सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

बड़े हमले की तैयारी में सरकार

नक्सलवाद को समझने के लिए इसके इतिहास को समझना जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि आखिर किन कारणों से यह शुरू हुआ और निरंतर फैलता ही जा रहा है। जब तक यह नहीं समझा जाएगा, इसे खत्म करना मुश्किल है। सरकार भले ही हवाई हमले तक की योजना बना ले, लेकिन इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता।
हमारे देश में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई थी। आर्थिक विषमता, दमन व व्यवस्था के खिलाफ असंतोष ने लोगों को हथियार उठाने के लिए मजबूर किया। तब यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना और इसने पश्चिम बंगाल व आंध्र प्रदेश को बुरी तरह प्रभावित किया। लोगों को पहली बार सामाज में गहराई से व्याप्त विषमता की सच्चाई मालूम हुई। चारु मजूमदार, कानू संन्याल के नेतृत्व में शुरू हुए नक्सलबाड़ी के इस आंदोलन ने देश के सामाजिक ताने-बाने को गहरे रूप में प्रभावित किया।
आखिर सरकार ने भी माना कि दूर-दराज के पिछड़े व जनजातीय इलाकों में विकास की जरूरत है। इसलिए बार-बार उन क्षेत्रों में भूमि सुधार सहित अन्य विकासपरक चीजें लागू करने की बात कही गई। लेकिन वास्तव में कभी इन्हें ठोस रूप नहीं दिया गया। फिर बाद की सरकारों ने इसे एक सामाजिक समस्या तो माना, लेकिन यह भी कहा कि इसके हिंसक स्वरूप से निटने के लिए दमन जरूरी है। पर वास्तव में इनका जोर दमन पर अधिक होता है।
मुङो लगता है कि जिन कारणों से 1967 में यह आंदोलन नक्सलबाड़ी में शुरू हुआ था, आज वे अधिक तीव्रता से मौजूद हैं। ऐसे में नक्सली समस्या का बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि आज सरकार इसे जिस गंभीरता व व्यापकता के साथ प्रचारित-प्रसारित कर रही है, वास्तव में यह वैसा नहीं है। दरअसल, सारा खेल कॉरपोरेट घरानों को सुविधाएं और उन्हें यहां की संपदा लूटने का हक देने का है। उनके हितों को सुरक्षित रखने के लिए सरकार इस समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है, ताकि दमन का रास्ता साफ हो सके और कोई उसकी कार्रवाई पर उंगली न उठा सके।
दरअसल, 1990 में जो आर्थिक नीति शुरू की गई, उसके अनुसार सरकार का काम वास्तव में कॉरपोरेट घरानों को सुविधाएं मुहैया करानाभर रह गया है। इस नीति के तहत सरकार की तकरीबन साढ़े पांच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने की योजना है। इसके लिए जगह-जगह किसानों से जबरन या औने-पौने दाम में जमीन ली जा रही है। जाहिर तौर पर किसान, जिनकी रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया भूमि व खेती ही है, इसका विरोध कर रहे हैं। अभी सरकार ने इसकी शुरुआतभर की है, लेकिन हर जगह उसे तीव्र विरोध ङोलना पड़ा। उसे मालूम है कि जसे-जसे इस दिशा में वह आगे बढ़ेगी, विरोध तीव्र होता जाएगा। इसलिए पहले से ही उसने नक्सल समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना शुरू कर दिया है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, तो गृह मंत्री पी चिदंबरम कहते हैं कि नक्सल समस्या 20 राज्यों में फैल चुकी है। इसलिए इससे निपटने के लिए ठोस उपाय करने होंगे। यहां तक कि हवाई हमले से भी परहेज नहीं। मैं समझता हूं कि नक्सलियों से निपटने के लिए हवाई हमले की बात कहकर सरकार ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने का हक खो दिया है। आखिर नक्सली कोई आतंकवादी नहीं, वे इसी देश का हिस्सा हैं, जो व्यवस्था से खिन्न हैं, अपने साथ हो रहे अन्याय से नाराज हैं। लेकिन इन सबमें दु:खद पहलू यह है कि आज मीडिया और समाज का बुद्धिजीवी तबका भी सरकार की सुर में सुर मिला रहा है, जबकि आपातकाल की बात हो या कोई अन्य आंदोलन, यह वर्ग हमेशा आंदोलनकारियों का साथ देता रहा है।
नक्सल समस्या की व्यापकता को लेकर खुद सरकारी आंकड़े उसकी पोल खोलते हैं। जरा पीछे जाएं, तो 1998 में तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नक्सल समस्या से निपटने पर विचार-विमर्श के लिए हैदराबाद में चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की बैठक बुलाई थी। इसके बाद 2005 और 2006 में तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने नक्सल प्रभावित राज्यों की बैठक बुलाई तो यह संख्या बढ़कर क्रमश: 13-14 हो गई। अब मौजूदा गृह मंत्री नक्सल प्रभावित राज्यों की संख्या 20 बता रहे हैं। यदि ये आंकड़े सच हैं तो वे करोड़ों रुपए कहां गए, जो सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए खर्च किए।
सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि 20 राज्य नक्सल प्रभावित हैं, तो कितने राज्यों में वह सही तरीके से शासन कर रही है? उत्तर-पूर्व के सात राज्य पहले से ही अशांत हैं। यहां सरकार आर्म फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट के तहत शासन कर रही है। खासतौर से मणिपुर में इसके खिलाफ जबरदस्त जनाक्रोश है। इसी तरह जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से ही अशांत है। इस तरह गृह मंत्री के अनुसार जो 20 राज्य नक्सल प्रभावित हैं, उनमें उत्तर-पूर्व के सात राज्य और जम्मू कश्मीर को भी जोड़ दिया जाए, तो संख्या 28 राज्यों की हो जाती है। तो क्या यह माना जाए कि देश के सभी 28 राज्यों में जनता सरकार से नाखुश है, नाराज है। यदि ऐसा है, तो आखिर किस हक से सरकार शासन कर रही है? साफ है कि सरकार ने शासन का नैतिक अधिकार खो दिया है।
सरकार जो आंकड़े पेश कर रही है, यदि वैसा है, तो यह वास्तव में चिंताजनक है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? इसका सीधा जवाब है, नहीं। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि जिन क्षेत्रों को नक्सल प्रभावित बताया जा रहा है, वे खनिज संपदा से भरपूर हैं। लेकिन वहां के आम लोगों को उसका कोई फायदा आज तक नहीं मिला, बल्कि वहां के प्राकृतिक संसाधनों का सरकार ने अब तक अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया। आगे भी वह यही करने जा रही है। ऐसे में स्थानीय लोगों के मन में असंतोष पनपना स्वाभाविक है, जो एक हद के बाद यह हिंसक हो जाता है।
वास्तव में सरकार जानती है कि जब बाजारी शक्तियां महानगरों से शहरों, कस्बों और गांवों की ओर रुख करेगी, तो आम आदमी की तबाही में इजाफा होगा। स्थानीय शिल्पियों, कुटी उद्योगों, खुदरा व्यापारियों के व्यवसाय पर इसका सीधा असर होगा और इससे जो असंतोष व तनाव पैदा होगा, उससे निपटने के लिए सरकार को पुलिस व सेना की मदद लेनी होगी। ऐसे में सरकार यह तो नहीं कहेगी कि वह उद्योगपतियों को सुविधाएं मुहैया कराने या उनकी मदद के लिए जा रही है। वह तो यही कहेगी कि हम नक्सलियों से निपटने जा रहे हैं। इसलिए अभी से वह नक्सल समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है।
जहां तक माओवादियों द्वारा अपनी मांगें रखने के लिए हथियार उठाने का सवाल है तो विरोध का हर शांतिपूर्ण तरीका विफल हो जाने के बाद ही उन्होंने हथियार उठाया है। वरना जिन लोगों ने हथियार उठाए हैं, वे आदिवासी है, जो अमूमन हथियार उठाने का स्वभाव नहीं रखते। दरअसल, जब दमन होता है, तो प्रतिरोध भी होता है। उस प्रतिरोध को दबाने के लिए सरकार फिर दमन का रास्ता अपनाती है, जिसके बाद प्रतिरोध और उग्र हो जाता है। इस तरह यह एक दुश्चक्र है, जिसमें सरकार खुद ही माओवादी पैदा करती है। इस तरह सरकार अपनी ही नीतियों से देश को गृह युद्ध की तरफ ले जा रही है।
सरकार का यह दावा भी गलत है कि स्थानीय लोगों से नक्सल आंदोलनकारियों को मदद नहीं मिल रही। सच्चाई तो यह है कि स्थानीय मदद के बगैर कोई भी आंदोलन इस हद तक सफल नहीं हो सकता। सरकार ने इस आंदोलन को खत्म करने के लिए ‘मछली को पानी से निकाल देनेज् का अमेरिकी फॉर्मूला अपनाया है और उसी के तहत ऐसा कह रही है। वह इस बात को प्रचारित कर रही है कि आम लोगों की मदद इन्हें नहीं मिल रही और तभी छत्तीसगढ़ में लोगों ने इनके खिलाफ हथियार उठा लिया। सरकार सलवा जुडूम का हवाला देती है, लेकिन यह स्थानीय जनता को आपस में लड़ाने का सरकारी फॉर्मूला है और कुछ नहीं। सलवा जुडूम पूरी तरह विफल हो चुका है।
जहां तक नक्सलियों के इस आंदोलन में आम लोगों के प्रभावित होने का सवाल है, तो इसे पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि किसी भी आंदोलन में कुछ हद तक आम लोग तो प्रभावित होते ही हैं। पर आंदोलनकारियों का यह मकसद नहीं होता। रांची में एक इंस्पेक्टर की जिस तरीके से हत्या की गई, उसे कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन इसे लेकर माओवादियों का कोई स्टैंड फिलहाल सामने नहीं आया है, इसलिए इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
हां, यह सच है कि चुनाव प्रक्रिया में माओवादियों की कोई आस्था नहीं है। लेकिन यह कोई बुरी चीज नहीं है। नेपाल में माओवादियों ने लंबे समय तक सशस्त्र संघर्ष के बाद चुनाव प्रक्रिया में शिरकत की और उसमें भी विजयी रहे। साफ है कि चुनाव में जीतकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सरकारों के इस दावे को गलत साबित किया कि उन्हें आम लोगों का समर्थन नहीं है। भारत में भी यह चीज हो सकती है। यहां के नक्सलवादी भी चुनाव प्रक्रिया में शामिल हो सकते हैं। लेकिन कब और कैसे इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
जहां तक समस्या के समाधान की बात है, तो इसका एकमात्र तरीका माओवादियों से बातचीत है। उनसे बातचीत कर, उनकी समस्याओं को जानकर और उसका समाधान कर ही इससे निजात पाई जा सकती है। जब तक सरकार माओवादी आंदोलन, जो वास्तव में जवाबी हिंसा है और आतंवाद में फर्क नहीं करेगी, इस समस्या का समाधान मुश्किल है।

आनंदस्वरूप वर्मा से बातचीत पर आधारित

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