उम्र सिर्फचौदह साल, लेकिन उपलब्धियां कईगुना अधिक।आंखोंमेंसपने हैंऔर उन्हेंपूरा करने का माद्दा भी। कई सपने पूरे हुए हैं, तो कुछ बाकी हैं। यह कोई और नहीं, आईआईटी-जेईई की प्रवेश परीक्षा में दिल्ली जोन का टॉपर और पूरे देश में 33वां स्थान हासिल करने वाला सहल कौशिक है। आंखों पर चश्मा लगाए चौदह साल का सहल पहली नजर में अपनी उम्र के दूसरे बच्चों सा ही दिखता है, लेकिन थोड़ा गौर से देखो तो यह ‘भीड़ से अलगज् और इसकी दुनिया दूसरे बच्चों से अलग दिखती है। उसे करीब से देखने व समझने वाला शायद ही कह सकता है कि उसका दिमाग कभी खाली रहता है। मानो कुछ न कुछ इसमें चल रहा है। शायद कोई कैल्कुलेशन या शोध।
सहल ने दस साल तक घर में पढ़ाई की, क्योंकि मां को लगा कि यदि इसे स्कूल भेजा जाता है तो यह आगे बढ़ने की बजाए और पीछे चला जाएगा। निश्चय ही यह फैसला बेहद हिम्मतभरा था, खासकर ऐसे समय में, जबकि हर मां-बाप अपने बच्चे को अच्छे से अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश में लगे रहते हैं। सहल की मां का यह फैसला जाहिर तौर पर बेटे की प्रतिभा में उनके अटूट शिस को दर्शाता है। उन्होंने बेटे के लिए अपने कॅरियर को भी दां पर लगाने से परहेज नहीं किया और डॉक्टर की प्रैक्टिस छोड़ दी। हालांकि तब उनके फैसले पर साल उठानेोले और उन्हें यह कहनेोले बहुत थे कि अपनी पढ़ाई-लिखाई को े बेकार कर रही हैं, लेकिन अब सब चुप हैं। सहल ने सबको जाब दे दिया है। उसकी प्रतिभा पर संदेह करनेोलों को भी और मां के फैसले पर साल उठानेोलों को भी। मां भी खुश हैं और उन्हें लगता है कि उनकी पढ़ाई कहीं बेकार नहीं गई, बल्कि यह तो उन्होंने अपने बेटे तक पहुंचाई और बेटे ने उसे सार्थक कर दिखाया।
मां ने बेटे की प्रतिभा तभी पहचान ली थी, जब ह महज दो-ढाई साल का था। इस छोटी सी उम्र में ह गणित के कई साल चुटकियों में हल कर लेता था। अंग्रेजी के लंबे-लंबे शब्द उसे याद थे और कतिाएं भी। चार साल की उम्र तक उसने सौ तक के टेबल भी याद कर लिए थे और छह साल में एचजी ेल्स की पुस्तक ‘टाइम मशीनज् पढ़ डाली थी। बेटे को घर में पढ़ाने का निश्चय करनेोली रुचि कौशिक ने उसके लिए लाखों की लागत से घर में ही लाइब्रेरी बनाई, जिसमें दो हजार से अधिक पुस्तकें हैं।
दस साल तक बेटे को घर में पढ़ानेोली रुचि शयद ही कभी उसे स्कूल भेजतीं, अगर आईआईटी के लिए 12ीं पास होना जरूरी नहीं होता। दस साल की उम्र में 2006 में उन्होंने बेटे का दाखिला नौीं में कराया। साल 2008 में उसने दसीं की परीक्षा पास की और 2010 में बारहीं की। हालांकि अंक दोनों ही कक्षाओं में औसत से बस थोड़ा बेहतर आया। दसीं में सहल को 76 प्रतिशत तो बारहीं में 73 प्रतिशत अंक मिले। यह अंक आईआईटी की तैयारी करनेोले किसी छात्र या उसके अभिभाकों के लिए निराशाभरा हो सकता है, लेकिन इससे न तो सहल निराश हुआ और न ही उसकी मां रुचि। रुचि को पूरा यकीन था कि भले ही यह अंक दिल्ली श्ििद्यालय के किसी अच्छे कॉलेज में दाखिले के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन इससे उनके बेटे के आईआईटी निकालने पर कोई असर नहीं होगा और हुआ भी यही।
सहल के शिक्षक उदय प्रताप सिंह, जो रुचि कौशिक के बाद उसकी प्रतिभा को पहचाननेोले दूसरे शख्स हैं, कहते हैं कि दसीं और बारहीं का अंक किसी छात्र की प्रतिभा का मानक नहीं है। आईआईटी सहित किसी भी परीक्षा की तैयारी के लिए छात्रों को रटने के बजाय षिय को समझने पर जोर देना चाहिए। सहल ने ही किया और नतीजा सबके सामने है। हालांकि े यह भी कहते हैं कि निश्चय ही सहल जसा दिमाग सबके पास नहीं होता। लेकिन उसने षिय को समझने का जो तरीका अपनाया, उससे तो सीख ली ही जा सकती है। सहल की कामयाबी आईआईटी की तैयारी करनेोले दूसरे बच्चों के लिए एक संदेश भी है कि े रट्टूमल न बनें, बल्कि षिय को समझने पर जोर दें।
सहल ने इस मिथक को भी तोड़ा कि आईआईटी की प्रेश परीक्षा में सफल होने के लिए 12 से 15 घंटे पढ़ाई करने की जरूरत है। कोचिंग में छह घंटे की पढ़ाई के अलाा घर में बस एक से दो घंटे का क्त पढ़ाई पर दिया। उसमें भी ऐसा नहीं कि सिर्फ ज्ञिान और गणित की पुस्तकें पढ़ते रहे, बल्कि साथ-साथ कहानियों और इतिहास की किताबें भी पढ़ते रहे। दरअसल, कहानियों, उपन्यासों और इतिहास की किताबों से यह लगा आज से नहीं, बल्कि तब से है, जब से मां ने सहल को घर में ही पढ़ाने का फैसला किया। रुचि बताती हैं कि घर में उन्होंने सहल के लिए किसी षिेष शिक्षा की व्यस्था नहीं की, बल्कि सामान्य ज्ञान आधारित मिली-जुली शिक्षा पर जोर दिया। यही जह रही कि अब तक ह इतिहास कहानियों की कई किताबें, उपन्यास आदि पढ़ चुका है। हैरी पॉटर श्रंखला की सभी किताबें भी ह पढ़ चुका है।
बेहद संकोची स्भा का दिखनेोला सहल क्याोस्त में ऐसा ही है? जाब में उसकी मां रुचि कहती हैं, नहीं। सहल घुलता-मिलता है, लेकिन उन्हीं लोगों से जिन्हें वह चाहता है। इस छोटी सी उम्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताएं जीत चुके सहल को देश के बाहर अपनी उम्र के बच्चों के साथ घुलने-मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। कोचिंग में भी सहल को ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई। हां, जब कोई अपरिचित व्यक्ति या खासकर मीडियाोले कुछ साल करते हैं तो जाब देने से पहले ह सोचता है या फिर मां की ओर देखता है। शायद इसलिए, क्योंकि मां उसे संबल, साहस, हौसला और आत्मशिस देती है।
चौदह साल का सहल सबके बीच में रहते हुए भी कभी-कभी हां से अलग दिखता है। उसे देखो तो लगता नहीं कि ह सबके बीच में बैठकर उनकी बातें सुन रहा है, बल्कि ह गणित के किसी साल को हल करने या भौतिकी के किसी पहलू के बारे में सोचता दिखता है। आईआईटी करनेोले हजारों बच्चों से अलग सहल की इच्छा इंजीनियर बनने की नहीं, बल्कि खुद को एक शोधकर्ता के रूप में देखने की है। ह भौतिकी में शोध करना चाहता है। इसलिए उसने आईआईटी कानपुर से पांच साल के इंटिग्रेटेड कोर्स में दाखिला लेना तय किया है। मैक्सेल, आइंसटीन और न्यूटन उसके हीरो हैं और ह उन्हीं की तरह बनना चाहता है।
सबसे कम उम्र में आईआईटी निकालनेोले सहल की उपलब्धियां यहीं तक नहीं हैं। एक साल पहले यानी 2009 में ह एशियन फिजिक्स ओलंपियाड में सिल्र मेडल जीत चुका है। इस साल हुई इसी प्रतियोगिता में उसने कांस्य पदक हासिल किया। किशोर ैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना की स्कॉलरशिप भी उसकी उपलब्धियों के खाते में है। 2009 में जापान में हुए एशिया स्कूल कैंप का भी ह सदस्य रह चुका है। पढ़ाई से इतर सहल के शौक की बात की जाए, तो यहां भी ह दूसरे बच्चों से अलग दिखता है। आजकल के बच्चों को जहां आधुनिक संगीत आकर्षित करता है, हीं सहल को पुराने संगीत खासे पसंद हैं, खासकर किशोर कुमार के गाए गीत। घर में मां के हाथ का बना खाना खूब भाता है तो बाहर चाइनीज और मेक्सिन खाने भी पसंद हैं। खाली क्त में बैडमिंटन खेलना, तैराकी, घुड़सारी, ताइक्वांडो और र्पतारोहण भी पसंद है। इन सबका मौका खासतौर पर तब मिलता है, जब छुट्टियां बिताने ह पिता टीके कौशिक के पास असम पहुंचता है, जो सेना के अधिकारी हैं और फिलहाल असम के तेजपुर में तैनात हैं।
मंगलवार, 29 जून 2010
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