मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

अपना दोस्त राम बरन


राम बरन यादव अभी भारत की यात्रा पर आए हुए थे। उनकी भारत यात्रा राजनयिक तो थी ही साथ ही उन्होंने हरिद्वार में चल रहे कुम्भ मेले में भी एक भक्त की हैसियत से भाग लिया। वे चाहते हैं कि भारत और नेपाल के संबंध मधुर बने रहें। वे हरेक क्षेत्र में भारत के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के क्रम में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा है। यह राम बरन यादव की स्पष्टवादिता का ही प्रमाण है कि राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी वे देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से असंतुष्ट हैं और उसको आमूल-चूल बदलने की बात करते हैं।

राम बरन यादव, नेपाल के राष्ट्रपति। एक ऐसे नेता जो लोकतंत्र की स्थापना के लिए न केवल राजतंत्र से लड़ते रहे, बल्कि माओवादियों से भी लड़े और आज भी उनका विरोध ङोल रहे हैं। नेपाल में करीब ढाई सौ साल पुराने राजतंत्र की विदाई और गणतंत्र की स्थापना के बाद वहां पहली बार जनता का कोई प्रतिनिधि राष्ट्रपति बना और यह मौका मिला राम बरन यादव को। निश्चय ही, इस उपलब्धि में लोकतंत्र की स्थापना के लिए उनकी अंतहीन लड़ाई का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आखिर, लंबे समय से नेपाल में जड़ें जमाए राजतंत्र की विदाई आसान तो न थी।एक लंबी लड़ाई के बाद वर्ष 2008 में नेपाल में 240 पुराने राजतंत्र का अंत हुआ और वहां संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हुई। उसी साल अप्रैल में वहां संविधानसभा के चुनाव हुए, जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) माओवादियों को सबसे अधिक सीटें मिलीं। लेकिन जुलाई में हुए राष्ट्रपति चुनाव में उनका उम्मीदवार हार गया। नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार राम बरन यादव ने सीपीएनएम उम्मीदवार राम राजा प्रसाद सिंह को हराकर जीत हासिल की। इससे पहले उन्होंने अपने गृह जिले धनुषा के ही पांच नंबर कांस्टीच्वेंसी से संविधानसभा का चुनाव जीता था। राष्ट्रपति पद पर जीत के तुरंत बाद उन्होंने कहा था कि यह लोकतंत्र की जीत है और वे आगे भी इसे मजबूत करने के लिए काम करते रहेंगे।चार फरवरी, 1948 को नेपाल के मधेशी क्षेत्र में धनुषा जिले में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में पैदा हुए राम बरन यादव के लिए राष्ट्रपति पद तक का सफर आसान नहीं रहा और न ही यह कामयाबी उन्हें विरासत में मिली। उन्होंने जो कुछ भी पाया अपनी मेहनत व जुझारूपन से पाया। पिता मध्यमवर्गीय परिवार के किसान थे। परिवार आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं था। लेकिन किसान पिता को यह पसंद नहीं था कि बेटा भी खेत-खलिहान में उलझकर रह जाए। इसलिए उन्होंने बेटे को स्कूल भेजा। उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा उनके गृह जिले में ही हुई। लेकिन उच्च शिक्षा के लिए वे काठमांडू रवाना हो गए।बाद में उन्होंने भारत का रुख किया और पश्चिम बंगाल के कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई की। इस दौरान वे विभिन्न लोकतांत्रिक संगठनों से जुड़े रहे। वहां छात्र राजनीति में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी रही। एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद उन्होंने चंडीगढ़ के मेडिकल एजुकेशन और शोध संस्थान से एमडी किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नेपाल लौट गए। वहां उन्होंने करीब चार साल तक प्रैक्टिस भी की। उन्होंने जनकपुर में एक मेडिकल क्लिनिक भी खोला। एक डॉक्टर के रूप में भी वे कामयाब रहे।लेकिन डॉक्टरी का पेशा शायद उनके लिए नहीं बना था। पहले से ही राजनीति में रुचि रखने वाले डॉ. यादव 1980 के दशक में नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला के आखिरी दिनों में उनके निजी चिकित्सक बने, जो उनके राजनीतिक जीवन का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ। बीपी कोइराला की सामाजिक-लोकतांत्रिक विचारधारा ने उन्हें सक्रिय राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। वे नेपाली कांग्रेस से जुड़ गए और पार्टी में विभिन्न पदों पर उन्होंने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई। 1991-1994 के बीच वे गिरिजा प्रसाद कोइराला की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी बने। वैसे नेपाल में लोकतंत्र की लड़ाई से वे तभी जुड़ गए थे, जब दिसंबर, 1960 में तत्कालीन राजा महें्र ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई प्रधानमंत्री बीपी कोइराला की सरकार गिरा दी और सभी शक्तियां अपने अधीन कर ली। पड़ोसी देश भारत के लिए उनके दिल में स्नेह है और इसलिए वे दोनों देशों के संबंध मधुर बनाना चाहते हैं। पिछले सप्ताह भारत की यात्रा के दौरान उन्होंने इसके स्पष्ट संकेत दिए। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी उन्होंने साफ कहा था कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में भारत के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। शायद यही वजह रही कि वर्ष 2008 में राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के बाद अपनी पहली औपचारिक विदेश यात्रा के रूप में उन्होंने भारत को चुना। भारत से उनके लगाव की वजह न केवल उनका ऐसे क्षेत्र से होना है, जहां की संस्कृति और रीति-रिवाज काफी हद तक यहां से मिलते-जुलते हैं, बल्कि उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हो सकती है, जो उन्होंने भारत में ही पाई।नेपाल में राम बरन यादव की छवि एक ऐसे जुझारू नेता की है, जो जनता के लोकतांत्रिक हितों व अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं और देश की एकता व अखंडता के लिए हर झंझावात ङोलने को तैयार हैं। शायद यही वजह है कि नेपाल के मधेश क्षेत्र में मधेशी प्रांत की मांग का वे खुलकर विरोध करते हैं, जबकि वे स्वयं उसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका सपना नेपाल को आर्थिक रूप से संपन्न और शांतिपूर्ण बनाना है, जो फिलहाल विकास की बाट जोह रहा है। साथ ही वे नेपाल के तराई क्षेत्र में सक्रिय कुछ हथियारबंद समूहों को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। उनका साफ मानना है कि देश में जो मौजूदा राजनीतिक संस्कृति है, उसके कारण विकास अवरुद्ध हो गया है। इसमें आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। एकजुटता और प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से ही नेपाल तरक्की कर सकता है।वे स्पष्टवादिता के लिए भी जाने जाते हैं और इस क्रम में अपनी उम्र भी नहीं छिपाते। राष्ट्रपति चुनाव से पहले इस बारे में पूछे जाने पर बड़ी साफगोई से ठहाके के साथ उन्होंने कहा, ‘यूं तो मैं 64 साल पहले पैदा हुआ था, लेकिन जन्म प्रमाण-पत्रों के अनुसार मेरी उम्र चूंकि 61 साल ही है, इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के लिए दाखिल नामांकन-पत्र में भी यही उम्र लिखी गई है।‘