मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

सहानुभूति की राजनीति

भारत ही नहीं दुनियाभर के तमिल भावनात्मक रूप से श्रीलंका के तमिलों से जुड़े हैं। इस कारण उनकी सहानुभूति भी लिट्टे से जुड़ी रही। तमिलनाडु में प्रभाकरन के पैरोकारों की कमी नहीं। अब जब प्रभाकरन की सेना का सफाया हो रहा है और यहां देश में आम चुनाव है, तो इस मुद्दे पर तमिलनाडु में जमकर राजनीति हो रही है।
तमिलनाडु में इन दिनों सत्तारूढ़ और कें्र में सहभागी डीएमके की नींद उड़ी हुई है। कांग्रेस, जो कें्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही है और राज्य में डीएमके को समर्थन दे रही है, भी मुश्किल में पड़ सकती है। दरअसल लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सैन्य कार्रवाई ने विपक्षी दलों को एक ऐसा मुद्दा थमा दिया है, जिसका चुनाव में उन्हें लाभ मिलना तय माना जा रहा है। तमिलनाडु का श्रीलंकाई तमिलों से गहरा भावनात्मक संबंध है और यह चुनाव का समय है। इसलिए इस मुद्दे को सभी दल भुनाना चाहते हैं।
भारत सहित तमाम दूसरे देशों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं एजेंसियों की अपील को दरकिनार कर श्रीलंका की सेना जिस तरह लगातार लिट्टे के सफाए के लिए आगे बढ़ रही है, उससे तमिल व्रिोहियों के अलावा एक हजार से ज्यादा मासूम व निर्दोष आम तमिल मारे जा चुके हैं, जबकि लाखों की संख्या में लोग दर-बदर हुए हैं। पलायन को मजबूर लोग बड़ी संख्या में तमिलनाडु का रुख कर रहे हैं। विपक्षी पार्टियां इसे एक बड़ा मुद्दा बनाकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रही हैं। उनका आरोप है कि कें्र सरकार में भागीदार रहते हुए डीएमके उसे श्रीलंका पर युद्धविराम के लिए दबाव बनाने को तैयार करने में नाकाम रही। एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता ने इस मुद्दे पर करुणानिधि को ‘कमजोरज् मुख्यमंत्री करार दिया है, जो कोई भी त्वरित व साहसिक निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। वहीं एमडीएमके प्रमुख वाइको ने तो लिट्टे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई नहीं रुकवा पाने की स्थ्िित में राष्ट्रीय एकता को खतरे तक की बात कह डाली।
इस मुद्दे पर लगातार विपक्ष के हमले ङोल रही डीएमके ने स्वयं को ‘तमिलों का सबसे बड़ा हितैषीज् बताने के लिए गुरुवार को राज्य में बंद का भी आह्वान किया, लेकिन विपक्ष ने इसे ‘नौटंकीज् करार दिया है। वास्तव में तमिलनाडु के राजनीतिक दल इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि भले ही भारत सहित दुनियाभर के 30 देशों ने लिट्टे को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा हो, लेकिन आम तमिलों के बीच आज भी संगठन के सरगना वेल्लु प्रभाकरन को बड़ा दर्जा हासिल है। वे मानते हैं कि वह ‘उनके हितों की लड़ाईज् लड़ रहा है। वैसे जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी जसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो लिट्टे को आतंकवादी संगठन मानते हैं और उनके सफाए के समर्थक हैं।
प्रभाकरन को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का ताजा बयान इसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए। हालांकि इस पार्टी की सहानुभूति पहले से ही लिट्टे से रही है, लेकिन संप्रग ने पिछले साल मई में जब दो साल के लिए लिट्टे पर प्रतिबंध बढ़ाने का फैसला किया तो डीएमके भी उसमें शामिल थी। तब शायद गठबंधन राजनीति की मजबूरी ने उसे फैसले का विरोध नहीं करने दिया। लेकिन अब जब चुनाव सिर पर है, तो प्रभाकरन को ‘दोस्तज् और ‘आतंकवादी नहींज् बताना डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि की राजनीतिक मजबूरी बन गई है।
तमिलनाडु की मौजूदा राजनीति पर गौर करें तो वहां दो गठबंधन चुनावी समर में ताल ठोंकते नजर आ रहे हैं। सत्तारूढ़ डीएमके-कांग्रेस गठबंधन में डीएमके की लिट्टे के प्रति सहानुभूति रही है, तो कांग्रेस उसकी कट्टर विरोधी है। डीएमके पर तमिलनाडु में सत्तारूढ़ रहते हुए कई बार व्रिोहियों को भारत में प्रवेश का सुरक्षित रास्ता देने के लिए भी उंगली उठी। उधर, प्रभाकरन को लेकर कांग्रेस की पीड़ा समझी जा सकती है। जांच एजेंसियों से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में इस संगठन और प्रभाकरन का हाथ साबित हो चुका है। यही वजह है कि करुणानिधि ने जसे ही प्रभाकरन को ‘दोस्तज् बताया, कांग्रेस ने स्वयं को इससे अलग कर लिया और कहा कि लिट्टे को आतंकवादी संगठन मानने की उसकी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रियंका गांधी ने भी साफ कर दिया कि लिट्टे प्रमुख को लेकर उनके मन में न तो कोई सहानुभूति है, न नफरत की भावना; लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत कभी प्रभाकरन को माफ नहीं कर सकता, जिसने उसके पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की।
दूसरी तरफ एआईएडीएमके के नेतृत्व वाला गठबंधन है, जिसमें वाइको की पार्टी एमडीएमके और पीएमके भी शामिल है। एआईएडीएमके लिट्टे की धुर विरोधी है, जबकि वाइको लिट्टे के मुखर समर्थक हैं। लिट्टे के प्रति खुले समर्थन के कारण ही जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते हुए वाइको को पोटा के तहत जेल भेज दिया था, जब वह कें्र में मंत्री थे। आज वही वाइको जयललिता के साथ हैं। पीएमके फिलहाल जयललिता के साथ है, लेकिन अब तक वह कें्र में सहभागी थी, इसलिए चुनाव में लोगों को रुख उसके खिलाफ भी जा सकता है। लोकसभा चुनाव के बाद जयललिता इस मुद्दे को लेकर डीएमके से समर्थन वापसी और राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस पर दबाव बना सकती है।
उधर, प्रभाकरन को लेकर करुणानिधि के हालिया बयान से वाम दलों में भी खलबली है। उनके इस बयान के बाद तीसरे मोर्चे में दरार की आशंका जताई जा रही है। वाम दलों को डर सता रहा है कि करुणानिधि के बयान से आहत कांग्रेस चुनाव बाद खुद को डीएमके से अलग कर सकती है और जयललिता, जो पहले से ही कांग्रेस के साथ गठबंधन की इच्छा जता चुकी हैं, कांग्रेस का दामन थाम सकती हैं।

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