सोमवार, 18 जनवरी 2010

एक गुरूजी, सब चेला

शिबू सोरेन की क्या-क्या फजीहत नहीं हुई, पर उनकी राजनीति लुहार की एक चोट की तरह सब पर भारी पड़ी। झारखंड चुनाव में उनके जनाधार वाले नेता की छवि फिर सामने आई। वहीं, उनकी हुनर व फायदेमंद राजनीति को भी उजागर किया। यूपीए से एनडीए के संग जाते उन्हें देर नहीं लगी और वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए।


शिबू सोरेन, झारखंड के नए मुख्यमंत्री। समर्थकों के बीच गुरूजी के नाम से मशहूर सोरेन राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। राज्य गठन के नौ वर्षो में वहां सात बार सरकार बनी, जिसमें सोरेन ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ व दांव-पेंच का इस्तेमाल करते हुए तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। हालांकि पिछली दो बार का उनका कार्यकाल काफी छोटा रहा। पहला 2005 में सिर्फ नौ दिन का, जब विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उनकी सरकार गिर गई और दूसरा अगस्त 2008 से जनवरी 2009 के बीच करीब चार माह का, जब तमार विधानसभा सीट से उपचुनाव हार जाने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
हजारीबाग जिले के नेरमा गांव में ग्यारह जनवरी 1944 को जन्मे सोरेन की छवि जूझारू व विवादास्पद नेता की रही है। जमींदारों और ‘बाहरियोंज् के खिलाफ आंदोलन छेड़कर आदिवासियों के बीच वे हीरो बन बैठे, तो 1991 में कें्र की नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए वोटोंे की खरीद-फरोख्त मामले में उनकी मिलीभगत ने उन्हें एक अवसरवादी नेता के रूप में पेश किया। चिरुडीह नरसंहार और अपने निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या के मामले में अदालती फैसले ने उनके आपराधिक चेहरे को भी उजागर किया।
सोरेन ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1970 के दशक के शुरुआती दिनों में एक जूझारू आदिवासी नेता के रूप में की, जिसने साहूकारों द्वारा भोले-भाले व मासूम आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। आंदोलन की आग उनके भीतर तब जगी, जब साहूकारों के लोगों ने कथित रूप से उनके पिता की हत्या कर दी। इस घटना ने उन्हें साहूकारों के खिलाफ खड़ा कर दिया। पिता की कथित हत्या के बाद सोरेन ने पढ़ाई छोड़ दी। तब उनकी उम्र केवल 18 साल थी। उन्होंने संथाल नवयुवक संघ का गठन किया और साहूकारों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। वे लोग उनसे खौफ खाने लगे, जो जरूरतमंद आदिवासियों को ऊंची दरों पर ण दिया करते थे और जबरन उसकी वसूली भी करते थे। इस बीच गैर-आदिवासियों को उन्होंने ‘बाहरियोंज् के रूप में परिभाषित किया और उनके खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा।
जगह-जगह ‘बाहरियोंज् को निशाना बनाया गया। 23 जनवरी, 1975 को जामतारा जिले के चिरुडीह गांव में कुछ हथियारबंद आदिवासियों ने एक बस्ती पर हमला कर दिया, जिसमें 11 लोग मारे गए। आदिवासियों ने जहरीले तीर-कमान से हमला किया, जो बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा का चुनाव चिह्न् बना। इस मामले में 68 लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया, जिसमें सोरेन का नाम भी शामिल था। कहा गया कि वे भी हलावरों की भीड़ का हिस्सा थे। लेकिन जामताड़ा की अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। बस फिर क्या था? आदिवासियों के बीच वे भगवान बन बैठे।
साहूकारों के खिलाफ लंबी लड़ाई के बाद उन्होंने राजनीति की ओर रुख किया। 1977 में वे पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। हालांकि 1980 में उन्होंने लोकसभा चुनाव जीत लिया। इसके बाद 1989, 1991 और 1996 में वे लगातार लोकसभा चुनाव जीतते रहे। जीत का यह सिलसिला 1998 और 1999 के आम चुनाव में जारी नहीं रह सका। साल 2002 में भाजपा के सहयोग से वे राज्यसभा के लिए चुने गए। बाद में उसी साल दुमका लोकसभा सीट से उन्होंने उपचुनाव जीता। 2004 के आम चुनाव में भी वे जीते और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी कें्र की संयुक्त प्रगतिशील सरकार में कोयला मंत्री बने। लेकिन चिरुडीह नरसंहार मामले में वारंट जारी होने के बाद 24 जुलाई 2004 को उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। करीब एक माह की न्यायिक हिरासत के बाद वे जमानत पाने में कामयाब रहे, जिसके बाद उसी साल 27 नवंबर को उन्हें फिर कें्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। लेकिन फरवरी-मार्च 2005 में झारखंड विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने प्रदेश का रुख किया और मुख्यमंत्री बने। हालांकि विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उनकी सरकार गिर गई। वर्ष 2006 में उन्हें फिर कें्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया।
इस बीच 5 दिसंबर 2006 को दिल्ली की एक अदालत ने अपने निजी सचिव की हत्या के 12 साल पुराने मामले में उन्हें दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी मंत्री के खिलाफ ऐसी सजा सुनाई गई। सीबीआई पर भी कें्र के प्रभाव से मामले को कमजोर करने का आरोप लगा। अदालत ने साफ कहा कि अभियोजन पक्ष जानबूझकर कमजोर सबूत पेश कर रहा है। अदालत के इस फैसले के बाद उन्हें फिर कें्रीय मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया। लेकिन 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को बदल दिया। सोरेन मामले से बरी हो गए। बदली परिस्थितियों में 27 अगस्त 2008 को वे दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। इस बार बहुमत उनके साथ था। लेकिन अपने पद पर बने रहने के लिए छह माह के भीतर उन्हें विधानसभा की सदस्यता लेनी थी, जिसमें वे नाकाम रहे।
इस बार चुनाव में उनकी पार्टी फिर जीती। नतीजे का अंकगणित उनके साथ था। उनके बिना किसी की सरकार नहीं बन सकती थी। यूपीए के घटक रहे गुरूजी को सरकार बनाने के लिए एनडीए का सहयोग लेने में कोई हर्ज नहीं दिखा। इसने साबित किया कि न सिर्फ जनता में उनकी पैठ है, बल्कि वे राजनीति के ऐसे चतुर सुजान हैं, जो जानते हैं कि कब किस करवट होना फायदेमंद होगा।