सोमवार, 19 जुलाई 2010

यह शाह बेशऊर

ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, जसा शुक्रवार को इस्लामाबाद में हुआ। भारत-पाक विदेश मंत्री स्तर की बातचीत एक दिन पहले हुई और उसमें बातचीत जारी रखने की ही बात की गई। पर अगले दिन जब भारतीय विदेश मंत्री कृष्णा पाकिस्तान में ही थे, तब विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जो कुछ किया-कहा, वह राजनयिक मर्यादा और शोभनीयता की धज्जियां उड़ाने वाला था। उन्होंने भारत की मंशा पर शक जताया, कृष्णा पर व्यक्तिगत आक्षेप किए और कश्मीर पर भड़ास निकाली। फिर भी भारत ने शांत और वार्ता के मुतल्लिक सकारात्मक प्रतिक्रिया जताई। कुरैशी वैसे पढ़े-लिखे और नफीस पाक नेता हैं, पर पाक की राजनेताओं की ही शायद यह मजबूरी है कि उन्हें सेना निर्देशित करती है।


पाकिस्तान ने फिर झटक दिया दोस्ती का हाथ। फिर दोहराया गया आगरा प्रकरण। मजमून वही था, बस मंच और किरदार अलग-अलग थे। तब आगरा था मंच, जो इस बार बदलकर हो गया इस्लामाबाद। पाकिस्तान के मुख्य पात्र थे तत्कालीन सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ तो इस बार यही भूमिका निभाई वहां के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने। तब भी भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत की प्रक्रिया फिर शुरू करने की कवायद हुई थी, जो कारगिल युद्ध के बाद स्थगित हो गई थी। इस बार भी वही कोशिश। फिर शुरू हो दोनों देशों के बीच बातचीत, जो बंद हो गई थी 2008 के मुंबई हमले के बाद। कोशिश यही कि मुद्दे सुलङो। दोस्तों की तरह रहें पड़ोसी, न कि दुश्मनों की तरह। हालांकि यह सब इतना आसान नहीं है, वरना आजादी से अब तक साठ दशक से भी अधिक वक्त बीत जाने पर भी दोनों देशों के संबंधों में यह तल्खी न होती। लेकिन अच्छे परिणाम की उम्मीद में कोशिशें हमेशा होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी।

वर्ष 2001 में भी ऐसी ही कोशिश हुई थी। कारगिल में घुसपैठ के बाद पाकिस्तान से रुकी बातचीत को फिर से पटरी पर लाने के लिए तब वहां के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ को न्यौता गया था। वे आए भी थे। आगरा में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बातचीत होनी थी। हुई भी, लेकिन मुशर्रफ बीच में ही आगरा शिखर सम्मेलन से पाकिस्तान से रवाना हो गए, नाराज होकर। इस बार भी कुछ-कुछ वैसा ही हुआ। पाकिस्तान ने हमारे विदेश मंत्री को न्यौता दिया। एमएम कृष्णा अपने पाकिस्तानी समकक्ष शाह महमूद कुरैशी से मिलने इस्लामाबाद पहुंचे। लेकिन बात जब परिणाम की आई तो वह कुछ-कुछ पहले जसा था, यानी ढाक के वही तीन पात। फिर वही तल्खी, फिर वही तेवर। कृष्णा ने उठाया आतंकवाद का मुद्दा तो कुरैशी ने अलापा कश्मीर का राग। बात सिर्फ इतनी होती तो शायद उसे बिगड़ी हुई न कहते। लेकिन तेवर में तल्खी इतनी थी कि वे हमारे गृह सचिव जीके पिल्लै की तुलना हाफिज सईद से कर बैठे। वही सईद, जिस पर मुंबई हमले के षड्यंत्र और उसे अंजाम देने वालों को मदद देने का आरोप है।

बात यहां तक भी नहीं रुकी। अब बारी विदेश मंत्री कृष्णा की थी। बिना किसी लाग-लपेट उन्होंने कह दिया कि कृष्णा बातचीत के लिए पूरी तरह अधिकृत नहीं थे। वे बार-बार फोन पर बात करते रहे और दिल्ली से आदेश लेते रहे। उनकी यह टिप्पणी कहीं से भी सामान्य शिष्टाचार के अनुकूल नहीं थी और न ही पिल्लै पर दिया गया बयान। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के पूर्व प्रमुख हामिद गुल ने भी कहा कि बोलते-बोलते बहुत बोल गए कुरैशी। फिर उनके तेवर भी नहीं बता रहे थे कि वे बातचीत को आगे बढ़ाने के मूड में हैं। ऐसा लगा मानो सबकुछ तय था। पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं ने काफी सोच-समझकर इस बातचीत का तानाबाना बुना था और इसके लिए सामने किया था कुरैशी को। उन्हें यकीन था कि इतने अपमान के बाद भारत खुद ही बातचीत से इनकार कर देगा और पाकिस्तान अमेरिका सहित दुनिया को यह संदेश दे सकेगा कि वह तो बातचीत के लिए तैयार है, पर भारत नहीं। कुरैशी ने यही किया। वे खरे उतरे अपने नीति-निर्धारकों की उम्मीद पर या यूं कहें कि बखूबी निभाई उन्होंने अपनी जिम्मेदारी। कश्मीर पर कुरैशी के अड़ियल रुख से भी साफ लगता है कि वे आईएसआई के प्रभाव में थे। कुल मिलाकर, कुरैशी बातचीत को पटरी से उतारने में कामयाब रहे।

अपने तल्ख तेवर और विदेश मंत्री कृष्णा को ‘घर बुलाकर अपमानित करनेज् के रवैये के कारण भले ही कुरैशी यहां खलनायक बन गए हैं, लेकिन पाकिस्तान में वे हीरो बनकर उभरे हैं। एक ऐसे नेता के रूप में जो अपने हितों को लेकर बहुत सजग है और कश्मीर पर कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं है। पाकिस्तान में कुरैशी की छवि एक मंङो हुए राजनेता के रूप में है। अपनी पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) में भी वे धाक रखते हैं। भुट्टो परिवार के बेहद करीबी माने जाते हैं। इतने कि दिसंबर, 2007 में बम हमले में पार्टी की नेता बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद वे पीपीपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक व मजबूत दावेदार माने जा रहे थे। हालांकि यहां बाजी मार गए युसुफ रजा गिलानी।

54 वर्षीय कुरैशी पाकिस्तान में सामंती व खानदानी परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता मकदूम सज्जाद हुसैन कुरैशी मुल्तान के प्रभावशाली सामंती परिवार से आते थे। 1980 के दशक में जनरल जिया-उल-हक के शासन के दौरान वे पंजाब के गवर्नर थे। हालांकि सामंती परिवार में पैदाइश व परवरिश के बावजूद कुरैशी प्रगतिशील सोच के लिए जाने जाते हैं। 22 जून, 1956 को कुरैशी का जन्म मुरी में हुआ था, जो रावलपिंडी जिले के अंतर्गत सब-डिविजन है। पाकिस्तान में मुरी की गिनती आज प्रसिद्ध हिल स्टेशन के रूप में होती है, जहां बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। यह कभी कश्मीर के महाराजा की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। शुरुआती शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कुरैशी लाहौर चले गए और वहां के एचेन्सन कॉलेज में दाखिला लिया। इसके बाद उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से 1983 में कानून की डिग्री ली। लेकिन एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के बजाय उन्होंने राजनीति का रुख किया। पारिवारिक पृष्ठभूमि यहां काम आई। 1985 में पहली बार वे पीपीपी के उम्मीदवार के रूप में पंजाब प्रांत की एसेम्बली के लिए चुने गए। 1993 तक वे पंजाब एसेम्बली के सदस्य रहे। इस बीच उन्हें पार्टी से नेशनल एसेम्बली के लिए टिकट मिला और वे जीत भी गए। हालांकि 1997 में वे नेशनल एसेम्बली का चुनाव पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के उम्मीदवार से हार गए। लेकिन नेशनल एसेम्बली के चुनाव में यह उनकी एकमात्र हार है। इसके अलावा उन्होंने नेशनल एसेम्बली का कोई चुनाव नहीं हारा और वे लगातार सदन के सदस्य हैं।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

उमर की कठिन डगर

कश्मीर के कई हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए। कई जगह कर्फ्यू लगा। सैनिक बलों की कार्रवाई में ग्यारह लोगों की जान गई। इनमें बच्चे भी हैं। दरअसल, बच्चे की मौत पर ही लोगों का गुस्सा सुरक्षा बलों पर फूटा। कश्मीर और कें्र दोनों ने इस सबके पीछे लश्कर-ए-तैयबा का हाथ बताया। कश्मीर कई दशकों से अशांत है। पिछले कुछ समय से वहां शांति का कमोबेश माहौल बना। चुनाव हुए और उमर अब्दुल्ला ने गद्दी संभाली। लेकिन उनके लिए यह कांटों का ताज ही साबित हो रहा है। लगातार वे मुसीबतों में घिरते रहे। ताजा संकट ज्यादा गंभीर है, क्योंकि उसमें आतंकवाद की छाया दिख रही है। संकटों ने छोटे अब्दुल्ला को अनुभवी बनाया है और संवेदनशीलता, शालीनता व गंभीरता जसे चारित्रिक गुण उनके मददगार रहे हैं।



जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं उमर अब्दुल्ला। युवा और संयत व समझदार। संवेदनशील और जज्बाती भी। उनकी ये विशेषताएं नुमायां होती रहती हैं। ये कुछ ऐसे गुण हैं, जो सामान्यत: राजनीति में इस समय दुर्लभ हो रहे हैं। बड़े से बड़े संकट में भी उनका रवैया उतावलेपन का न होकर धीरता व गंभीरता होता है। इस मामले में अपने पिता से भी वे उलट हैं। फारूख अब्दुल्ला की छवि जहां बेफिक्र और बिंदास नेता की है, वहीं उमर कामकाजी और जिम्मेदार हैं। इस मामले में बहुत थोड़े युवा नेता भी उनकी तरह हैं। कश्मीर इन दिनों फिर अशांत है, लेकिन सारी उथल-पुथल के बावजूद उमर अपने इन्हीं विशेषताओं से उनसे निपट रहे हैं। न कोई अधीरता, न ही असंयत बयानबाजी। वे मौकों पर चुप्पी साधने की महत्ता भी जानते हैं।

इस संकटकाल में भी उन्होंने अभिभावकों से भावुक अपील की कि वे अपने बच्चों को प्रदर्शन में हिस्सा लेने से रोकें और उन्हें सुरक्षा बलों से उलझने न दें। लेकिन शांति प्रक्रिया बहाल करने और हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात आई तो उनके सख्त तेवर भी देखने को मिले। उन्होंने दो टूक कहा कि जहां भी कर्फ्यू लागू किया गया है, उसका सख्ती से पालन किया जाएगा। इसमें किसी तरह की ढिलाई नहीं होगी।

घाटी में हिंसा भड़काने वालों को उन्होंने ‘राष्ट्र विरोधी ताकतेंज् कहा और वहां शांति प्रक्रिया बहाल करने की प्रतिबद्धता जताई। उन्होंने इसके पीछे लश्कर का हाथ होने की बात भी कही। कश्मीर के उबलते हालात को देखते हुए उन्होंने कें्र से मदद मांगी, लेकिन विपक्ष के इस आरोप से इनकार कर दिया कि उनकी सरकार कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर विफल रही है। उल्टा विपक्षी दल पीडीपी पर घाटी में हिंसा भड़काने का आरोप लगाया। लेकिन कें्र सरकार और खास तौर पर गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मौके पर कश्मीर सरकार के पीछे खड़े नजर आए और उन्होंने मुख्यमंत्री की बातों की ताईद भी की।

बीते साल जनवरी में उन्होंने राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी। अड़तीस साल की उम्र में उन्हें सबसे युवा मुख्यमंत्री होने का गौरव तो मिला, लेकिन साथ में चुनौतियां भी कम नहीं थीं। राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति कमोवेश सभी सरकारों के लिए चिंता का विषय रही है। फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क जसी बुनियादी सुविधाओं तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करना भी एक महत्वपूर्ण काम था। इसमें वे काफी हद तक सफल रहे तो कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर स्थिति में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला।

अभी राज्य की सत्ता संभाले उमर को छह माह ही हुए थे कि सेना पर तीन महिलाओं के साथ बलात्कार व उनकी हत्या सहित 15 लोगों की हत्या का आरोप लगा। कहा गया कि नई दिल्ली के दबाव में उन्होंने इस कुकृत्य पर पर्दा डालने की कोशिश की। इसी बीच उन पर 2006 के सेक्स स्कैंडल में शामिल होने का भी आरोप लगा। विपक्ष ने कहा कि नौकरी देने के नाम पर जिन मंत्रियों, नेताओं, वरिष्ठ अधिकारियों और सैनिकों ने लड़कियों का इस्तेमाल किया, उनमें उमर अब्दुल्ला और उनके पिता फारूख अब्दुल्ला भी शामिल थे। तब भी संवेदनशील और जज्बाती उमर देखने को मिले थे। विपक्ष के इस आरोप भर से राज्यपाल को इस्तीफा सौंपकर उन्होंने सबको सकते में डाल दिया था। यह अलग बात है कि राज्यपाल एनएन वोहरा ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और वे अपने पद पर बने रहे। लेकिन इससे भी खास था इस्तीफे की पेशकश के वक्त उनका दिया गया बयान। जहां ऐसे मामलों में फंसते वक्त दूसरे नेता दोष साबित हो जाने तक स्वयं को निर्दोष बताते हैं, वहीं उमर ने विपक्ष के इस आरोप को अपने चरित्र पर धब्बा बताते हुए तब तक स्वयं को गुनाहगार बताया, जब तक वे बेगुनाह साबित नहीं हो जाते।

कुछ इसी तरह का भावुक, पर अनुभवी राजनीतिज्ञ के रूप में उनका व्यक्तित्व वर्ष 2008 में भी देखने को मिला था, जब अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर उन्होंने यूपीए सरकार को समर्थन देकर कांग्रेस की निकटता हासिल कर ली। इसका फायदा उन्हें राज्य विधानसभा के चुनाव में मिला। उस वक्त लोकसभा में दिया गया उनका बयान खासतौर पर उल्लेखनीय है। ऐसे में जबकि सपा सहित अन्य दल इस करार को मुसलमानों के लिए खतरनाक बता रहे थे, उमर ने यह कहकर तमाम आशंकाओं पर विराम लगा दिया, ‘मैं एक मुसलमान हूं और भारतीय भी। मैं इन दोनों में कोई फर्क नहीं देखता। मैं नहीं जानता कि हमें परमाणु करार से क्यों डरना चाहिए.. भारतीय मुसलमानों का दुश्मन अमेरिका या इस तरह का कोई करार नहीं, बल्कि गरीबी, भूख, विकास का अभाव और इन सबके लिए आवाज नहीं उठाना है..ज्

जम्मू-कश्मीर को लेकर शुरू से ही उमर का अलग रुख रहा है। भारत-पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर को वे महत्वपूर्ण मुद्दा मानते हैं और उन्हें समस्या का एकमात्र समाधान बातचीत में नजर आता है। वे कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की समस्या राजनीतिक है और इसका समाधान भी राजनीतिक ही हो सकता है। हाल में जम्मू के उबलते हालात के बीच उन्होंने एकबार फिर यह बात दोहराई। इससे पहले कश्मीर समस्या के समाधान को लेकर 2006 में वे कें्र के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मिलने इस्लामाबाद जा पहुंचे थे।

दस मार्च, 1970 को फारूख अब्दुल्ला और ब्रिटिश मां की संतान के रूप में जन्मे उमर को राजनीति विरासत में मिली। लेकिन राजनीतिक सफर आसान नहीं रहा। श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल से उन्होंने शुरुआती शिक्षा पूरी की। इसके बाद मुंबई के प्रतिष्ठित सिदेनाम कॉलेज से उन्होंने बीकॉम और स्कॉटलैंड की यूनीवर्सिटी ऑफ स्ट्रैथक्लाइड से एमबीए किया। 1998 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। उसी साल वे 12वीं लोकसभा के लिए चुने गए। तब कें्र में राजग की सरकार थी। उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस राजग सरकार का हिस्सा बनी। 1999 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने जीत हासिल की। 2001 में वे विदेश राज्य मंत्री बने। तब भी वे सबसे युवा कें्रीय मंत्री थे। लेकिन भाजपा से संग-साथ का खामियाजा उन्हें 2002 के विधानसभा चुनाव में चुकाना पड़ा। उनकी पार्टी हार गई। हार के कारणों का विश्लेषण किया गया, तो पता चला जनता इसलिए उनके साथ नहीं आई, क्योंकि गुजरात दंगों के बाद भी उनकी पार्टी भाजपा से जुड़ी रही। लेकिन इसके बाद भाजपा से अलग होने में उन्होंने कोई देरी नहीं की। इस बीच वे लगातार अपनी राजनीतिक जमीन को बेहतर बनाने के लिए काम करते रहे। 2008 में उन्हें इसका फायदा भी मिला, जब उनकी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और कांग्रेस के सहयोग से उन्होंने सरकार बनाई।

धोनी की धन्नो

एक जमाना था जब क्रिकेट के सितारों की शादी फिल्मी तारिकाओं से होती थी। सबमें बड़ा नाम नवाब पटौदी और शर्मिला टैगोर का है। सितारों का सितारों से ही मिलन होता था। ताजा मिसाल शोएब और सानिया की है। लेकिन इधर क्रिकेट की हस्तियां बेहद घरेलू और पारिवारिक जान-पहचान वालों से ब्याह करती रही हैं। चाहे सचिन हों, ्रविड़ हों या कुंबले। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महें्र सिंह धोनी ने भी यही किया। अपने जीवनसाथी के तौर पर उन्होंने पुरानी जान-पहचान और बचपन की दोस्त साक्षी रावत को चुना। धोनी के रोमांस के कई किस्से चले। उनकी शादी को लेकर तरह-तरह कयास लगते रहे। लेकिन उन्होंने साक्षी को चुनकर एकाएक सबको चौंका दिया। घरेलू और अपनी पढ़ाई-लिखाई करनेवाली ग्लैमर की दुनिया से दूर रहने वाली साक्षी अचानक मीडिया का फोकस बन गईं।



लाखों दिलों की धड़कन भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महें्र सिंह धोनी साक्षी रावत की खूबसूरती के आगे बोल्ड हो गए। हिमालय की खूबसूरती ने उन्हें अपने मोहपाश में इस कदर बांधा कि वे फिर इससे निकल नहीं पाए। सबको उस वक्त आश्चर्य हुआ जब उन्हें धोनी की सगाई और एक दिन बाद ही शादी की खबर मिली। खासकर उन लड़कियों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था, जो अब तक धोनी को अपने सपनों का राजकुमार माने बैठे थीं। कइयों के दिल टूटे। लेकिन यह राजकुमार तो अपनी ही दुनिया में मस्त था। खुश था अपने सपनों की राजकुमारी को पाकर।

धोनी के दिल की धड़कन निकलीं साक्षी रावत। इस बीच, चर्चाओं का बाजार गर्म रहा। कभी दीपिका पादुकोण के साथ तो कभी किसी और अदाकारा के साथ जुड़ते रहे धोनी के नाम। लेकिन चोरी-चोरी चुपके-चुपके हुई दोनों की सगाई और फिर शादी के बाद सच सामने आया तो कुछ और। अब तक जाने कितनी लड़कियों ने धोनी के आगे प्रणय निवेदन किया। लेकिन उन सबमें शायद वह नहीं रहा होगा, जो धोनी का दिल जीत सके। यहां साक्षी उन सब पर भारी पड़ीं और चुरा लिया धोनी का दिल। महाराष्ट्र के औरंगाबाद से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाली साक्षी ने शायद अलग-अलग तरह की रेसिपी से जीता होगा धोनी का दिल।

धोनी के बचपन की दोस्त हैं साक्षी। दोनों परिवारों में भी घनिष्ठता है। दोनों के पिता रांची में साथ-साथ काम चुके हैं। दोनों का परिवार मूलत: उत्तराखंड से ही ताल्लुक रखता है। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद जहां रावत परिवार उत्तराखंड लौट गया, वहीं धोनी के परिवार ने रांची में ही रहना तय किया। रांची के डीएवी स्कूल, शामली में धोनी और साक्षी साथ-साथ पढ़ते थे। हालांकि यह संभव है कि स्कूल में साक्षी धोनी की जूनियर रही हों, क्योंकि दोनों की उम्र में अच्छा खासा फासला है। धोनी जहां 29 साल के हो गए हैं, वहीं साक्षी की उम्र 21 साल है। स्कूल का यह साथ आगे चलकर प्यार और फिर शादी में तब्दील होगा, तब शायद धोनी और साक्षी को भी इसका खयाल नहीं आया होगा। लेकिन बढ़ती उम्र ने दोनों बीच नजदीकियां भी बढ़ा दी।

बिपाशा बसु अभिनीत ‘रेसज् फिल्म की पार्टी के दौरान एकबार फिर दोनों की मुलाकात हुई। पार्टी में साक्षी को बुलाया था फिल्म अभिनेता जॉन अब्राहम ने, जो बिपाशा के घनिष्ठ मित्र हैं। धोनी की शादी में जिन गिने-चुने लोगों को बुलाया गया था, उनमें जॉन भी शामिल थे। साक्षी व धोनी के साथ जॉन की घनिष्ठता इससे भी मालूम होती है। पार्टी से शुरू हुआ मुलाकातों का यह सिलसिला लगातार चलता रहा। दोनों के बीच नजदीकियां करीब दो साल पहले आई। दोनों कई बार औरंगाबाद में साथ-साथ देखे गए। कहा तो यहां तक जा रहा है कि साक्षी के कहने पर ही धोनी ने अपने लंबे बाल कटवा दिए, क्योंकि साक्षी को छोटे बाल पसंद हैं, जबकि गौरतलब है कि कई साल पहले पाकिस्तान गई भारतीय क्रिकेट टीम से मुलाकात करते हुए जनरल मुशर्रफ ने माही के हेयर स्टाइल की तारीफ करते हुए उसे बनाए रखने के लिए कहा था। साक्षी धोनी के लुक को लेकर कितनी गंभीर थीं, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता कि जब-जब धोनी ने बाल कटवाए, साक्षी उनके साथ मौजूद रहीं। पिछले साल 19 नवंबर को साक्षी के जन्मदिन पर भी धोनी उनके साथ थे। हाल के दिनों में धोनी का देहरादून आना-जाना भी बढ़ गया था। पिछले साल दोनों ने मसूरी और देहरादून में छुट्टियां भी साथ-साथ बिताई थीं।

रावत परिवार के रांची से देहरादून आ जाने के बाद साक्षी की बाकी पढ़ाई देहरादून के प्रसिद्ध वेलहाम गर्ल्स स्कूल से हुई। बाद में उन्होंने होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करना तय किया और इसके लिए महाराष्ट्र के औरंगाबाद स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट को चुना। होटल मैनेजमेंट में स्नातक की डिग्री लेने के बाद साक्षी इन दिनों कोलकाता में ताज बंगाल के साथ काम कर रही हैं। साक्षी के दादा वन विभाग में डिविजनल अधिकारी रह चुके हैं। साक्षी खान-पान की खास तौर पर शौकीन हैं, जो उनकी पेशेगत रुचियों के भी अनुकूल है। संगीत भी उन्हें पसंद है। फिल्में उन्हें हॉलीवुड की पसंद हैं। कुछ खास फिल्मों की बात की जाए तो उनमें डेसपेरेट हाउस वाइव्स, एक्रॉस द यूनीवर्स, परफ्यूम, द इल्यूजनिस्ट, अ वाक टू रिमेम्बर, ट्रांसफॉर्मर्स, एक्स-मेन जसी फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं। इसी तरह टीवी शो की बात की जाए तो अमेरिकन आइडोल, वन ट्री हिल, फ्रेंड्स, अमेरिकाज नेक्स्ट टॉप मॉडल, ऑर्फन उन्हें खास तौर पर पसंद हैं।

कुल मिलाकर, धोनी की जिंदगी में साक्षी ने कई रंग भर दिए हैं। अब तक क्रिकेट को पहला प्यार बताने वाले भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान की जिंदगी में अब दूसरा प्यार भी आ गया है। संभव है कि क्रिकेट को साक्षी से कड़ी टक्कर मिले। लेकिन सामंजस्य तो धोनी को ही बिठाना है। फिलहाल हर तरफ से धोनी को सुखी वैवाहिक जीवन के लिए बधाइयां मिल रही हैं। हमारी ओर से भी धोनी-साक्षी को लख-लख बधाइयां!

सेना समाधान नहीं

वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय से बातचीत पर आधारित






कश्मीर समस्या राज्य सरकार की नासमझी का नतीजा है। कें्र सरकार भी स्थिति की संवेदनशीलता नहीं समझ पाई। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जो भी आरोप लगा रहे हैं, वे गले नहीं उतरते। दरअसल, सरकार के गलत फैसलों ने ही स्थिति को बिगड़ने दिया। सेना को बुलाना भी ऐसा ही एक गलत फैसला है।



सरकार की ढुलमुल नीति का परिणाम है कश्मीर समस्या। इसे अब तक न तो कें्र सरकार समझ पाई है और न ही वहां की निर्वाचित सरकार। सतही लक्षणों से ही सरकार फैसले ले रही है। कश्मीर में सेना बुलाने का फैसला भी ऐसा ही है, जो घबराहट और जल्दबाजी में लिया गया। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सत्ता में आने के बाद से लगातार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग करते रहे हैं, लेकिन घाटी में हालात काबू से निकलता देख तुरंत सेना बुला ली। साफ है कि अपने करीब डेढ़ साल के कार्यकाल के दौरान उन्होंने राज्य पुलिस को इतना सशक्त नहीं बनाया कि वह उप्रवी तत्वों से निपट सके।

उमर का यह आरोप भी गले नहीं उतरता कि पीडीपी प्रदर्शनकारियों को भड़का रही है, क्योंकि जिन क्षेत्रों में प्रदर्शन और पथराव हो रहे हैं, वे नेशनल कांफ्रेंस के प्रभाव वाले क्षेत्र ही हैं। हां, अनंतनाग में पीडीपी की स्थिति बेहतर जरूर है, लेकिन वहां घटना की शुरुआत नहीं हुई, बल्कि केवल प्रतिक्रिया हुई। अमरनाथ यात्रा से ठीक पहले ऐसी घटना का होना यह भी दर्शाता है कि सरकार सचेत नहीं थी और न ही उसने दो साल पहले 2008 में अमरनाथ यात्रा के दौरान हुए संघर्ष का सही आकलन किया। राज्य सरकार ने बड़ी संख्या में पुलिस बल अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा में तैनात कर दी, जिससे घाटी में स्थिति और बिगड़ गई। अब आनन-फानन में सेना बुलाई गई है। उम्मीद की जा रही है कि इससे हालात पर काबू पाया जा सकेगा। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं हो सकता। ऐसी कोशिशें राहतभर होती हैं।

कश्मीर के संदर्भ में सबसे बड़ी समस्या बाहरी हस्तक्षेप की है, जो बेहद प्रभावशाली है। इसे समाप्त करना तो दूर कम करने में भी हमारी क्षमता जवाब दे जाती है। बाहरी हस्तक्षेप के रूप में सिर्फ पाकिस्तान, आईएसआई, तालिबान और अफगान लड़ाके नहीं हैं, बल्कि अमेरिका भी है। फिर इनका रूपरंग बड़ी तेजी से बदलता है, जबकि सरकार उतनी तेजी से उसका जवाब नहीं दे पाती। यह बात सिर्फ मनमोहन सिंह या उमर अब्दुल्ला सरकार पर लागू नहीं होती, बल्कि नेहरू से लेकर अब तक की कमोबेश हर सरकार का इस मामले में यही हाल रहा है। सभी प्रधानमंत्रियों की कोशिश खुद को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित करने की रही है, पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारना चाहता है। ऐसी कोशिश में कोई बुराई नहीं है। लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जमीनी हकीकत को दरकिनार कर जब भी ऐसी कोशिश हुई, उसका खामियाजा उसी रूप में सामने आया जसा आज कश्मीर में हो रहा है।

अब गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट पर गौर करें तो 2009 में जम्मू-कश्मीर में 15 लोग पुलिस की गोलीबारी में मारे गए थे, जबकि दूसरे राज्यों में यह संख्या कहीं अधिक थी। इसी तरह 2008 में अमरनाथ यात्रा के दौरान पैदा हुए संघर्ष के दौरान पुलिस ने 380 बार गोली चलाई थी, जिसमें 43 लोग मारे गए थे और 317 घायल हुए थे। इससे पहले 2006 में जब गुलाम नबी आजाद राज्य के मुख्यमंत्री थे, तब भी राज्य में पुलिस की गोलीबारी में 47 लोग मारे गए थे। 2003 में जब राज्य में मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार थी, तब भी पुलिस को प्रदर्शन व उप्रव शांत करने के लिए 123 बार गोली चलानी पड़ी थी। लेकिन किसी भी सरकार ने सेना नहीं बुलाई। पर मौजूदा उप्रव से उमर के हाथ-पांव फूल गए और उन्होंने कें्र से सेना बुलाने की मांग कर डाली। साफ है कि राज्य में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर उमर सरकार पूरी तरह विफल रही।

बल नहीं, संबल

वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक देवदत्त से बातचीत पर आधारित






कश्मीर कुछ समय की शांति के बाद फिर उद्वेलित है। सुरक्षा बलों के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश है। स्थिति लगातार असामान्य होती जा रही है। जनता का राज्य और कें्र सरकार से मोहभंग है। आजादी के बाद से कश्मीर एक गुत्थी के रूप में ही रहा है। इसे सुलझाने की सारी कोशिशें मामले को उलझाती ही गई हैं। दरअसल इस पूरे मामले को नए नजरिये से देखने की जरूरत है। कश्मीर तभी शांत होगा, जब वहां लोगों को सही मायने में लोकतंत्र हासिल होगा। जरूरत वहां के लोगों से लड़ने की नहीं, उनका विश्वास जीतने की है।



कश्मीर समस्या आज की नहीं है। आजादी के समय से लेकर आज तक यह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी हुई है। ऐसा नहीं है कि इसे सुलझाने के प्रयास नहीं हुए। लेकिन समस्या सुलझने के बजाय दिनों दिन उलझती गई। आज स्थिति और भी बदतर हो चुकी है। समस्या का समाधान तो दूर उसके तरीके भी उलझकर रह गए हैं और उसमें अधिक जटिलता आ गई है।

समस्या वहां के लोगों की है, जो अपनी पहचान को लेकर उद्वेलित हैं। आयरलैंड, फ्रांस सहित यूरोप के अन्य हिस्सों और अफ्रीका में भी जातीय पहचान को लेकर स्वर मुखर हो रहे हैं, जिससे कश्मीर के लोगों को नई ऊर्जा व प्रेरणा मिलती है। इसलिए इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। कश्मीर में आए दिन होने वाले प्रदर्शन, पत्थरबाजी समस्या के लक्षण मात्र हैं, पूरी समस्या नहीं। पुलिस या सेना की ओर से जवाबी कार्रवाई के जरिये इन लक्षणों को ही फौरी तौर पर शांत किया जा सकता है, समस्या का समाधान नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कश्मीर को हिन्दुस्तान से अलग कर दिया जाए। वास्तव में, कश्मीर को हिन्दुस्तान से अलग करके भी नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यह सीधे तौर पर देश की एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा है। कश्मीर के बगैर भारत की एकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर इससे राज्य विरोधी ताकतों को भी बल मिलेगा।

उधर, पाकिस्तान की अपनी मजबूरी है। वह हिन्दुस्तान से समझौता नहीं कर सकता। वहां लोकतंत्र आया है, लेकिन महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों पर वहां अब भी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई का असर है। यह भी सच है कि कश्मीर में पथराव, प्रदर्शन या हिंसक हालात को हवा देने में पाकिस्तानी तत्वों का काफी योगदान होता है। लेकिन पाकिस्तान सरकार की कमजोरी के बावजूद इसके लिए सीधे तौर पर सेना या आईएसआई से बात नहीं की जा सकती, क्योंकि यहां प्रोटोकॉल आड़े आता है। फिर पाकिस्तान की सरकार राजनीतिक रूप से भी कमजोर है, क्योंकि पश्तून उनकी बात नहीं सुनते। इस तरह हिन्दुस्तान की निर्वाचित सरकार पाकिस्तान से जो भी बात करती है, वहां की सरकार उस पर सेना और आईएसआई से विचार-विमर्श करती है और उसके बाद ही कोई फैसला करती है। इससे समस्या सुलझने की बजाय और उलझती जाती है।

ऐसे में जरूरत है तो कश्मीर के लोगों को साथ लेकर चलने की, खासकर युवाओं को। लेकिन कश्मीर के अब तक के इतिहास पर नजर डालें तो मालूम होता है कि वहां की अवाम को आजादी के तकरीबन छह दशक बाद भी सही मायने में लोकतंत्र नहीं मिला और न ही नेतृत्व। आजादी से अब तक एक लंबे समय के लिए वहां राजनीतिक नेतृत्व अब्दुल्ला परिवार के हाथों में रहा। मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में पीडीपी की सरकार आने के बाद कश्मीर में सही मायने में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और वहां के लोगों को राजनीतिक नेतृत्व मिलने की उम्मीद जगी थी, लेकिन आगे चलकर यह उम्मीद भी मुफ्ती परिवार तक सिमटकर रह गई, जब पार्टी की बागडोर सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती के हाथों में चली गई। फिर पुलिस की ओर से गोलीबारी या सेना का फ्लैगमार्च कश्मीरी अवाम के गुस्से को और भड़काता है। इसलिए यहां जरूरत है फ्रांस में 1968 के आंदोलन के समय सरकार द्वारा अपनाए गए तौर तरीके से सीख लेने की। जब युवाओं ने पूरे फ्रांस में सरकार का चक्का जाम कर दिया था, तब प्रसिद्ध चिंतक ज्यां पाल सात्र्र ने कहा था कि उनसे लड़ने की नहीं, बल्कि उनका विश्वास जीतने की जरूरत है। आज वही नीति कश्मीर के संदर्भ में भी अपनाने की जरूरत है।

दअसल, कश्मीर समस्या आज भारतीय विदेश नीति के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती बन गई है। 1980 के दशक तक समस्या अधिक जटिल नहीं थी। लेकिन आज समस्या को हल करने के तरीके भी जटिल हो गए हैं। वहां नई ताकतें आ गई हैं। पाकिस्तान तो था ही, अब तालिबान और अफगानिस्तान की उपस्थिति भी हो गई है। फिर अमेरिका की रुचि भी दक्षिण एशिया में बढ़ गई है और कश्मीर के जरिये वह अपने हित साधने की जुगत में है। हिन्दुस्तान की कमजोरी यह भी है कि यहां आज उस तरह का राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं है, जसा 1950 के दशक तक था। वह ऐसा वक्त था जब राजनीतिक नेतृत्व अगर कोई फैसला करता था तो उस पर किसी तरह की बहस नहीं होती थी। राष्ट्रमंडल में शामिल होने का फैसला बतौर प्रधानमंत्री नेहरू ने किया था और बाद में संसद ने बिना किसी बहस के उसे पारित कर दिया। लेकिन आज वह स्थिति नहीं है और न ही उस तरह का राजनीतिक नेतृत्व। फिर यहां नौकरशाही भी हावी है, जो ऐसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती। कुल मिलाकर स्थिति दिनोंदिन और पेचीदी होती जा रही है।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि समस्या के समाधान के सारे दरवाजे बंद हो गए हैं। सरकार की कोशिशें भले कामयाब होती नहीं दिख रही हों, लेकिन समस्या के समाधान को लेकर कई बुद्धिजीवी, राजनेता, अधिकारी, कार्यकर्ता आदि अनौपचारिक बातचीत कर रहे हैं, जिससे काफी उम्मीदें हैं। लंदन में उनकी कई बैठकें हो चुकी हैं और लगातार हो रही हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो निष्पक्ष भाव रखते हैं और सामान्य तौर पर कश्मीरियों के मित्र के रूप में जाने जाते हैं। इसे ‘बैकरूम डिप्लोमेसीज् का नाम दिया जाता है। उधर, अमेरिका भी ऐसी की कोशिश में जुटा है। यानी अनौपचारिक रूप से वह भी समस्या के समाधान के लिए लगातार विचार-विमर्श कर रहा है। अब ऐसे में संशय इस बात को लेकर है कि कहीं सरकार कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अमेरिकी फॉर्मूले को तरजीह न दे डाले, क्योंकि मौजूदा यूपीए सरकार का झुकाव भी अमेरिका की तरफ नजर आता है और विपक्ष भी एकजुट नहीं है। अमेरिकी फॉर्मूले में बुराई सिर्फ इतनी है कि चाहे वह जितना भी निष्पक्ष दिखे, उसमें अमेरिका अपने हितों का खयाल जरूर रखेगा। इसलिए समस्या को नए सिरे से समझने की जरूरत है। राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वे कश्मीर को एक मुद्दे की तरह इस्तेमाल न करें। देश की जनता को कश्मीर समस्या को नए परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। पुराने मापदंडों के अनुसार न तो कश्मीर को देखना चाहिए और न ही सरकार को। कुल मिलाकर, फिलहाल समस्या के समाधान के बारे में नहीं, बल्कि उसके लिए माहौल तैयार करने की जरूरत है।