शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

हरित क्रांति में नहीं हरा भरा सब

नॉर्मन बोरलॉग ने हमें उस समय खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया, जब हमें इसकी बहुत जरूरत थी। लेकिन जो हरित क्रांति उनकी मदद से हुई, उसमें कुछ बड़े संकट अंतर्निहित थे। अस्सी के दशक में ही इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा था। हमने इसका जायजा नहीं लिया और अब दूसरी हरित क्रांति की रट लगाए हैं। दूसरी हरित क्रांति का फायदा भी किसानों को नहीं, सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होगा।

हरित क्रांति के जनक नार्मन बोरलॉग नहीं रहे। लेकिन खाद्यान्न की पैदावार बढ़ाने में उनके योगदान हमेशा अविस्मरणीय रहेंगे। उन्होंने ऐसे वक्त में भारत को गेहूं व धान के उन्नत किस्म के बीज मुहैया कराए, जब सूखे की वजह से देश भुखमरी की कगार पर था। विदेशों से कई टन अनाज आयात किए जा रहे थे, लेकिन खाद्यान्न समस्या सुलझने का नाम नहीं ले रही थी।
सूखे से देश में पैदा हुए हालात को देखते हुए 1965 में एक करोड़ टन अनाज का आयात किया गया था। फिर भी यह लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों को सप्ताह में एक दिन व्रत के नाम पर भूखे रहने की सलाह दी थी। उनके निधन के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। तब भी खाद्यान्न समस्या ज्यों की त्यों थी। ऐसे में अगले ही साल यानी 1966 में 1.10 करोड़ टन अनाज का आयात किया गया, जो अब तक आयात किए जाने वाले खाद्यान्न की सबसे अधिक मात्रा थी।
देश के हालात को देखते हुए कहा जा रहा था कि 1970 के दशक के अंत तक यहां के लोग भूख से मर जाएंगे, क्योंकि पैदावार बढ़ने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसे में नॉर्मन बोरलॉग ने खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का फॉर्मूला दिया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष उनके द्वारा तैयार उन्नत किस्म के बीज खरीदने का प्रस्ताव रखा। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने हामी भरी और 1966 में मेक्सिको से 18 हजार टन गेहूं के बीज आयात किए गए। इन्हें पांच-पांच किलो के पैकेट में बांटकर किसानों के बीच वितरित किया गया। इनके इस्तेमाल के लिए खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को चुना गया, क्योंकि इन बीजों के सफल परिणाम के लिए ऐसे क्षेत्रों में इनके इस्तेमाल की जरूरत थी, जहां सिंचाई के लिए पानी की पर्याप्त सुविधा हो। साथ ही बोरलॉग रासायनिक खादों के भी हिमायती थे। उनका साफ कहना था कि पर्याप्त सिंचाई और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से ही उन्नत किस्म के इन बीजों से पैदावार बढ़ाई जा सकती है। देश में इन बीजों के इस्तेमाल का असर भी हुआ। 1966 में जहां 1.20 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ, वहीं अगले ही साल यानी 1967 में पैदावार बढ़कर 1.70 करोड़ टन हो गई। एक ही साल में पैदावार में पांच लाख टन की वृद्धि अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। गेहूं के इस आशातीत उत्पादन के आयात बंद कर दिया गया और 1970 तक भारत ‘आत्मनिर्भर गेहूं उत्पादक देशज् हो गया।
जाहिर तौर पर गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का श्रेय बॉरलॉग को जाता है। खासतौर पर ऐसे समय में जब देश भूखों मर रहा था, इसे खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बोरलॉग ने पैदावार बढ़ाने का जो फॉर्मूला दिया, उससे कई नुकसान भी हुए। सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण को हुआ। इससे होने वाले नुकसान की ओर सबसे पहले अमेरिका की जीववैज्ञानिक व प्रकृतिविद रिचेल लुईस कार्सन ने 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंगज् से ध्यान खींचा। उन्होंने सिंचाई के लिए अत्यधिक मात्रा में पानी के दोहन, कीटनाशकों व रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पर्यावरण व पशु-पक्षियों को होने वाले नुकसान के प्रति आगाह किया। लेकिन बोरलॉग का इनके प्रति आग्रह इस कदर था कि उन्होंने कार्सन को ‘बुरी ताकतज् बताते हुए यहां तक कह डाला कि ये वे लोग हैं, जो दुनिया से भूख नहीं मिटाना चाहते। उन्हें जब ब्राजील में नाइट्रोजन फर्टिलाइजर के इस्तेमाल के बगैर ही ईख व सोयाबीन के उत्पादन में वृद्धि की बात कही गई, तब भी उन्होंने इसे नहीं माना।
बोरलॉग के फॉर्मूले को अपनाते हुए भारत ने जो हरित क्रांति की, उसका कुप्रभाव 1980 के दशक से देश में दिखने लगा। भूजल स्तर नीचे चला गया, पक्षी मरने लगे, भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती गई, तो कई कीड़ों में जबरदस्त प्रतिरोधी क्षमता पैदा हो गई है। दुनियाभर में आज करीब 500 कीड़े हैं, जो नहीं मरते।
कीटनाशकों व रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पंजाब, हरियाणा में भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो गई है। उसमें कार्बनिक पदार्थ केवल 0.1 प्रतिशत रह गया। ऐसे में जाहिर तौर पर पैदावार में एकबार फिर कमी आने लगी और इसे बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। परिणाम यह हुआ कि खाद, कीटनाशक व सिंचाई की मात्रा बढ़ गई। पंजाब में आज खाद की खपत दोगुनी हो गई है। राज्य में 138 डेवेलपमेंट ब्लॉक हैं, जिनमें से 108 में 98 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है। यदि यही स्थिति रही तो 2025 तक राज्य में पानी नहीं बचेगा और यह रेगिस्तान बन जाएगा। बोरलॉग ने कभी इस बारे में नहीं सोचा, बल्कि इस ओर ध्यान दिलाने पर उन्होंने यह तर्क दिया कि देश में सूखे से जो हालात थे, उससे निपटने के लिए पैदावार बढ़ाने की जरूरत तो थी और यदि हरित क्रांति नहीं होती, तो इसके लिए 5.80 करोड़ हेक्टेयर भूमि की अधिक आवश्यकता होती।
बहरहाल, खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बोरलॉग का योगदान सराहनीय है, लेकिन आत्मनिर्भर हो जाने के बाद हमें इसकी समीक्षा करने की जरूरत थी, जो हमने नहीं की और जिसका खामियाजा हमें आज भुगतना पड़ रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि पहली हरित क्रांति का मॉडल विफल हो चुका है। हम एकबार फिर दूसरी हरित क्रांति की ओर भाग रहे हैं, लेकिन इससे केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा होने वाला है, आम किसानों को नहीं। दरअसल, इस दिशा में हमें संतुलन बनाने की जरूरत है।
जहां तक भूख और किसानों की आत्महत्या की बात है, तो हरित क्रांति से इसका कोई संबंध नहीं है। अक्सर देखा गया है कि पैदावार बढ़ने और पर्याप्त खाद्यान्न भंडार के बावजूद एक बड़ी आबादी भूख की शिकार रही। 2001-03 में देश के खाद्यान्न भंडार में 650 लाख टन अनाज निर्धारित मात्रा से अधिक था, फिर भी 32 करोड़ लोग भूख से पीड़ित थे। साफ तौर पर भूख से निपटने के लिए पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ आम लोगों तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करना भी जरूरी है।


कृषि मामलों के जानकार देवें्र शर्मा से बातचीत पर आधारित

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