शनिवार, 5 दिसंबर 2009

बेहतर दुनिया तीन कदम

(देवें्र शर्मा से बातचीत पर आधारित)

जलवायु परिवर्तन के शोर में हम एक गहरे विरोधाभास को नजरअंदाज कर रहे हैं। एक ओर कोपेनहेगन है तो दूसरी तरफ जेनेवा, जहां विश्व व्यापार संगठन व्यापार बढ़ाने का आह्वान कर रहा है। व्यापार बढ़ेगा तो पर्यावरण बिगड़ेगा ही। दरअसल तीन बातें जरूरी हैं- अमेरिकी मॉडल का त्याग, व्यापार में कटौती और लोगों को जागरूक बनाना। हमारे कई संकटों का यही हल है।

आज हर तरफ जलवायु परिवर्तन की चर्चा है। इससे होने वाले नुकसान को लेकर दुनिया आशंकित है। खास तौर पर सम्रु के किनारे रहने वाले क्षेत्रों में इसका सबसे अधिक नुकसान हो सकता है। आनेवाले सालों में ये क्षेत्र पूरी तरह से डूब सकते हैं। मालदीव सहित भारत के लक्ष्यद्वीप और पश्चिम बंगाल में सुंदरवन को सबसे अधिक नुकसान हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के खतरे से पूरी तरह आगाह मालदीव ने हाल ही में सम्रु के अंदर कैबिनेट की बैठक बुलाकर दुनिया को एक संदेश देने की कोशिश की। लेकिन इसे लेकर कहीं कोई कारगर कोशिश होती नहीं दिखती।
भारत में अक्सर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन गैसों के उत्सर्जन के लिए हम उतने जिम्मेदार नहीं हैं, जितने अमेरिका, चीन या अन्य विकसित देश। इसके लिए कार्बन गैसों के उत्सर्जन में प्रति व्यक्ति योगदान का हवाला दिया जाता है। लेकिन यह गलत है, क्योंकि गैस उत्सर्जन के लिए प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारी का प्रतिशत जब निकाला जाता है, तो उसमें देश की पूरी जनसंख्या को शामिल किया जाता है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र की आबादी का इसमें कोई योगदान नहीं होता। कार्बन उत्सर्जन के लिए शहरों व महानगरों के लोग और वहां मौजूद औद्योगिक इकाइयां जिम्मेदार हैं। साफ तौर पर जलवायु परिवर्तन के लिए हम भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने अमेरिका, चीन या अन्य विकसित देश। इसलिए आज अगर जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक चर्चा हो रही है, तो सबसे पहले हमें अपना घर सुधारना होगा।
दरअसल, अमेरिका की राह पर चलते हुए हमने विकास का एक ऐसा मॉडल चुना है, जो पर्यावरण प्रदूषण की मात्रा भी साथ-साथ बढ़ाता है। कार, फ्रिज, टेलीविजन, एयरकंडीशन सहित अन्य बाजारी सुविधाएं को विकास का पैमाना माना जाने लगा है। लेकिन कोई इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान की चर्चा नहीं करता। कार से जो प्रदूषण फैलता है, वह अगले सौ साल तक पर्यावरण में मौजूद रहता है और इस वक्त देश में तकरीबन 170 लाख कार हैं। आखिर हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को कितना सुरक्षित पर्यावरण देंगे?
जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर विकसित देश हायतौबा तो खूब मचा रहे हैं, लेकिन इसे कम करने को लेकर ईमानदार व गंभीर कोशिश कहीं नहीं दिखती। दरअसल सारा खेल 200 मिलियन डॉलर का है। वास्तव में, कार्बन गैसों का उत्सर्जन रोकने और पर्यावरण को सुरक्षित बनाने के नाम पर वे विकासशील देशों को ऐसी तकनीक बेचना और वहां निवेश करना चाहते हैं, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था को फायदा हो सके। भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका भी इसी दौड़ में शामिल है और इसलिए इन देशों में जलवायु परिवर्तन का शोर अधिक सुनाई देता है।
यदि वास्तव में दुनिया इसके प्रति गंभीर होती तो इसे लेकर विरोधाभास नहीं दिखता। यह विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि एक ओर जेनेवा में विश्व व्यापार संगठन जसी संस्था व्यापार बढ़ाने पर जोर दे रही है, तो कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन और इसके खतरों पर चर्चा होने जा रही है। लेकिन कोई इस बारे में बात नहीं करता कि यदि व्यापार बढ़ेगा तो क्या प्रदूषण नहीं बढ़ेगा? आखिर व्यापार जहाजों और विमान से ही किया जाएगा, जिसके चलने व उड़ान भरने में बड़ी मात्रा में ऊर्जा खपत होती है और कार्बन गैसों का उत्सर्जन होता है।
जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण अमेरिका की आरामपसंद जीवन शैली है, जिसमें अधिकतर चीजों का मशीनीकरण हो गया है। आज अगर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन और इसके खतरों की चर्चा हो रही है, तो हमें अमेरिकी जीवनशैली को टेबल पर रखने की जरूरत है। हालांकि अमेरिका पहले ही इसमें किसी तरह के फेरबदल से इनकार कर चुका है, लेकिन जब तक इसे परिवर्तनीय नहीं बनाया जाता, खतरे को कम नहीं किया जा सकता।
यदि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करना है, तो इसके लिए तीन चीजों पर खास ध्यान देना होगा। सबसे पहले तो विकास के अमेरिकी मॉडल का अनुसरण बंद करना होगा। दूसरे, व्यापार में कटौती करनी होगी और तीसरे, लोगों में जागरुकता लानी होगी। इसके लिए हम स्वीडेन को आदर्श मान सकते हैं, जहां सभी उत्पाद सामग्रियों पर कार्बन फुट प्रिंट होता है। इससे लोगों को पता चलता है कि विभिन्न स्थानों से आयाजित सामानों में कार्बन उत्सर्जन कितना हुआ है। यदि भारत में भी यही चीज शुरू की जाए तो लोगों में जागरुकता जरूर आएगी और धीरे-धीरे लोग उन चीजों को खरीदना बंद कर देंगे, जिसके आयात में कार्बन गैसों का उत्सर्जन अधिक हुआ हो। जलवायु परिवर्तन को कम करने की दिशा में यह एक कारगर कदम हो सकता है।

गिलट नहीं गिलानी

कम चर्चित और बेहद संकोची राजनेता से शुरू हुआ सैयद युसुफ रजा गिलानी का राजनीतिक जीवन। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री वे बने या बनाए गए, अपने इन्हीं गुणों के कारण। लेकिन कुछ ही समय में गिलानी अपने तेजतर्रार नए अवतार में उभरने लगे। अब वे पूर्णावतार ले चुके हैं। जरदारी पिछड़ रहे हैं। खुद गिलानी उन्हें सिर्फ राष्ट्राध्यक्ष और स्वयं को शासन का प्रमुख कर्ताधर्ता बता रहे हैं।

सैयद युसुफ रजा गिलानी, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, जो अपने समर्थकों के बीच ‘हमेशा सही काम करने वाले नेताज् के रूप में जाने जाते हैं, भले ही व्यक्तिगत रूप से इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े। उनकी पहचान एक मृदुभाषी राजनीतिज्ञ के रूप में भी रही है। पाकिस्तान में करीब एक दशक के सैनिक शासन के बाद 2008 में जब उन्होंने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का नेतृत्व संभाला तो गिलानी कोई हाईप्रोफाइल राजनीतिज्ञ नहीं थे।
सच कहा जाए तो बेनजीर की हत्या के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुना भी इसलिए था। इसके लिए पार्टी के तत्कालीन सबसे चर्चित नेता अमीन फहीम की दावेदारी को दरकिनार कर दिया गया। समझा जा रहा था कि इस कम चर्चित नेता के जरिये बेनजीर के पति व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के लिए पाकिस्तान के शासन में हस्तक्षेप आसान रहेगा और कुछ ही महीनों में गिलानी के हाथ से सत्ता अपने हाथ में लेना उनके लिए आसान होगा। हालांकि बेनजीर के प्रति कुछ उनकी वफादारी भी थी, जिसके लिए उन्हें यह इनाम मिला।
लेकिन गिलानी जब एकबार पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज हुए तो उनकी कम चर्चित व संकोची राजनेता की छवि जाती रही। वे धीरे-धीरे सत्ता के प्रमुख कें्र के रूप में उभरने लगे और अब जरदारी को किनारे करते हुए उन्होंने दो टूक कह दिया है कि असली सरकार वे ही चला रहे हैं। जरदारी राष्ट्राध्यक्ष हैं, न कि शासनाध्यक्ष। उन्होंने इन दावों को भी खरिज कर दिया कि पाकिस्तान का शासन नेतृत्वविहीन है और इसके कई कें्र हैं। साफ है, जरदारी की अगर ऐसी कोई चाह थी कि गिलानी के जरिये वे अपनी मर्जी चला सकेंगे, तो गिलानी उसे पूरा करने के मूड में नहीं हैं।
पाकिस्तान में, जहां संवैधानिक रूप से सत्ता संसद में निहित है, सत्ता परिवर्तन के बाद शासन के कई कें्र नजर आने लगे। यह सब शुरू हुआ 1999 के सैनिक तख्ता पलट से, जब पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल) की नवाज शरीफ सरकार को सत्ता से बेदखल करते हुए सत्ता हथिया ली थी। बाद में इसे लोकतांत्रिक रूप देने के लिए उन्होंने सैन्य शासक का चोंगा उतार फेंका और राष्ट्रपति बन बैठे। लेकिन सत्ता की कुंजी अपने हाथ में ही रखी। उन्होंने संविधान में कई संशोधन किए और वे सारी शक्तियां, जो संसद व प्रधानमंत्री के पास थीं, अपने हाथों में ले ली।
सत्ताइस दिसंबर 2007 को पीपीपी अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद हुए आम चुनाव और उसके बाद बने नए निजाम में गिलानी प्रधानमंत्री व जरदारी राष्ट्रपति बने। उम्मीद की गई कि पाकिस्तान में एक बार फिर संसदीय शासन प्रणाली से कामकाज होगा। प्रधानमंत्री शासन का कें्र होगा और प्रमुख शक्तियां उसके हाथों में ही होंगी। लेकिन जरदारी ने मुशर्रफ द्वारा संशोधन के बाद राष्ट्रपति में निहित की गई शक्तियों को लौटाने की उदारता नहीं दिखाई। यहीं से शुरू हुआ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की सत्ता में टकराव। गिलानी के शासन में जरदारी की टोकाटाकी व हस्तक्षेप बढ़ता रहा। लेकिन अंतत: गिलानी ने जरदारी के हर हुक्म की तामील करना मुनासिब नहीं समझा। इसका कारण शायद उन्हें विरासत में मिली राजनीतिक सूझबूझ रही।
अपनी सूझबूझ से ही उन्होंने धीरे-धीरे सत्ता अपने हाथ में ले ली। वे सबसे अधिक चर्चित हुए पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की पुनर्बहाली करवाकर, जिन्हें जनरल मुशर्रफ ने बर्खास्त कर दिया था। जरदारी उनकी बहाली के लिए आसानी से तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्हें अपने खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मामले खुल जाने का अंदेशा था। लेकिन गिलानी ने जरदारी को आश्वस्त किया और न्यायाधीश बहाल हुए। हाल के दिनों में जरदारी ने परमाणु आयुध के नियंत्रण का अधिकार भी प्रधानमंत्री गिलानी को सौंप दिया। गिलानी अन्य शक्तियां भी राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री को स्थानांतरित करने में लगे हैं।
गिलानी का जन्म नौ जून 1952 को कराची में हुआ था, हालांकि उनका परिवार पंजाब प्रांत से ताल्लुक रखता है। गिलानी परिवार पंजाब के मुल्तान का एक प्रभावी राजनीतिक व आध्यात्मिक परिवार है। गिलानी के पिता मखदूम आलमदार हुसैन गिलानी पाकिस्तान के निर्माण के बने प्रस्ताव के प्रमुख हस्ताक्षरी थे। गिलानी की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा मुल्तान में ही ला सल्ले हाई स्कूल में हुई। उच्च शिक्षा उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिश्चयन कॉलेज से पाई। पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की।
गिलानी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1978 में पिता की मौत के बाद जनरल जिया-उल-हक के सैनिक शासन के दौरान की थी। वह पीएमएल की कें्रीय कार्य समिति में शामिल हुए। प्रधानमंत्री मुहम्मद खान जुनेजो की सरकार में वह मंत्री भी बने। लेकिन जल्द ही पीएमएल से उनका मोहभंग हो गया और 1988 में वह पीपीपी में शामिल हो गए। पीपीपी में शामिल होने की अर्जी लेकर जब वे बेनजीर भुट्टो से मिलने गए थे, तब पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक का ही शासन था और पीपीपी अनिश्चतता के दौर से गुजर रहा था। बेनजीर ने कहा भी था कि वे उन्हें कुछ भी दे पाने की स्थिति में नहीं हैं, फिर क्यों वे पीपीपी का दामन थामना चाहते हैं? तब गिलानी ने कहा था, ‘दुनिया में तीन तरह के लोग हैं, एक वे जो सम्मान चाहते हैं, दूसरे वे जो बुद्धि चाहते हैं और तीसरे वे जो दौलत चाहते हैं। मैं पहले तरह का इंसान हूं और इसलिए पीपीपी में शामिल होना चाहताा हूं।ज् इसके बाद शक व शुबहे की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई। गिलानी की यह वफादारी बेनजीर की आखिरी सांस तक उनके साथ बनी रही।
यही वजह रही कि 2001 में उन्होंने परवेज मुशर्रफ के साथ समझौते से इनकार कर दिया, जिसके तहत उन्हें पीपीपी के जनाधार वाले नेताओं को साइडलाइन करना था। उन्हें इसकी कीमत जेल जाकर चुकानी पड़ी। मुशर्रफ शासन ने उन पर सरकार में रहते हुए गैर-कानूनी नियुक्तियां करने का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया। 7 अक्टूबर 2006 को वह जेल से रिहा हुए। जेल में उन्होंने एक किताब लिखी, ‘चाह-ए-युसुफ की सदा।ज् पुस्तक में उन्होंने पीएमएल छोड़ने और पीपीपी में शामिल होने के कारणों का जिक्र किया है। इससे पहले जनरल जिया की मौत के बाद 1988-90 की बेनजीर की सरकार में वे मंत्री बने। बेनजीर के दूसरे कार्यकाल में 1993-97 के बीच उन्होंने पाकिस्तान की नेशनल एसेम्बली के स्पीकर के रूप में अपनी सेवा दी।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

बहुत शोर था . . . लिब्रहान . . .!

न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान ने तीन महीने के लिए बने आयोग की रिपोर्ट सत्रह साल बाद सौंपी और पिछले हफ्ते वह संसद में रखी गई। बाबरी मस्जिद ध्वंस को लेकर बने इस जांच आयोग पर सबकी नजरें थीं। पर साल-दर-साल माहौल-मूल्य-मुद्दे बदलते गए और अब जब यह नुमायां हो गई है, तो हम पाते हैं कि अब वह मुद्दा ही बेदम हो चुका है कि जिसके कारण बाबरी ध्वंस की शर्मनाक घटना घटी। फिर भी लोगों को दिलचस्पी तो थी ही। लेकिन वह भी रिपोर्ट के निष्कर्ष से शांत हो गई, क्योंकि इसमें आमतौर पर वही है, जिसका अंदाजा था। वही संघ परिवार और भाजपा इसमें षड्यंत्रकारी बताए गए हैं, जिन्हें देश का आमजन भी इस धत्कर्म का दोषी माने हुए था। अटल बिहारी वाजपेयी को दोषियों में रखना और तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को बख्श देना जरूर इसमें ऐसी बातें रहीं, जिन पर काफी कोहराम मचा।

देश के सर्वाधिक विवादास्पद, संवेनशील और दो समुदायों की धार्मिक भावनाओं से जुड़े बहुप्रतीक्षित बाबरी विध्वंस मामले पर रिपोर्ट आ गई है। रिपोर्ट में यूं तो कोई नई बात नहीं है। जसा कि उम्मीद थी, भगवा बिग्रेट को इसमें जमकर लताड़ लगाई गई है। लेकिन पूरे प्रकरण में भाजपा के उदारवादी माने जाने वाले वरिष्ठ नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम ने राजनीतिक हलके में तूफान मचा दिया। रिपोर्ट सीधे तौर पर वाजपेयी को दोषी नहीं बताती। लेकिन यह कह कर एक बड़ा आरोप तय करती है कि बाबरी विध्वंस कोई अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति थी और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सहित अटल बिहारी वाजपेयी भी इससे पूरी तरह वाकिफ थे। इन नेताओं ने जानबूझकर पूरे प्रकरण से दूरी बनाए रखी। वास्तव में इन्होंने जनता के विश्वास व लोकतंत्र को धोखा दिया है और इसलिए वे उनके अपराधी हैं।
बाबरी विध्वंस पर यह रिपोर्ट न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान के नेतृत्व में गठित लिब्रहान आयोग ने दी है। छह दिसंबर, 1992 को कारसेवकों द्वारा बाबरी विध्वंस को अंजाम देने के करीब दस दिन बाद ही यानी 16 दिसंबर 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस आयोग का गठन किया था और म्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान को मामले की जांच का जिम्मा सौंपा था। तब मामले की जांच के लिए उन्हें तीन माह का समय दिया गया था। लेकिन जांच पूरी होते-होते 17 साल लग गए, जिसके लिए कुल 48 बार आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया। इन 17 सालों में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कई लोगों के बयान लिए, ऑडियो-वीडियो टेप की जांच की और उसके बाद अपनी रिपोर्ट दी। एक सदस्यीय इस आयोग की जांच पर करीब आठ करोड़ रुपए का खर्च आया है।
तकरीबन एक हजार पन्ने की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं सहित 68 लोगों को नामजद किया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बाबरी विध्वंस का मुख्य साजिशकर्ता करार देते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार को इस साजिश को अमल में लाने का दोषी करार दिया है। साथ ही कें्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हाराव सरकार को भी यह कहते हुए आड़े हाथों लिया है कि उसने बाबरी विध्वंस को रोकने के लिए कोई गंभीर कदम नहीं उठाए। हालांकि यह कहकर उनका बचाव किया कि राज्य सरकार की ओर से कें्र से किसी तरह की मदद नहीं मांगी गई।
अपनी रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व अटल बिहारी वाजपेयी को पर्दे के पीछे से भूमिका निभाने वाला करार दिया है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ये नेता बाबरी विध्वंस की आरएसएस की साजिश से पूरी तरह वाकिफ थे और उन्होंने जानबूझकर राम जन्मभूमि अभियान से दूरी बनाए रखी। अपनी रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान नेताओं पर भी खूब बरसे। उन्होंने किसी दल विशेष का नाम लिए बगैर सभी नेताओं को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि अपने क्ष्रु राजनीतिक स्वार्थ के लिए वे एक महान राष्ट्र व दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में से एक को असहिष्णुता और बर्बरता की ओर ढकेल रहे हैं।
बाबरी विध्वंस पर लिब्रहान आयोग की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट कई तरह से विवादों में घिरी है। सबसे पहले तो भाजपा और सहयोगी दलों ने रिपोर्ट लीक होने को लेकर हंगामा किया। रिपोर्ट लीक होने का आरोप सरकार पर लगा, अंगुली न्यायमूर्ति लिब्रहान पर भी उठी। लेकिन इन आरोपों को लेकर न्यायमूर्ति लिब्रहान का रवैया ‘नो कमेंटज् का रहा। उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। हालांकि रिपोर्ट लीक होने के मामले में वह मीडिया पर भड़के जरूर।
रिपोर्ट का एक अन्य विवादास्पद पहलू इसका अत्यधिक समय लेना है। सरकार ने इसके लिए तीन माह की समय सीमा निर्धारित की थी, जबकि रिपोर्ट सौंपते-सौंपते न्यायमूर्ति लिब्रहान को 17 साल लग गए। इसके लिए उन्होंने प्रमुख गवाहों के असहयोगात्मक रवैये और आयोग के कामकाज के शुरुआती दिनों में ही कर्मचारियों के लगातार स्थानांतरण को जिम्मेदार ठहराया। रिपोर्ट में देरी की एक प्रमुख वजह न्यायमूर्ति लिब्रहान ने आयोग के सलाहकार अनुपम गुप्ता के असहयोगात्म रवैये को भी बताया है। तकरीबन एक हजार पन्ने की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति लिब्रहान ने 18 पन्नों में इस बात का जिक्र किया है कि आखिर क्यों जांच पूरी करने में उन्हें 17 साल लग गए।
अनुपम गुप्ता के असहयोगात्म रवैये का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कहा है कि निहित कारणों से गुप्ता ने आयोग के सलाहकार के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभाई, जिसके चलते उन्हें बार-बार परेशानी हुई और अंतत: उन्हें इसके लिए दूसरे अधिवक्ता की मदद लेनी पड़ी। वहीं, अनुपम गुप्ता ने न्यायमूर्ति लिब्रहान पर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बचाने का आरोप लगाते हुए 2007 में ही आयोग के सलाहकार का पद छोड़ दिया था।
इसके अलावा बिना सुनवाई के रिपोर्ट में वाजयपेयी का नाम आने से भी न्यायमूर्ति लिब्रहान की किरकिरी हो रही है। प्रेक्षक जांच आयोग अधिनियम, 1952 की धारा 8बी का हवाला देते हुए रिपोर्ट में वाजपेयी को नामजद करने पर सवाल उठा रहे हैं, जिसमें किसी भी व्यक्ति पर आरोप तय करने से पहले उसका पक्ष जानने का प्रावधान है। साथ ही वे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का भी हवाला दे रहे हैं, जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने से पहले उसे सुनवाई का अधिकार होना चाहिए। इसे मानहानि से जोड़कर भी देखा जा रहा है।

डेडली हेडली

मुंबई पर आतंकवादी हमले यानी 26/11 को एक साल होने में अब कुछ दिन बाकी हैं। पाक पूरे मामले को दबाकर बैठा है, जबकि सारे जवाब उसी के पास हैं और उसी को देना है। इस बीच जो खुलासे हो रहे हैं और जो नए नाम सामने आ रहे हैं, उनकी शक की सुई भी पाक की ओर है। डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गिलानी ऐसा ही एक नाम है। पाक मूल के इस अमेरिकी नागरिक की गिरफ्तारी के बाद जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे जांच एजेंसियों को शक है कि 26/11 की वारदात में उसका भी हाथ था। आश्चर्य की बात यह कि 2006 से 2009 तक वह नौ बार भारत आया। कई शहरों में गया और वीसा एजेंसी के जरिये अपने आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के लिए भर्ती करता रहा। फिर भी, उसके दहशतगर्दी इरादों को कोई भांप नहीं पाया।

डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गिलानी। पाकिस्तानी मूल का अमेरिकी नागरिक। अमेरिका में शिकागो के ओज्हेयर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से गिरफ्तार यह शख्स एक और आतंकवादी वारदात को अंजाम देने की फिराक में था। उसके निशाने पर था अमेरिका और भारत। इसके अलावा भी कई अन्य देशों में वह आतंक फैलाने का मंसूबा पाले था और यह सब वह कर रहा था पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के इशारे पर।
गिरफ्तारी के वक्त वह पाकिस्तान जाने के लिए फिलाडेल्फिया की उड़ान पर था, जहां वह अपने आकाओं के साथ मिलकर नए खौफनाक हमले की रूपरेखा तय करने वाला था। समझा जाता है कि वह भारत में 26/11 जसा ही एक और हमला अंजाम देने का षड्यंत्र रच रहा था। उसे गिरफ्तार करने वाली अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (एफबीआई) के अधिकारियों ने उससे पूछताछ के आधार पर जो खुलासा किया है, उसके अनुसार हेडली के निशाने पर थे देश के दो महत्वपूर्ण व लोकप्रिय बोर्डिग स्कूल- देहरादून स्थित दून स्कूल और मसूरी स्थित वूडस्टॉक स्कूल। साथ ही नई दिल्ली में नेशनल डिफेंस कॉलेज भी उसके निशाने पर था।
हेडली 2006 में बिजनेस वीसा पर भारत आया और 2006 से 2009 के बीच कुल नौ बार उसने भारत का दौरा किया। इस दौरान वह देश के कई शहरों में गया। अहमदाबाद, पुणे, लखनऊ, आगरा और दिल्ली का उसने दौरा किया। जुलाई 2008 तक वह मुंबई में रहा और करीब दो साल तक उसने वहां वीसा एजेंसी चलाई। अपनी इस वीसा एजेंसी के जरिये उसने कई लोगों को भारत से बाहर खाड़ी देशों में भेजा। लेकिन वह उन्हें किसी व्यवसाय के सिलसिले में खाड़ी देश नहीं भेज रहा था, बल्कि लश्कर-ए-तैयबा के कैडर के रूप में उनकी भर्ती कर रहा था।
अपने मुंबई प्रवास के दौरान वह होटल ट्रिडेंट में रुका। कुछ दिन छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) के पास एक गेस्ट हाऊस में रहा और ताज होटल में भी उसने कमरा लिया था। इस आधार पर मुंबई हमले में भी उसका हाथ होने की आशंका जाहिर की जा रही है। एफबीआई के अधिकारी भी इस बात से इनकार नहीं करते। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने भी हमले में उसका हाथ होने की आशंका जाहिर करते हुए इसकी जांच की बात कही है। गौरतलब है कि मुंबई हमले के दौरान होटल ट्रिडेंट, सीएसटी और होटल ताज, ये तीनों आतंकवादियों के हमले के शिकार हुए थे। जांच एजेंसियां इस बात की भी जानकारी जुटा रही हैं कि क्या हेडली लश्कर-ए-तैयबा के किसी प्रशिक्षण शिविर में भी शामिल हुआ था, जिसमें मुंबई हमले को अंजाम देने वाले दस आतंकवादियों ने प्रशिक्षण लिया था?
हेडली ने, जिसका मूल नाम दाऊद गिलानी है, पहचान छिपाने के लिए अपना नाम तक बदल लिया। उसने भारत के कई शहरों का और कई बार दौरा किया। इस दौरान वह कई होटलों में रुका, मुंबई में उसने दलालों के माध्यम से किराए पर मकान भी लिया। इस दौरान निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट के बेटे राहुल भट्ट से भी उसकी मुलकात हुई। राहुल से अपने संपर्क का इस्तेमाल उसने मुंबई में अपना कारोबार जमाने में किया और उससे कई तरह की मदद ली। पुलिस को दी जानकारी में राहुल ने बताया है कि हेडली से उसकी मुलाकात एक जिम में हुई थी। वह अक्सर उससे स्वास्थ्य और व्यायाम के बारे में ढेर सारी बातें करता था। इस तरह जाहिर होता है कि हेडली स्वास्थ्य को लेकर काफी सजग व गंभीर था। इस बीच कहीं कोई उसके खतरनाक मंसूबों को भांप नहीं पाया। लेकिन अब जबकि वह जांच एजेंसियों की गिरफ्त में आ चुका है, दुनिया के अन्य आतंकवादी हमलों और षड्यंत्रों में भी उसका नाम सामने आ रहा है। उस पर आतंकवादियों को हर तरह की सहायता मुहैया कराने के भी आरोप हैं।
डेनमार्क का समाचार-पत्र ‘जिलैंड्स-पोस्टेनज् भी उसके निशाने पर था, जिसने 2005 में पैगम्बर मुहम्मद साहब के 12 कार्टून प्रकाशित किए थे। इसके लिए उसने पाकिस्तान में अल कायदा के फील्ड कमांडर इलियास कश्मीरी और लश्कर-ए-तैयबा के दो अन्य कमांडर से भी मुलाकात की थी। इलियास कश्मीरी पाक अधिकृत कश्मीर में हरकत-ऊल-जिहाद इस्लामी (हुजी) का सरगना है, जिसके तार अलकायदा से जुड़े हैं। उल्लेखनीय है कि ‘जिलैंड्स-पोस्टेनज् में पैगम्बर मुहम्मद साहब के कार्टून के प्रकाशन के बाद दुनियाभर में इस्लामिक जगत में उबाल आ गया था और अखबार के संपादक के खिलाफ फतवा भी जारी किया गया था। समझा जाता है कि इसी बीच हेडली ने कई बार अखबार के दफ्तर का मुआयना किया और आतंकवादियों को इसके बारे में अंदरूनी जानकारी दी।

सत्याग्रही शर्मिला

इरोम शर्मिला को अनशन करते अब दसवां साल लग गया है। अनशन तुड़ाने के तमाम सरकारी दांवपेंच और उनकी मांग को लेकर घोर असंवेदनशीलता से शर्मिला का हौसला पस्त नहीं हुआ, बल्कि इरादा और पुख्ता हो गया। वे मणिपुर की जनता को आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट से मुक्ति दिलाना चाहती हैं। मणिपुर इरोम के साथ है और सरकार की दुविधा भी यही है। मणिपुर ही नहीं, इरोम शर्मिला पूरे देश में नैतिकता, साहस और प्रतिरोध की प्रतीक बन चुकी हैं।

इरोम शर्मिला का नाम लेते ही उभरती है एक ऐसी छवि, जिसने अपने शांतिपूर्ण विरोध से पिछले नौ साल से कें्र और मणिपुर सरकार की नाक में दम कर रखा है। एक ऐसी महिला, जो अपने साहस और जीवट से लाखों लोगों उम्मीद बन गई है; जिसने लोगों के दिलों में यह एहसास जगाया कि आज नहीं तो कल उनकी बात सुनी जाएगी और मणिपुर के लोगों को आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट से छुटकारा मिलेगा। एक ऐसा कानून, जो ‘शांति विघ्नज् की स्थिति में देश के किसी भी हिस्से में थोपा जा सकता है, जिसकी आड़ में अक्सर सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है और जिसकी वजह से मणिपुर के लोग खुली हवा में सांस तक नहीं ले पा रहे। अपने स्वतंत्र देश में उन्हें उसी सेना के डर और आतंक के साए में जीना पड़ रहा है, जो उनकी ‘सुरक्षाज् के लिए है। शर्मिला इसी कानून को हटाने की मांग कर रही हैं, जिसके लिए वे पिछले नौ साल से आमरण अनशन पर बैठी हैं। दो नवंबर को उनका अनशन दसवें साल में प्रवेश कर गया।
इस कानून को लेकर मणिपुर की जनता में आक्रोश बहुत पहले से है, जिसे और बुलंद किया ईरोम शर्मिला ने। उन्होंने मणिपुर की जनता के लिए स्वयं को होम कर दिया। इस बात की परवाह नहीं की कि आमरण अनशन की उनकी जिद उन्हें मौत के द्वार तक ले जा सकती है। उनकी उम्र केवल 35 साल है, लेकिन वे इससे कहीं अधिक दिखती हैं। लेकिन इन सबकी परवाह उन्हें कहां? वे तो अपना जीवन जनता के लिए समर्पित कर चुकी हैं। स्वयं शर्मिला के शब्दों में कहें तो, ‘हम सबके जीवन का एक मकसद है, हम इस दुनिया में कुछ करने आए हैं। जहां तक शरीर की बात है तो एक न एक दिन इसे खत्म होना है। लेकिन जरूरी यह है कि हम जो करने यहां आए हैं, उसे पूरा करें।ज् आखिर कौन न शर्मिला की इस बेबाकी का मुरीद हो जाए? और मणिपुर की जनता, जिसके लिए उन्होंने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी, क्यों न उन्हें अपने तारणहार के रूप में देखे?
मणिपुर की जनता के लिए उनके इसी प्रेम ने उन्हें लोगों के बीच कुछ इस तरह लोकप्रिय बना दिया कि लोग अपने हर कदम के लिए उनके इशारे की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उनके इस साहसपूर्ण कदम ने उन्हें मणिपुर के साथ-साथ देशभर में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई। देशभर के बुद्धिजीवी व मानवाधिकार कार्यकर्ता उन्हें खुलकर अपना वैचारिक समर्थन दे रहे हैं, तो जनता में उनके लिए गजब की सहानुभूति है। ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्ता व नोबेल पुरस्कार से सम्मानित शिरीन ईबादी भी उनसे मिलकर उन्हें अपना समर्थन घोषित कर चुकी हैं। सरकार भी जानती है कि अगर उन्हें कुछ हो गया, तो मणिपुर की जनता में जो उबाल आएगा, उसे दबाना उसके बूते में नहीं होगा। अगर वह इसमें काययाब हो भी जाए तो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी जो थू-थू होगी, उससे वह कैसे उबरेगी? आखिर किस-किसको और क्या जवाब देगी सरकार? शायद इसलिए पूरा सरकारी अमला शर्मिला को जिंदा रखने में जुटा है। वे भोजन नहीं कर रहीं, तो प्रशासन ने इसकी भी तैयारी कर ली है। उन्हें पाइप के जरिये नाक से विटमिन व खनिज से भरा पेय पदार्थ दिया जा रहा है, ताकि जिंदा रखा जा सके।
नाक में पाइप लगा है, पूरा अमला अनशन तोड़ने के लिए हर तरह से जोर आजमाइश कर चुका है, लेकिन शर्मिला को मणिपुर से ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्टज् हटाने से कम कुछ भी मंजूर नहीं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आश्वासन देते हैं कि इस कानून में फेरबदल कर सेना के उन अधिकारों को सीमित किया जाएगा, जिससे जनता को परेशानी हो रही है; लेकिन शर्मिला टस से मस नहीं। शर्मिला के आमरण अनशन से डरी सरकार राज्य के कुछ हिस्सों से यह कानून हटा देती है। लेकिन वे तो पूरे राज्य से हटवाना चाहती हैं और वह भी पूरी तरह।
उत्तर-पूर्व की इस शेरनी का जीवट, शांतिपूर्ण विरोध का यह तरीका बरबस ही महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की याद दिला देता है, जिससे उन्होंने अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी थी। नौ साल पहले दो नवंबर, 2000 को शर्मिला ने अपनी मांगों को लेकर उपवास शुरू किया था, जब असम राइफल्स के जवानों ने मालोम में हमला कर दस युवकों को उप्रवी होने के केवल संदेह के आधार पर मार गिराया था। सेना की इस कार्रवाई का आधार भी ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्टज् ही था, जिसके तहत सेना या अर्धसैनिक बल के किसी भी जवान को केवल संदेह के आधार पर नागरिकों को गिरफ्तार करने, बिना वारंट उनके घरों की तलाशी लेने और यहां तक उन्हें गोली मारने और जान से मार डालने का भी अधिकार दिया गया है। सेना की इसी कार्रवाई ने शर्मिला को उद्वेलित किया और वह इस कानून को हटाने के लिए आमरण अनशन पर बैठ गईं। हालांकि तीन दिन बाद ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके खिलाफ आत्महत्या के प्रयास का मामला दर्ज किया गया। बाद में उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। दो अक्टूबर, 2006 को महात्मा गांधी के जन्मदिन पर मणिपुर सरकार ने उन्हें मुक्त कर दिया, लेकिन इस चेतावनी के साथ कि वे दोबारा अनशन पर नहीं बैठेंगी। लेकिन वे तुरंत दिल्ली के लिए कूच कर गईं। वहां वे महात्मा गांधी के समाधिस्थल राजघाट गईं और जंतर-मंतर पर एकबार फिर अनशन शुरू कर दिया। वे एकबार फिर गिरफ्तार कर ली गईं। उन्हें पुलिस की नजरबंदी में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लेकिन शर्मिला की हिम्मत नहीं खोई। उनकी जंग आज भी जारी है और इसमें न केवल मणिुपर की जनता, बल्कि उनका परिवार भी उनके साथ है। मां ने पिछले कई साल से सिर्फ इसलिए बेटी से मुलाकात नहीं कि वह उन्हें देखकर रो देंगी और बेटी उनके आंसुओं से पिघल जाएगी।

नॉट स्टुपिड नशीद

मोहम्मद नशीद लड़ाकू हैं, यह बात वे सब जानते हैं, जो मालदीव में लोकतंत्र के लिए उनके जुझारूपन से परिचित हैं। कई साल जेल में, निर्वासन में बिताने के बाद वह अंतत: जीते और मालदीव के निर्वाचित राष्ट्रपति भी बने। लेकिन वह मानवीय व सामाजिक सरोकारों वाले व्यक्ति हैं और इसमें अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वाले देशों में मालदीव भी होगा। पर्यावरण में बिगाड़ रोकने के लिए नशीद अलख जगाने में लगे हैं। उन्होंने इसके लिए अपने मंत्रिमंडल की बैठक सम्रु के गहरे पानी के अंदर की, ताकि दुनिया का ध्यान इस विकराल समस्या के प्रति आकर्षित हो। असंवेदनशील और नादान लोगों के आज के समय में वह एक संवेदनशील और समझदार राजनेता हैं। ऐसा एक सम्मान वह पा भी चुके हैं।


आज सारी दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर सहमी नजर आ रही है। दुनिया भर से इसको लेकर कुछ सार्थक प्रयास करने की बात कही जा रही है, लेकिन इस दिशा में कारगर कदम क्या हो, इसे लेकर सहमति नहीं बन पा रही। ऐसे में इस खतरे की ओर समूची दुनिया का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने। उन्होंने इसके लिए एक अनोखा तरीका ढूंढ निकाला। सम्रु के अंदर कैबिनेट की बैठक बुलाई और उसमें वैश्विक स्तर पर कार्बन का उत्सर्जन कम करने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया। नशीद इसे दिसंबर में कोपेनहेगन में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन से संबंधित सम्मेलन में पेश करेंगे। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल, जो 2012 में समाप्त हो रहा है, के स्थान पर एक नए प्रस्ताव पर सहमति बनाना है।
नशीद सौ फीसदी मुस्लिम आबादी वाले मालदीव के लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित पहले राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने वहां न सिर्फ लोकतंत्र को मजबूत किया, बल्कि सम्रु से सटे इस छोटे से द्वीपसमूह को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से बचाने की कवायद भी शुरू की। मालदीव उन चंद द्वीप देशों में है, जिन्हें जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा है। मालद्वीपीयन द्वीप सम्रु तल से केवल 1.5 मीटर ऊपर है और जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय पैनल आगाह कर चुका है कि यदि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को नहीं रोका गया तो 21वीं सदी के अंत तक सम्रु के जल स्तर में आधे मीटर की बढ़ोत्तरी हो सकती है और आने वाले दिनों में मालदीव जसे-द्वीप देश पानी में समा जाएंगे।
मोहम्मद नशीद भी कहते हैं कि यदि इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया तो आने वाले दिनों में हमारे नाती-पोते इस द्वीपसमूह को पानी में विलीन पाएंगे। वह जलवायु पविर्तन के खतरों को आतंकवाद से भी अधिक खतरनाक मानते हैं। एक अनुमान के मुताबिक ग्लोबल वार्मिग से हर साल तीन लाख लोग शरणार्थी हो रहे हैं। नशीद कहते हैं कि सम्रु का जल स्तर बढ़ने से न केवल खाद्य संकट पैदा हो रहा है, बल्कि बड़े पैमाने पर लोगों के विस्थापन और बीमारियों की समस्या भी पैदा हो रही है। मालदीव ने जलवायु परिवर्तन के खतरों को बहुत पहल से महसूस करना शुरू कर दिया है। अब दुनिया के अन्य देशों को भी इस दिशा में कारगर कदम उठाने की जरूरत है। वरना आने वाले दिनों में यह उनके लिए भी इसी तरह खतरनाक हो सकता है, जसे आज मालदीव के लिए है।
जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने के लिए वह यह कहकर दुनिया का आह्वान करते हैं कि यदि मनुष्य चांद पर जा सकता है तो एकजुटता से कार्बन गैसों के उत्सर्जन को भी रोका जा सकता है, जो हम सबका समान दुश्मन है। कार्बन गैसों के उत्सर्जन से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को देखते हुए ही नशीद ने सत्ता संभालने के चार महीने बाद ही मालदीव को एक दशक के भीतर कार्बन-रहित और पवन व सौर ऊर्जा पर निर्भर देश बनाने की परिकल्पना रखी। उनका कहना है कि इस पर आने वाला खर्च उससे अधिक कतई नहीं होगा, जो मालदीव अब तक ऊर्जा के अन्य स्रोतों पर खर्च कर चुका है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर नशीद के प्रयासों को अब तक कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। इस साल सितंबर में उन्हें ‘एज ऑफ स्टुपिडज् के वैश्विक प्रीमियर में ‘नॉट स्टुपिडज् का खिताब दिया गया। वहीं, टाइम मैगजीन उन्हें इस साल पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करने वाले दुनिया के चंद नेताओं में शुमार किया।
नशीद केवल जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने के लिए ही मुहिम नहीं चला रहे, बल्कि उन्होंने मालदीव में लोकतंत्र की स्थापना में भी अहम योगदान दिया। वह जेल गए, निर्वासन में रहे, लेकिन लोकतंत्र की लड़ाई के लिए हौसला नहीं छोड़ा। मई 1967 में एक व्यवसायी के घर जन्मे मोहम्मद नशीद की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा मजीदिया स्कूल से हुई। बाद में वह श्रीलंका के कोलंबो चले गए और वहां से ब्रिटेन। 1980 के आखिरी दशक में वह मालदीव लौटे और यहीं से शुरू हो गई उनकी लोकतांत्रिक लड़ाई व उनकी परेशानियों का दौर।
यहां उन्होंने अपनी पत्रिका ‘संगूज् निकाली और उसमें तत्कालीन राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम के शासन को भ्रष्ट और मानव अधिकारों के उल्लंघन का दोषी बताते हुए उसके खिलाफ खोजी रिपोर्टों का प्रकाशन शुरू किया। जाहिर तौर पर अपनी इन गतिविधियों से वह सरकार की नजर में आ गए। पुलिस ने उनकी पत्रिका के दफ्तर पर छापे मारे और नशीद को गिरफ्तार कर लिया। तब उनकी उम्र केवल 23 साल थी। विभिन्न मौकों पर उन्हें 16 बार गिरफ्तार किया गया। छह वर्ष उन्होंने जेल में बिताए, जिनमें से 18 माह वह कालकोठरी में रहे। इस दौरान उनकी दो बच्चियां भी हुईं, लेकिन वह इस मौके पर पत्नी के साथ नहीं रह सके, जिसका अफसोस एक पिता और पति के नाते उन्हें आज भी है।
सरकार के दमन से नवंबर 2003 में उन्हें देश छोड़ना पड़ा। इस दौरान वह श्रीलंका और ब्रिटेन में रहे और वहां निर्वासन में ही मोहम्मद लतीफ के साथ मिलकर मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। 2004 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राजनीतिक शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया। 18 महीने के स्वनिर्वासन के बाद अप्रैल 2005 में वह मालदीव लौटे और यहां अपनी पार्टी का प्रचार-प्रसार शुरू किया। जून में उनकी पार्टी को एक राजनीतिक दल के रूप में मान्यता भी मिल गई। उसी साल अगस्त में उनकी फिर गिरफ्तारी हुई। पहले कहा गया कि यह उनकी सुरक्षा के लिए किया गया, लेकिन बाद में सरकार ने उनके खिलाफ आतंकवाद निरोधी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया। लेकिन इस घटना से उन्हें जबरदस्त फायदा हुआ। जनता में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई। लोग उनके लिए सड़कों पर उतर आए। अक्टूबर 2008 में देश में पहली बार राष्ट्रपति चुनाव में कई राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों ने शिरकत की और डेमोक्रेटिक पार्टी के नशीद विजयी रहे। 11 नवंबर को उन्होंने बतौर राष्ट्रपति मालदीव की सत्ता संभाली। नशीद महात्मा गांधी के घनघोर प्रशंसक हैं और मानते हैं कि आज की अधिकतर समस्याओं के, जिनमें पर्यावरण प्रदूषण भी शामिल है, हमें गांधी के रास्ते पर लौटना होगा।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

बखटके खांडू

महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार। हरियाण में वह सरकार बनाने की राह पर। लेकिन इन सबसे अलग और ऊपर अरुणाचल। कांग्रेस जहां महाराष्ट्र में बमुश्किल कामचलाऊ बहुमत जुटा पाई और हरियाणा में छह सीटें कम रह गई, वहीं अरुणाचल में उसने दो तिहाई बहुमत हासिल किया। यह सब करिश्माई दोर्जी खांडू का कमाल था। उनके नेतृत्व में कांग्रेस का कायाकल्प हो गया। इसलिए महाराष्ट्र और हरियाणा में जहां आलाकमान नेता चुनने की मशक्कत में पड़ा है, वहीं खांडू सर्वमान्य रूप से नेता चुने गए।

तीन राज्यों, महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम से कांग्रेस उत्साहित है। हो भी क्यों न, हर जगह लोगों ने पिछले पांच साल के शासन को कमोवेश ठीकठाक मानते हुए दोबारा शासन का जनादेश जो दिया। हालांकि हरियाणा की बहुमत से छह सीटें कम की जीत ने कांग्रेस का उत्साह थोड़ा फीका जरूर किया, लेकिन अरुणाचल की दो तिहाई बहुमत से जीत ने विजय के जश्न को बहुत फीका होने से बचा भी दिया। अरुणाचल में कांग्रेस को यह ऐतिहासिक जीत मिली दोर्जी खांडू के नेतृत्व में, जिन्होंने करीब ढाई साल पहले अप्रैल, 2007 में बतौर मुख्यमंत्री राज्य की सत्ता संभाली थी।
खांडू ने अप्रैल, 2007 में तब मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया था, जब गोगांग अपांग के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के विरोध में पार्टी के अपने ही विधायक खड़े हो गए थे। अपांग पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर कांग्रेसी विधायकों ने दिल्ली में डेरा जमा लिया था। तब साफ लग रहा था कि अगर कांग्रेस ने नेतृत्व के इस मुद्दे को तत्काल नहीं सुलझाया तो पार्टी की अंतर्कलह उसे ले डूबेगी। पार्टी आलाकमान ने भी मामले की गंभीरता समझी और अरुणाचल में कांग्रेस को इस संकट से उबारने का जिम्मा दोर्जी खांडू को सौंपा। खांडू ने पिछले ढाई साल में राज्य में कांग्रेस को एक सफल नेतृत्व दिया, जिसका परिणाम विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिले दो तिहाई बहुमत के रूप में सामने आया।
अरुणाचल की जीत केवल कांग्रेस के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि देश के लिए भी उतनी ही अहम है। चीन की सीमा से सटा यह प्रदेश दोनों देशों के आपसी संबंधों को लेकर काफी संवेदनशील रहा है। चीन बार-बार अरुणाचल के कुछ हिस्सों को अपने नक्शे में दर्शाता रहा है। वह तिब्बतियों के धर्म गुरू दलाई लामा ही नहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भी अरुणाचल दौरे पर सवाल उठाता रहा है। ऐसे मौकों पर खांडू ने चीन को दो टूक जवाब दिया। उन्होंने कहा, ‘अरुणाचल भारत का अभिन्न हिस्सा था, है और रहेगा। हमें उस वक्त रक्षात्मक रवैया अपनाने की कोई जरूरत नहीं है, जब चीन इसे लेकर अनावश्यक शोर मचाता है। दलाई लामा के अरुणाचल दौरे को लेकर भी चीन को किसी तरह की आपत्ति जताने का हक नहीं है।ज्
खांडू के नेतृत्व में प्रदेश की जनता ने जिस उत्साह से चुनाव में भाग लिया और अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया, वह भी चीन के लिए करारा जवाब है। इससे पहले 2004 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने 70.21 प्रतिशत मतदान किया था, जबकि इस बार मतदान का प्रतिशत 72 फीसदी रहा। साफ है कि लोगों ने उनमें भारत से अलगाव की भावना जसे चीन के मिथ्या प्रचार को ठेंगा दिखा दिया। चीन की तमाम कोशिशों के बावजूद मुख्यमंत्री की ही तर्ज पर जनता ने भी बता दिया कि उनकी आस्था भारतीय लोकतंत्र में है, क्योंकि वे स्वयं को इसका अभिन्न हिस्सा मानते हैं। निश्चय ही लोगों में यह भावना विकसित करने में खांडू के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता।
तीन मार्च, 1955 को अरुणाचल के गांगखर गांव में स्व. लेकी दोर्जी के घर में जन्मे खांडू ने राजनीति से पहले सेना के खुफिया विभाग में सात साल तक सेवा दी। खासकर 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय उनकी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय रही, जिसके लिए उन्हें गोल्ड मेडल भी दिया गया। लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यो में शुरू से ही उन्हें विशेष रुचि रही। यही वजह है कि सेना में रहते हुए भी उनका मन सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यो से अलग नहीं हुआ। 1980 तक वह तवांग जिले में लोगों के कल्याणार्थ जुटे रहे। 1982 में वह सांस्कृतिक व को-ऑपरेटिव सोसाइटी के अध्यक्ष बने और दिल्ली में चल रहे एशियाड खेलों में अरुणाचल प्रदेश के सांस्कृतिक दल का प्रतिनिधित्व किया। उनके नेतृत्व में अरुणाचल ने बेहतर प्रदर्शन किया और उसे सिल्वर मेडल मिला।
इस बीच वह पश्चिमी कमांग जिला परिषद के उपाध्यक्ष चुने गए और उन्होंने क्षेत्र में कई विकासात्मक काम किए। 1987-90 तक उन्होंने दूर-दराज के क्षेत्रों में जलापूर्ति, विद्युत, परिवहन व्यस्था दुरुस्त करने और स्कूलों व धार्मिक संस्थाओं के निर्माण पर काम किया। 1990 में वह पहली बार विधनसभा के लिए चुने गए और इसके बाद उनका राजनीतिक सफर रुका नहीं। उन्होंने राज्य में हुए हर विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की और इस बीच कई मंत्रालयों का दायित्व संभाला। नौ अप्रैल, 2007 को कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की बागडोर थमाई, जिसकी जिम्मेदारी भी उन्होंने बखूबी निभाई।
सामाजिक कार्यो के प्रति उनका विशेष लगाव राज्य की बागडोर संभालने के बाद स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए उनके भाषण से भी झलकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम स्वयं को गरीबी, बीमारी, असमानता, सामाजिक अन्याय, असहिष्णुता और भ्रष्टाचार के जंजीर से आजाद करने के लिए दिन-रात मेहनत करें। भूख और गरीबी की जंजीर तोड़े बगैर हम सच्ची स्वतंत्रता को महसूस नहीं कर सकते। प्रदेश में लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि विधानसभा चुनाव में वह निर्विरोध चुने गए।

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

एक खौफनाक मंसूबा महसूद

अभी तीन दिन पहले अखबारों में खबर छपी थी कि तालिबान ने धमकी दी है कि उसका अगला निशाना भारत है। अगला इसलिए कि अभी वह पाकिस्तान को सबक सिखाने पर आमादा है। यहां तालिबान का आशय है ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तानज् से। इसके मुखिया बैतुल्ला के मारे जाने के बाद बिखरते हुए इस संगठन को न सिर्फ मजबूती से एकजुट किया, बल्कि उसमें एक नया उन्माद पैदा किया है उसके नए मुखिया हकीमुल्लाह महसूद ने। महज अट्ठाइस साल के हकीमुल्लाह के इरादे खौफनाक हैं। तबाही का एक नया इतिहास लिखने को वह बेचैन है। पाकिस्तान उसके हमलों से कराह रहा है। महसूद उसे अमेरिकापरस्ती का दंड दे रहा है और चाहता है कि वह इस्लामिक राष्ट्र बने। उसके निशाने पर भारत भी है और इसकी चेतावनी उसने दे दी है।

उम्र केवल 28 साल, पर इरादे खतरनाक। चेहरा और व्यवहार सौम्य, लेकिन मकसद तबाही का। पाकिस्तान के कबायली इलाकों में जन्मा और पला-बढ़ा यह शख्स है हकीमुल्लाह महसूद। उसकी आंखों में है भारत और अमेरिका की तबाही का मकसद। हालांकि फिलहाल वह अपनी गतिविधियों को पाकिस्तान में अंजाम दे रहा है, क्योंकि वह उसे एक इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहता है। उसका अगला निशाना होगा, भारत।
वह पाकिस्तान में तालिबानी संगठन ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तानज् (टीटीपी) का कमांडर है। अमेरिकी ड्रोन हमले में अगस्त में बैतुल्ला महसूद के मारे जाने के बाद वह ‘सर्वसम्मतिज् से इस संगठन का ‘आमिरज् चुना गया। समझा जाता है कि बैतुल्ला की मौत के बाद निराशा व हताशा में बिखराव की कगार पर पहुंच चुके टीटीपी को संभालने और एकजुट रखने में हकीमुल्लाह ने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी। अपनी सूझबूझ व नेतृत्व क्षमता से उसने टीटीपी को एक नई दिशा दी और उसके लड़कों में नया जोश भर दिया।
बैतुल्लाह के बेहद करीबी समङो जाने वाले हकीमुल्लाह ने टीटीपी की कमान संभालने से पहले चालक के रूप में भी काम किया। हकीमुल्लाह का जन्म 1981 में पाकिस्तान के दक्षिणी वजीरिस्तान में जनदोला के पास कोटकई इलाके में हुआ था। उसकी शिक्षा केवल मदरसे की तालीम तक सीमित रही। हंगू जिले के एक छोटे से गांव में मदरसे से उसने शुरुआती तालीम पाई। उस वक्त उस मदरसे में बैतुल्ला महसूद भी था। हकीमुल्लाह वहीं बैतुल्ला के संपर्क में आया।
हालांकि बैतुल्ला ने हकीमुल्लाह से बहुत पहले वह मदरसा छोड़ दिया था, लेकिन दोनों के बीच संपर्क लगातार बना रहा। मदरसे की तालीम पूरी करने के बाद हकीमुल्लाह बैतुल्ला के साथ जिहाद में कूद पड़ा। शुरू में उसने बैतुल्ला के अंगरक्षक व सहयोगी के रूप में काम किया। लेकिन हथियारों के साथ खेलने के उसके शगल और माहरी ने तालिबानियों के बीच उसकी लोकप्रियता बढ़ा दी। एके-47 के संचालन में उसे महारत हासिल है। लड़ाइयों के दौरान उसने अपनी बेहतर क्षमता का प्रदर्शन किया। अपनी इन्हीं योग्यताओं के बल पर वह न केवल तालिबानियों में लोकप्रिय हुआ, बल्कि बैतुल्ला के और करीब होता गया। उसकी लड़ाका क्षमता को देखते हुए ही बैतुल्ला ने उसे टीटीपी का उप कमांडर बनाया था। तालिबानी उसकी लड़ाका क्षमता की तुलना नेक मोहम्मद से करते हैं, जो करिश्माई पश्तून नेता माना जाता है। जून 2004 में अमेरिकी हवाई हमले में उसकी मौत हो गई थी। तालिबानियों के अनुसार नेक मोहम्मद के बाद हकीमुल्लाह में ही वे नेक मोहम्मद के जसी लड़ाका क्षमता देखते हैं।
अपनी इन्हीं क्षमताओं से बैतुल्ला की मौत के बाद उसने टीटीपी को एक मजबूत नेतृत्व दिया और हताश तालिबानी लड़ाकाओं को एक नया जोश। इस बीच कई बार उसकी मौत की खबरें भी आईं। अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया कि बैतुल्ला की मौत के बाद टीटीपी का नया कमांडर चुनने के लिए बुलाई गई ‘शूराज् में तालिबानियों के बीच जमकर गोलीबारी हुई, क्योंकि इस पद के लिए कई तालिबानी सामने आ गए थे। तालिबानियों के बीच इस आपसी लड़ाई में ही हकीमुल्लाह की मौत हो गई। लेकिन पिछले दिनों मीडिया के सामने आकर उसने अपनी मौत की अफवाहों को गलत साबित कर दिया।
आम तालिबानी नेताओं से अलग पाकिस्तान, अमेरिका और भारत तक अपने खतरनाक मंसूबों को पहुंचाने के लिए हकीमुल्लाह ने किसी रिकॉर्डेड सीडी का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि मीडिया कर्मियों को अगवा किया और उन्हें अपने ठिकाने पर ले गया। वहां उसने अमेरिका के प्रति अपना गहरा आक्रोश जाहिर किया। उसने साफ कहा कि वह अमेरिका से बैतुल्ला की मौत की बदला लेकर रहेगा। गौरतलब है कि अगस्त में अमेरिकी ड्रोन हमले में बैतुल्ला की मौत हो गई थी।
इसी तरह पाकिस्तान भी उसके निशाने पर है, क्योंकि यह सरकार अमेरिकी इशारे पर काम कर रही है। उसने हाल के दिनों में पाकिस्तान में हुए कई हमलों की जिम्मेदारी ली और कहा कि जब तक सरकार अमेरिकी सैनिकों को अपनी धरती से रवाना नहीं करेगी, हमले जारी रहेंगे। बकौल हकीमुल्लाह, हम सैनिक, पुलिस और नागरिक सेना से लड़ रहे हैं, क्योंकि वे अमेरिकी आदेश पर काम कर रहे हैं। यदि वे अमेरिकी आदेश का अनुपालन बंद कर दें, तो हम हमले भी रोक देंगे। हकीमुल्लाह ने यह भी साफ किया कि उसका मकसद पाकिस्तान को एक इस्लामिक राष्ट्र बनाना है और इसमें कामयाबी मिलने के बाद उसका अगला निशाना भारत होगा।
हकीमुल्लाह सीधे-सीधे पाकिस्तान के पीपीपी और एएनपी नेताओं को मारने की धमकी देता है, क्योंकि उसके अनुसार पीपीपी और एएनपी के नेताओं ने ही सेना को तालिबानियों के खिलाफ हमले का आदेश दिया। उसने पाकिस्तान सरकार को अमेरिकी समर्थक नीतियां बदलने के लिए अल्टीमेटम दिया और धमकी दी कि यदि वह ऐसा नहीं करती है, तो आने वाले दिनों में तालिबान पेशावर सहित पाकिस्तान के अन्य शहरों पर कब्जा कर लेगा। उसका दावा है कि बैतुल्ला की ‘शहादतज् के बाद उसका संगठन अधिक मजबूत हुआ है और उसके लड़ाके ‘एकजुटज् होकर अमेरिकी और पाकिस्तानी सेना का मुकाबला कर रहे हैं।

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

बड़े हमले की तैयारी में सरकार

नक्सलवाद को समझने के लिए इसके इतिहास को समझना जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि आखिर किन कारणों से यह शुरू हुआ और निरंतर फैलता ही जा रहा है। जब तक यह नहीं समझा जाएगा, इसे खत्म करना मुश्किल है। सरकार भले ही हवाई हमले तक की योजना बना ले, लेकिन इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता।
हमारे देश में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई थी। आर्थिक विषमता, दमन व व्यवस्था के खिलाफ असंतोष ने लोगों को हथियार उठाने के लिए मजबूर किया। तब यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना और इसने पश्चिम बंगाल व आंध्र प्रदेश को बुरी तरह प्रभावित किया। लोगों को पहली बार सामाज में गहराई से व्याप्त विषमता की सच्चाई मालूम हुई। चारु मजूमदार, कानू संन्याल के नेतृत्व में शुरू हुए नक्सलबाड़ी के इस आंदोलन ने देश के सामाजिक ताने-बाने को गहरे रूप में प्रभावित किया।
आखिर सरकार ने भी माना कि दूर-दराज के पिछड़े व जनजातीय इलाकों में विकास की जरूरत है। इसलिए बार-बार उन क्षेत्रों में भूमि सुधार सहित अन्य विकासपरक चीजें लागू करने की बात कही गई। लेकिन वास्तव में कभी इन्हें ठोस रूप नहीं दिया गया। फिर बाद की सरकारों ने इसे एक सामाजिक समस्या तो माना, लेकिन यह भी कहा कि इसके हिंसक स्वरूप से निटने के लिए दमन जरूरी है। पर वास्तव में इनका जोर दमन पर अधिक होता है।
मुङो लगता है कि जिन कारणों से 1967 में यह आंदोलन नक्सलबाड़ी में शुरू हुआ था, आज वे अधिक तीव्रता से मौजूद हैं। ऐसे में नक्सली समस्या का बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि आज सरकार इसे जिस गंभीरता व व्यापकता के साथ प्रचारित-प्रसारित कर रही है, वास्तव में यह वैसा नहीं है। दरअसल, सारा खेल कॉरपोरेट घरानों को सुविधाएं और उन्हें यहां की संपदा लूटने का हक देने का है। उनके हितों को सुरक्षित रखने के लिए सरकार इस समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है, ताकि दमन का रास्ता साफ हो सके और कोई उसकी कार्रवाई पर उंगली न उठा सके।
दरअसल, 1990 में जो आर्थिक नीति शुरू की गई, उसके अनुसार सरकार का काम वास्तव में कॉरपोरेट घरानों को सुविधाएं मुहैया करानाभर रह गया है। इस नीति के तहत सरकार की तकरीबन साढ़े पांच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने की योजना है। इसके लिए जगह-जगह किसानों से जबरन या औने-पौने दाम में जमीन ली जा रही है। जाहिर तौर पर किसान, जिनकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया भूमि व खेती ही है, इसका विरोध कर रहे हैं। अभी सरकार ने इसकी शुरुआतभर की है, लेकिन हर जगह उसे तीव्र विरोध ङोलना पड़ा। उसे मालूम है कि जसे-जसे इस दिशा में वह आगे बढ़ेगी, विरोध तीव्र होता जाएगा। इसलिए पहले से ही उसने नक्सल समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना शुरू कर दिया है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, तो गृह मंत्री पी चिदंबरम कहते हैं कि नक्सल समस्या 20 राज्यों में फैल चुकी है। इसलिए इससे निपटने के लिए ठोस उपाय करने होंगे। यहां तक कि हवाई हमले से भी परहेज नहीं। मैं समझता हूं कि नक्सलियों से निपटने के लिए हवाई हमले की बात कहकर सरकार ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने का हक खो दिया है। आखिर नक्सली कोई आतंकवादी नहीं, वे इसी देश का हिस्सा हैं, जो व्यवस्था से खिन्न हैं, अपने साथ हो रहे अन्याय से नाराज हैं। लेकिन इन सबमें दु:खद पहलू यह है कि आज मीडिया और समाज का बुद्धिजीवी तबका भी सरकार की सुर में सुर मिला रहा है, जबकि आपातकाल की बात हो या कोई अन्य आंदोलन, यह वर्ग हमेशा आंदोलनकारियों का साथ देता रहा है।
नक्सल समस्या की व्यापकता को लेकर खुद सरकारी आंकड़े उसकी पोल खोलते हैं। जरा पीछे जाएं, तो 1998 में तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नक्सल समस्या से निपटने पर विचार-विमर्श के लिए हैदराबाद में चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की बैठक बुलाई थी। इसके बाद 2005 और 2006 में तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने नक्सल प्रभावित राज्यों की बैठक बुलाई तो यह संख्या बढ़कर क्रमश: 13-14 हो गई। अब मौजूदा गृह मंत्री नक्सल प्रभावित राज्यों की संख्या 20 बता रहे हैं। यदि ये आंकड़े सच हैं तो वे करोड़ों रुपए कहां गए, जो सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए खर्च किए।
सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि 20 राज्य नक्सल प्रभावित हैं, तो कितने राज्यों में वह सही तरीके से शासन कर रही है? उत्तर-पूर्व के सात राज्य पहले से ही अशांत हैं। यहां सरकार आर्म फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट के तहत शासन कर रही है। खासतौर से मणिपुर में इसके खिलाफ जबरदस्त जनाक्रोश है। इसी तरह जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से ही अशांत है। इस तरह गृह मंत्री के अनुसार जो 20 राज्य नक्सल प्रभावित हैं, उनमें उत्तर-पूर्व के सात राज्य और जम्मू कश्मीर को भी जोड़ दिया जाए, तो संख्या 28 राज्यों की हो जाती है। तो क्या यह माना जाए कि देश के सभी 28 राज्यों में जनता सरकार से नाखुश है, नाराज है। यदि ऐसा है, तो आखिर किस हक से सरकार शासन कर रही है? साफ है कि सरकार ने शासन का नैतिक अधिकार खो दिया है।
सरकार जो आंकड़े पेश कर रही है, यदि वैसा है, तो यह वास्तव में चिंताजनक है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? इसका सीधा जवाब है, नहीं। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि जिन क्षेत्रों को नक्सल प्रभावित बताया जा रहा है, वे खनिज संपदा से भरपूर हैं। लेकिन वहां के आम लोगों को उसका कोई फायदा आज तक नहीं मिला, बल्कि वहां के प्राकृतिक संसाधनों का सरकार ने अब तक अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया। आगे भी वह यही करने जा रही है। ऐसे में स्थानीय लोगों के मन में असंतोष पनपना स्वाभाविक है, जो एक हद के बाद यह हिंसक हो जाता है।
वास्तव में सरकार जानती है कि जब बाजारी शक्तियां महानगरों से शहरों, कस्बों और गांवों की ओर रुख करेगी, तो आम आदमी की तबाही में इजाफा होगा। स्थानीय शिल्पियों, कुटी उद्योगों, खुदरा व्यापारियों के व्यवसाय पर इसका सीधा असर होगा और इससे जो असंतोष व तनाव पैदा होगा, उससे निपटने के लिए सरकार को पुलिस व सेना की मदद लेनी होगी। ऐसे में सरकार यह तो नहीं कहेगी कि वह उद्योगपतियों को सुविधाएं मुहैया कराने या उनकी मदद के लिए जा रही है। वह तो यही कहेगी कि हम नक्सलियों से निपटने जा रहे हैं। इसलिए अभी से वह नक्सल समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है।
जहां तक माओवादियों द्वारा अपनी मांगें रखने के लिए हथियार उठाने का सवाल है तो विरोध का हर शांतिपूर्ण तरीका विफल हो जाने के बाद ही उन्होंने हथियार उठाया है। वरना जिन लोगों ने हथियार उठाए हैं, वे आदिवासी है, जो अमूमन हथियार उठाने का स्वभाव नहीं रखते। दरअसल, जब दमन होता है, तो प्रतिरोध भी होता है। उस प्रतिरोध को दबाने के लिए सरकार फिर दमन का रास्ता अपनाती है, जिसके बाद प्रतिरोध और उग्र हो जाता है। इस तरह यह एक दुश्चक्र है, जिसमें सरकार खुद ही माओवादी पैदा करती है। इस तरह सरकार अपनी ही नीतियों से देश को गृह युद्ध की तरफ ले जा रही है।
सरकार का यह दावा भी गलत है कि स्थानीय लोगों से नक्सल आंदोलनकारियों को मदद नहीं मिल रही। सच्चाई तो यह है कि स्थानीय मदद के बगैर कोई भी आंदोलन इस हद तक सफल नहीं हो सकता। सरकार ने इस आंदोलन को खत्म करने के लिए ‘मछली को पानी से निकाल देनेज् का अमेरिकी फॉर्मूला अपनाया है और उसी के तहत ऐसा कह रही है। वह इस बात को प्रचारित कर रही है कि आम लोगों की मदद इन्हें नहीं मिल रही और तभी छत्तीसगढ़ में लोगों ने इनके खिलाफ हथियार उठा लिया। सरकार सलवा जुडूम का हवाला देती है, लेकिन यह स्थानीय जनता को आपस में लड़ाने का सरकारी फॉर्मूला है और कुछ नहीं। सलवा जुडूम पूरी तरह विफल हो चुका है।
जहां तक नक्सलियों के इस आंदोलन में आम लोगों के प्रभावित होने का सवाल है, तो इसे पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि किसी भी आंदोलन में कुछ हद तक आम लोग तो प्रभावित होते ही हैं। पर आंदोलनकारियों का यह मकसद नहीं होता। रांची में एक इंस्पेक्टर की जिस तरीके से हत्या की गई, उसे कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन इसे लेकर माओवादियों का कोई स्टैंड फिलहाल सामने नहीं आया है, इसलिए इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
हां, यह सच है कि चुनाव प्रक्रिया में माओवादियों की कोई आस्था नहीं है। लेकिन यह कोई बुरी चीज नहीं है। नेपाल में माओवादियों ने लंबे समय तक सशस्त्र संघर्ष के बाद चुनाव प्रक्रिया में शिरकत की और उसमें भी विजयी रहे। साफ है कि चुनाव में जीतकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सरकारों के इस दावे को गलत साबित किया कि उन्हें आम लोगों का समर्थन नहीं है। भारत में भी यह चीज हो सकती है। यहां के नक्सलवादी भी चुनाव प्रक्रिया में शामिल हो सकते हैं। लेकिन कब और कैसे इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
जहां तक समस्या के समाधान की बात है, तो इसका एकमात्र तरीका माओवादियों से बातचीत है। उनसे बातचीत कर, उनकी समस्याओं को जानकर और उसका समाधान कर ही इससे निजात पाई जा सकती है। जब तक सरकार माओवादी आंदोलन, जो वास्तव में जवाबी हिंसा है और आतंवाद में फर्क नहीं करेगी, इस समस्या का समाधान मुश्किल है।

आनंदस्वरूप वर्मा से बातचीत पर आधारित

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

यह कैसा हक?

रविवार का दिन था। घर से निकली थी एक दोस्त के यहां जाने के लिए। काफी दिनों से सोच रही थी। आज का ही दिन मिल पाया। सुबह जल्दी-जल्दी करने के बाद भी देर हो ही गई। खर, जल्दी-जल्द बस स्टॉप पहुंची। इंतजार कर रही थी बस का। करीब 15-20 मिनट के इंतजार के बाद वह बस आई, जिसमें मुङो जाना था। बस रुकी और मैं चढ़ गई। बड़ा सुकून मिला यह देखकर कि महिलाओं के लिए आरक्षित कुछ सीटें खाली पड़ी थीं। आखिर लंबा सफर जो तय करना था।

बस चल पड़ी। दो-तीन स्टॉप बाद बस में एक बुजुर्ग चढ़े। उम्र 60 के पार होगी। वह मेरी सीट के आधे हिस्से पर बैठ गए, क्योंकि तब वही एक सीट खाली पड़ी थी। मुङो अच्छा लगा, यह देखकर कि बाबा को सीट मिल गई। बस कुछ ही दूर और चल पाई होगी। करीब दो स्टॉप आगे। वहां दो लड़की और एक लड़का चढ़े बस में। उम्र यही कोई 18-19 साल होगी। वे वहीं आकर खड़े हो गए, जहां हम बैठे थे। शायद अपेक्षा कर रहे थे कि बाबा महिलाओं के लिए आरक्षित जिस सीट पर बैठे थे, उसे खाली कर दें। मैंने बारी-बारी से दोनों को देखा। बाबा को भी, लड़के-लड़कियों को भी। बाबा कुछ कसमसाए। शायद यह सोच रहे थे कि ‘उनके कहने से पहले ही सीट खाली कर दूं या बैठा रहूं!ज् तभी लड़के ने दबी जुबान से कहा, ‘महिलाओं की सीट है। दे दीजिए प्लीज।ज् पलभर की देरी किए बगैर बाबा ने सीट छोड़ दी। मुङो बुरा लगा। मैं काफी देर तक उन लड़के-लड़कियों की तरफ देखती रही। सोचा जसे ही मेरी तरफ देखेंगे, पूछूंगी, ‘बाबा को खड़ा करवाना क्या इतना जरूरी था?ज् लेकिन उन्होंने देखा नहीं और मैंने पूछा नहीं।

इसके बाद चलने लगा मेरे मन में द्वंद्व। ‘क्या मैं अपनी सीट दे दूं? लेकिन अगर किसी और महिला या लड़की ने उन्हें यह कहकर उठा दिया कि यह महिलाओं के लिए आरक्षित सीट है, तो? फिर तो सीट न मेरी रहेगी, न उनकी। इससे तो बेहतर है कि मैं ही बैठी रहूं।ज् यह भी खयाल आया कि ‘आखिर मैं क्यों इतना सोच रही हूं? मैंने तो उनसे सीट खाली नहीं करवाई।ज् इसी उधेड़बुन में चार स्टॉप और निकल गए। पर द्वंद्व खत्म नहीं हुआ। आखिर मुझसे नहीं रहा गया। पांचवां स्टॉप आते-आते मैंने उन्हें अपनी सीट देने की पेशकश की। कहा, ‘आप यहां बैठ जाइये।ज् लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उस चार स्टॉप के बाद आने वाला पांचवां स्टॉप उनका गंतव्य था। उन्होंने बड़ी शालीनता से कहा, ‘कोई बात नहीं। बैठी रहो। मेरा स्टॉप आ गया। मुङो उतरना है।ज्

उन्होंने इतना कहा और बढ़ने लगे बस के अगले गेट की तरफ, उतरने के लिए। पर मुङो छोड़ गए शर्मिदगी, आत्मग्लानि और अपराधबोध के साथ। पलभर के लिए मुङो लगा जसे किसी ने मुझपर घड़ों पानी डज्ञल दिया हो। उस बुजुर्ग व्यक्ति ने कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया था। मुङो तत्काल सबक मिल गया था और शायद आसपास बैठे व खड़े लोगों ने भी कुछ तो महसूस किया ही होगा। सबक लिया या नहीं, मुङो नहीं मालूम।

लेकिन इसके बाद भी अपराधबोध और आत्मग्लानि ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। रास्तेभर वही खयाल मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे। दोस्त के घर से लौटने के बाद भी यही हाल था। मन में बार-बार यही खयाल आता रहा। खुद को कोसती रही यह सोच-सोच कर कि ‘आखिर क्यों इतनी देर कर दी मैंने? क्यों नहीं उनके उठते ही अपनी सीट दे दी उन्हें? क्यों सोचती रही इतनी देर तक?ज् और यह भी कि ‘जिसके लिए अब मुङो ग्लानि हो रही है, उसकी जिम्मेदार तो मैं भी उतनी ही हूं। आखिर मैं उन लड़के-लड़कियों को बोल सकती थी। क्यों इंतजार करती रही कि वे मेरी तरफ देखेंगे, तभी कुछ कहूंगी। सबसे बड़ी गलती तो यह हुई कि उनके उठते ही मैंने उन्हें अपनी सीट नहीं दी बैठने के लिए, जबकि उनकी उम्र को देखते हुए उसकी जरूरत उन्हें मुझसे कहीं अधिक थी।ज्

यह सोचकर मैंने दोस्तों को बताया, कई दूसरे लोगों से भी इस बारे में बात की कि शायद दिल का बोझ कुछ हल्का हो जाए। सभी ने यही कहा कि ‘दिल्ली की बसों में तो यह आम नजारा है। आए दिन ऐसे वाकये होते ही रहते हैं। तुम बस से अक्सर छोटी दूरी की यात्रा करती हो, इसलिए कभी देखा नहीं होगा। हम तो अक्सर देखते हैं।ज् उनके ये सब कहने का असर था या वक्त की धूल, मैं नहीं जानती। कुछ दिनों बाद उस घटना की याद मेरे जेहन में धुंधली पड़ने लगी। लेकिन इन सवालों के जवाब की तलाश मुङो आज भी है कि ‘आखिर क्या हो गया है हमारी युवा पीढ़ी (निस्संदेह इसमें लड़कियां भी आती हैं) को? अपने बुजुर्गो के प्रति इतनी संवेदनहीनता क्यों?ज् और यह भी कि ‘क्या बस में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करवाने का यह मतलब है कि स्कूल-कॉलेज की लड़कियों को भी पुरुष बुजुर्गो से सीट छीनने का हक मिल गया? अगर हां, तो यह कैसा हक है?ज्

ऊंचे मकसद वाले माधव

चं्रयान-1 की जिस खोज से आज हिंदुस्तान का हर नागरिक और दुनिया रोमांचित है, उसका श्रेय निस्संदेह इसरो के वैज्ञानिकों के सामूहिक प्रयत्न को जाता है। लेकिन किसी भी संगठन और टीम का एक नेता होता है और उसका सूझबूझ भरा नेतृत्व ही उसकी टीम को कुछ नायाब करने का मकसद और हौसला देता है। इसरो के अध्यक्ष माधवन नायर ऐसे ही व्यक्ति हैं। चं्रमा पर पानी खोज पाने में चं्रयान की सफलता के सूत्रधार भी वे ही हैं। स्वदेशी तकनीक से युक्त प्रक्षेपण यान के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दरअसल, शुरू से ही वे भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को आत्मनिर्भर बनाने में जुटे रहे। यह उनका एक ध्येय रहा है। अपनी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल वह हमेशा से देश की तकनीकी क्षमताएं बढ़ाने में करते रहे हैं। वह ऐसे पहले भारतीय और गैर-अमेरिकी व्यक्ति हैं, जो इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स के अध्यक्ष बने।

आज पूरी दुनिया भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और उसकी उपलब्धियों का लोहा मान रही है। जो काम इतने सालों में दुनिया के विकसित देश नहीं कर पाए, उसे भारत ने कर दिखाया। चांद पर पानी खोज निकाला। इस एक खोज ने दुनियाभर के अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक नई दिशा दी। कई संभावनाओं को जन्म दिया और निश्चय ही इन सबका श्रेय जाता है, इसरो को, इसरो के वैज्ञानिकों को और इसके अध्यक्ष जी. माधवन नायर को।
माधवन नायर; इसरो के अध्यक्ष, कें्र सरकार के अंतरिक्ष विभाग के सचिव, अंतरिक्ष आयोग के चेयरमैन; ने शुरू से ही अपनी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल देश को तकनीक के क्षेत्र में उन्नत व आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में किया। खासतौर पर स्वदेशी तकनीक से युक्त उपग्रह प्रक्षेपण यान (सैटेलाइट लांच वेहिकल) के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है और उसी की बदौलत आज भारत दुनिया भर में प्रक्षेपण यान तकनीक के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है।
उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में इसरो ने 25 मिशन सफलतापूर्वक पूरे किए, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण व चर्चित चं्रयान-1 है। पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से निर्मित व प्रक्षेपित इस मानवरहित यान ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को मजबूती दी और दुनिया भर में भारतीय तकनीक व वैज्ञानिक सूझ-बूझ को नए सिरे से स्थापित किया। 22 अक्टूबर 2008 को भारत ने इसे श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष कें्र से कई उम्मीदों व संभावनाओं की खोज के साथ प्रक्षेपित किया था। तब अंतरिक्ष में दो साल तक इसके संचालन की उम्मीद की गई थी। हालांकि इस साल 29 अगस्त को ही इसरो के साथ इसका संपर्क टूट गया और यह वृहद अंतरिक्ष में कहीं खो गया। लेकिन तब तक यह अपना 95 प्रतिशत काम कर चुका था। 312 दिनों के अपने संचालन में चं्रयान-1 ने अपनी खोज से भारत सहित दुनियाभर को एक नई खोज दी, नई उपलब्धि दी।शुरुआती दिनों में ही चं्रयान-1 के मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद पर तिरंगा लहरा दिया। चांद पर तिरंगा देख करोड़ों देशवासियों के चेहरे मुस्कराए। दिल खुश हुआ, उसी तरह जब देश के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने अप्रैल 1984 में चांद पर से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के यह पूछे जाने पर कि वहां से भारत कैसा दिखता है, कहा था कि सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा। आम भारतीयों के चहरे पर इस मुस्कराहट, इस खुशी के पीछे माधवन व उनकी टीम के दिन-रात की मेहनत को भला कौन भूल या कम आंक सकता है?
लेकिन चं्रयान-1 का मकसद चांद पर सिर्फ तिरंगा लहराना नहीं था, बल्कि उसे खंगालना था। वहां की जानकारी जुटानी थी और इन सबमें वह कामयाब रहा। सबसे बड़ी खोज वहां पानी की तलाश रही। अमेरिकी अंतरिक्ष संस्थान नासा ने इसे एक महत्वपूर्ण उलब्धि बताया। एक ऐसी उपलब्धि, जिससे मंगल सहित अन्य ग्रहों-उपग्रहों पर जीवन की खोज में जुटे दुनियाभर के अंतरिक्ष अभियानों को नई दिशा और नया बल मिल सकेगा। चं्रयान-1 की सफलता से उत्साहित इसरो अब इसके दूसरे संस्करण चं्रयान-2 के प्रक्षेपण की योजना बना रहा है, ताकि चांद से जुड़ी और भी जानकारी जुटाई जा सके।
केरल के तिरुवनंतपुरम में 31 अक्टूबर, 1943 को जन्मे माधवन की शुरुआती शिक्षा कन्याकुमारी जिले में हुई। 1966 में केरल विश्वविद्यालय से उन्होंने इलेक्ट्रिकल व कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक किया और प्रशिक्षण के लिए भाभा अटोमिक रिसर्च सेंटर ट्रेनिंग स्कूल, मुंबई चले गए। 1967 में वह थंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लांचिंग स्टेशन (टीईआरएलएस) से जुड़े और इसके बाद कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं व संस्थानों का सफर तय करते हुए आज इसरो के अध्यक्ष हैं। कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी उनकी प्रतिभा व परामर्श का इस्तेमाल किया। अगस्त 2009 में वह इंटरनेशल एकेडमी ऑफ एस्ट्रोनॉटिक्स (आईएए) के अध्यक्ष भी बने। वह 2011 तक इस पद पर बने रहेंगे। आईएए के अध्यक्ष बनने वाले वह एकमात्र भारतीय और पहले गैर-अमेरिकी नागरिक हैं।
अपनी वैज्ञानिक सोच व सूझबूझ का इस्तेमाल उन्होंने हमेशा देश की तकनीकी क्षमता बढ़ाने और इसे उन्नत बनाने में किया। वह तकनीक की दृष्टि से भारत को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे और इस दिशा में उन्होंने कई कदम उठाए। सामाजिक आवश्यकताएं हमेशा उनके जेहन में रही। शिक्षा, चिकित्सा से लेकर दूरदराज के क्षेत्रों में किसानों से संपर्क स्थापित करने तक के लिए उन्होंने तकनीक के इस्तेमाल पर बल दिया। टेली-एजुकेशन और टेली-मेडिसन के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान का ही परिणाम है कि आज देशभर में करीब 31 हजार कक्षाएं एडुसेट नेटवर्क से जुड़ी हैं। टेलीमेडिसन से 315 अस्पताल जुड़े हैं, जिनमें से 269 ग्रीमण क्षेत्रों के अस्पताल हैं। उन्होंने विलेज रिसोर्स सेंटर (वीआरसी) की भी शुरुआत की, जिसका मकसद दूर-दराज व ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे गरीबों का जीवन स्तर सुधारना है। आज 430 से अधिक वीआरसी किसानों को मिट्टी, पानी व खेती के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं। किसान इसके माध्यम से सीधे कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क कर सकते हैं और आवश्यक जानकारी जुटा सकते हैं। साथ ही यह किसानों को सरकारी योजनाओं, खेती की पद्धति, मौसम को ध्यान में रखते हुए बनाई जाने वाली कार्य योजना आदि की जानकारी भी देता है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

हरित क्रांति में नहीं हरा भरा सब

नॉर्मन बोरलॉग ने हमें उस समय खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया, जब हमें इसकी बहुत जरूरत थी। लेकिन जो हरित क्रांति उनकी मदद से हुई, उसमें कुछ बड़े संकट अंतर्निहित थे। अस्सी के दशक में ही इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा था। हमने इसका जायजा नहीं लिया और अब दूसरी हरित क्रांति की रट लगाए हैं। दूसरी हरित क्रांति का फायदा भी किसानों को नहीं, सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होगा।

हरित क्रांति के जनक नार्मन बोरलॉग नहीं रहे। लेकिन खाद्यान्न की पैदावार बढ़ाने में उनके योगदान हमेशा अविस्मरणीय रहेंगे। उन्होंने ऐसे वक्त में भारत को गेहूं व धान के उन्नत किस्म के बीज मुहैया कराए, जब सूखे की वजह से देश भुखमरी की कगार पर था। विदेशों से कई टन अनाज आयात किए जा रहे थे, लेकिन खाद्यान्न समस्या सुलझने का नाम नहीं ले रही थी।
सूखे से देश में पैदा हुए हालात को देखते हुए 1965 में एक करोड़ टन अनाज का आयात किया गया था। फिर भी यह लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों को सप्ताह में एक दिन व्रत के नाम पर भूखे रहने की सलाह दी थी। उनके निधन के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। तब भी खाद्यान्न समस्या ज्यों की त्यों थी। ऐसे में अगले ही साल यानी 1966 में 1.10 करोड़ टन अनाज का आयात किया गया, जो अब तक आयात किए जाने वाले खाद्यान्न की सबसे अधिक मात्रा थी।
देश के हालात को देखते हुए कहा जा रहा था कि 1970 के दशक के अंत तक यहां के लोग भूख से मर जाएंगे, क्योंकि पैदावार बढ़ने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसे में नॉर्मन बोरलॉग ने खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का फॉर्मूला दिया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष उनके द्वारा तैयार उन्नत किस्म के बीज खरीदने का प्रस्ताव रखा। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने हामी भरी और 1966 में मेक्सिको से 18 हजार टन गेहूं के बीज आयात किए गए। इन्हें पांच-पांच किलो के पैकेट में बांटकर किसानों के बीच वितरित किया गया। इनके इस्तेमाल के लिए खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को चुना गया, क्योंकि इन बीजों के सफल परिणाम के लिए ऐसे क्षेत्रों में इनके इस्तेमाल की जरूरत थी, जहां सिंचाई के लिए पानी की पर्याप्त सुविधा हो। साथ ही बोरलॉग रासायनिक खादों के भी हिमायती थे। उनका साफ कहना था कि पर्याप्त सिंचाई और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से ही उन्नत किस्म के इन बीजों से पैदावार बढ़ाई जा सकती है। देश में इन बीजों के इस्तेमाल का असर भी हुआ। 1966 में जहां 1.20 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ, वहीं अगले ही साल यानी 1967 में पैदावार बढ़कर 1.70 करोड़ टन हो गई। एक ही साल में पैदावार में पांच लाख टन की वृद्धि अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। गेहूं के इस आशातीत उत्पादन के आयात बंद कर दिया गया और 1970 तक भारत ‘आत्मनिर्भर गेहूं उत्पादक देशज् हो गया।
जाहिर तौर पर गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का श्रेय बॉरलॉग को जाता है। खासतौर पर ऐसे समय में जब देश भूखों मर रहा था, इसे खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बोरलॉग ने पैदावार बढ़ाने का जो फॉर्मूला दिया, उससे कई नुकसान भी हुए। सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण को हुआ। इससे होने वाले नुकसान की ओर सबसे पहले अमेरिका की जीववैज्ञानिक व प्रकृतिविद रिचेल लुईस कार्सन ने 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंगज् से ध्यान खींचा। उन्होंने सिंचाई के लिए अत्यधिक मात्रा में पानी के दोहन, कीटनाशकों व रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पर्यावरण व पशु-पक्षियों को होने वाले नुकसान के प्रति आगाह किया। लेकिन बोरलॉग का इनके प्रति आग्रह इस कदर था कि उन्होंने कार्सन को ‘बुरी ताकतज् बताते हुए यहां तक कह डाला कि ये वे लोग हैं, जो दुनिया से भूख नहीं मिटाना चाहते। उन्हें जब ब्राजील में नाइट्रोजन फर्टिलाइजर के इस्तेमाल के बगैर ही ईख व सोयाबीन के उत्पादन में वृद्धि की बात कही गई, तब भी उन्होंने इसे नहीं माना।
बोरलॉग के फॉर्मूले को अपनाते हुए भारत ने जो हरित क्रांति की, उसका कुप्रभाव 1980 के दशक से देश में दिखने लगा। भूजल स्तर नीचे चला गया, पक्षी मरने लगे, भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती गई, तो कई कीड़ों में जबरदस्त प्रतिरोधी क्षमता पैदा हो गई है। दुनियाभर में आज करीब 500 कीड़े हैं, जो नहीं मरते।
कीटनाशकों व रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पंजाब, हरियाणा में भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो गई है। उसमें कार्बनिक पदार्थ केवल 0.1 प्रतिशत रह गया। ऐसे में जाहिर तौर पर पैदावार में एकबार फिर कमी आने लगी और इसे बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। परिणाम यह हुआ कि खाद, कीटनाशक व सिंचाई की मात्रा बढ़ गई। पंजाब में आज खाद की खपत दोगुनी हो गई है। राज्य में 138 डेवेलपमेंट ब्लॉक हैं, जिनमें से 108 में 98 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है। यदि यही स्थिति रही तो 2025 तक राज्य में पानी नहीं बचेगा और यह रेगिस्तान बन जाएगा। बोरलॉग ने कभी इस बारे में नहीं सोचा, बल्कि इस ओर ध्यान दिलाने पर उन्होंने यह तर्क दिया कि देश में सूखे से जो हालात थे, उससे निपटने के लिए पैदावार बढ़ाने की जरूरत तो थी और यदि हरित क्रांति नहीं होती, तो इसके लिए 5.80 करोड़ हेक्टेयर भूमि की अधिक आवश्यकता होती।
बहरहाल, खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बोरलॉग का योगदान सराहनीय है, लेकिन आत्मनिर्भर हो जाने के बाद हमें इसकी समीक्षा करने की जरूरत थी, जो हमने नहीं की और जिसका खामियाजा हमें आज भुगतना पड़ रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि पहली हरित क्रांति का मॉडल विफल हो चुका है। हम एकबार फिर दूसरी हरित क्रांति की ओर भाग रहे हैं, लेकिन इससे केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा होने वाला है, आम किसानों को नहीं। दरअसल, इस दिशा में हमें संतुलन बनाने की जरूरत है।
जहां तक भूख और किसानों की आत्महत्या की बात है, तो हरित क्रांति से इसका कोई संबंध नहीं है। अक्सर देखा गया है कि पैदावार बढ़ने और पर्याप्त खाद्यान्न भंडार के बावजूद एक बड़ी आबादी भूख की शिकार रही। 2001-03 में देश के खाद्यान्न भंडार में 650 लाख टन अनाज निर्धारित मात्रा से अधिक था, फिर भी 32 करोड़ लोग भूख से पीड़ित थे। साफ तौर पर भूख से निपटने के लिए पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ आम लोगों तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करना भी जरूरी है।


कृषि मामलों के जानकार देवें्र शर्मा से बातचीत पर आधारित

शनिवार, 12 सितंबर 2009

सब सुनो भागवत!

भाजपा में जब घमासान मचा हुआ था। उसके नेता खुलेआम उसे लताड़ रहे थे, नसीहतें दे रहे थे। आडवाणी और राजनाथ सिंह सहित सभी नेता निशाने पर थे। कलह लगातार कर्कश हो रही थी, तभी नागपुर से दिल्ली आए सर संघचालक मोहन भागवत। तीन दिन सबसे मिले। प्रेस कांफ्रेंस की और संदेश दिया- सुधर जाओ। लड़ो-झगड़ो नहीं। युवाओं को आगे लाओ। अलग-अलग और एक साथ उनसे बड़े-छोटे सब भाजपायी मिले। भाजपा कलह-शांति के लिए भागवत कथा का असर भी हुआ।

सर संघचालक मोहन राव भागवत की कुछ विशेषताएं : संघ के सबसे युवा प्रमुख। युवाओं को आगे लाने और जम्मेदारी देने के समर्थक। संगठनात्मक मजबूती के लिए आधुनिकता व परिवर्तन के समर्थक। लेकिन ‘मूल विचारधारा से कोई समझौता नहींज् के पैरोकार। उन्हें किसी भी अनुषांगिक संगठन का विचारधारा से भटकाव मंजूर नहीं। इसलिए यदि संघ का कोई परिवारी विचारधारा से भटक गया हो, तो उसे राह पर लाने की पुरजोर कोशिश करना।
भागवत के संघ प्रमुख बनते ही स्पष्ट हो गया था कि संघ और इसके संगठनों में आमूल-चूल परिवर्तन होने वाला है। यह भी साफ था कि वह परिवार में संघ की सर्वोपरिता चाहते हैं, ठीक वैसे ही जसे कभी जनसंघ के समय थी। आम तौर पर संघ प्रमुख मीडिया से कम ही मुखातिब होते हैं। लेकिन इस परंपरा से अलग भागवत ने अपनी बात कहने के लिए मीडिया को माध्यम बनाया। संवाददाता सम्मेलनों के जरिए परिवार के संगठनों को संदेश दिया कि युवाओं को आगे लाओ। समय के साथ चलने के लिए आधुनिकता अपनाओ। लेकिन विचारधारा से कोई समझौता न करो। अन्यथा हश्र वही होगा, जो विवेकानंद कें्र का हुआ। विवेकानंद कें्र, जो कभी परिवार का हिस्सा था, लेकिन अंदरूनी लड़ाई-झगड़े व विचारधारा से भटकाव के चलते आज परिवार से बाहर है। आज कें्र की लगातार कोशिश है कि उसे परिवार में शामिल कर लिया जाए, लेकिन परिवार उसे अपनाने को तैयार नहीं।
लोकसभा चुनाव से ऐन पहले भागवत संघ प्रमुख बने थे। बुजुर्ग संघ प्रमुख केसी सुदर्शन ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर अवकाश ले लिया था। उनके संघ प्रमुख बनते ही यह भी साफ हो गया था कि संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा के साथ संबंधों को वह नए सिरे से परिभाषित करेंगे। यह वह वक्त था जब भाजपा सत्ता में वापसी की तैयारी कर रही थी। कहा गया कि लोगों को एकजुट करने की क्षमता के धनी भागवत की सर संघचालक के रूप में ताजपोशी से चुनाव में भाजपा को मदद मिलेगी। चुनाव हुए। परिणाम आया। पार्टी बुरी तरह पराजित हुई। और फिर, पार्टी में घमासान। भाजपा की इस दुर्दशा से पितृ संगठन संघ का चिंतित होना स्वाभाविक था। पार्टी की दुर्दशा के लिए भागवत को एक वजह युवा नेतृत्व का अभाव दिखा। कई मौकों पर उन्होंने पार्टी को इसके संकेत भी दिए। लेकिन पार्टी इसे अनसुना करती गई। शिमला में चिंतन बैठक से पहले भी उन्होंने भाजपा में युवाओं को आगे लाने का मुद्दा छेड़ा। कहा, नेतृत्व युवाओं को सौंपा जाना चाहिए। बुजुर्गो को सलाहकार की भूमिका अदा करनी चाहिए। लेकिन एकबार फिर उनकी बात अनसुनी कर दी गई। चिंतन बैठक में इस पर चर्चा तक नहीं हुई।
इसी बीच जिन्ना का जिन्न एकबार फिर बाहर आया और पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह निष्कासित कर दिए गए। उधर, राजस्थान में वसुंधरा राजे और उत्तराखंड में भुवन चं्र खंडूरी ने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। हर तरफ से पार्टी को गर्त में जाता देख वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने संघ से गुहार लगाई, भाजपा को बचा लो। आखिर कब तक संघ चुपचाप देखता रहता। सर संघचालक को आगे आना पड़ा। दिल्ली में संवाददाता सम्मेलन बुलाया। लगभग सवा घंटे तक कथावाचक की तरह बोलते रहे। माना कि भाजपा रसातल की ओर जा रही है। लेकिन उम्मीद भी जताई कि इन सबसे उबरकर जल्द ही पार्टी ‘राख से उठ खड़ी होगी।ज् लेकिन जब भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की बात आई, तो एक मंङो हुए राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने कहा, इसका फैसला पार्टी को ही करना है। संघ इसमें किसी तरह की दखलअंदाजी नहीं करेगा और न ही बिन मांगी सलाह देगा। लेकिन यह कहकर बहुत कुछ कह दिया कि संघ ने अपने सक्रिय स्वयंसेवकों की उम्र 55-60 वर्ष तय की है। जहां तक भाजपा का सवाल है, उसे भी सक्रिय राजनीति में नेताओं की उम्र खुद ही तय करनी है। इसके अतिरिक्त, राम मंदिर के प्रति प्रतिबद्धता जताकर उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि भाजपा का मूल विचारधारा से भटकाव संघ को मंजूर नहीं।
संघ प्रमुख के संवाददाता सम्मेलन से पहले और उसके बाद जिस तरह भाजपा नेताओं में हड़कंप देखा गया, वरिष्ठ व प्रमुख नेताओं ने संघ प्रमुख से मिलने के लिए जो भागमभाग की, उससे भागवत के ना-ना करते भी यह जहिर हो गया कि भाजपा संघ के भारी दबाव में है। संघ और भाजपा एक-दूसरे के असर से बचने की हमेशा दलील देते रहे हैं। पर भागवत के दिल्ली के तीन दिन इस भ्रम को तोड़ने वाले थे। पूरी पार्टी संघ की शरण में थी। भागवत शायद पहले संघ प्रमुख होंगे, जिन्होंने भाजपा की ऐसे खुलेआम क्लास लगाई और दोनों के संबंधों पर से पर्दा उठा दिया। लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली का केशव कुंज पहुंचना इस बात के साफ संकेत हैं कि संघ प्रमुख संवाददाता सम्मेलन में भले ही कुछ भी कहें, अंदर कोई बड़ी खिचड़ी पक रही है और संघ ‘बिल्कुल चुपज् नहीं है। दरअसल, एक मजबूत भाजपा संघ के उद्देश्यों को भी पूरा करती है। शायद यही वजह है कि पार्टी को इस संकट से उबारने के लिए संघ ने सौ दिन की कार्ययोजना बनाई है। इस बीच संघ प्रमुख पूरे देश का दौरा करेंगे और संघ सहित इसके संगठनों की जड़ें मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे। तब तक भाजपा को नेतृत्व का मसला सुलझा लेने के लिए कहा गया है।
59 वर्षीय भागवत मूलत: महाराष्ट्र के चं्रपुर जिले से आते हैं। आरएसएस से जुड़ाव उन्हें पारिवारिक विरासत में मिली। पिता मधुकर भागवत आरएसएस के चं्रपुर जोन के प्रमुख थे। बाद में वह गुजरात में प्रांत प्रचारक रहे। कहा जाता है कि इसी दौरान उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी को संघ से जोड़ा। तीन भाई और एक बहन में सबसे बड़े भागवत ने चं्रपुर से ही स्कूली शिक्षा पूरी की व विज्ञान में स्नातक हुए। बाद में उन्होंने अकोला स्थित पुंजाबराव कृषि विश्वविद्यालय से पशु चिकित्सा में स्नातक की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मास्टर डिग्री में दाखिला लिया, लेकिन 1975 के अंत में आपातकाल के समय बीच में ही पढ़ाई छोड़ वह आरएसएस के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गए। तब से लगातार वह संघ की गतिविधियों में सक्रिय रहे और विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते हुए आज सर संघचालक हैं।

पटेल से हुए पस्त

‘जिन्ना : इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंसज् लिखकर सुर्खियों में आए भाजपा के पूर्व वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने सोचा भी नहीं होगा कि एक पुस्तक लिखने का खामियाजा उन्हें पार्टी से निष्कासित होकर चुकाना होगा। भाजपा की कट्टर दक्षिणपंथी नीति से अलग वह अपनी एक अलग उदार लोकतांत्रिक सोच के लिए जाने जाते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध नहीं होने के बावजूद उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेताओं में अपनी जगह बनाई और तीन प्रमुख मंत्रालयों को संभालने की जिम्मेदारी निभाई। हालांकि इस बीच समय-समय पर विवाद भी उनसे जुड़ते रहे हैं।

या यूं कहें कि विवादों का उनसे चोली-दामन का संबंध रहा। लेकिन जिन्ना पर लिखी पुस्तक से पैदा हुए ताजा विवाद ने भाजपा से उनके निष्कासन का रास्ता बना दिया।
पार्टी को यह बात नागवार गुजरी कि उसका ही नेता आखिर कैसे भारत विभाजन के लिए जिन्ना को जिम्मेदार नहीं ठहराते हुए उन्हें धर्मनिरपेक्ष बता सकता है! पार्टी के लिए इससे भी बड़ा झटका यह रहा कि जसवंत ने उनके आदर्श देश के पहले गृहमंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत-विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। जसवंत ने अपनी पुस्तक ‘जिन्ना : इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंसज् में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व सरदार वल्लभ भाई की अत्यधिक कें्रीकृत नीति को भारत विभाजन के लिए जिम्मेदार माना है। पार्टी का कहना है कि पुस्तक में ऐसे आठ संदर्भो की चर्चा है, जिससे पटेल का अपमान होता है। हालांकि जसवंत बार-बार पटेल के अपमान संबंधी आरोप से इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि उन्हें निष्कासित करने से पहले पार्टी के नेताओं ने उनकी पुस्तक पढ़ी भी नहीं, क्योंकि पुस्तक में ऐसा कोई संदर्भ नहीं है।
राजस्थान के बाड़मेर जिले में 3 जनवरी 1938 को पैदा हुए जसवंत सिंह का संबंध कभी भाजपा के दूसरे नेताओं की तरह आरएसएस से नहीं रहा और शायद इसलिए उन्होंने संघ के तौर-तरीकों व सोच को नहीं अपनाया। वह मेयो कॉलेज व राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के छात्र रह चुके हैं। एक लंबा वक्त उन्होंने सेना में बिताया और शायद इसलिए वह अब भी कह रहे हैं कि उन्होंने सेना से काफी कुछ सीखा, संघ से नहीं और यह भी कि वह स्वयंसेवक नहीं हैं।
1980 में 42 साल की उम्र में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। संघ से संबंध नहीं रखने के बावजूद वह तेजी से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में शामिल हो गए। 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की 13 दिन की सरकार बनी थी, जसवंत सिंह वित्त मंत्री बनाए गए। दोबारा 1998 में राजग के सत्ता में आने के बाद वह विदेश मंत्री बने। तहलका प्रकरण में नाम आने के बाद जब तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज को इस्तीफा देना पड़ा, तो जसवंत को रक्षा मंत्रालय का प्रभार भी दिया गया। 2002 में ही वित्त मंत्रालय का कार्यभार यशवंत सिन्हा से लेकर उन्हें दिया गया और विदेश मंत्रालय का यशवंत सिन्हा को।
इस बीच विवादों ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने दिसम्बर 1999 में इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान आईसी 814 के यात्रियों के बदले तीन खूंखार आतंकवादियों को कांधार ले जाकर छोड़ा था। आतंकवादियों से इस कदर नरमी से निपटने के लिए राजग सरकार की खूब आलोचना हुई और एक रक्षा मंत्री के रूप में जसवंत सिंह की भी।
2004 में भाजपा के लोकसभा चुनाव हारने के बाद जसवंत ने अपने गृह राज्य राजस्थान का रुख किया। हालांकि इससे पहले वह कभी राज्य की राजनीति में सक्रिय नहीं रहे, लेकिन अब की सक्रियता ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनके संबंधों में खटास पैदा कर दी। आम चुनाव से पहले उन्होंने अपने बेटे मानवें्र को बाड़मेर से पार्टी का टिकट दिलाने की पूरी कोशिश की, जबकि वसुंधरा की पसंद गंगाराम चौधरी थे। वसुंधरा के खिलाफ जसवंत की राजनीतिक लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई। मई 2007 में जसवंत की पत्नी ने एक स्थानीय विधायक पर वसुंधरा को देवी के रूप में चित्रित करने का आरोप लगाया, तो कुछ ही दिनों बाद वसुंधरा समर्थकों ने एक ऐसा वीडियो ढूंढ निकाला, जिसमें जसवंत स्थानीय लोगों को अफीम परोसते दिखे। मीडिया में यह खबर फैली तो जसवंत ने इसे परंपरा का नाम दे दिया। लेकिन इस मामले में पुलिस केस हो गया और पार्टी हाईकमान के हस्तक्षेप के बाद ही मामला सुलझ सका।
इससे पहले 2006 में अपनी एक अन्य पुस्तक ‘अ कॉल टू ऑनरज् से भी वह सुर्खियों में आए थे। तब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में जासूस होने और उसके द्वारा अमेरिका को महत्वपूर्ण सूचनाएं लीक करने की बात कहकर राजनीतिक हलके में तूफान ला दिया था। हालांकि लाख पूछे जाने के बावजूद उन्होंने जासूस का नाम नहीं बताया। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस ने इस पर कड़ा रुख अपना लिया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब उनसे जवाब मांगा तो पीएमओ को भेजी चिट्ठी में उन्होंने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि पीएमओ में अमेरिकी जासूस होने की बात उन्होंने केवल शक के आधार पर कही थी।
जसवंत सिंह अक्सर बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए भी जाने जाते हैं। हाल ही संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद उन्होंने एक खुली चिट्ठी लिखी, जिसमें पार्टी की हार के लिए चुनाव की रणनीति बनाने वालों को जिम्मेदार ठहराया गया। उन्होंने साफ कहा कि दिल्ली के एसी कमरों में बैठे रहने वालों नेताओं को जमीनी स्तर पर जनता से जुड़े मुद्दों की जानकरी नहीं थी और इसलिए उनकी बनाई हुई रणनीति हवाई साबित हुई और पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। पार्टी अध्यक्ष से लेकर कई नेताओं ने जसवंत की इस खुली चिट्ठी पर आपत्ति जताई थी और कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत थी, तो पहले पार्टी में बात करनी चाहिए थी।
इससे पहले लाल कृष्ण आडवाणी की पुस्तक ‘माय कंट्री, माय लाइफज् के बाजार में आने के बाद भी वह सुर्खियों में थे। आडवाणी ने विमान अपहरण कांड से खुद को अलग करते हुए पुस्तक में लिखा है कि उन्हें आतंकवादियों को छोड़ने के बारे में लिए गए सरकार के निर्णय की जानकारी नहीं थी। लेकिन जसवंत सिंह ने यह कहकर उन्हें सकते में डाल दिया कि इस बारे में निर्णय के लिए बुलाई गई मंत्रिमंडल की बैठक में आडवाणी भी मौजूद थे।

लचर राज, लाचार नाथ

भाजपा भारी द्वंद्व और दुविधा में है। सर संघचालक से लेकर कई दिग्गज नेता नेतृत्व बदलने की बात कर रहे हैं। चौतरफा हमलों से राजनाथ-आडवाणी आपसी लड़ाई स्थगित कर संयुक्त रूप से उस मोर्चे से लड़ रहे हैं, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजयपेयी के पुराने वफादार कर रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ जसी है। पद लालसा उनके पीछे पड़ी और आगे बदलाव खड़ा नजर आ रहा है। उनके अध्यक्षकाल में भाजपा की जितनी दुर्गति हुई, वैसी शायद ही कभी हुई हो। सबसे अलग पार्टी आज सबसे अलगाव वाली पार्टी बनकर रह गई है।

लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा में घमासान मचा है। हर तरफ से नेतृत्व निशाने पर है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा ने खुलकर नेतृत्व पर सवाल उठाए। जसवंत सिंह की किताब के बाद जिन्ना का भूत फिर भाजपा पर सवार हो गया। जसवंत सिंह के निष्कासन के बाद पार्टी साफ-साफ तीन धड़ों में विभाजित हो गई। आडवाणी, राजनाथ और अटल बिहारी वाजपेयी के वफादारों के खेमे में भाजपा विभक्त है। वसुंधरा राजे और बीसी खंडूरी सहित इन सबके हमलों से बचने के लिए फिलहाल आडवाणी-राजनाथ साथ-साथ हैं। पर सर संघचालक मोहन भागवत ने जो नुस्खे प्रकारांतर से भाजपा को सुझाए हैं, उससे पार्टी में अलग खलबली है। लगता है राजनाथ और आडवाणी विदा होंगे। राजनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी लगातार विवादों में रही है।
तीन साल पहले जिन्ना प्रकरण पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारी दबाव के कारण लाल कृष्ण आडवाणी को भाजपा अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा था। तब पार्टी नेताओं ने राजनाथ सिंह में आस्था जताते हुए उन्हें अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी थी। लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी राह आसान नहीं रही। राज्य विधानसभाओं और फिर लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार ने उनकी राह मुश्किल बना दी।
हालिया घटनाक्रम की बात करें तो पहले जसवंत सिंह का पार्टी से निष्कासन और फिर सुधीं्र कुलकर्णी द्वारा पार्टी नेतृत्व में अनास्था व्यक्त करते हुए इसे छोड़ जाने का विवाद अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सांसद अरुण शौरी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल लिया। एक साक्षात्कार में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर राजनाथ को ‘एलिस इन ब्लंडरलैंडज् और भाजपा को ‘कटी पतंगज् कह डाला। राजनाथ की क्षमता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने संघ से पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने और शीर्ष नेतृत्व में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग की।
शौरी ने पहले भी आम चुनाव में हार के लिए जवाबदेही तय करने की मांग की थी। एकबार फिर उन्होंने कहा कि हार के लिए उत्तराखंड में बीसी खंडूरी से इस्तीफा लिया गया और अब राजस्थान में वसुंधरा राजे से इस्तीफा मांगा जा रहा है। लेकिन शीर्ष नेतृत्व हार की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेता? शौरी द्वारा इस तरह खुलकर राजनाथ को निशाना बनाए जाने के बाद भाजपा में धीमी आवाज में नेतृत्व के खिलाफ असंतोष जाहिर करने वालों और किसी न किसी ‘डरज् से चुप रहने वाले नेताओं को मानो संजीवनी मिल गई। राजस्थान से लेकर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश तक में पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ असंतोष खुलकर सामने आ गया। वसुंधरा को दिए गए बार-बार के अल्टीमेटम के बावजूद उनके तेवर को देखकर नहीं लगता कि वह पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता के रूप में अध्यक्ष की बात ज्यों की त्यों मान लेने के मूड में हैं।
उधर, उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए खंडूरी ने भी पार्टी अध्यक्ष को लिखे पत्र में यह कहकर अपनी नाराजगी जता दी राज्य के 34 विधायकों में से 23 विधायकों का समर्थन रहते हुए भी उन्हें गलत तरीके से पद से हटाया गया। उत्तर प्रदेश के बस्ती से पार्टी के वयोवृद्ध विधायक भृगु नारायण द्विवेदी ने भी राजनाथ को भेजे पत्र में ‘पार्टी हितज् के लिए उन्हें पद से छोड़ देने की सलाह दी।
शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ चौतरफा हमले के बाद संघ भी हरकत में आया। अब तक समझा जा रहा था कि संघ की सरपरस्ती से राजनाथ सभी झंझावात ङोल जाएंगे। यह भी कयास लगाए जा रहे थे कि संघ के ‘आशीर्वादज् से राजनाथ पार्टी में लाल कृष्ण आडवाणी की जगह ले सकते हैं या साल के आखिर में समाप्त हो रहे अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल के बाद दोबारा यह पद संभाल सकते हैं। गाजियाबाद से लोकसभा चुनाव जीतकर उन्होंने अपने आलोचकों का मुंह भी बंद कर दिया था। लेकिन शौरी के साक्षात्कार और पार्टी में अन्य शीर्ष नेताओं के मुखर विरोध के बाद उनकी मुश्किलें बढ़ गईं। फिलहाल संघ भी उन्हें सहारा देने के मूड में नहीं दिखता।
तीन साल पहले पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने के बाद राजनाथ ने ‘मूल विचारधााराज् से भटक चुकी पार्टी को एकबार फिर ‘अपनी राहज् पर ले जाने की घोषणा की थी। लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी का दायरा बढ़ाने के लिए इसे जिस समावेशी संगठन का रूप देने की कोशिश की थी, उससे उलट राजनाथ सिंह ने पार्टी के ‘भगवाकरणज् और ‘मूल विचारधाराज् पर चलने को तरजीह दी; क्योंकि संघ में एक बड़े खेमे का मानना था कि आडवाणी ने जो राह चुनी, उससे पार्टी को फायदे के बजाय नुकसान हुआ।
इसी राह पर चलते हुए बहैसियत पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को उनकी किताब ‘जिन्ना : भारत विभाजन के संदर्भ मेंज् के लिए ‘दंडितज् करते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासन का फरमान सुनाया। लेकिन राजनाथ के नेतृत्व में इस ‘मूल विचारधाराज् की राह पर चलते हुए भी पार्टी को नुकसान ही हुआ। 2004 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी को 2009 के आम चुनाव में जीत की उम्मीद थी। लेकिन पार्टी को फिर शिकस्त मिली। राजनाथ चुनाव से पहले भी पार्टी में अंतर्कलह व अंतर्विरोध पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे और चुनाव के बाद तो यह उनके लिए नामुमकिन हो गया।
उत्तर प्रदेश के बनारस में 10 जुलाई 1951 को रामबदन सिंह और गुजराती देवी की संतान के रूप में किसान परिवार में पैदा हुए राजनाथ 13 साल की उम्र में ही संघ से जुड़ गए थे। संघ से इस जुड़ाव के चलते अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने में उन्हें किसी तरह की मुश्किल नहीं हुई। संघ की सरपरस्ती में उन्होंने भारतीय जनसंघ में कई महत्वूपर्ण जिम्मेदारियां निभाईं। पढ़ाई पूरी करने के बाद मिर्जापुर के एक कॉलेज में उन्होंने भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की। लेकिन जल्द ही पूरी तरह राजनीति में रम गए। भारतीय जनता पार्टी के वजूद में आने के बाद उन्होंने इसमें भी कई जिम्मेदारी भरे पद संभाले और 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार बनने पर मंत्री व मुख्यमंत्री भी बने। वह बहुत तेजी से पार्टी के शीर्ष नेताओं में शामिल होते गए। लेकिन अब पार्टी में बड़े पैमाने पर संगठनात्मक फेरबदल में उनकी विदाई तय मानी जा रही है।

नयी फसल के नये उमर

उमर अब्दुल्ला में दो ऐसे गुण हैं, जिनका आपस में दूर का संबंध है। वह बेहद संयत व समझदार हैं और बेहद संवेदनशील व जज्बाती भी। परमाणु करार पर विवाद के दौरान विश्वास प्रस्ताव पर उनका अतिसंक्षिप्त भाषण और पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर विधानसभा में दिया गया उनका छोटा, लेकिन सटीक व भावावेशित भाषण उन्हीं खूबियों पर प्रकाश डालते हैं। विभिन्न संकटों में उनका रवैया उतावलेपन का न होकर संयत व गंभीर होता है। वह नौजवान पीढ़ी के नेता हैं और इसलिए पुराने र्ढे से अलग भी हैं। सेक्स कांड पर विपक्ष के आरोप के बाद इस्तीफा देने की पेशकश करते हुए उनकी यह उक्ति, कि बेगुनाह साबित न होने तक मैं गुनाहगार हूं, भी आमतौर पर दी जाने वाली ऐसी दलील के कतई उलट थी।

विपक्ष के आरोप से आहत जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप सबको सकते में डाल दिया। सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की उपलब्धि हासिल करने वाले उमर अब्दुल्ला का यह कदम सभी के लिए अप्रत्याशित था। हालांकि राज्यपाल ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और वह अपने पद पर बने हुए हैं।
बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत मिलने के बाद उन्होंने इसी साल जनवरी में राज्य की सत्ता संभाली थी। 38 साल की उम्र में उन्होंने सबसे युवा मुख्यमंत्री होने की उपलब्धि तो हासिल की, लेकिन यह ताज उनके लिए कांटों भरा साबित हुआ। सिर्फ छह महीने के कार्यकाल में राज्य की कानून-व्यवस्था बद से बदतर हुई। इस छह महीने में भारतीय सेना पर तीन महिलाओं के साथ बलात्कार के बाद उनकी हत्या सहित 15 लोगों की हत्या का आरोप लगा। राज्य को एक युवा मुख्यमंत्री से जिसकी उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई।
विपक्ष ने बिगड़ती कानून-व्यववस्था को मुद्दा बनाया और उन्हें एक अयोग्य मुख्यमंत्री करार दिया। विपक्ष की ओर से उनपर कई गंभीर आरोप लगाए गए। उन पर शोपियां में भारतीय सैनिकों द्वारा मलिाओं के अपहरण और उनके साथ बलात्कार व बाद में उनकी हत्या की वारदात पर पर्दा डालने का आरोप लगा। कहा गया कि उमर नई दिल्ली के दबाव में झुक गए और मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहली परीक्षा में ही असफल साबित हुए। इस घटना ने मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए।
विपक्ष ने 2006 के बहुचर्चित व राज्य की राजनीति में तूफान ला देने वाले सेक्स स्कैंडल में भी उनका नाम घसीटा। कहा गया कि नौकरी देने के नाम पर जिन नेताओं, मंत्रियों, वरिष्ठ अधिकारियों, सैनिकों ने लड़कियों का इस्तेमाल किया, उनमें उमर अब्दुल्ला का नाम भी शामिल है। विपक्षी नेता व राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग ने ऐसे लोगों की सूची में 102 नंबर पर उमर का नाम होना बताया। उन्होंने इसमें उमर के साथ-साथ उनके पिता फारूख अब्दुल्ला का नाम शामिल होने की भी बात कही।
यह आरोप उमर के लिए सदमे की तरह था। विपक्ष के आरोप को अपने चरित्र पर धब्बा बताते हुए उन्होंने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया और तय समय में इसकी जांच की मांग की। हालांकि सीबीआई इस सेक्स स्कैंडल की पहले से ही जांच कर रही है। सीबीआई सहित गृहमंत्री पी चिदंबरम ने फौरन इसमें उमर के शामिल नहीं होने के बयान दिए। खास बात उमर का इस्तीफे की पेशकश करते हुए दिया गया बयान था। हर राजनेता ऐसे मामलों में फंसते हुए यही कहता है कि आरोप साबित न होने तक मैं निर्दोष हूं। इसके उलट उमर ने नयी बात कही कि जब तक मैं बेगुनाह साबित नहीं हो जाता, तब तक मैं गुनाहगार हूं। इसका गहरा असर हुआ।
उमर को राजनीति विरासत में मिली, लेकिन मुख्यमंत्री तक का सफर आसान नहीं रहा। इसके लिए उन्होंने खासी मेहनत की। 1998 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। उसी साल हुए 12वीं लोकसभा के चुनाव में वह सांसद चुने गए। तब कें्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी और नेशनल कांफ्रेंस उसका हिस्सा। 1999 के लोकसभा चुनाव में भी वह चुने गए और जुलाई 2001 में उमर विदेश राज्यमंत्री बने। तब भी वह सबसे युवा कें्रीय मंत्री थे। अब उनकी नजर अगले साल राज्य में होने वाले विधानसभा चुना पर थी। जून 2002 में पिता फारूख अब्दुल्ला के स्थान पर नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन 2002 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह हार गई। यहां तक कि उमर भी परिवार की पारंपरिक विधानसभा सीट गांदेरबल गंवा बैठे। लेकिन इससे निराश व हताश हुए बगैर उन्होंने उन गलतियों को ढूंढ़ने की कोशिश की, जिसके कारण नेशनल कांफ्रेंस को हार का सामना करना पड़ा। इसका एक कारण उन्हें गुजरात दंगों के बाद भी राजग से जुड़े रहना लगा, क्योंकि दंगों के बाद मुस्लिम समुदाय भाजपा से बेहद नाराज था। इसे समझते हुए उन्होंने राजग से अलग होने में देर नहीं लगाई। इसके बाद लगातार चार साल तक वह पार्टी की मजबूती के लिए काम करते रहे। उनकी मेहनत का ही नतीजा रहा कि 2008 के विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उमर राज्य के मुख्यमंत्री बने। नेकां और कांग्रेस के गठजोड़ में उमर की राहुल गांधी से निकटता का भी योगदान रहा।
एक अनुभवी राजनीतिज्ञ के रूप में उमर का व्यक्तित्व पिछले साल 22 जुलाई को देखने को मिला, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के विश्वास प्रस्ताव के दौरान उन्होंने सिर्फ दो सांसदों के साथ सरकार के पक्ष में मतदान कर कांग्रेस की निकटता हासिल कर ली। नेशनल कांफ्रेंस को कांग्रेस की निकटता का फायदा जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में हुआ, जिसके सहयोग से चुनाव बाद राज्य में उमर की सरकार बनी। वहीं, विश्वास प्रस्ताव के दौरान अपने भावुक भाषण से उन्होंने सबका दिल जीत लिया। अमेरिका के साथ परमाणु करार को जब सपा सहित कुछ अन्य दलों के नेता मुसलमानों के लिए खतरनाक बता रहे थे, उमर ने यह कहकर तमाम आशंकाओं पर विराम लगा दिया, ‘मैं एक मुसलमान हूं और मैं एक भारतीय हूं, और मैं इन दोनों में कोई भेद नहीं देखता हूं। मैं नहीं जानता कि हमें परमाणु करार से क्यों डरना चाहिए.. भारतीय मुसलमानों का दुश्मन अमेरिका या इस तरह का कोई करार नहीं, बल्कि गरीबी, भूख, विकास का अभाव और इन सबके लिए आवाज नहीं उठाना है.. ज्
जम्मू-कश्मीर को लेकर भी उमर का एक अलग रुख रहा है। भारत-पाक के बीच जम्मू-कश्मीर को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बताते हुए कें्र के विरोध के बावजूद मार्च 2006 में वह पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मिलने इस्लामाबाद जा पहुंचे। यह जम्मू-कश्मीर की राजनीति में सक्रिय मुख्यधारा के किसी नेता और पाकिस्तान सरकार के बीच अपने तरह की पहली बातचीत थी।
10 मार्च 1970 को फारूख अब्दुल्ला व ब्रिटिश मां की संतान के रूप में पैदा हुए उमर अब्दुल्ला की स्कूली शिक्षा श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल में हुई। इसके बाद मुंबई के प्रतिष्ठित सिदेनाम कॉलेज से उन्होंने बी.काम. और स्कॉटलैंड के यूनीवर्सिटी ऑफ स्ट्रैथक्लाइड से एमबीए किया।

वाम का काफी काम तमाम

अपने गढ़ में माकपा और वाम मोर्चे की सबसे बड़ी हार हुई। नंदीग्राम के बाद से गिरती लोकप्रियता और ममता के करिश्मे ने यह चमत्कार किया।

पश्चिम बंगाल में इस बार चौंकाने वाले चुनाव परिणाम सामने आए हैं। पिछले तीन दशक से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चा पहली बार अपने ही गढ़ में पिछड़ गया। विपक्ष की एकजुटता ने वाम अजेयता के मिथ को चूर कर दिया। चुनाव में ममता दीदी का जादू सिर चढ़कर बोला। दीदी के तृणमूल ने कांग्रेस के साथ मिलकर वामपंथी दलों को 42 में से केवल 15 सीटों पर समेटकर रख दिया। वाम मोर्चे को महज 43.4 प्रतिशत वोट मिले। 1977 के बाद यह पार्टी का सबसे खराब प्रदर्शन है। कांग्रेस के छह और तृणमूल के 19 सीटों के साथ गठबंधन की सीटों की संख्या 25 पहुंच गई। अब तृणमूल की नजर राज्य में 2011 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है।
इस चुनाव में विपक्षी दलों की एकजुटता वाम मोर्चे की हार का सबसे बड़ा कारण बनी। वाम दलों को अब तक गैर-वाम वोटों के बिखराव का फायदा मिलता रहा। यह बात ममता की समझ में आ चुकी थी, इसलिए वाम दलों को पटखनी देने के लिए उन्होंने कांग्रेस-तृणमूल-भाजपा का महाजोत तैयार करने की कोशिश की। हालांकि उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली, लेकिन उन्होंने गैर-वाम वोटों को अपनी झोली में करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली।
चुनाव में वाम दलों के खराब प्रदर्शन का कारण पश्चिम बंगाल सरकार की लोकप्रियता में गिरावट रही। 2006 में हुए राज्य विधानसभा के मुकाबले इस बार राज्य सरकार की लोकप्रियता 66 प्रतिशत से गिरकर 58 प्रतिशत रह गई। नंदीग्राम और सिंगूर ने भी वाम दलों को नुकसान पहुंचाया। हालांकि लोग औद्योगिकीकरण के खिलाफ नहीं दिखे और उन्होंने राज्य से नैनो की विदाई पर अफसोस भी जताया। लेकिन पूरे मामले को राज्य सरकार ने जिस तरह निपटाया, उससे ‘मां, माटी, मानुषज् का ममता का नारा कारगर हुआ।
वाम दलों को इस चुनाव में सबसे अधिक नुकसान गरीब मजूदरों और किसानों के क्षेत्र में हुआ, जबकि यही इलाके उनके गढ़ माने जाते हैं। हालांकि वाम दलों को इस चुनाव में वेतनभोगी तबके के अधिक वोट मिले, लेकिन यह इतना नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में हुए नुकसान की भरपाई हो सके। वाम मोर्चे को इस बार मुस्लिम समुदाय से भी झटका मिला। मुसलमान, जो राज्य की आबादी का तकरीबन एक चौथाई हैं, पिछले कुछ चुनाव से वाम दलों को वोट देते आ रहे थे। लेकिन इस बार वाम दलों से उनका मोहभंग देखा गया और उन्होंने तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन को तरजीह दी।

पहले बदलो विकास का मॉडल

-देवें्र शर्मा

औद्योगिक विकास के खिलाफ कोई नहीं है, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।

इसमें दो राय नहीं कि ग्लोबल वार्मिग दुनियाभर में एक बड़ी चिंता का विषय है। लेकिन जहां तक भारत का सवाल है, यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। यहां गरीबी, भूख, रोजी-रोटी का मामला सबसे बड़ा मुद्दा है। स्वयं एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपए प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजारा करती है। ऐसे में ग्लोबल वार्मिग भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय कैसे हो सकता है?
जहां तक दुनियाभर में इसे लेकर किए जाने वाले प्रयासों का सवाल है तो इसमें कहीं कोई ईमानदारी या निष्ठा नहीं दिखती। हर जगह ग्लोबल वार्मिग रोकने के नाम पर बस कुछ औपचारिकताएं की जा रही हैं। इसके वास्तविक कारण पर कोई विचार-विमर्श नहीं करना चाहता और न ही कोई इसे दूर करने के लिए गंभीरता से सोचना चाहता है।
दुनिया भर में आज ग्लोबल वार्मिग की जो समस्या है, उसके लिए आर्थिक नीतियां काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सच कहा जाए तो विभिन्न देशों के अर्थ विशेषज्ञों ने ही पर्यावरण का बेड़ा गर्क किया है। विकास के नाम पर उन्होंने हमें धोखा दिया है। इन लोगों ने ऐसी नीतियां बनाईं, जो एक तरफ तो हमें विकास के मार्ग पर ले जाती हैं, जबकि दूसरी तरफ पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करती हैं। दरअसल, भारत सहित दुनियाभर के अर्थ नीति विशेषज्ञों ने आर्थिक विकास की जो नीतियां तैयार की या आज भी कर रहे हैं, वे पर्यावरण की कीमत पर तय की गईं। उनमें कहीं भी पर्यावरण संरक्षण का ध्यान नहीं रखा गया।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर यदि जनता की जागरुकता की बात की जाए तो हमारे देश की जनता इसे लेकर बहुत जागरूक नहीं दिखती। वास्तव में जनता मतलबी है। जब तक उसे खुद पर्यावरण के नुकसान से कोई हानि होती नहीं दिखती, वह आवाज नहीं उठाती। हर साल पांच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर ही बस लोगों को इसकी याद आती है। जगह-जगह छिटपुट कार्यक्रम आयोजित कर लोग पर्यावरण को लेकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसे लेकर कोई सतत व मुखर आवाज नहीं उठाता। लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों का भी निजीकरण कर लिया है। एयर कंडीशनर के जरिए हवा तक को कैद कर लिया है। संपन्न एवं सुविधाभोगी लोगों ने खुद को गर्मी से बचाने के लिए तो घरों और निजी वाहनों में एसी लगा लिए हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि इससे बाहर गर्म हवा निकलेगी जो दूसरे लोगों को झुलसाएगी और वे इसकी तपिश ङोलेंगे। साफ है कि बाहर वालों की फिक्र किसी को नहीं होती। कोई नहीं सोचता कि एसी से बाहर कितना तापमान बढ़ता है।
इसी तरह नैनो कार को लेकर सभी हर्षित हैं, उल्लसित हैं, लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि इससे पर्यावरण कितना दूषित होगा। वास्तव में हम सब शोषक हैं। हमें ग्लोबल वार्मिग की फिक्र तब होती है, जब तापमान 45 डिग्री से ऊपर पहुंच जाता है। जहां तक पर्यावरण संरक्षण को लेकर जनता की जागरुकता का सवाल है, इसके लिए मीडिया को आगे आना होगा। उसे एक मुहिम चलानी होगी। उसे बार-बार जनता को याद दिलाना होगा कि यह सिर्फ एक दिन की समस्या नहीं है कि छोटे-बड़े कार्यक्रम आयोजित कर इससे पार पा लिया जाए।
पर्यावरण को लेकर दूसरे देशों की चिंता और भारत की चिंता में कोई विशेष फर्क नहीं है। हर जगह इसे लेकर एक सा रवैया है। हमारे देश की सरकारों का भी रवैया इसे लेकर कोई संतोषजनक नहीं रहा है। अब तक की सभी सरकारें केवल आर्थिक विकास बढ़ाने के पक्ष में रहीं, पर्यावरण संरक्षण की चिंता किसी को नहीं रही। सभी सरकारों ने पर्यावरण संरक्षण के बजाए औद्योगिक विकास को तरजीह दी और इसके लिए पर्यावरण की बलि देने में भी संकोच नहीं किया। सभी सरकारें बस इसी नीति पर काम करती रहीं कि यदि पर्यावरण औद्योगिक विकास के मार्ग में आता है, तो इसे खत्म कर दो। पिछले सप्ताह देश में बनी नई सरकार से भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर कोई बड़ी उम्मीद नहीं है। लेकिन यदि सरकार वास्तव में पर्यावरण संरक्षण को लेकर गंभीर प्रयास करना चाहती है, तो सबसे पहले विकास का मॉडल ठीक करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों को बचाने पर ध्यान देना होगा। वास्तव में हम औद्योगिक विकास के विरोध में नहीं हैं, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।

आया गया पर्यावरण दिवस

-अनुपम मिश्र

कल पांच जून थी। यानी पर्यावरण दिवस। इस दिन सब एकाएक पर्यावरण को लेकर चिंतित हो जाते हैं, लेकिन यह चिंता पूरे सप्ताह भी नहीं टिकती। सब फिर अपनी-अपनी तरह से पर्यावरण नष्ट करने में लग जाते हैं। सरकारें भी अलग नहीं। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन उदासीनता-उपेक्षा का उनका रवैया बना रहता है। अभी नई सरकार बनी है। हर कोई मलाईदार मंत्रालय चाहता था। कहीं से कोई यह कहता नहीं सुनाई दिया कि पर्यावरण बिगड़ रहा है, यह मंत्रालय मुङो दीजिए।

हमारे देश में अक्सर पर्यावरण की याद और उसे लेकर चिंता जून के पहले सप्ताह में बड़ी तेजी से उठती है और अक्सर सप्ताह बीतने से दो दिन पहले खत्म भी हो जाती है, क्योंकि पांच जून को पर्यावरण दिवस पड़ता है। उसके बाद सालभर हम क्या करते हैं या क्या नहीं करते, इसे कोई याद नहीं रखता। इसलिए रस्मी तौर पर एक तीज-त्योहार की तरह पर्यावरण को मनाना हो तो अलग बात, नहीं तो पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाने से बेहतर है कि पर्यावरण का पूरा साल मनाया जाए। तभी देश पर छाया पर्यावरण का संकट हल हो पाएगा। पर्यावरण संरक्षण को लेकर सभी सरकारों का रवैया लगभग एक जसा रहा है। पिछले सप्ताह हमारे देश में नई सरकार बनी है। पिछली सरकारों के रवैये को देखते हुए मौजूदा सरकार से भी इसे लेकर कोई बहुत उम्मीद नजर नहीं आती। हम चीजों को जल्दी भूल जाते हैं। इसलिए हमें याद करना होगा कि क्या कभी किसी सहयोगी घटक ने पर्यावरण मंत्रालय के लिए कांग्रेस, मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी पर कोई दबाव बनाया? इस सवाल का जवाब अक्सर हमें नकारात्मक ही मिलता है। देश के नए जनप्रतिनिधि, जो अभी ताजे-ताजे चुनकर आए हैं, उनमें से हरेक को कोयला, बिजली, रेल, रक्षा आदि जसे कमाऊ मंत्रालय चाहिए। इन प्रतिनिधियों से हम पर्यावरण बचाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं! इनमें से कोई भी पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे नहीं आया। किसी ने आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि वह जिस इलाके का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां का पर्यावरण इस कदर खराब हो चुका है कि उसे ठीक करने का अवसर उन्हें दिया जाए।
देश का उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, हर कोना पर्यावरण की किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है। देश की हरेक छोटी-बड़ी नदी गंदे नालों में तब्दील हो चुकी है। अवैध खनन के कारण हिमालय से पुरानी अरावली पर्वत श्रंखला मिट्टी में मिलाई जा रही है। यह काम पिछले 20 साल से धड़ल्ले से चल रहा है। लेकिन किसी ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अब किसी अखबार या अदालत का ध्यान उस तरफ गया भी है, तो शायद कुछ दिन के लिए। अखबारों और अदालत के वर्तमान रुख के कारण पहाड़ खोदकर प्राकृतिक संसाधनों को तहस-नहस करने वाली लॉबी भले ही कुछ दिनों के लिए शांत हो जाए, लेकिन नजर हटी नहीं कि वे फिर अरावली खोदने में लग जाएंगे।
कोई इस बात की चिंता नहीं करना चाहता कि हवा में जहर घुल जाए, पानी में जहर घुल जाए, खाने में जहर मिल जाए या मां के दूध में कीटनाशक मिल जाए तो क्या होगा? हां, ग्लोबल वार्मिग की चिंता सबको हो जाती है। देश की सभी नदियों को जोड़ने की योजना पर पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की एक राय रही। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि यह योजना पर्यावरण के लिए किस कदर खतरनाक साबित हो सकती है। किसी भी संवेदनशील नेता ने यह सोचने का नाटक भी नहीं किया कि इस योजना से कैसे तबाही मचेगी। इसलिए पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाएगा और छह जून को उसे फिर भुला दिया जाएगा।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

मुद्दों का अकाल और हार का डर

राजनीतिक चिंतक देवदत्त मानते हैं कि इस समय राजनीतिक दलों के पास मुद्दों का अभाव है। ऊपर से उन्हें हार का डर है, जिस कारण राजनीति तू-तू मैं-मैं पर उतर आई है। पेश है उनसे इस मुद्दे पर बातचीत।
लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार का दौर शुरू होते ही व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों और आक्षेपों की बाढ़ सी आ गई। यही सिलसिला 1999 के आम चुनाव में भी देखने को मिला था। तब निशाने पर थीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, लेकिन इस बार सोनिया से अधिक निशाने पर हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें ‘अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्रीज् बताते हुए टेलीविजन पर खुली बहस की चुनौती दे डाली, तो पिछले पांच साल से लगातार अपने लिए ‘कमजोरज् शब्द सुनकर संयमित माने जाने वाले मनमोहन सिंह भी जसे फट पड़े। उन्होंने यह कहकर आडवाणी का प्रस्ताव नकार दिया कि ऐसा करके मैं उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का दर्जा नहीं देना चाहता। उन्होंने यह भी कहा, ‘मैं कर्मयोगी हूं, करने में यकीन रखता हूं, जबकि आडवाणी सिर्फ बयान बहादुर हैं।ज्
विवाद यहीं नहीं थमा। भाजपा के प्रमुख सहयोगी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने उन्हें ‘गुलाम सिंहज् कहा। साफ है कि निशाने पर सोनिया और मनमोहन दोनों थे। लेकिन सोनिया भी कहां चुप रहने वाली थीं। चुनावी समर में अपने ‘सेनापतिज् का बचाव करते हुए आडवाणी को ‘संघ का गुलामज् बता डाला। इससे पहले भाजपा के फायरब्रांड नेता नरें्र मोदी ने ‘बुढ़िया पार्टीज् और ‘गुड़िया पार्टीज् कहकर कांग्रेस की खिल्ली उड़ाई, जिसका प्रियंका गांधी ने यह कहकर जवाब दिया कि ‘क्या मैं बूढ़ी दिखती हूं?ज् वहीं कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो भाजपा नेताओं को ‘दिमागी इलाजज् की जरूरत बता दी।
एक-दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत आक्षेपों की यह बानगी 1952 के आम चुनाव से लेकर 1990 के दशक के उत्तरार्ध तक नहीं देखने को मिली थी। ऐसा नहीं है कि पहले नेताओं में खींचतान नहीं थी, वैचारिक मतभेद नहीं थे। लेकिन उन्होंने कभी इसे सार्वजनिक नहीं किया। आज यदि नेता अपना संयम खोते जा रहे हैं, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि राजनीति में मुद्दों का अकाल हो गया है। दलों की रीति-नीति स्पष्ट नहीं है। सभी के कार्यक्रम एवं घोषणा-पत्र लगभग एक जसे हो गए हैं। सभी जनता को सस्ता चावल, गेहूं, दाल, मुफ्त टीवी, कपड़े आदि से लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि पहले के आम चुनाव सैद्धांतिक और वचारिक आधार पर लड़े जाते थे।
इसकी एक अन्य महत्वपूर्ण वजह नेताओं में ‘हार का डरज् भी है। आज कोई भी दल अपने वोट बैंक को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं रह गया है। दरअसल, छोटे-छोटे दलों ने जनता के सामने कई विकल्प प्रस्तुत किए हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था। 1971 तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा। 1977 में जनता पार्टी ने कांग्रेस का विकल्प जरूर प्रस्तुत किया, लेकिन 1980 और 1984 के चुनाव में एकबार फिर कांग्रेस ने अपना खोया जनाधार प्राप्त कर लिया। पर यह आगे जारी नहीं रह सका। 1989 से भारतीय राजनीति पर कांग्रेस का एकछत्र राज समाप्त हो गया। गठबंधन राजनीति के दौर में आज जनता के सामने कई विकल्प हैं। ऐसे में वोटर कहीं इधर-उधर न खिसक जाए, नेता हमेशा इसे लेकर आतंकित रहते हैं। लेकिन वे ‘किसी भी कीमत परज् जीतना भी चाहते हैं। जीतने की इस महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर ही वे व्यक्तिगत आक्षेपों के सहारे दूसरों को गलत बताकर खुद को अच्छा साबित करने की कोशिश करते हैं।

सहानुभूति की राजनीति

भारत ही नहीं दुनियाभर के तमिल भावनात्मक रूप से श्रीलंका के तमिलों से जुड़े हैं। इस कारण उनकी सहानुभूति भी लिट्टे से जुड़ी रही। तमिलनाडु में प्रभाकरन के पैरोकारों की कमी नहीं। अब जब प्रभाकरन की सेना का सफाया हो रहा है और यहां देश में आम चुनाव है, तो इस मुद्दे पर तमिलनाडु में जमकर राजनीति हो रही है।
तमिलनाडु में इन दिनों सत्तारूढ़ और कें्र में सहभागी डीएमके की नींद उड़ी हुई है। कांग्रेस, जो कें्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही है और राज्य में डीएमके को समर्थन दे रही है, भी मुश्किल में पड़ सकती है। दरअसल लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सैन्य कार्रवाई ने विपक्षी दलों को एक ऐसा मुद्दा थमा दिया है, जिसका चुनाव में उन्हें लाभ मिलना तय माना जा रहा है। तमिलनाडु का श्रीलंकाई तमिलों से गहरा भावनात्मक संबंध है और यह चुनाव का समय है। इसलिए इस मुद्दे को सभी दल भुनाना चाहते हैं।
भारत सहित तमाम दूसरे देशों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं एजेंसियों की अपील को दरकिनार कर श्रीलंका की सेना जिस तरह लगातार लिट्टे के सफाए के लिए आगे बढ़ रही है, उससे तमिल व्रिोहियों के अलावा एक हजार से ज्यादा मासूम व निर्दोष आम तमिल मारे जा चुके हैं, जबकि लाखों की संख्या में लोग दर-बदर हुए हैं। पलायन को मजबूर लोग बड़ी संख्या में तमिलनाडु का रुख कर रहे हैं। विपक्षी पार्टियां इसे एक बड़ा मुद्दा बनाकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रही हैं। उनका आरोप है कि कें्र सरकार में भागीदार रहते हुए डीएमके उसे श्रीलंका पर युद्धविराम के लिए दबाव बनाने को तैयार करने में नाकाम रही। एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता ने इस मुद्दे पर करुणानिधि को ‘कमजोरज् मुख्यमंत्री करार दिया है, जो कोई भी त्वरित व साहसिक निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। वहीं एमडीएमके प्रमुख वाइको ने तो लिट्टे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई नहीं रुकवा पाने की स्थ्िित में राष्ट्रीय एकता को खतरे तक की बात कह डाली।
इस मुद्दे पर लगातार विपक्ष के हमले ङोल रही डीएमके ने स्वयं को ‘तमिलों का सबसे बड़ा हितैषीज् बताने के लिए गुरुवार को राज्य में बंद का भी आह्वान किया, लेकिन विपक्ष ने इसे ‘नौटंकीज् करार दिया है। वास्तव में तमिलनाडु के राजनीतिक दल इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि भले ही भारत सहित दुनियाभर के 30 देशों ने लिट्टे को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा हो, लेकिन आम तमिलों के बीच आज भी संगठन के सरगना वेल्लु प्रभाकरन को बड़ा दर्जा हासिल है। वे मानते हैं कि वह ‘उनके हितों की लड़ाईज् लड़ रहा है। वैसे जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी जसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो लिट्टे को आतंकवादी संगठन मानते हैं और उनके सफाए के समर्थक हैं।
प्रभाकरन को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का ताजा बयान इसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए। हालांकि इस पार्टी की सहानुभूति पहले से ही लिट्टे से रही है, लेकिन संप्रग ने पिछले साल मई में जब दो साल के लिए लिट्टे पर प्रतिबंध बढ़ाने का फैसला किया तो डीएमके भी उसमें शामिल थी। तब शायद गठबंधन राजनीति की मजबूरी ने उसे फैसले का विरोध नहीं करने दिया। लेकिन अब जब चुनाव सिर पर है, तो प्रभाकरन को ‘दोस्तज् और ‘आतंकवादी नहींज् बताना डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि की राजनीतिक मजबूरी बन गई है।
तमिलनाडु की मौजूदा राजनीति पर गौर करें तो वहां दो गठबंधन चुनावी समर में ताल ठोंकते नजर आ रहे हैं। सत्तारूढ़ डीएमके-कांग्रेस गठबंधन में डीएमके की लिट्टे के प्रति सहानुभूति रही है, तो कांग्रेस उसकी कट्टर विरोधी है। डीएमके पर तमिलनाडु में सत्तारूढ़ रहते हुए कई बार व्रिोहियों को भारत में प्रवेश का सुरक्षित रास्ता देने के लिए भी उंगली उठी। उधर, प्रभाकरन को लेकर कांग्रेस की पीड़ा समझी जा सकती है। जांच एजेंसियों से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में इस संगठन और प्रभाकरन का हाथ साबित हो चुका है। यही वजह है कि करुणानिधि ने जसे ही प्रभाकरन को ‘दोस्तज् बताया, कांग्रेस ने स्वयं को इससे अलग कर लिया और कहा कि लिट्टे को आतंकवादी संगठन मानने की उसकी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रियंका गांधी ने भी साफ कर दिया कि लिट्टे प्रमुख को लेकर उनके मन में न तो कोई सहानुभूति है, न नफरत की भावना; लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत कभी प्रभाकरन को माफ नहीं कर सकता, जिसने उसके पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की।
दूसरी तरफ एआईएडीएमके के नेतृत्व वाला गठबंधन है, जिसमें वाइको की पार्टी एमडीएमके और पीएमके भी शामिल है। एआईएडीएमके लिट्टे की धुर विरोधी है, जबकि वाइको लिट्टे के मुखर समर्थक हैं। लिट्टे के प्रति खुले समर्थन के कारण ही जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते हुए वाइको को पोटा के तहत जेल भेज दिया था, जब वह कें्र में मंत्री थे। आज वही वाइको जयललिता के साथ हैं। पीएमके फिलहाल जयललिता के साथ है, लेकिन अब तक वह कें्र में सहभागी थी, इसलिए चुनाव में लोगों को रुख उसके खिलाफ भी जा सकता है। लोकसभा चुनाव के बाद जयललिता इस मुद्दे को लेकर डीएमके से समर्थन वापसी और राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस पर दबाव बना सकती है।
उधर, प्रभाकरन को लेकर करुणानिधि के हालिया बयान से वाम दलों में भी खलबली है। उनके इस बयान के बाद तीसरे मोर्चे में दरार की आशंका जताई जा रही है। वाम दलों को डर सता रहा है कि करुणानिधि के बयान से आहत कांग्रेस चुनाव बाद खुद को डीएमके से अलग कर सकती है और जयललिता, जो पहले से ही कांग्रेस के साथ गठबंधन की इच्छा जता चुकी हैं, कांग्रेस का दामन थाम सकती हैं।