शनिवार, 12 सितंबर 2009

आया गया पर्यावरण दिवस

-अनुपम मिश्र

कल पांच जून थी। यानी पर्यावरण दिवस। इस दिन सब एकाएक पर्यावरण को लेकर चिंतित हो जाते हैं, लेकिन यह चिंता पूरे सप्ताह भी नहीं टिकती। सब फिर अपनी-अपनी तरह से पर्यावरण नष्ट करने में लग जाते हैं। सरकारें भी अलग नहीं। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन उदासीनता-उपेक्षा का उनका रवैया बना रहता है। अभी नई सरकार बनी है। हर कोई मलाईदार मंत्रालय चाहता था। कहीं से कोई यह कहता नहीं सुनाई दिया कि पर्यावरण बिगड़ रहा है, यह मंत्रालय मुङो दीजिए।

हमारे देश में अक्सर पर्यावरण की याद और उसे लेकर चिंता जून के पहले सप्ताह में बड़ी तेजी से उठती है और अक्सर सप्ताह बीतने से दो दिन पहले खत्म भी हो जाती है, क्योंकि पांच जून को पर्यावरण दिवस पड़ता है। उसके बाद सालभर हम क्या करते हैं या क्या नहीं करते, इसे कोई याद नहीं रखता। इसलिए रस्मी तौर पर एक तीज-त्योहार की तरह पर्यावरण को मनाना हो तो अलग बात, नहीं तो पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाने से बेहतर है कि पर्यावरण का पूरा साल मनाया जाए। तभी देश पर छाया पर्यावरण का संकट हल हो पाएगा। पर्यावरण संरक्षण को लेकर सभी सरकारों का रवैया लगभग एक जसा रहा है। पिछले सप्ताह हमारे देश में नई सरकार बनी है। पिछली सरकारों के रवैये को देखते हुए मौजूदा सरकार से भी इसे लेकर कोई बहुत उम्मीद नजर नहीं आती। हम चीजों को जल्दी भूल जाते हैं। इसलिए हमें याद करना होगा कि क्या कभी किसी सहयोगी घटक ने पर्यावरण मंत्रालय के लिए कांग्रेस, मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी पर कोई दबाव बनाया? इस सवाल का जवाब अक्सर हमें नकारात्मक ही मिलता है। देश के नए जनप्रतिनिधि, जो अभी ताजे-ताजे चुनकर आए हैं, उनमें से हरेक को कोयला, बिजली, रेल, रक्षा आदि जसे कमाऊ मंत्रालय चाहिए। इन प्रतिनिधियों से हम पर्यावरण बचाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं! इनमें से कोई भी पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे नहीं आया। किसी ने आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि वह जिस इलाके का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां का पर्यावरण इस कदर खराब हो चुका है कि उसे ठीक करने का अवसर उन्हें दिया जाए।
देश का उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, हर कोना पर्यावरण की किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है। देश की हरेक छोटी-बड़ी नदी गंदे नालों में तब्दील हो चुकी है। अवैध खनन के कारण हिमालय से पुरानी अरावली पर्वत श्रंखला मिट्टी में मिलाई जा रही है। यह काम पिछले 20 साल से धड़ल्ले से चल रहा है। लेकिन किसी ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अब किसी अखबार या अदालत का ध्यान उस तरफ गया भी है, तो शायद कुछ दिन के लिए। अखबारों और अदालत के वर्तमान रुख के कारण पहाड़ खोदकर प्राकृतिक संसाधनों को तहस-नहस करने वाली लॉबी भले ही कुछ दिनों के लिए शांत हो जाए, लेकिन नजर हटी नहीं कि वे फिर अरावली खोदने में लग जाएंगे।
कोई इस बात की चिंता नहीं करना चाहता कि हवा में जहर घुल जाए, पानी में जहर घुल जाए, खाने में जहर मिल जाए या मां के दूध में कीटनाशक मिल जाए तो क्या होगा? हां, ग्लोबल वार्मिग की चिंता सबको हो जाती है। देश की सभी नदियों को जोड़ने की योजना पर पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की एक राय रही। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि यह योजना पर्यावरण के लिए किस कदर खतरनाक साबित हो सकती है। किसी भी संवेदनशील नेता ने यह सोचने का नाटक भी नहीं किया कि इस योजना से कैसे तबाही मचेगी। इसलिए पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाएगा और छह जून को उसे फिर भुला दिया जाएगा।

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