शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

ऊंचे मकसद वाले माधव

चं्रयान-1 की जिस खोज से आज हिंदुस्तान का हर नागरिक और दुनिया रोमांचित है, उसका श्रेय निस्संदेह इसरो के वैज्ञानिकों के सामूहिक प्रयत्न को जाता है। लेकिन किसी भी संगठन और टीम का एक नेता होता है और उसका सूझबूझ भरा नेतृत्व ही उसकी टीम को कुछ नायाब करने का मकसद और हौसला देता है। इसरो के अध्यक्ष माधवन नायर ऐसे ही व्यक्ति हैं। चं्रमा पर पानी खोज पाने में चं्रयान की सफलता के सूत्रधार भी वे ही हैं। स्वदेशी तकनीक से युक्त प्रक्षेपण यान के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दरअसल, शुरू से ही वे भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को आत्मनिर्भर बनाने में जुटे रहे। यह उनका एक ध्येय रहा है। अपनी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल वह हमेशा से देश की तकनीकी क्षमताएं बढ़ाने में करते रहे हैं। वह ऐसे पहले भारतीय और गैर-अमेरिकी व्यक्ति हैं, जो इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स के अध्यक्ष बने।

आज पूरी दुनिया भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और उसकी उपलब्धियों का लोहा मान रही है। जो काम इतने सालों में दुनिया के विकसित देश नहीं कर पाए, उसे भारत ने कर दिखाया। चांद पर पानी खोज निकाला। इस एक खोज ने दुनियाभर के अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक नई दिशा दी। कई संभावनाओं को जन्म दिया और निश्चय ही इन सबका श्रेय जाता है, इसरो को, इसरो के वैज्ञानिकों को और इसके अध्यक्ष जी. माधवन नायर को।
माधवन नायर; इसरो के अध्यक्ष, कें्र सरकार के अंतरिक्ष विभाग के सचिव, अंतरिक्ष आयोग के चेयरमैन; ने शुरू से ही अपनी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल देश को तकनीक के क्षेत्र में उन्नत व आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में किया। खासतौर पर स्वदेशी तकनीक से युक्त उपग्रह प्रक्षेपण यान (सैटेलाइट लांच वेहिकल) के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है और उसी की बदौलत आज भारत दुनिया भर में प्रक्षेपण यान तकनीक के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है।
उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में इसरो ने 25 मिशन सफलतापूर्वक पूरे किए, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण व चर्चित चं्रयान-1 है। पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से निर्मित व प्रक्षेपित इस मानवरहित यान ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को मजबूती दी और दुनिया भर में भारतीय तकनीक व वैज्ञानिक सूझ-बूझ को नए सिरे से स्थापित किया। 22 अक्टूबर 2008 को भारत ने इसे श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष कें्र से कई उम्मीदों व संभावनाओं की खोज के साथ प्रक्षेपित किया था। तब अंतरिक्ष में दो साल तक इसके संचालन की उम्मीद की गई थी। हालांकि इस साल 29 अगस्त को ही इसरो के साथ इसका संपर्क टूट गया और यह वृहद अंतरिक्ष में कहीं खो गया। लेकिन तब तक यह अपना 95 प्रतिशत काम कर चुका था। 312 दिनों के अपने संचालन में चं्रयान-1 ने अपनी खोज से भारत सहित दुनियाभर को एक नई खोज दी, नई उपलब्धि दी।शुरुआती दिनों में ही चं्रयान-1 के मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद पर तिरंगा लहरा दिया। चांद पर तिरंगा देख करोड़ों देशवासियों के चेहरे मुस्कराए। दिल खुश हुआ, उसी तरह जब देश के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने अप्रैल 1984 में चांद पर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के यह पूछे जाने पर कि वहां से भारत कैसा दिखता है, कहा था कि सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा। आम भारतीयों के चहरे पर इस मुस्कराहट, इस खुशी के पीछे माधवन व उनकी टीम के दिन-रात की मेहनत को भला कौन भूल या कम आंक सकता है?
लेकिन चं्रयान-1 का मकसद चांद पर सिर्फ तिरंगा लहराना नहीं था, बल्कि उसे खंगालना था। वहां की जानकारी जुटानी थी और इन सबमें वह कामयाब रहा। सबसे बड़ी खोज वहां पानी की तलाश रही। अमेरिकी अंतरिक्ष संस्थान नासा ने इसे एक महत्वपूर्ण उलब्धि बताया। एक ऐसी उपलब्धि, जिससे मंगल सहित अन्य ग्रहों-उपग्रहों पर जीवन की खोज में जुटे दुनियाभर के अंतरिक्ष अभियानों को नई दिशा और नया बल मिल सकेगा। चं्रयान-1 की सफलता से उत्साहित इसरो अब इसके दूसरे संस्करण चं्रयान-2 के प्रक्षेपण की योजना बना रहा है, ताकि चांद से जुड़ी और भी जानकारी जुटाई जा सके।
केरल के तिरुवनंतपुरम में 31 अक्टूबर, 1943 को जन्मे माधवन की शुरुआती शिक्षा कन्याकुमारी जिले में हुई। 1966 में केरल विश्वविद्यालय से उन्होंने इलेक्ट्रिकल व कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक किया और प्रशिक्षण के लिए भाभा अटोमिक रिसर्च सेंटर ट्रेनिंग स्कूल, मुंबई चले गए। 1967 में वह थंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लांचिंग स्टेशन (टीईआरएलएस) से जुड़े और इसके बाद कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं व संस्थानों का सफर तय करते हुए आज इसरो के अध्यक्ष हैं। कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी उनकी प्रतिभा व परामर्श का इस्तेमाल किया। अगस्त 2009 में वह इंटरनेशल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स (आईएए) के अध्यक्ष भी बने। वह 2011 तक इस पद पर बने रहेंगे। आईएए के अध्यक्ष बनने वाले वह एकमात्र भारतीय और पहले गैर-अमेरिकी नागरिक हैं।
अपनी वैज्ञानिक सोच व सूझबूझ का इस्तेमाल उन्होंने हमेशा देश की तकनीकी क्षमता बढ़ाने और इसे उन्नत बनाने में किया। वह तकनीक की दृष्टि से भारत को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे और इस दिशा में उन्होंने कई कदम उठाए। सामाजिक आवश्यकताएं हमेशा उनके जेहन में रही। शिक्षा, चिकित्सा से लेकर दूरदराज के क्षेत्रों में किसानों से संपर्क स्थापित करने तक के लिए उन्होंने तकनीक के इस्तेमाल पर बल दिया। टेली-एजुकेशन और टेली-मेडिसन के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान का ही परिणाम है कि आज देशभर में करीब 31 हजार कक्षाएं एडुसेट नेटवर्क से जुड़ी हैं। टेलीमेडिसन से 315 अस्पताल जुड़े हैं, जिनमें से 269 ग्रीमण क्षेत्रों के अस्पताल हैं। उन्होंने विलेज रिसोर्स सेंटर (वीआरसी) की भी शुरुआत की, जिसका मकसद दूर-दराज व ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे गरीबों का जीवन स्तर सुधारना है। आज 430 से अधिक वीआरसी किसानों को मिट्टी, पानी व खेती के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं। किसान इसके माध्यम से सीधे कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क कर सकते हैं और आवश्यक जानकारी जुटा सकते हैं। साथ ही यह किसानों को सरकारी योजनाओं, खेती की पद्धति, मौसम को ध्यान में रखते हुए बनाई जाने वाली कार्य योजना आदि की जानकारी भी देता है।

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