सोमवार, 28 जून 2010

विनाश की कीमत पर कैसा विकास!

वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित

पांच जून का महत्व इस कारण है कि यह हमें यह सोच विचार का अवसर देता है कि मौजूदा समय में हम जलवायु परिवर्तन, बढ़ते तापमान आदि का जो संकट झेल रहे हैं, उसके कर्ताधर्ता हम खुद हैं। यह दिन संकल्प करने का दिन भी है कि हम पर्यावरण को और न बिगाड़ें, साथ ही बिगड़ने से रोकें। जरुरत गहरे सोच विचार की है। हमारे संकट का एक बड़ा कारण विकास का हमारा मॉडल है। पर्यावरण की कीमत पर विकास की अंधी दौड़ पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है।


हर साल पांच जून को मनाया जाता है पर्यावरण दिवस। लोगों में जागरू कता पैदा करने के लिए या उन्हें यह याद दिलाने के लिए कि दुनिया भर में पर्यावरण को हमारी ही गतिविधियों से नुकसान हो रहा है और जिसका खामियाजा अंतत: हमें ही भुगतना है। इस दिन लोग संकल्प भी लेते हैं कि आगे पर्यावरण के प्रति सचेत रहेंगे और उसे नुकसान से बचाएंगे। लेकिन यह भी सच है कि कभी- कभी यह सिर्फ खानापूर्ति बनकर रह जाता है। पर्यावरण दिवस को लेकर लोगों में चेतना 1972 में जगी, जब पांच जून को पर्यावरण समस्याओं पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सम्मेलन बुलाया। पर्यावरण को हो रहे नुकसान की समस्या तब पहली बार औपचारिक रूप से दुनिया के सामने आई थी। 1992 में सैनफ्रांसिस्को में इसे लेकर एक अन्य सम्मेलन हुआ, जिसमें कहा गया कि 189०-199० के बीच सौ साल में पर्यावरण को जो नुकसान हुआ, वह काफी चिंताजनक है। इससे पहले 198० के दशक में हुए एक अन्य सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने दुनिया की जलवायु में हो रहे अपरिवर्तनीय बदलाव को लेकर चेतावनी दी थी और कहा था कि यह खतरनाक स्तर तक पहुंचता जा रहा है।
 
दरअसल, पर्यावरण प्रदूषण या जलवायु परिवर्तन कोई नई चीज नहीं है। दुनिया में अब तक जितनी भी सभ्यताएं बनी हैं या ध्वस्त हुई हैं, सभी जलवायु परिवर्तन की वजह से ही बनी या बिगड़ीं। लेकिन इस बार नई बात है इसकी रफ्तार। फिलहाल जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उतनी तेजी से पहले कभी नहीं हुआ। इसके लिए जिम्मेदार है वह आधुनिक तकनीक, जिससे औद्योगीकरण का दुनियाभर में तेजी से विकास हुआ। हालांकि प्रारंभिक तौर पर इसकी जिम्मेदारी पश्चिमी देशों पर है, क्योंकि औद्योगीकरण की शुरुआत वहीं हुई, लेकिन बाद में विकासशील देश भी इससे जुड़ गए, जिससे खतरा बढ़ता चला गया। आगे चलकर विकसित और विकासशील देशों में समस्या पर चर्चा हुई, जिसमें समाधान के लिए सामूहिक प्रयास की वकालत की गई। लेकिन यह चर्चा बाद में राजनीतिक हो गई। विकसित देश अपने औद्योगिक विकास की रफ्तार कम करने या उसमें किसी भी तरह के संशोधन के पक्ष में नहीं थ्ो, जबकि विकासशील देशों का कहना था कि उन्होंने औद्योगिक विकास की प्रक्रिया अभी-अभी शुरू की है, इसलिए वे समाधान के लिए किसी तरह का कानूनी प्रतिबंध नहीं चाहते।
 
दुनिया भर में औद्योगीकरण से पर्यावरण को जो नुकसान हुआ, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में 3० प्रतिशत उभयचर प्राणियों, 23 प्रतिशत स्तनपायी और 12 प्रतिशत चिड़ियों का अस्तित्व खतरे में है। यह अंधाधुंध बढ़ते औद्योगीकरण का ही नतीजा है कि हर साल 45 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल समा’ हो रहे हैं। दुनिया की 6० प्रतिशत प्रमुख नदियों पर बांध बना दिए गए हैं, जिससे मछलियां 5० प्रतिशत तक कम हो गई हैं। बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से दुनियाभर में पक्षियों की 122 प्रजाति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है, जिसमें से 28 हिन्दुस्तान में हैं। औद्योगीकरण का एक अन्य नुकसान कार्बन गैसों के उत्सर्जन के रूप में सामने आया। विकास की दौड़ में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों, गाड़ियों, एसी जैसी चीजों को तो हमने खूब प्राथमिकता दी, लेकिन इनसे निकलने वाले कार्बन गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर हमारा ध्यान नहीं गया। आज चीन दुनिया में सबसे अधिक कार्बन गैसों का उत्सर्जन करता है। वहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 21 टन है, जो दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का दस प्रतिशत है। उसके बाद अमेरिका, यूरोपियन यूनियन के देशों और रूस का स्थान आता है। भारत का स्थान इस मामले में पांचवां है और यहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 1.2 टन है, जो दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का केवल तीन प्रतिशत है। यही वजह है कि भारत अपने विकास कार्यक्रमों पर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं चाहता। वहीं, विकसित देशों के समूह दुनिया भर में होने वाले कार्बन गैसों के उत्सर्जन का 8० प्रतिशत उत्सर्जित करते हैं, जिसमें 45 प्रतिशत सिर्फ औद्योगीकरण से है। पर्यावरण सुरक्षा को दरकिनार कर विकसित देशों और फिर विकासशील देशों ने विकास का जो मॉडल तैयार किया है यह उसी का नतीजा है कि जगह-जगह बर्फ की चोटियां पिघल रही हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। इससे खासकर, नदियों के किनारे रहने वाले शहर अधिक प्रभावित होंगे। अकेले हिन्दुस्तान में 75०० किलोमीटर समुद्री तटीय क्षेत्र हैं, जहां तीन हजार 85 खरब डॉलर की संपत्ति है। यह खतरे में पड़ सकती है। वहां के लोगों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था भी करनी होगी।
 
ऐसा नहीं है कि सरकार की पर्यावरण सुरक्षा को ल्ोकर कोई नीति नहीं है, बल्कि इसे लेकर प्रधानमंत्री ने एक परिषद भी बनार्इ है, जिसके 21 सदस्य हैं। लेकिन भारत जैसे संघीय देश में नीतियों का क्रियान्वयन एक बड़ी समस्या है, जहां राज्यों को भी काफी अधिकार दिए गए हैं। फिर, हमारी राजनीतिक मानसिकता भी अभी गरीबी, साम्प्रदायिक हिंसा, शिक्षा, स्वास्थ्य, जात-पात से ऊपर नहीं उठ पाई है। यहां तक कि युवा नेतृत्व भी इन सबसे ऊपर नहीं उठ पाया है। नवीन जिंदल जैसे युवा सांसद का खाप की वकालत करना इसी का परिचायक है। यानी जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक फलक को विस्तृत करने की जरूरत है। जहां तक पर्यावरण को लेकर जनमानस का सवाल है, तो भारतीय जनमानस पर्यावरण से विमुख नहीं है, बल्कि वह तो प्रकृति को खुद से अलग मानता ही नहीं। पेड़-पौधों की पूजा का प्रचलन इसी मानसिकता का परिचायक है। लेकिन पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता, बल्कि वहां प्रकृति को नियंत्रित करने की कोशिश होती है। हां, हमारे देश में भी जनता कई बार औद्योगीकरण से होने वाले तात्कालिक फायदे के प्रभाव में आ जाती है, क्योंकि उन्हें इससे होने वाले नुकसान की जानकारी नहीं होती। इसलिए उन्हें यह बताने और इसे लेकर उनमें चेतना जगाने की जरूरत है। इसमें मीडिया की अहम भूमिका हो सकती है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम विकास तो करें, पर पर्यावरण की कीमत पर नहीं।

1 टिप्पणियाँ:

NARESH GAUTAM ने कहा…

aap ne industrialization ke bare me jo bhi likha hai bahut hi accha lika age bhi app se ummid krta rahuga