मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

गांधी और मैं


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) अभी-अभी बीती है। हर साल उनकी पुणयतिथि और जन्म तिथि (2 अक्टूबर) पर कुछ कार्यक्रम आयोजित उन्हें श्रद्धांजलि देकर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। कार्यक्रमों में उनके दर्शन की बात की जाती है, उनके बताए रास्तों पर चलने की बात की जाती है, लेकिन वास्तव में उन्हें आत्मसात कोई नहीं करता। उनके दर्शन, उनकी नीतियों पर अमल में कई मुश्किलों व अड़चनों का हवाला देकर उन्हें टाल दिया जाता है। कुछ युवा तो इन दिनों गांधी दर्शन को पुराना व अप्रसांगिक करार देते हुए इसकी आलोचना को फैशन समझने लगे हैं। लेकिन जहां तक मैंने गांधी को पढ़ा और समझा है, उनकी नीतियां व दर्शन मुङो हर तरह से प्रासंगिक लगे।

मेरे लिए गांधी का अर्थ है एक मजबूत इरादों वाला इंसान, जो अपने शुरुआती जीवन में निहायत ही संकोची स्वभाव के थे। तब उनमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जो उन्हें असाधारण बना दे। अपने बचपन में वह भी दूसरे बच्चों की तरह ही थे, जो बुरी संगत में पड़ने पर सिगरेट के कश लेता है और घर में वैष्णव धर्म का अनुपालन होने के बावजूद छिपकर मांस भी खाता है। आम युवाओं की तरह उन्हें भी ‘पत्नी सुखज् प्रिय लगता है और वह भी इतना कि पिता की बीमारी में भी पत्नी से मिलने की इच्छा कम नहीं होती।
लेकिन एक चीज थी, जो गांधी को सबसे अलग करती है और जिसकी बदौलत वे आज हम सबके बीच आम नहीं, खास हैं; साधारण नहीं, असाधारण हैं। वह थी, सही और गलत को पहचानने की उनकी क्षमता। दिल की आवाज सुनने की क्षमता और उसके बताए रास्ते पर तमाम मुश्किलों के बाद भी चलने का दृढ़ निश्चय। मुङो लगता है कि यह क्षमता हम सबमें होती है, लेकिन हम उसका इस्तेमाल नहीं करते, या यूं कहें कि कर नहीं पाते और अक्सर सही-गलत के भंवर में फंसे रहते हैं।
सिगरेट का कश लगाने के बाद उन्हें यह एहसास होता है कि यह अनुचित है और बगैर किसी सलाह-मशविरे या दबाव के वह इसे छोड़ देते हैं। उन्हें यह भी एहसास होता है कि घरवालों को बिना बताए मांस खाकर उन्होंने ‘पापज् किया है। ‘पापज् का यह एहसास इतना तीव्र होता है कि आत्महत्या तक के खयाल आते हैं मन में। लेकिन इसे त्यागकर वे इस ‘पापज् का प्रायश्चित भी करते हैं और पूरी दुनिया को इस तर्क के साथ शाकाहार के लिए प्रेरित करते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य को जीने का हक है, उसी तरह जानवरों को भी जीवन का अधिकार है और मानव को उसकी हत्या का कोई हक नहीं है। साथ ही, वे यह भी कहते हैं कि मनुष्य के शरीर की बनावट कुछ इस तरह है कि वह केवल कंद-मूल खाकर भी स्वस्थ रह सकता है, जसा कि प्राचीन मानव करता था। फिर भोजन के लिए जीव हत्या क्यों?
‘पत्नी सुखज् के प्रति हमेशा आकर्षित रहने वाले गांधी बाद में इसे तृष्णा बताते हुए ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं और उसका अनुपालन भी करते हैं। गांधी जब पढ़ाई के लिए ब्रिटेन जाते हैं, तो आम युवाओं की तरह वे भी स्वयं को वहां अविवाहित दिखाना चाहते हैं। युवतियों का साथ उन्हें भी अच्छा लगता है। लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास होता है कि यह ‘झूठज् है और पत्नी के साथ ‘अन्यायज् भी। सत्य का यह पुजारी उस झूठ को अधिक दिनों तक ढो नहीं पाता।
तो कहां हैं गांधी हम सबसे अलग? क्या वे हम सबके बीच के, हम सबके जसे ही नहीं हैं? हैं, बिल्कुल हैं। लेकिन उनमें सत्य को लेकर जो आग्रह था, वह हम सबमें कहां? गांधी जो थे, वही दिखते थे और दिखना चाहते भी थे। लेकिन आज हम हैं कुछ और, जबकि दिखना चाहते हैं कुछ और। कुल मिलाकर, आज हमारे खाने के दांत हाथी की तरह ही अलग और दिखाने के अलग हैं। हम सबने झूठ व फरेब का आवरण ओढ़ रखा है, जिसे उतार फेंकने की जरूरत है।
मेरे लिए गांधी का अर्थ एक ऐसे दृढ़ निश्चयी इंसान से भी है, जो पत्नी और बच्चों के बुरी तरह बीमार पड़ने पर भी उन्हें मांस व मदिरा देने के डॉक्टरी सलाल को दरकिनार करते हुए उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए देसी तरीके अपनाता है और इसमें जीतता भी है। हालांकि मैं यह नहीं कहती और न ही गांधी जी ने कहा था कि हम सबको भी बीमारी से पार पाने का वही तरीका बिना सोचे-समङो अपनाना चाहिए। पर, इतना तो जरूर है कि उस इंसान ने विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी और अपने निश्चय पर अडिग रहने की सीख दी।
मेरे लिए गांधी का अर्थ ऐसे संवेदनशील इंसान से भी है, जिसने देश-दुनिया का भ्रमण करने के बाद जब यह देखा कि एक बड़ी आबादी के पास पहनने के लिए कपड़े तक नहीं हैं, तो उन्होंने स्वयं भी सिर्फ धोती से तन ढंकने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय ने कई लोगों को आश्चर्य में डाला। ब्रिटिश अधिकारियों ने उन पर फब्तियां भी कसी। उन्हें ‘अधनंगा फकीरज् कहा। लेकिन अपने इस निर्णय से यह अधनंगा फकीर लाखों-करोड़ों दिलों का सम्राट बन बैठा।
मेरे लिए गांधी का अर्थ एक ऐसे इंसन से है, जो उस वक्त मुङो सहारा देता है, जब निराशा हर तरफ से मुङो घेर लेती है, वह चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हो या व्यावसायिक स्तर पर। गांधी का यह जंतर कि जब भी दु:खी होओ, अपने से अधिक दु:खी लोगों के बारे में सोचो, मुङो बहुत सुकून देता है। खुद को कष्ट पहुंचाने वाले को माफ कर देने का उनका प्रयोग भी अद्भुत है। कई बार मैंने महसूस किया कि खुद को आहत करने वाले को कष्ट देने के लिए हम जो भी कोशिश करते हैं, उससे कहीं न कहीं हम स्वयं भी आहत होते हैं। मैंने कई बार यह भी समझा कि बदले की आग में जलना किसी सजा से कम नहीं होता। सामने वाले को तो सजा तब मिलती है, जब हम कुछ ऐसा कर बैठते हैं, जिससे उसे तकलीफ हो; लेकिन बदले की यह आग इतनी देर में हमें बहुत तकलीफ दे जाती है।
इसी तरह, उनके ‘आत्मसंयमज् के सिद्धांत को हम कैसे नकार दें? खासकर, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के इस युग में जबकि हम सबको इसकी बेहद जरूरत है, व्यक्तिगत संबंधों में भी और बाजार-उपभोक्ता के संबंधों में भी। अगर इसका अनुपालन किया गया होता तो आर्थिक संकट एकबार फिर सिर नहीं उठाता। इसी तरह, एक बेहतर इंसान बनने के लिए तो इसकी और भी जरूरत है।
गांधी मुङो हर वक्त संयम न खोने की प्रेरणा देते हैं। किसी के लिए मन में दुर्विचार लाकर अपने और उसके प्रति मानसिक हिंसा नहीं करने की सीख देते हैं और हर बुरे वक्त में मेरा संबल व सहारा बनते हैं। हालांकि उनकी कई बातें विरोधाभासी हैं और सबका अनुपालन या अनुसरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज परिस्थितियां और हालात काफी हद तक बदल गए हैं, लेकिन आज भी मुङो देश-दुनिया की अधिकांश समस्याओं का समाधान गांधी दर्शन में नजर आता है, यहां तक कि नक्सलवाद और आतंकवाद का भी, क्योंकि हिंसा की जवाबी कार्रवाई और फिर उसकी प्रतिक्रिया में की गई हिंसा का कोई अंत नहीं हो सकता।