससे सबक सीखने की जरूरत महसूस नहीं की। भारतीय इतिहास के उस काले अध्याय से सबक लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाने की जरूरत है।

भूख आज भी एक बड़ी समस्या है। लेकिन सरकारी नीतियों का फोकस भुखमरी को दूर करने पर नहीं है। देश के करीब 47 प्रतिशत लोग कुपोषण के शिकार हैं। गरीबी से लोगों को निजात नहीं मिल रही। यानी जनता की समस्याएं जस की तस हैं। 1990-91 में वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की जो प्रक्रिया शुरू की थी, वह लाभोन्मुखी तो है, लेकिन जनोन्मुखी नहीं। इस व्यवस्था में सारा ध्यान उत्पादन बढ़ाने पर दिया जा रहा है, उसके समुचित वितरण पर नहीं। यही वजह है कि इस नीति से भले ही देश की आर्थिक विकास दर कई गुना बढ़ जाए, लेकिन जनता को इसका सीधा लाभ मिलता नहीं दिखाई दे रहा। जनता के एक बड़े वर्ग का गरीबी रेखा के नीचे होना सरकारी नीति की विफलता का ही प्रमाण है।

सभी चित्र गूगल से साभार. रेखाचित्र आज समाज दैनिक से साभार.

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