शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

हरित क्रांति में नहीं हरा भरा सब

नॉर्मन बोरलॉग ने हमें उस समय खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया, जब हमें इसकी बहुत जरूरत थी। लेकिन जो हरित क्रांति उनकी मदद से हुई, उसमें कुछ बड़े संकट अंतर्निहित थे। अस्सी के दशक में ही इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा था। हमने इसका जायजा नहीं लिया और अब दूसरी हरित क्रांति की रट लगाए हैं। दूसरी हरित क्रांति का फायदा भी किसानों को नहीं, सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होगा।

हरित क्रांति के जनक नार्मन बोरलॉग नहीं रहे। लेकिन खाद्यान्न की पैदावार बढ़ाने में उनके योगदान हमेशा अविस्मरणीय रहेंगे। उन्होंने ऐसे वक्त में भारत को गेहूं व धान के उन्नत किस्म के बीज मुहैया कराए, जब सूखे की वजह से देश भुखमरी की कगार पर था। विदेशों से कई टन अनाज आयात किए जा रहे थे, लेकिन खाद्यान्न समस्या सुलझने का नाम नहीं ले रही थी।
सूखे से देश में पैदा हुए हालात को देखते हुए 1965 में एक करोड़ टन अनाज का आयात किया गया था। फिर भी यह लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों को सप्ताह में एक दिन व्रत के नाम पर भूखे रहने की सलाह दी थी। उनके निधन के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। तब भी खाद्यान्न समस्या ज्यों की त्यों थी। ऐसे में अगले ही साल यानी 1966 में 1.10 करोड़ टन अनाज का आयात किया गया, जो अब तक आयात किए जाने वाले खाद्यान्न की सबसे अधिक मात्रा थी।
देश के हालात को देखते हुए कहा जा रहा था कि 1970 के दशक के अंत तक यहां के लोग भूख से मर जाएंगे, क्योंकि पैदावार बढ़ने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसे में नॉर्मन बोरलॉग ने खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का फॉर्मूला दिया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष उनके द्वारा तैयार उन्नत किस्म के बीज खरीदने का प्रस्ताव रखा। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने हामी भरी और 1966 में मेक्सिको से 18 हजार टन गेहूं के बीज आयात किए गए। इन्हें पांच-पांच किलो के पैकेट में बांटकर किसानों के बीच वितरित किया गया। इनके इस्तेमाल के लिए खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को चुना गया, क्योंकि इन बीजों के सफल परिणाम के लिए ऐसे क्षेत्रों में इनके इस्तेमाल की जरूरत थी, जहां सिंचाई के लिए पानी की पर्याप्त सुविधा हो। साथ ही बोरलॉग रासायनिक खादों के भी हिमायती थे। उनका साफ कहना था कि पर्याप्त सिंचाई और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से ही उन्नत किस्म के इन बीजों से पैदावार बढ़ाई जा सकती है। देश में इन बीजों के इस्तेमाल का असर भी हुआ। 1966 में जहां 1.20 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ, वहीं अगले ही साल यानी 1967 में पैदावार बढ़कर 1.70 करोड़ टन हो गई। एक ही साल में पैदावार में पांच लाख टन की वृद्धि अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। गेहूं के इस आशातीत उत्पादन के आयात बंद कर दिया गया और 1970 तक भारत ‘आत्मनिर्भर गेहूं उत्पादक देशज् हो गया।
जाहिर तौर पर गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का श्रेय बॉरलॉग को जाता है। खासतौर पर ऐसे समय में जब देश भूखों मर रहा था, इसे खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बोरलॉग ने पैदावार बढ़ाने का जो फॉर्मूला दिया, उससे कई नुकसान भी हुए। सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण को हुआ। इससे होने वाले नुकसान की ओर सबसे पहले अमेरिका की जीववैज्ञानिक व प्रकृतिविद रिचेल लुईस कार्सन ने 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंगज् से ध्यान खींचा। उन्होंने सिंचाई के लिए अत्यधिक मात्रा में पानी के दोहन, कीटनाशकों व रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पर्यावरण व पशु-पक्षियों को होने वाले नुकसान के प्रति आगाह किया। लेकिन बोरलॉग का इनके प्रति आग्रह इस कदर था कि उन्होंने कार्सन को ‘बुरी ताकतज् बताते हुए यहां तक कह डाला कि ये वे लोग हैं, जो दुनिया से भूख नहीं मिटाना चाहते। उन्हें जब ब्राजील में नाइट्रोजन फर्टिलाइजर के इस्तेमाल के बगैर ही ईख व सोयाबीन के उत्पादन में वृद्धि की बात कही गई, तब भी उन्होंने इसे नहीं माना।
बोरलॉग के फॉर्मूले को अपनाते हुए भारत ने जो हरित क्रांति की, उसका कुप्रभाव 1980 के दशक से देश में दिखने लगा। भूजल स्तर नीचे चला गया, पक्षी मरने लगे, भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती गई, तो कई कीड़ों में जबरदस्त प्रतिरोधी क्षमता पैदा हो गई है। दुनियाभर में आज करीब 500 कीड़े हैं, जो नहीं मरते।
कीटनाशकों व रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पंजाब, हरियाणा में भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो गई है। उसमें कार्बनिक पदार्थ केवल 0.1 प्रतिशत रह गया। ऐसे में जाहिर तौर पर पैदावार में एकबार फिर कमी आने लगी और इसे बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। परिणाम यह हुआ कि खाद, कीटनाशक व सिंचाई की मात्रा बढ़ गई। पंजाब में आज खाद की खपत दोगुनी हो गई है। राज्य में 138 डेवेलपमेंट ब्लॉक हैं, जिनमें से 108 में 98 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है। यदि यही स्थिति रही तो 2025 तक राज्य में पानी नहीं बचेगा और यह रेगिस्तान बन जाएगा। बोरलॉग ने कभी इस बारे में नहीं सोचा, बल्कि इस ओर ध्यान दिलाने पर उन्होंने यह तर्क दिया कि देश में सूखे से जो हालात थे, उससे निपटने के लिए पैदावार बढ़ाने की जरूरत तो थी और यदि हरित क्रांति नहीं होती, तो इसके लिए 5.80 करोड़ हेक्टेयर भूमि की अधिक आवश्यकता होती।
बहरहाल, खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बोरलॉग का योगदान सराहनीय है, लेकिन आत्मनिर्भर हो जाने के बाद हमें इसकी समीक्षा करने की जरूरत थी, जो हमने नहीं की और जिसका खामियाजा हमें आज भुगतना पड़ रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि पहली हरित क्रांति का मॉडल विफल हो चुका है। हम एकबार फिर दूसरी हरित क्रांति की ओर भाग रहे हैं, लेकिन इससे केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा होने वाला है, आम किसानों को नहीं। दरअसल, इस दिशा में हमें संतुलन बनाने की जरूरत है।
जहां तक भूख और किसानों की आत्महत्या की बात है, तो हरित क्रांति से इसका कोई संबंध नहीं है। अक्सर देखा गया है कि पैदावार बढ़ने और पर्याप्त खाद्यान्न भंडार के बावजूद एक बड़ी आबादी भूख की शिकार रही। 2001-03 में देश के खाद्यान्न भंडार में 650 लाख टन अनाज निर्धारित मात्रा से अधिक था, फिर भी 32 करोड़ लोग भूख से पीड़ित थे। साफ तौर पर भूख से निपटने के लिए पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ आम लोगों तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करना भी जरूरी है।


कृषि मामलों के जानकार देवें्र शर्मा से बातचीत पर आधारित

शनिवार, 12 सितंबर 2009

सब सुनो भागवत!

भाजपा में जब घमासान मचा हुआ था। उसके नेता खुलेआम उसे लताड़ रहे थे, नसीहतें दे रहे थे। आडवाणी और राजनाथ सिंह सहित सभी नेता निशाने पर थे। कलह लगातार कर्कश हो रही थी, तभी नागपुर से दिल्ली आए सर संघचालक मोहन भागवत। तीन दिन सबसे मिले। प्रेस कांफ्रेंस की और संदेश दिया- सुधर जाओ। लड़ो-झगड़ो नहीं। युवाओं को आगे लाओ। अलग-अलग और एक साथ उनसे बड़े-छोटे सब भाजपायी मिले। भाजपा कलह-शांति के लिए भागवत कथा का असर भी हुआ।

सर संघचालक मोहन राव भागवत की कुछ विशेषताएं : संघ के सबसे युवा प्रमुख। युवाओं को आगे लाने और जम्मेदारी देने के समर्थक। संगठनात्मक मजबूती के लिए आधुनिकता व परिवर्तन के समर्थक। लेकिन ‘मूल विचारधारा से कोई समझौता नहींज् के पैरोकार। उन्हें किसी भी अनुषांगिक संगठन का विचारधारा से भटकाव मंजूर नहीं। इसलिए यदि संघ का कोई परिवारी विचारधारा से भटक गया हो, तो उसे राह पर लाने की पुरजोर कोशिश करना।
भागवत के संघ प्रमुख बनते ही स्पष्ट हो गया था कि संघ और इसके संगठनों में आमूल-चूल परिवर्तन होने वाला है। यह भी साफ था कि वह परिवार में संघ की सर्वोपरिता चाहते हैं, ठीक वैसे ही जसे कभी जनसंघ के समय थी। आम तौर पर संघ प्रमुख मीडिया से कम ही मुखातिब होते हैं। लेकिन इस परंपरा से अलग भागवत ने अपनी बात कहने के लिए मीडिया को माध्यम बनाया। संवाददाता सम्मेलनों के जरिए परिवार के संगठनों को संदेश दिया कि युवाओं को आगे लाओ। समय के साथ चलने के लिए आधुनिकता अपनाओ। लेकिन विचारधारा से कोई समझौता न करो। अन्यथा हश्र वही होगा, जो विवेकानंद कें्र का हुआ। विवेकानंद कें्र, जो कभी परिवार का हिस्सा था, लेकिन अंदरूनी लड़ाई-झगड़े व विचारधारा से भटकाव के चलते आज परिवार से बाहर है। आज कें्र की लगातार कोशिश है कि उसे परिवार में शामिल कर लिया जाए, लेकिन परिवार उसे अपनाने को तैयार नहीं।
लोकसभा चुनाव से ऐन पहले भागवत संघ प्रमुख बने थे। बुजुर्ग संघ प्रमुख केसी सुदर्शन ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर अवकाश ले लिया था। उनके संघ प्रमुख बनते ही यह भी साफ हो गया था कि संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा के साथ संबंधों को वह नए सिरे से परिभाषित करेंगे। यह वह वक्त था जब भाजपा सत्ता में वापसी की तैयारी कर रही थी। कहा गया कि लोगों को एकजुट करने की क्षमता के धनी भागवत की सर संघचालक के रूप में ताजपोशी से चुनाव में भाजपा को मदद मिलेगी। चुनाव हुए। परिणाम आया। पार्टी बुरी तरह पराजित हुई। और फिर, पार्टी में घमासान। भाजपा की इस दुर्दशा से पितृ संगठन संघ का चिंतित होना स्वाभाविक था। पार्टी की दुर्दशा के लिए भागवत को एक वजह युवा नेतृत्व का अभाव दिखा। कई मौकों पर उन्होंने पार्टी को इसके संकेत भी दिए। लेकिन पार्टी इसे अनसुना करती गई। शिमला में चिंतन बैठक से पहले भी उन्होंने भाजपा में युवाओं को आगे लाने का मुद्दा छेड़ा। कहा, नेतृत्व युवाओं को सौंपा जाना चाहिए। बुजुर्गो को सलाहकार की भूमिका अदा करनी चाहिए। लेकिन एकबार फिर उनकी बात अनसुनी कर दी गई। चिंतन बैठक में इस पर चर्चा तक नहीं हुई।
इसी बीच जिन्ना का जिन्न एकबार फिर बाहर आया और पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह निष्कासित कर दिए गए। उधर, राजस्थान में वसुंधरा राजे और उत्तराखंड में भुवन चं्र खंडूरी ने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। हर तरफ से पार्टी को गर्त में जाता देख वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने संघ से गुहार लगाई, भाजपा को बचा लो। आखिर कब तक संघ चुपचाप देखता रहता। सर संघचालक को आगे आना पड़ा। दिल्ली में संवाददाता सम्मेलन बुलाया। लगभग सवा घंटे तक कथावाचक की तरह बोलते रहे। माना कि भाजपा रसातल की ओर जा रही है। लेकिन उम्मीद भी जताई कि इन सबसे उबरकर जल्द ही पार्टी ‘राख से उठ खड़ी होगी।ज् लेकिन जब भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की बात आई, तो एक मंङो हुए राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने कहा, इसका फैसला पार्टी को ही करना है। संघ इसमें किसी तरह की दखलअंदाजी नहीं करेगा और न ही बिन मांगी सलाह देगा। लेकिन यह कहकर बहुत कुछ कह दिया कि संघ ने अपने सक्रिय स्वयंसेवकों की उम्र 55-60 वर्ष तय की है। जहां तक भाजपा का सवाल है, उसे भी सक्रिय राजनीति में नेताओं की उम्र खुद ही तय करनी है। इसके अतिरिक्त, राम मंदिर के प्रति प्रतिबद्धता जताकर उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि भाजपा का मूल विचारधारा से भटकाव संघ को मंजूर नहीं।
संघ प्रमुख के संवाददाता सम्मेलन से पहले और उसके बाद जिस तरह भाजपा नेताओं में हड़कंप देखा गया, वरिष्ठ व प्रमुख नेताओं ने संघ प्रमुख से मिलने के लिए जो भागमभाग की, उससे भागवत के ना-ना करते भी यह जहिर हो गया कि भाजपा संघ के भारी दबाव में है। संघ और भाजपा एक-दूसरे के असर से बचने की हमेशा दलील देते रहे हैं। पर भागवत के दिल्ली के तीन दिन इस भ्रम को तोड़ने वाले थे। पूरी पार्टी संघ की शरण में थी। भागवत शायद पहले संघ प्रमुख होंगे, जिन्होंने भाजपा की ऐसे खुलेआम क्लास लगाई और दोनों के संबंधों पर से पर्दा उठा दिया। लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली का केशव कुंज पहुंचना इस बात के साफ संकेत हैं कि संघ प्रमुख संवाददाता सम्मेलन में भले ही कुछ भी कहें, अंदर कोई बड़ी खिचड़ी पक रही है और संघ ‘बिल्कुल चुपज् नहीं है। दरअसल, एक मजबूत भाजपा संघ के उद्देश्यों को भी पूरा करती है। शायद यही वजह है कि पार्टी को इस संकट से उबारने के लिए संघ ने सौ दिन की कार्ययोजना बनाई है। इस बीच संघ प्रमुख पूरे देश का दौरा करेंगे और संघ सहित इसके संगठनों की जड़ें मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे। तब तक भाजपा को नेतृत्व का मसला सुलझा लेने के लिए कहा गया है।
59 वर्षीय भागवत मूलत: महाराष्ट्र के चं्रपुर जिले से आते हैं। आरएसएस से जुड़ाव उन्हें पारिवारिक विरासत में मिली। पिता मधुकर भागवत आरएसएस के चं्रपुर जोन के प्रमुख थे। बाद में वह गुजरात में प्रांत प्रचारक रहे। कहा जाता है कि इसी दौरान उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी को संघ से जोड़ा। तीन भाई और एक बहन में सबसे बड़े भागवत ने चं्रपुर से ही स्कूली शिक्षा पूरी की व विज्ञान में स्नातक हुए। बाद में उन्होंने अकोला स्थित पुंजाबराव कृषि विश्वविद्यालय से पशु चिकित्सा में स्नातक की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मास्टर डिग्री में दाखिला लिया, लेकिन 1975 के अंत में आपातकाल के समय बीच में ही पढ़ाई छोड़ वह आरएसएस के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गए। तब से लगातार वह संघ की गतिविधियों में सक्रिय रहे और विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते हुए आज सर संघचालक हैं।

पटेल से हुए पस्त

‘जिन्ना : इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंसज् लिखकर सुर्खियों में आए भाजपा के पूर्व वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने सोचा भी नहीं होगा कि एक पुस्तक लिखने का खामियाजा उन्हें पार्टी से निष्कासित होकर चुकाना होगा। भाजपा की कट्टर दक्षिणपंथी नीति से अलग वह अपनी एक अलग उदार लोकतांत्रिक सोच के लिए जाने जाते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध नहीं होने के बावजूद उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेताओं में अपनी जगह बनाई और तीन प्रमुख मंत्रालयों को संभालने की जिम्मेदारी निभाई। हालांकि इस बीच समय-समय पर विवाद भी उनसे जुड़ते रहे हैं।

या यूं कहें कि विवादों का उनसे चोली-दामन का संबंध रहा। लेकिन जिन्ना पर लिखी पुस्तक से पैदा हुए ताजा विवाद ने भाजपा से उनके निष्कासन का रास्ता बना दिया।
पार्टी को यह बात नागवार गुजरी कि उसका ही नेता आखिर कैसे भारत विभाजन के लिए जिन्ना को जिम्मेदार नहीं ठहराते हुए उन्हें धर्मनिरपेक्ष बता सकता है! पार्टी के लिए इससे भी बड़ा झटका यह रहा कि जसवंत ने उनके आदर्श देश के पहले गृहमंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत-विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। जसवंत ने अपनी पुस्तक ‘जिन्ना : इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंसज् में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व सरदार वल्लभ भाई की अत्यधिक कें्रीकृत नीति को भारत विभाजन के लिए जिम्मेदार माना है। पार्टी का कहना है कि पुस्तक में ऐसे आठ संदर्भो की चर्चा है, जिससे पटेल का अपमान होता है। हालांकि जसवंत बार-बार पटेल के अपमान संबंधी आरोप से इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि उन्हें निष्कासित करने से पहले पार्टी के नेताओं ने उनकी पुस्तक पढ़ी भी नहीं, क्योंकि पुस्तक में ऐसा कोई संदर्भ नहीं है।
राजस्थान के बाड़मेर जिले में 3 जनवरी 1938 को पैदा हुए जसवंत सिंह का संबंध कभी भाजपा के दूसरे नेताओं की तरह आरएसएस से नहीं रहा और शायद इसलिए उन्होंने संघ के तौर-तरीकों व सोच को नहीं अपनाया। वह मेयो कॉलेज व राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के छात्र रह चुके हैं। एक लंबा वक्त उन्होंने सेना में बिताया और शायद इसलिए वह अब भी कह रहे हैं कि उन्होंने सेना से काफी कुछ सीखा, संघ से नहीं और यह भी कि वह स्वयंसेवक नहीं हैं।
1980 में 42 साल की उम्र में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। संघ से संबंध नहीं रखने के बावजूद वह तेजी से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में शामिल हो गए। 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की 13 दिन की सरकार बनी थी, जसवंत सिंह वित्त मंत्री बनाए गए। दोबारा 1998 में राजग के सत्ता में आने के बाद वह विदेश मंत्री बने। तहलका प्रकरण में नाम आने के बाद जब तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज को इस्तीफा देना पड़ा, तो जसवंत को रक्षा मंत्रालय का प्रभार भी दिया गया। 2002 में ही वित्त मंत्रालय का कार्यभार यशवंत सिन्हा से लेकर उन्हें दिया गया और विदेश मंत्रालय का यशवंत सिन्हा को।
इस बीच विवादों ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने दिसम्बर 1999 में इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान आईसी 814 के यात्रियों के बदले तीन खूंखार आतंकवादियों को कांधार ले जाकर छोड़ा था। आतंकवादियों से इस कदर नरमी से निपटने के लिए राजग सरकार की खूब आलोचना हुई और एक रक्षा मंत्री के रूप में जसवंत सिंह की भी।
2004 में भाजपा के लोकसभा चुनाव हारने के बाद जसवंत ने अपने गृह राज्य राजस्थान का रुख किया। हालांकि इससे पहले वह कभी राज्य की राजनीति में सक्रिय नहीं रहे, लेकिन अब की सक्रियता ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनके संबंधों में खटास पैदा कर दी। आम चुनाव से पहले उन्होंने अपने बेटे मानवें्र को बाड़मेर से पार्टी का टिकट दिलाने की पूरी कोशिश की, जबकि वसुंधरा की पसंद गंगाराम चौधरी थे। वसुंधरा के खिलाफ जसवंत की राजनीतिक लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई। मई 2007 में जसवंत की पत्नी ने एक स्थानीय विधायक पर वसुंधरा को देवी के रूप में चित्रित करने का आरोप लगाया, तो कुछ ही दिनों बाद वसुंधरा समर्थकों ने एक ऐसा वीडियो ढूंढ निकाला, जिसमें जसवंत स्थानीय लोगों को अफीम परोसते दिखे। मीडिया में यह खबर फैली तो जसवंत ने इसे परंपरा का नाम दे दिया। लेकिन इस मामले में पुलिस केस हो गया और पार्टी हाईकमान के हस्तक्षेप के बाद ही मामला सुलझ सका।
इससे पहले 2006 में अपनी एक अन्य पुस्तक ‘अ कॉल टू ऑनरज् से भी वह सुर्खियों में आए थे। तब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में जासूस होने और उसके द्वारा अमेरिका को महत्वपूर्ण सूचनाएं लीक करने की बात कहकर राजनीतिक हलके में तूफान ला दिया था। हालांकि लाख पूछे जाने के बावजूद उन्होंने जासूस का नाम नहीं बताया। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस ने इस पर कड़ा रुख अपना लिया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब उनसे जवाब मांगा तो पीएमओ को भेजी चिट्ठी में उन्होंने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि पीएमओ में अमेरिकी जासूस होने की बात उन्होंने केवल शक के आधार पर कही थी।
जसवंत सिंह अक्सर बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए भी जाने जाते हैं। हाल ही संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद उन्होंने एक खुली चिट्ठी लिखी, जिसमें पार्टी की हार के लिए चुनाव की रणनीति बनाने वालों को जिम्मेदार ठहराया गया। उन्होंने साफ कहा कि दिल्ली के एसी कमरों में बैठे रहने वालों नेताओं को जमीनी स्तर पर जनता से जुड़े मुद्दों की जानकरी नहीं थी और इसलिए उनकी बनाई हुई रणनीति हवाई साबित हुई और पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। पार्टी अध्यक्ष से लेकर कई नेताओं ने जसवंत की इस खुली चिट्ठी पर आपत्ति जताई थी और कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत थी, तो पहले पार्टी में बात करनी चाहिए थी।
इससे पहले लाल कृष्ण आडवाणी की पुस्तक ‘माय कंट्री, माय लाइफज् के बाजार में आने के बाद भी वह सुर्खियों में थे। आडवाणी ने विमान अपहरण कांड से खुद को अलग करते हुए पुस्तक में लिखा है कि उन्हें आतंकवादियों को छोड़ने के बारे में लिए गए सरकार के निर्णय की जानकारी नहीं थी। लेकिन जसवंत सिंह ने यह कहकर उन्हें सकते में डाल दिया कि इस बारे में निर्णय के लिए बुलाई गई मंत्रिमंडल की बैठक में आडवाणी भी मौजूद थे।

लचर राज, लाचार नाथ

भाजपा भारी द्वंद्व और दुविधा में है। सर संघचालक से लेकर कई दिग्गज नेता नेतृत्व बदलने की बात कर रहे हैं। चौतरफा हमलों से राजनाथ-आडवाणी आपसी लड़ाई स्थगित कर संयुक्त रूप से उस मोर्चे से लड़ रहे हैं, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजयपेयी के पुराने वफादार कर रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ जसी है। पद लालसा उनके पीछे पड़ी और आगे बदलाव खड़ा नजर आ रहा है। उनके अध्यक्षकाल में भाजपा की जितनी दुर्गति हुई, वैसी शायद ही कभी हुई हो। सबसे अलग पार्टी आज सबसे अलगाव वाली पार्टी बनकर रह गई है।

लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा में घमासान मचा है। हर तरफ से नेतृत्व निशाने पर है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा ने खुलकर नेतृत्व पर सवाल उठाए। जसवंत सिंह की किताब के बाद जिन्ना का भूत फिर भाजपा पर सवार हो गया। जसवंत सिंह के निष्कासन के बाद पार्टी साफ-साफ तीन धड़ों में विभाजित हो गई। आडवाणी, राजनाथ और अटल बिहारी वाजपेयी के वफादारों के खेमे में भाजपा विभक्त है। वसुंधरा राजे और बीसी खंडूरी सहित इन सबके हमलों से बचने के लिए फिलहाल आडवाणी-राजनाथ साथ-साथ हैं। पर सर संघचालक मोहन भागवत ने जो नुस्खे प्रकारांतर से भाजपा को सुझाए हैं, उससे पार्टी में अलग खलबली है। लगता है राजनाथ और आडवाणी विदा होंगे। राजनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी लगातार विवादों में रही है।
तीन साल पहले जिन्ना प्रकरण पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारी दबाव के कारण लाल कृष्ण आडवाणी को भाजपा अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा था। तब पार्टी नेताओं ने राजनाथ सिंह में आस्था जताते हुए उन्हें अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी थी। लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी राह आसान नहीं रही। राज्य विधानसभाओं और फिर लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार ने उनकी राह मुश्किल बना दी।
हालिया घटनाक्रम की बात करें तो पहले जसवंत सिंह का पार्टी से निष्कासन और फिर सुधीं्र कुलकर्णी द्वारा पार्टी नेतृत्व में अनास्था व्यक्त करते हुए इसे छोड़ जाने का विवाद अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सांसद अरुण शौरी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल लिया। एक साक्षात्कार में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर राजनाथ को ‘एलिस इन ब्लंडरलैंडज् और भाजपा को ‘कटी पतंगज् कह डाला। राजनाथ की क्षमता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने संघ से पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने और शीर्ष नेतृत्व में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग की।
शौरी ने पहले भी आम चुनाव में हार के लिए जवाबदेही तय करने की मांग की थी। एकबार फिर उन्होंने कहा कि हार के लिए उत्तराखंड में बीसी खंडूरी से इस्तीफा लिया गया और अब राजस्थान में वसुंधरा राजे से इस्तीफा मांगा जा रहा है। लेकिन शीर्ष नेतृत्व हार की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेता? शौरी द्वारा इस तरह खुलकर राजनाथ को निशाना बनाए जाने के बाद भाजपा में धीमी आवाज में नेतृत्व के खिलाफ असंतोष जाहिर करने वालों और किसी न किसी ‘डरज् से चुप रहने वाले नेताओं को मानो संजीवनी मिल गई। राजस्थान से लेकर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश तक में पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ असंतोष खुलकर सामने आ गया। वसुंधरा को दिए गए बार-बार के अल्टीमेटम के बावजूद उनके तेवर को देखकर नहीं लगता कि वह पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता के रूप में अध्यक्ष की बात ज्यों की त्यों मान लेने के मूड में हैं।
उधर, उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए खंडूरी ने भी पार्टी अध्यक्ष को लिखे पत्र में यह कहकर अपनी नाराजगी जता दी राज्य के 34 विधायकों में से 23 विधायकों का समर्थन रहते हुए भी उन्हें गलत तरीके से पद से हटाया गया। उत्तर प्रदेश के बस्ती से पार्टी के वयोवृद्ध विधायक भृगु नारायण द्विवेदी ने भी राजनाथ को भेजे पत्र में ‘पार्टी हितज् के लिए उन्हें पद से छोड़ देने की सलाह दी।
शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ चौतरफा हमले के बाद संघ भी हरकत में आया। अब तक समझा जा रहा था कि संघ की सरपरस्ती से राजनाथ सभी झंझावात ङोल जाएंगे। यह भी कयास लगाए जा रहे थे कि संघ के ‘आशीर्वादज् से राजनाथ पार्टी में लाल कृष्ण आडवाणी की जगह ले सकते हैं या साल के आखिर में समाप्त हो रहे अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल के बाद दोबारा यह पद संभाल सकते हैं। गाजियाबाद से लोकसभा चुनाव जीतकर उन्होंने अपने आलोचकों का मुंह भी बंद कर दिया था। लेकिन शौरी के साक्षात्कार और पार्टी में अन्य शीर्ष नेताओं के मुखर विरोध के बाद उनकी मुश्किलें बढ़ गईं। फिलहाल संघ भी उन्हें सहारा देने के मूड में नहीं दिखता।
तीन साल पहले पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने के बाद राजनाथ ने ‘मूल विचारधााराज् से भटक चुकी पार्टी को एकबार फिर ‘अपनी राहज् पर ले जाने की घोषणा की थी। लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी का दायरा बढ़ाने के लिए इसे जिस समावेशी संगठन का रूप देने की कोशिश की थी, उससे उलट राजनाथ सिंह ने पार्टी के ‘भगवाकरणज् और ‘मूल विचारधाराज् पर चलने को तरजीह दी; क्योंकि संघ में एक बड़े खेमे का मानना था कि आडवाणी ने जो राह चुनी, उससे पार्टी को फायदे के बजाय नुकसान हुआ।
इसी राह पर चलते हुए बहैसियत पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को उनकी किताब ‘जिन्ना : भारत विभाजन के संदर्भ मेंज् के लिए ‘दंडितज् करते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासन का फरमान सुनाया। लेकिन राजनाथ के नेतृत्व में इस ‘मूल विचारधाराज् की राह पर चलते हुए भी पार्टी को नुकसान ही हुआ। 2004 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी को 2009 के आम चुनाव में जीत की उम्मीद थी। लेकिन पार्टी को फिर शिकस्त मिली। राजनाथ चुनाव से पहले भी पार्टी में अंतर्कलह व अंतर्विरोध पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे और चुनाव के बाद तो यह उनके लिए नामुमकिन हो गया।
उत्तर प्रदेश के बनारस में 10 जुलाई 1951 को रामबदन सिंह और गुजराती देवी की संतान के रूप में किसान परिवार में पैदा हुए राजनाथ 13 साल की उम्र में ही संघ से जुड़ गए थे। संघ से इस जुड़ाव के चलते अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने में उन्हें किसी तरह की मुश्किल नहीं हुई। संघ की सरपरस्ती में उन्होंने भारतीय जनसंघ में कई महत्वूपर्ण जिम्मेदारियां निभाईं। पढ़ाई पूरी करने के बाद मिर्जापुर के एक कॉलेज में उन्होंने भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की। लेकिन जल्द ही पूरी तरह राजनीति में रम गए। भारतीय जनता पार्टी के वजूद में आने के बाद उन्होंने इसमें भी कई जिम्मेदारी भरे पद संभाले और 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार बनने पर मंत्री व मुख्यमंत्री भी बने। वह बहुत तेजी से पार्टी के शीर्ष नेताओं में शामिल होते गए। लेकिन अब पार्टी में बड़े पैमाने पर संगठनात्मक फेरबदल में उनकी विदाई तय मानी जा रही है।

नयी फसल के नये उमर

उमर अब्दुल्ला में दो ऐसे गुण हैं, जिनका आपस में दूर का संबंध है। वह बेहद संयत व समझदार हैं और बेहद संवेदनशील व जज्बाती भी। परमाणु करार पर विवाद के दौरान विश्वास प्रस्ताव पर उनका अतिसंक्षिप्त भाषण और पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर विधानसभा में दिया गया उनका छोटा, लेकिन सटीक व भावावेशित भाषण उन्हीं खूबियों पर प्रकाश डालते हैं। विभिन्न संकटों में उनका रवैया उतावलेपन का न होकर संयत व गंभीर होता है। वह नौजवान पीढ़ी के नेता हैं और इसलिए पुराने र्ढे से अलग भी हैं। सेक्स कांड पर विपक्ष के आरोप के बाद इस्तीफा देने की पेशकश करते हुए उनकी यह उक्ति, कि बेगुनाह साबित न होने तक मैं गुनाहगार हूं, भी आमतौर पर दी जाने वाली ऐसी दलील के कतई उलट थी।

विपक्ष के आरोप से आहत जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप सबको सकते में डाल दिया। सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की उपलब्धि हासिल करने वाले उमर अब्दुल्ला का यह कदम सभी के लिए अप्रत्याशित था। हालांकि राज्यपाल ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और वह अपने पद पर बने हुए हैं।
बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत मिलने के बाद उन्होंने इसी साल जनवरी में राज्य की सत्ता संभाली थी। 38 साल की उम्र में उन्होंने सबसे युवा मुख्यमंत्री होने की उपलब्धि तो हासिल की, लेकिन यह ताज उनके लिए कांटों भरा साबित हुआ। सिर्फ छह महीने के कार्यकाल में राज्य की कानून-व्यवस्था बद से बदतर हुई। इस छह महीने में भारतीय सेना पर तीन महिलाओं के साथ बलात्कार के बाद उनकी हत्या सहित 15 लोगों की हत्या का आरोप लगा। राज्य को एक युवा मुख्यमंत्री से जिसकी उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई।
विपक्ष ने बिगड़ती कानून-व्यववस्था को मुद्दा बनाया और उन्हें एक अयोग्य मुख्यमंत्री करार दिया। विपक्ष की ओर से उनपर कई गंभीर आरोप लगाए गए। उन पर शोपियां में भारतीय सैनिकों द्वारा मलिाओं के अपहरण और उनके साथ बलात्कार व बाद में उनकी हत्या की वारदात पर पर्दा डालने का आरोप लगा। कहा गया कि उमर नई दिल्ली के दबाव में झुक गए और मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहली परीक्षा में ही असफल साबित हुए। इस घटना ने मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए।
विपक्ष ने 2006 के बहुचर्चित व राज्य की राजनीति में तूफान ला देने वाले सेक्स स्कैंडल में भी उनका नाम घसीटा। कहा गया कि नौकरी देने के नाम पर जिन नेताओं, मंत्रियों, वरिष्ठ अधिकारियों, सैनिकों ने लड़कियों का इस्तेमाल किया, उनमें उमर अब्दुल्ला का नाम भी शामिल है। विपक्षी नेता व राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ने ऐसे लोगों की सूची में 102 नंबर पर उमर का नाम होना बताया। उन्होंने इसमें उमर के साथ-साथ उनके पिता फारूख अब्दुल्ला का नाम शामिल होने की भी बात कही।
यह आरोप उमर के लिए सदमे की तरह था। विपक्ष के आरोप को अपने चरित्र पर धब्बा बताते हुए उन्होंने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया और तय समय में इसकी जांच की मांग की। हालांकि सीबीआई इस सेक्स स्कैंडल की पहले से ही जांच कर रही है। सीबीआई सहित गृहमंत्री पी चिदंबरम ने फौरन इसमें उमर के शामिल नहीं होने के बयान दिए। खास बात उमर का इस्तीफे की पेशकश करते हुए दिया गया बयान था। हर राजनेता ऐसे मामलों में फंसते हुए यही कहता है कि आरोप साबित न होने तक मैं निर्दोष हूं। इसके उलट उमर ने नयी बात कही कि जब तक मैं बेगुनाह साबित नहीं हो जाता, तब तक मैं गुनाहगार हूं। इसका गहरा असर हुआ।
उमर को राजनीति विरासत में मिली, लेकिन मुख्यमंत्री तक का सफर आसान नहीं रहा। इसके लिए उन्होंने खासी मेहनत की। 1998 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। उसी साल हुए 12वीं लोकसभा के चुनाव में वह सांसद चुने गए। तब कें्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी और नेशनल कांफ्रेंस उसका हिस्सा। 1999 के लोकसभा चुनाव में भी वह चुने गए और जुलाई 2001 में उमर विदेश राज्यमंत्री बने। तब भी वह सबसे युवा कें्रीय मंत्री थे। अब उनकी नजर अगले साल राज्य में होने वाले विधानसभा चुना पर थी। जून 2002 में पिता फारूख अब्दुल्ला के स्थान पर नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन 2002 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह हार गई। यहां तक कि उमर भी परिवार की पारंपरिक विधानसभा सीट गांदेरबल गंवा बैठे। लेकिन इससे निराश व हताश हुए बगैर उन्होंने उन गलतियों को ढूंढ़ने की कोशिश की, जिसके कारण नेशनल कांफ्रेंस को हार का सामना करना पड़ा। इसका एक कारण उन्हें गुजरात दंगों के बाद भी राजग से जुड़े रहना लगा, क्योंकि दंगों के बाद मुस्लिम समुदाय भाजपा से बेहद नाराज था। इसे समझते हुए उन्होंने राजग से अलग होने में देर नहीं लगाई। इसके बाद लगातार चार साल तक वह पार्टी की मजबूती के लिए काम करते रहे। उनकी मेहनत का ही नतीजा रहा कि 2008 के विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उमर राज्य के मुख्यमंत्री बने। नेकां और कांग्रेस के गठजोड़ में उमर की राहुल गांधी से निकटता का भी योगदान रहा।
एक अनुभवी राजनीतिज्ञ के रूप में उमर का व्यक्तित्व पिछले साल 22 जुलाई को देखने को मिला, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के विश्वास प्रस्ताव के दौरान उन्होंने सिर्फ दो सांसदों के साथ सरकार के पक्ष में मतदान कर कांग्रेस की निकटता हासिल कर ली। नेशनल कांफ्रेंस को कांग्रेस की निकटता का फायदा जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में हुआ, जिसके सहयोग से चुनाव बाद राज्य में उमर की सरकार बनी। वहीं, विश्वास प्रस्ताव के दौरान अपने भावुक भाषण से उन्होंने सबका दिल जीत लिया। अमेरिका के साथ परमाणु करार को जब सपा सहित कुछ अन्य दलों के नेता मुसलमानों के लिए खतरनाक बता रहे थे, उमर ने यह कहकर तमाम आशंकाओं पर विराम लगा दिया, ‘मैं एक मुसलमान हूं और मैं एक भारतीय हूं, और मैं इन दोनों में कोई भेद नहीं देखता हूं। मैं नहीं जानता कि हमें परमाणु करार से क्यों डरना चाहिए.. भारतीय मुसलमानों का दुश्मन अमेरिका या इस तरह का कोई करार नहीं, बल्कि गरीबी, भूख, विकास का अभाव और इन सबके लिए आवाज नहीं उठाना है.. ज्
जम्मू-कश्मीर को लेकर भी उमर का एक अलग रुख रहा है। भारत-पाक के बीच जम्मू-कश्मीर को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बताते हुए कें्र के विरोध के बावजूद मार्च 2006 में वह पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मिलने इस्लामाबाद जा पहुंचे। यह जम्मू-कश्मीर की राजनीति में सक्रिय मुख्यधारा के किसी नेता और पाकिस्तान सरकार के बीच अपने तरह की पहली बातचीत थी।
10 मार्च 1970 को फारूख अब्दुल्ला व ब्रिटिश मां की संतान के रूप में पैदा हुए उमर अब्दुल्ला की स्कूली शिक्षा श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल में हुई। इसके बाद मुंबई के प्रतिष्ठित सिदेनाम कॉलेज से उन्होंने बी.काम. और स्कॉटलैंड के यूनीवर्सिटी ऑफ स्ट्रैथक्लाइड से एमबीए किया।

वाम का काफी काम तमाम

अपने गढ़ में माकपा और वाम मोर्चे की सबसे बड़ी हार हुई। नंदीग्राम के बाद से गिरती लोकप्रियता और ममता के करिश्मे ने यह चमत्कार किया।

पश्चिम बंगाल में इस बार चौंकाने वाले चुनाव परिणाम सामने आए हैं। पिछले तीन दशक से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चा पहली बार अपने ही गढ़ में पिछड़ गया। विपक्ष की एकजुटता ने वाम अजेयता के मिथ को चूर कर दिया। चुनाव में ममता दीदी का जादू सिर चढ़कर बोला। दीदी के तृणमूल ने कांग्रेस के साथ मिलकर वामपंथी दलों को 42 में से केवल 15 सीटों पर समेटकर रख दिया। वाम मोर्चे को महज 43.4 प्रतिशत वोट मिले। 1977 के बाद यह पार्टी का सबसे खराब प्रदर्शन है। कांग्रेस के छह और तृणमूल के 19 सीटों के साथ गठबंधन की सीटों की संख्या 25 पहुंच गई। अब तृणमूल की नजर राज्य में 2011 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है।
इस चुनाव में विपक्षी दलों की एकजुटता वाम मोर्चे की हार का सबसे बड़ा कारण बनी। वाम दलों को अब तक गैर-वाम वोटों के बिखराव का फायदा मिलता रहा। यह बात ममता की समझ में आ चुकी थी, इसलिए वाम दलों को पटखनी देने के लिए उन्होंने कांग्रेस-तृणमूल-भाजपा का महाजोत तैयार करने की कोशिश की। हालांकि उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली, लेकिन उन्होंने गैर-वाम वोटों को अपनी झोली में करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली।
चुनाव में वाम दलों के खराब प्रदर्शन का कारण पश्चिम बंगाल सरकार की लोकप्रियता में गिरावट रही। 2006 में हुए राज्य विधानसभा के मुकाबले इस बार राज्य सरकार की लोकप्रियता 66 प्रतिशत से गिरकर 58 प्रतिशत रह गई। नंदीग्राम और सिंगूर ने भी वाम दलों को नुकसान पहुंचाया। हालांकि लोग औद्योगिकीकरण के खिलाफ नहीं दिखे और उन्होंने राज्य से नैनो की विदाई पर अफसोस भी जताया। लेकिन पूरे मामले को राज्य सरकार ने जिस तरह निपटाया, उससे ‘मां, माटी, मानुषज् का ममता का नारा कारगर हुआ।
वाम दलों को इस चुनाव में सबसे अधिक नुकसान गरीब मजूदरों और किसानों के क्षेत्र में हुआ, जबकि यही इलाके उनके गढ़ माने जाते हैं। हालांकि वाम दलों को इस चुनाव में वेतनभोगी तबके के अधिक वोट मिले, लेकिन यह इतना नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में हुए नुकसान की भरपाई हो सके। वाम मोर्चे को इस बार मुस्लिम समुदाय से भी झटका मिला। मुसलमान, जो राज्य की आबादी का तकरीबन एक चौथाई हैं, पिछले कुछ चुनाव से वाम दलों को वोट देते आ रहे थे। लेकिन इस बार वाम दलों से उनका मोहभंग देखा गया और उन्होंने तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन को तरजीह दी।

पहले बदलो विकास का मॉडल

-देवें्र शर्मा

औद्योगिक विकास के खिलाफ कोई नहीं है, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।

इसमें दो राय नहीं कि ग्लोबल वार्मिग दुनियाभर में एक बड़ी चिंता का विषय है। लेकिन जहां तक भारत का सवाल है, यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। यहां गरीबी, भूख, रोजी-रोटी का मामला सबसे बड़ा मुद्दा है। स्वयं एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपए प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजारा करती है। ऐसे में ग्लोबल वार्मिग भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय कैसे हो सकता है?
जहां तक दुनियाभर में इसे लेकर किए जाने वाले प्रयासों का सवाल है तो इसमें कहीं कोई ईमानदारी या निष्ठा नहीं दिखती। हर जगह ग्लोबल वार्मिग रोकने के नाम पर बस कुछ औपचारिकताएं की जा रही हैं। इसके वास्तविक कारण पर कोई विचार-विमर्श नहीं करना चाहता और न ही कोई इसे दूर करने के लिए गंभीरता से सोचना चाहता है।
दुनिया भर में आज ग्लोबल वार्मिग की जो समस्या है, उसके लिए आर्थिक नीतियां काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सच कहा जाए तो विभिन्न देशों के अर्थ विशेषज्ञों ने ही पर्यावरण का बेड़ा गर्क किया है। विकास के नाम पर उन्होंने हमें धोखा दिया है। इन लोगों ने ऐसी नीतियां बनाईं, जो एक तरफ तो हमें विकास के मार्ग पर ले जाती हैं, जबकि दूसरी तरफ पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करती हैं। दरअसल, भारत सहित दुनियाभर के अर्थ नीति विशेषज्ञों ने आर्थिक विकास की जो नीतियां तैयार की या आज भी कर रहे हैं, वे पर्यावरण की कीमत पर तय की गईं। उनमें कहीं भी पर्यावरण संरक्षण का ध्यान नहीं रखा गया।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर यदि जनता की जागरुकता की बात की जाए तो हमारे देश की जनता इसे लेकर बहुत जागरूक नहीं दिखती। वास्तव में जनता मतलबी है। जब तक उसे खुद पर्यावरण के नुकसान से कोई हानि होती नहीं दिखती, वह आवाज नहीं उठाती। हर साल पांच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर ही बस लोगों को इसकी याद आती है। जगह-जगह छिटपुट कार्यक्रम आयोजित कर लोग पर्यावरण को लेकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसे लेकर कोई सतत व मुखर आवाज नहीं उठाता। लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों का भी निजीकरण कर लिया है। एयर कंडीशनर के जरिए हवा तक को कैद कर लिया है। संपन्न एवं सुविधाभोगी लोगों ने खुद को गर्मी से बचाने के लिए तो घरों और निजी वाहनों में एसी लगा लिए हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि इससे बाहर गर्म हवा निकलेगी जो दूसरे लोगों को झुलसाएगी और वे इसकी तपिश ङोलेंगे। साफ है कि बाहर वालों की फिक्र किसी को नहीं होती। कोई नहीं सोचता कि एसी से बाहर कितना तापमान बढ़ता है।
इसी तरह नैनो कार को लेकर सभी हर्षित हैं, उल्लसित हैं, लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि इससे पर्यावरण कितना दूषित होगा। वास्तव में हम सब शोषक हैं। हमें ग्लोबल वार्मिग की फिक्र तब होती है, जब तापमान 45 डिग्री से ऊपर पहुंच जाता है। जहां तक पर्यावरण संरक्षण को लेकर जनता की जागरुकता का सवाल है, इसके लिए मीडिया को आगे आना होगा। उसे एक मुहिम चलानी होगी। उसे बार-बार जनता को याद दिलाना होगा कि यह सिर्फ एक दिन की समस्या नहीं है कि छोटे-बड़े कार्यक्रम आयोजित कर इससे पार पा लिया जाए।
पर्यावरण को लेकर दूसरे देशों की चिंता और भारत की चिंता में कोई विशेष फर्क नहीं है। हर जगह इसे लेकर एक सा रवैया है। हमारे देश की सरकारों का भी रवैया इसे लेकर कोई संतोषजनक नहीं रहा है। अब तक की सभी सरकारें केवल आर्थिक विकास बढ़ाने के पक्ष में रहीं, पर्यावरण संरक्षण की चिंता किसी को नहीं रही। सभी सरकारों ने पर्यावरण संरक्षण के बजाए औद्योगिक विकास को तरजीह दी और इसके लिए पर्यावरण की बलि देने में भी संकोच नहीं किया। सभी सरकारें बस इसी नीति पर काम करती रहीं कि यदि पर्यावरण औद्योगिक विकास के मार्ग में आता है, तो इसे खत्म कर दो। पिछले सप्ताह देश में बनी नई सरकार से भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर कोई बड़ी उम्मीद नहीं है। लेकिन यदि सरकार वास्तव में पर्यावरण संरक्षण को लेकर गंभीर प्रयास करना चाहती है, तो सबसे पहले विकास का मॉडल ठीक करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों को बचाने पर ध्यान देना होगा। वास्तव में हम औद्योगिक विकास के विरोध में नहीं हैं, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।

आया गया पर्यावरण दिवस

-अनुपम मिश्र

कल पांच जून थी। यानी पर्यावरण दिवस। इस दिन सब एकाएक पर्यावरण को लेकर चिंतित हो जाते हैं, लेकिन यह चिंता पूरे सप्ताह भी नहीं टिकती। सब फिर अपनी-अपनी तरह से पर्यावरण नष्ट करने में लग जाते हैं। सरकारें भी अलग नहीं। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन उदासीनता-उपेक्षा का उनका रवैया बना रहता है। अभी नई सरकार बनी है। हर कोई मलाईदार मंत्रालय चाहता था। कहीं से कोई यह कहता नहीं सुनाई दिया कि पर्यावरण बिगड़ रहा है, यह मंत्रालय मुङो दीजिए।

हमारे देश में अक्सर पर्यावरण की याद और उसे लेकर चिंता जून के पहले सप्ताह में बड़ी तेजी से उठती है और अक्सर सप्ताह बीतने से दो दिन पहले खत्म भी हो जाती है, क्योंकि पांच जून को पर्यावरण दिवस पड़ता है। उसके बाद सालभर हम क्या करते हैं या क्या नहीं करते, इसे कोई याद नहीं रखता। इसलिए रस्मी तौर पर एक तीज-त्योहार की तरह पर्यावरण को मनाना हो तो अलग बात, नहीं तो पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाने से बेहतर है कि पर्यावरण का पूरा साल मनाया जाए। तभी देश पर छाया पर्यावरण का संकट हल हो पाएगा। पर्यावरण संरक्षण को लेकर सभी सरकारों का रवैया लगभग एक जसा रहा है। पिछले सप्ताह हमारे देश में नई सरकार बनी है। पिछली सरकारों के रवैये को देखते हुए मौजूदा सरकार से भी इसे लेकर कोई बहुत उम्मीद नजर नहीं आती। हम चीजों को जल्दी भूल जाते हैं। इसलिए हमें याद करना होगा कि क्या कभी किसी सहयोगी घटक ने पर्यावरण मंत्रालय के लिए कांग्रेस, मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी पर कोई दबाव बनाया? इस सवाल का जवाब अक्सर हमें नकारात्मक ही मिलता है। देश के नए जनप्रतिनिधि, जो अभी ताजे-ताजे चुनकर आए हैं, उनमें से हरेक को कोयला, बिजली, रेल, रक्षा आदि जसे कमाऊ मंत्रालय चाहिए। इन प्रतिनिधियों से हम पर्यावरण बचाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं! इनमें से कोई भी पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे नहीं आया। किसी ने आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि वह जिस इलाके का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां का पर्यावरण इस कदर खराब हो चुका है कि उसे ठीक करने का अवसर उन्हें दिया जाए।
देश का उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, हर कोना पर्यावरण की किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है। देश की हरेक छोटी-बड़ी नदी गंदे नालों में तब्दील हो चुकी है। अवैध खनन के कारण हिमालय से पुरानी अरावली पर्वत श्रंखला मिट्टी में मिलाई जा रही है। यह काम पिछले 20 साल से धड़ल्ले से चल रहा है। लेकिन किसी ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अब किसी अखबार या अदालत का ध्यान उस तरफ गया भी है, तो शायद कुछ दिन के लिए। अखबारों और अदालत के वर्तमान रुख के कारण पहाड़ खोदकर प्राकृतिक संसाधनों को तहस-नहस करने वाली लॉबी भले ही कुछ दिनों के लिए शांत हो जाए, लेकिन नजर हटी नहीं कि वे फिर अरावली खोदने में लग जाएंगे।
कोई इस बात की चिंता नहीं करना चाहता कि हवा में जहर घुल जाए, पानी में जहर घुल जाए, खाने में जहर मिल जाए या मां के दूध में कीटनाशक मिल जाए तो क्या होगा? हां, ग्लोबल वार्मिग की चिंता सबको हो जाती है। देश की सभी नदियों को जोड़ने की योजना पर पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की एक राय रही। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि यह योजना पर्यावरण के लिए किस कदर खतरनाक साबित हो सकती है। किसी भी संवेदनशील नेता ने यह सोचने का नाटक भी नहीं किया कि इस योजना से कैसे तबाही मचेगी। इसलिए पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाएगा और छह जून को उसे फिर भुला दिया जाएगा।