सोमवार, 24 मई 2010

सिर्फ उपचार, नहीं निदान

प्रसिद्ध पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता देवदत्त से बातचीत पर आधारित


इस सारकार ने अपने पहले साल में यथास्थिति को बनाए रखने का ही काम किया है। न कोई नई नीति सामने आई और न ही कोई नया कदम उठता दिखा। महिला आरक्षण विधेयक, शिक्षा का अधिकार जसे काम महत्वपूर्ण जरूर हैं, पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जसे काम अच्छा होते हुए भी राहत भर हैं, समस्या का समाधान नहीं। हमारी अमेरिका परस्ती बढ़ी है। नौकरशाही का वर्चस्व बढ़ा है और भ्रष्टाचार का तंत्र और मजबूत हुआ है।



सबसे पहले तो मीडिया में सरकारों के साल भर के कार्य का जो लेखा-जोखा होता है, वह रस्म अदायगी भर है। इसका कोई विशेष फायदा नहीं है और न ही यह कोई खास मायने रखता है। हां, इससे सरकार के कार्य के प्रति एक जनमत जरूर तैयार होता है, जिससे सरकार पर अपनी नीतियों को अमल में लाने और जनता से किए गए वादे को पूरा करने का दबाव बनता है। फिर, एक साल में किसी भी सरकार के कार्य का लेखा-जोखा देखकर उसकी सफलता या असफलता का अंदाज लगाना मुश्किल है। भारतीय लोकतंत्र में सरकारों का कार्यकाल पांच साल इसलिए निर्धारित किया गया है, क्योंकि उन्हें अपनी नीतियों के क्रियान्वयन में इतना वक्त तो लग ही जाता है। इसलिए मुङो लगता है, मीडिया को इस रस्म अदायगी पर दोबारा विचार करना चाहिए।

बहरहाल, यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल को शुरू हुए एक साल हो गया है और जिन आधारों पर इसके कार्यो का मूल्यांकन किया जा सकता है, उन्हें राष्ट्रीय एवं सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के रूप में विभाजित किया जा सकता है। महंगाई, नक्सलवाद और जाति आधारित जनगणना को राष्ट्रीय मुद्दों की श्रेणी में रखा जा सकता है, तो शिक्षा, खाद्य सुरक्षा, महिला आरक्षण जसे मुद्दों को सामाजिक श्रेणी में रखा जा सकता है। इन सभी मुद्दों पर यूपीए-2 सरकार का पिछले एक साल का कार्यकाल प्रथम दृष्टया पिछली स्थिति बनाए रखने जसा है। यानी इस एक साल में सरकार ने कोई नया कदम नहीं उठाया है और न ही कोई नई नीति तैयार की है।

खास तौर पर, नक्सलवाद के मुद्दे पर सरकार की नीति भ्रामक लगती है। नक्सलवाद की समस्या पिछले 20 साल से है, लेकिन इतनी बुरी स्थिति पहले कभी नहीं थी, जितनी आज है। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने यह कहकर मामले को और उलझा दिया कि जो भी नक्सलियों की विचारधारा का समर्थन करेंगे, उसे लोकतंत्र विरोधी कहा जाएगा। सरकार नक्सल समस्या के कारण का मूल ढूंढ़ने की कोशिश नहीं कर रही है। इसे लेकर सरकार की कोई स्पष्ट नीति सामने नहीं आ रही और न ही लोगों को इसका पता चल पा रहा है। प्रधानमंत्री की भी इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट राय नहीं है।

महंगाई के मुद्दे पर भी सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं दिख रही। आम लोगों को फिलहाल इससे राहत मिलती नहीं दिख रही। हां, सरकार म्रुास्फीति व महंगाई दर के तमाम आंकड़े पेश कर अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश जरूर कर रही है। लेकिन यह ऐसा मुद्दा है, जिसे आंकड़ों से नहीं, बल्कि बुनियादी सूझ-बूझ से ही सुलझाया जा सकता है। अक्सर इसे लेकर राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी थोपकर कें्र अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश करता है।

दरअसल, वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण की जो नीति शुरू की थी, यह उसी का परिणाम है कि आज ये समस्याएं वैश्विक रूप ले चुकी हैं और इनका कोई समाधान नहीं दिखता। हमारी सरकार जिस तरह की अमेरिकी आर्थिक नीति पर चल रही है, उससे भारत की ग्रामीण समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को लागू करना निश्चय ही एक अच्छा कदम है, लेकिन यह राहत देने जसा भर है, समाधान नहीं।

इसी तरह, जाति आधारित जनगणना की अनुमति देकर सरकार ने एक नई बहस छेड़ दी है। इसे लेकर दो खेमों में बहस छिड़ गई है, एक वे जो इसके पक्ष में हैं और दूसरे वे जो इसके खिलाफ हैं। के सुब्रमण्यम जसे बुद्धिजीवियों ने तो इसके खिलाफ अभियान छेड़ने की बात भी कही है। कुल मिलाकर, इन तीनों मुद्दों पर सरकार की कोई स्पष्ट नीति नहीं दिखती और न ही कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया।

विदेश नीति की बात की जाए तो सरकार ने पूरी तरह इसे अमेरिका समर्थित बना दिया है। अमेरिका से भारत की निकटता जितनी आज है, पहले कभी नहीं थी। अमेरिका के साथ इसके संबंधों को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत केवल औपचारिक रूप से गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का हिस्सा भर बनकर रह गया है, जबकि इसे शुरू करने में कभी भारत ने अहम भमिका निभाई थी। पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर बनाने की भी सरकार ने कोशिश की है। खासकर, दोनों देशों के नागरिकों को जोड़ने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन इसके पीछे भी वजह के रूप में अमेरिका से हमारे संबंधों को खारिज नहीं किया जा सकता। अब देखने वाली बात यह होगी कि कश्मीर जसे ठोस मुद्दों को हल करने में सरकार का फैसला अमेरिकी झुकाव वाला होता है या राष्ट्रीय हितों के हक में। वहीं दूसरी ओर, सरकार ने उत्तर-पूर्व के राज्यों को राष्ट्रीय चेतना के साथ जोड़ने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया, जो चिंता की बात है।

पिछले कुछ सालों में भारत विश्व पटल पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्र के रूप में उभरा है। विशेषकर, एशिया की एक बड़ी ताकत के रूप में उसे देखा जा रहा है, लेकिन उसने कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। वैश्विक स्तर पर नेतृत्व के मामले में देश की स्थिति कुछ-कुछ कांग्रेस जसी ही है, जहां नेतृत्व का संकट है और लोगों को मनमोहन के बाद राहुल गांधी के अलावा प्रधानमंत्री पद का कोई योग्य दावेदार नहीं मिल रहा। कहा जा सकता है कि हमारा देश सैन्य, सुरक्षा व कूटनीतिक रूप से तो मजबूत है, लेकिन राजनीतिक रूप से कमजोर।

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में नौकरशाही का वर्चस्व बढ़ा है। नए सांसदों का कार्य भी बहुत बेहतर नहीं है। भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है, जो आज भी बरकरार है। हां, इन दिनों यह नए रूप में उभरकर सामने आया है। भ्रष्टाचार का नया रूप औद्योगिक भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया है। इसके लिए भी काफी हद तक आर्थिक उदारीकरण की नीति जिम्मेदार है, जिससे औद्योगिक इकाइयों का बोलबाला बढ़ा है और सरकार उसके प्रभाव में है।

हां, महिला आरक्षण और शिक्षा के अधिकार को लेकर सरकार ने सराहनीय काम किया है। अनिवार्य शिक्षा अधिकार का विधेयक पारित कर सरकार ने अशिक्षा समाप्त करने की कोशिश तो की है, लेकिन इसे लागू करने में अभी कई मुश्किलें आनी हैं। कई राज्यों की सरकारों ने पैसा कम होने की बात कह इसे लागू करने में होने वाली मुश्किलें सामने रख दी हैं। इसी तरह, सरकार ने महिला आरक्षण का विधेयक राज्य सभा में तो पारित करवा लिया, लेकिन लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं से इसे पारित करवाना एक मुश्किल काम होगा।

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