विश्वनाथन आनंद ने शतरंज में विश्व चैम्पियनशिप का खिताब लगातार तीसरी बार बरकारार रखा। उनकी जीत देश के करोड़ों खेल प्रेमियों के लिए खुशी लेकर आई, जो टी20 में भारतीय टीम की हार से आहत थे। उनकी मां को तो खर यकीन था बेटे की लगन और मेहनत पर, देश के लोगों को भी भरोसा था कि आनंद फिर चैम्पियन बनेंगे। लगातार खिताब जीतकर उन्होंने सभी को अपनी प्रतिभा का कायल किया है। उन्होंने यह यकीन बनाए रखा। बुल्गारिया के वेसलीन तोपालोव को उन्होंने कठिन मुकाबले में हराया और खुद माना कि तोपालोव एक मंङो हुए खिलाड़ी हैं।
विश्वनाथन आनंद, शतरंज के शहंशाह। अपनी लगन और एकाग्रता से चौथी बार और लगातार तीसरी बार जीता विश्व चैम्पियनशिप का खिताब। आखिर किसे न नाज हो, ऐसे चैम्पियन पर। उनके माता-पिता को भी है, उस राज्य को भी है जहां से वे आते हैं और देश की करोड़ों जनता को भी। यूं तो हर जीत मायने रखती है, लेकिन इस बार यह कुछ अधिक खास है। विशेषकर खेल प्रेमियों के लिए, जो टी20 में भारतीय टीम की हार के बाद करीब-करीब सदमे की हालत में थे। ऐसे में आनंद की जीत ने उनके हारे मन को जसे उत्साह व आशा से भर दिया।
दोस्तों में ‘विशिज् और समर्थकों में ‘टाइगर ऑफ म्रासज् के नाम से मशहूर आनंद को शतरंज के मोहरों से परिचित कराया उनकी मां ने, जब वे सिर्फ छह साल के थे। वह मां ही थीं, जिन्होंने उन्हें शतरंज की बिसात पर शह-मात का खेल सिखाया। मां और पिता के दुलारे ‘बाबाज् ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। स्कूल और पढ़ाई से जब भी वक्त मिलता, वे मां के साथ बैठ जाते थे शतरंज के प्यादों से शह-मात का खेल खेलने। बड़ा भाई और बड़ी बहन भी थीं घर में। बहन उम्र में करीब 11 साल बड़ी थीं तो भाई 13 साल। लेकिन कोई उनके साथ शतरंज खेलने नहीं बैठता था, क्योंकि इस खेल में जिस धर्य की जरूरत थी, वह उनमें नहीं था। इसलिए आनंद अधिकतर मां के साथ ही शतरंज के मोहरों से खेलते थे।
घर में खेलते-खेलते मां को ‘बाबाज् की प्रतिभा का भान हुआ। उन्हें लगा सिर्फ घर में खेलते रहे तो बेटे की पूरी प्रतिभा शायद निखर कर न आ पाए। इसलिए उन्होंने उसे प्रशिक्षण के लिए भेजा, तब शायद ही उन्हें अंदाजा हो कि उनका यह लाल एक दिन विश्व चैम्पियन बनकर न केवल उन्हें, बल्कि पूरे देश को गौरवान्वित करेगा। स्कूली पढ़ाई के दौरान आनंद सप्ताहांत में शतरंज से जुड़ी प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगे और उसमें जीतने भी लगे। यह सिलसिला जिला स्तर की स्पर्धाओं में भी जारी रहा। फिर राज्य स्तरीय, राष्ट्र स्तरीय और अंतत: अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में आनंद ने आशानुरूप हमेशा उम्दा प्रदर्शन किया और जूनियर, सब-जूनियर व सीनियर श्रेणियों में कई खिताब अपने नाम किए।
उनकी मां याद करती हैं, जब आनंद के पिता की पोस्टिंग दो साल के लिए फिलिपीन्स में हुई तो कैसे शतरंज के प्रति वहां के लोगों में खास लगाव ने ‘बाबाज् को प्रभावित किया। उन्होंने वहां देखा कि लोग बसों और पार्क में भी वक्त मिलते ही शतरंज के मोहरों से खेलना शुरू कर देते थे। शतरंज के प्रति लोगों के इस लगाव को आनंद ने कई बार फिलिपीन्स में यहां-वहां आते-जाते देखा। निश्चय ही इन सबने शतरंज के प्रति उनकी रुचि और बढ़ाई। वहां की शतरंज प्रतियोगिताओं में तब जीतने वाले को किताबें मिला करती थीं। उन्हें याद है आनंद ने भी कई स्पर्धाएं जीतीं और पुरस्कारस्वरूप किताबें भी।
ग्यारह दिसंबर, 1969 को म्रास (अब चेन्नई) में पिता विश्वनाथन और मां सुशीला की तीसरी संतान के रूप में जन्मे आनंद ने केवल चौदह की साल की उम्र में 1983 में राष्ट्रीय सब-जूनियर चैम्पियनशिप जीता और सत्रह साल की उम्र में राष्ट्रीय चैम्पियनशिप। सभी इस किशोर की प्रतिभा से चकित थे, जो बड़ी तेजी से खेल निपटा लेता था। शतरंज की 40 चाल के लिए तय मानक समय 120 मिनट है, जबकि आनंद इसे केवल 30 मिनट में निपटा लेते हैं। बिजली की सी तेजी से शह-मात का खेल खेलन वाले इस ‘लाइटनिंग किडज् ने 1987 में वर्ल्ड जूनियर चेस चैम्पियनशिप जीता। यह खिताब जीतने वाले वे पहले एशियाई थे। 1988 में आनंद भारत के पहले ग्रैंडमास्टर बने और विश्व के सबसे कम उम्र के ग्रैंडमास्टर।
लेकिन इससे पहले ही वे अंतराष्ट्रीय स्तर पर छा गए थे। 1985 में जब उन्होंने लंदन में एक टूर्नामेंट के दौरान ब्रिटेन के ग्रैंडमास्टर जोनाथन मिशेल को हराया तो भारत के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। शतरंज में रूसी वर्चस्व को तोड़ने के लिए आनंद पश्चिमी जगत के लिए भी उम्मीद की एक किरण बनकर उभरे। इस टूर्नामेंट ने भारत में शतरंज के प्रति विशेष सम्मान पैदा किया। अखबारों और दूरदर्शन पर शतरंज से जुड़ी खबरों व कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जाने लगी। युवाओं की इस खेल में रुचि बढ़ी और अभिभावकों को भी लगा कि शतरंज के खेल में भी उनके बच्चों का भविष्य हो सकता है। साफ है आनंद की जीत ने शतरंज को लेकर देश में क्रांति ला दी।
पहला विश्वचैम्पियनशिप उन्होंने 1995 में रूस के गैरी कास्परोव के खिलाफ खेला। हालांकि वे इसमें हार गए, लेकिन हताश व निराश नहीं हुए। वे पहले की तरह ही पूरी लगन व एकाग्रता से अभ्यास करते रहे। उनके साथ-साथ करोड़ों देशवासियों का सपना साकार हुआ वर्ष 2000 में, जब आनंद पहली बार विश्व चैम्पियन बने। वर्ष 2007 में दूसरी बार उन्होंने यह खिताब जीता। फिर वर्ष 2008 में और अब 2010 में भी लगातार उन्होंने तीसरी बार जीत का सिलसिला बनाए रखना। आनंद की खेल रणनीति को समझने वाले उसे वन मैन आर्मी कहते हैं, जो अकेले ही विरोधियों को पराजित कर देता है।
आनंद केवल खेल में ही नहीं, बल्कि पढ़ाई में भी अव्वल रहे। डॉन बास्को स्कूल से उन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी की और फिर चेन्नई के लोयला कॉलेज से बी. कॉम किया। हर जगह उनका प्रदर्शन उम्दा रहा। निजी जीवन में भी वे बेहद शांत और व्यवहारकुशल हैं। शतरंज से इतर किताबें पढ़ना, तैराकी, संगीत और फिल्में उनकी पसंद हैं। वे रॉक संगीत और एक्शन फिल्में खास तौर पर पसंद करते हैं। शतरंज पर उन्होंने ‘माई बेस्ट गेम ऑफ चेसज् नाम से एक किताब भी लिखी है, जिसे 1998 में ब्रिटिश चेस फेडरेशन ने ‘बुक ऑफ द ईयरज् के खिताब से नवाजा। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने 1987 में केवल अठारह साल की उम्र में उन्हें पद्म श्री सम्मान दिया। इसके अलावा वे अर्जुन पुरस्कार, नेशनल सिटीजन पुरस्कार, राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार, चेस ऑस्कर, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी सम्मानित हो चुके हैं।
मंगलवार, 25 मई 2010
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