मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

सत्याग्रही शर्मिला

इरोम शर्मिला को अनशन करते अब दसवां साल लग गया है। अनशन तुड़ाने के तमाम सरकारी दांवपेंच और उनकी मांग को लेकर घोर असंवेदनशीलता से शर्मिला का हौसला पस्त नहीं हुआ, बल्कि इरादा और पुख्ता हो गया। वे मणिपुर की जनता को आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट से मुक्ति दिलाना चाहती हैं। मणिपुर इरोम के साथ है और सरकार की दुविधा भी यही है। मणिपुर ही नहीं, इरोम शर्मिला पूरे देश में नैतिकता, साहस और प्रतिरोध की प्रतीक बन चुकी हैं।

इरोम शर्मिला का नाम लेते ही उभरती है एक ऐसी छवि, जिसने अपने शांतिपूर्ण विरोध से पिछले नौ साल से कें्र और मणिपुर सरकार की नाक में दम कर रखा है। एक ऐसी महिला, जो अपने साहस और जीवट से लाखों लोगों उम्मीद बन गई है; जिसने लोगों के दिलों में यह एहसास जगाया कि आज नहीं तो कल उनकी बात सुनी जाएगी और मणिपुर के लोगों को आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट से छुटकारा मिलेगा। एक ऐसा कानून, जो ‘शांति विघ्नज् की स्थिति में देश के किसी भी हिस्से में थोपा जा सकता है, जिसकी आड़ में अक्सर सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है और जिसकी वजह से मणिपुर के लोग खुली हवा में सांस तक नहीं ले पा रहे। अपने स्वतंत्र देश में उन्हें उसी सेना के डर और आतंक के साए में जीना पड़ रहा है, जो उनकी ‘सुरक्षाज् के लिए है। शर्मिला इसी कानून को हटाने की मांग कर रही हैं, जिसके लिए वे पिछले नौ साल से आमरण अनशन पर बैठी हैं। दो नवंबर को उनका अनशन दसवें साल में प्रवेश कर गया।
इस कानून को लेकर मणिपुर की जनता में आक्रोश बहुत पहले से है, जिसे और बुलंद किया ईरोम शर्मिला ने। उन्होंने मणिपुर की जनता के लिए स्वयं को होम कर दिया। इस बात की परवाह नहीं की कि आमरण अनशन की उनकी जिद उन्हें मौत के द्वार तक ले जा सकती है। उनकी उम्र केवल 35 साल है, लेकिन वे इससे कहीं अधिक दिखती हैं। लेकिन इन सबकी परवाह उन्हें कहां? वे तो अपना जीवन जनता के लिए समर्पित कर चुकी हैं। स्वयं शर्मिला के शब्दों में कहें तो, ‘हम सबके जीवन का एक मकसद है, हम इस दुनिया में कुछ करने आए हैं। जहां तक शरीर की बात है तो एक न एक दिन इसे खत्म होना है। लेकिन जरूरी यह है कि हम जो करने यहां आए हैं, उसे पूरा करें।ज् आखिर कौन न शर्मिला की इस बेबाकी का मुरीद हो जाए? और मणिपुर की जनता, जिसके लिए उन्होंने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी, क्यों न उन्हें अपने तारणहार के रूप में देखे?
मणिपुर की जनता के लिए उनके इसी प्रेम ने उन्हें लोगों के बीच कुछ इस तरह लोकप्रिय बना दिया कि लोग अपने हर कदम के लिए उनके इशारे की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उनके इस साहसपूर्ण कदम ने उन्हें मणिपुर के साथ-साथ देशभर में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई। देशभर के बुद्धिजीवी व मानवाधिकार कार्यकर्ता उन्हें खुलकर अपना वैचारिक समर्थन दे रहे हैं, तो जनता में उनके लिए गजब की सहानुभूति है। ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्ता व नोबेल पुरस्कार से सम्मानित शिरीन ईबादी भी उनसे मिलकर उन्हें अपना समर्थन घोषित कर चुकी हैं। सरकार भी जानती है कि अगर उन्हें कुछ हो गया, तो मणिपुर की जनता में जो उबाल आएगा, उसे दबाना उसके बूते में नहीं होगा। अगर वह इसमें काययाब हो भी जाए तो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी जो थू-थू होगी, उससे वह कैसे उबरेगी? आखिर किस-किसको और क्या जवाब देगी सरकार? शायद इसलिए पूरा सरकारी अमला शर्मिला को जिंदा रखने में जुटा है। वे भोजन नहीं कर रहीं, तो प्रशासन ने इसकी भी तैयारी कर ली है। उन्हें पाइप के जरिये नाक से विटमिन व खनिज से भरा पेय पदार्थ दिया जा रहा है, ताकि जिंदा रखा जा सके।
नाक में पाइप लगा है, पूरा अमला अनशन तोड़ने के लिए हर तरह से जोर आजमाइश कर चुका है, लेकिन शर्मिला को मणिपुर से ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्टज् हटाने से कम कुछ भी मंजूर नहीं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आश्वासन देते हैं कि इस कानून में फेरबदल कर सेना के उन अधिकारों को सीमित किया जाएगा, जिससे जनता को परेशानी हो रही है; लेकिन शर्मिला टस से मस नहीं। शर्मिला के आमरण अनशन से डरी सरकार राज्य के कुछ हिस्सों से यह कानून हटा देती है। लेकिन वे तो पूरे राज्य से हटवाना चाहती हैं और वह भी पूरी तरह।
उत्तर-पूर्व की इस शेरनी का जीवट, शांतिपूर्ण विरोध का यह तरीका बरबस ही महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की याद दिला देता है, जिससे उन्होंने अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी थी। नौ साल पहले दो नवंबर, 2000 को शर्मिला ने अपनी मांगों को लेकर उपवास शुरू किया था, जब असम राइफल्स के जवानों ने मालोम में हमला कर दस युवकों को उप्रवी होने के केवल संदेह के आधार पर मार गिराया था। सेना की इस कार्रवाई का आधार भी ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्टज् ही था, जिसके तहत सेना या अर्धसैनिक बल के किसी भी जवान को केवल संदेह के आधार पर नागरिकों को गिरफ्तार करने, बिना वारंट उनके घरों की तलाशी लेने और यहां तक उन्हें गोली मारने और जान से मार डालने का भी अधिकार दिया गया है। सेना की इसी कार्रवाई ने शर्मिला को उद्वेलित किया और वह इस कानून को हटाने के लिए आमरण अनशन पर बैठ गईं। हालांकि तीन दिन बाद ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके खिलाफ आत्महत्या के प्रयास का मामला दर्ज किया गया। बाद में उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। दो अक्टूबर, 2006 को महात्मा गांधी के जन्मदिन पर मणिपुर सरकार ने उन्हें मुक्त कर दिया, लेकिन इस चेतावनी के साथ कि वे दोबारा अनशन पर नहीं बैठेंगी। लेकिन वे तुरंत दिल्ली के लिए कूच कर गईं। वहां वे महात्मा गांधी के समाधिस्थल राजघाट गईं और जंतर-मंतर पर एकबार फिर अनशन शुरू कर दिया। वे एकबार फिर गिरफ्तार कर ली गईं। उन्हें पुलिस की नजरबंदी में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लेकिन शर्मिला की हिम्मत नहीं खोई। उनकी जंग आज भी जारी है और इसमें न केवल मणिुपर की जनता, बल्कि उनका परिवार भी उनके साथ है। मां ने पिछले कई साल से सिर्फ इसलिए बेटी से मुलाकात नहीं कि वह उन्हें देखकर रो देंगी और बेटी उनके आंसुओं से पिघल जाएगी।

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