ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, जसा शुक्रवार को इस्लामाबाद में हुआ। भारत-पाक विदेश मंत्री स्तर की बातचीत एक दिन पहले हुई और उसमें बातचीत जारी रखने की ही बात की गई। पर अगले दिन जब भारतीय विदेश मंत्री कृष्णा पाकिस्तान में ही थे, तब विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जो कुछ किया-कहा, वह राजनयिक मर्यादा और शोभनीयता की धज्जियां उड़ाने वाला था। उन्होंने भारत की मंशा पर शक जताया, कृष्णा पर व्यक्तिगत आक्षेप किए और कश्मीर पर भड़ास निकाली। फिर भी भारत ने शांत और वार्ता के मुतल्लिक सकारात्मक प्रतिक्रिया जताई। कुरैशी वैसे पढ़े-लिखे और नफीस पाक नेता हैं, पर पाक की राजनेताओं की ही शायद यह मजबूरी है कि उन्हें सेना निर्देशित करती है।
पाकिस्तान ने फिर झटक दिया दोस्ती का हाथ। फिर दोहराया गया आगरा प्रकरण। मजमून वही था, बस मंच और किरदार अलग-अलग थे। तब आगरा था मंच, जो इस बार बदलकर हो गया इस्लामाबाद। पाकिस्तान के मुख्य पात्र थे तत्कालीन सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ तो इस बार यही भूमिका निभाई वहां के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने। तब भी भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत की प्रक्रिया फिर शुरू करने की कवायद हुई थी, जो कारगिल युद्ध के बाद स्थगित हो गई थी। इस बार भी वही कोशिश। फिर शुरू हो दोनों देशों के बीच बातचीत, जो बंद हो गई थी 2008 के मुंबई हमले के बाद। कोशिश यही कि मुद्दे सुलङो। दोस्तों की तरह रहें पड़ोसी, न कि दुश्मनों की तरह। हालांकि यह सब इतना आसान नहीं है, वरना आजादी से अब तक साठ दशक से भी अधिक वक्त बीत जाने पर भी दोनों देशों के संबंधों में यह तल्खी न होती। लेकिन अच्छे परिणाम की उम्मीद में कोशिशें हमेशा होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी।
वर्ष 2001 में भी ऐसी ही कोशिश हुई थी। कारगिल में घुसपैठ के बाद पाकिस्तान से रुकी बातचीत को फिर से पटरी पर लाने के लिए तब वहां के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ को न्यौता गया था। वे आए भी थे। आगरा में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बातचीत होनी थी। हुई भी, लेकिन मुशर्रफ बीच में ही आगरा शिखर सम्मेलन से पाकिस्तान से रवाना हो गए, नाराज होकर। इस बार भी कुछ-कुछ वैसा ही हुआ। पाकिस्तान ने हमारे विदेश मंत्री को न्यौता दिया। एमएम कृष्णा अपने पाकिस्तानी समकक्ष शाह महमूद कुरैशी से मिलने इस्लामाबाद पहुंचे। लेकिन बात जब परिणाम की आई तो वह कुछ-कुछ पहले जसा था, यानी ढाक के वही तीन पात। फिर वही तल्खी, फिर वही तेवर। कृष्णा ने उठाया आतंकवाद का मुद्दा तो कुरैशी ने अलापा कश्मीर का राग। बात सिर्फ इतनी होती तो शायद उसे बिगड़ी हुई न कहते। लेकिन तेवर में तल्खी इतनी थी कि वे हमारे गृह सचिव जीके पिल्लै की तुलना हाफिज सईद से कर बैठे। वही सईद, जिस पर मुंबई हमले के षड्यंत्र और उसे अंजाम देने वालों को मदद देने का आरोप है।
बात यहां तक भी नहीं रुकी। अब बारी विदेश मंत्री कृष्णा की थी। बिना किसी लाग-लपेट उन्होंने कह दिया कि कृष्णा बातचीत के लिए पूरी तरह अधिकृत नहीं थे। वे बार-बार फोन पर बात करते रहे और दिल्ली से आदेश लेते रहे। उनकी यह टिप्पणी कहीं से भी सामान्य शिष्टाचार के अनुकूल नहीं थी और न ही पिल्लै पर दिया गया बयान। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के पूर्व प्रमुख हामिद गुल ने भी कहा कि बोलते-बोलते बहुत बोल गए कुरैशी। फिर उनके तेवर भी नहीं बता रहे थे कि वे बातचीत को आगे बढ़ाने के मूड में हैं। ऐसा लगा मानो सबकुछ तय था। पाकिस्तान के नीति-निर्माताओं ने काफी सोच-समझकर इस बातचीत का तानाबाना बुना था और इसके लिए सामने किया था कुरैशी को। उन्हें यकीन था कि इतने अपमान के बाद भारत खुद ही बातचीत से इनकार कर देगा और पाकिस्तान अमेरिका सहित दुनिया को यह संदेश दे सकेगा कि वह तो बातचीत के लिए तैयार है, पर भारत नहीं। कुरैशी ने यही किया। वे खरे उतरे अपने नीति-निर्धारकों की उम्मीद पर या यूं कहें कि बखूबी निभाई उन्होंने अपनी जिम्मेदारी। कश्मीर पर कुरैशी के अड़ियल रुख से भी साफ लगता है कि वे आईएसआई के प्रभाव में थे। कुल मिलाकर, कुरैशी बातचीत को पटरी से उतारने में कामयाब रहे।
अपने तल्ख तेवर और विदेश मंत्री कृष्णा को ‘घर बुलाकर अपमानित करनेज् के रवैये के कारण भले ही कुरैशी यहां खलनायक बन गए हैं, लेकिन पाकिस्तान में वे हीरो बनकर उभरे हैं। एक ऐसे नेता के रूप में जो अपने हितों को लेकर बहुत सजग है और कश्मीर पर कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं है। पाकिस्तान में कुरैशी की छवि एक मंङो हुए राजनेता के रूप में है। अपनी पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) में भी वे धाक रखते हैं। भुट्टो परिवार के बेहद करीबी माने जाते हैं। इतने कि दिसंबर, 2007 में बम हमले में पार्टी की नेता बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद वे पीपीपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक व मजबूत दावेदार माने जा रहे थे। हालांकि यहां बाजी मार गए युसुफ रजा गिलानी।
54 वर्षीय कुरैशी पाकिस्तान में सामंती व खानदानी परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता मकदूम सज्जाद हुसैन कुरैशी मुल्तान के प्रभावशाली सामंती परिवार से आते थे। 1980 के दशक में जनरल जिया-उल-हक के शासन के दौरान वे पंजाब के गवर्नर थे। हालांकि सामंती परिवार में पैदाइश व परवरिश के बावजूद कुरैशी प्रगतिशील सोच के लिए जाने जाते हैं। 22 जून, 1956 को कुरैशी का जन्म मुरी में हुआ था, जो रावलपिंडी जिले के अंतर्गत सब-डिविजन है। पाकिस्तान में मुरी की गिनती आज प्रसिद्ध हिल स्टेशन के रूप में होती है, जहां बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। यह कभी कश्मीर के महाराजा की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। शुरुआती शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कुरैशी लाहौर चले गए और वहां के एचेन्सन कॉलेज में दाखिला लिया। इसके बाद उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से 1983 में कानून की डिग्री ली। लेकिन एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के बजाय उन्होंने राजनीति का रुख किया। पारिवारिक पृष्ठभूमि यहां काम आई। 1985 में पहली बार वे पीपीपी के उम्मीदवार के रूप में पंजाब प्रांत की एसेम्बली के लिए चुने गए। 1993 तक वे पंजाब एसेम्बली के सदस्य रहे। इस बीच उन्हें पार्टी से नेशनल एसेम्बली के लिए टिकट मिला और वे जीत भी गए। हालांकि 1997 में वे नेशनल एसेम्बली का चुनाव पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के उम्मीदवार से हार गए। लेकिन नेशनल एसेम्बली के चुनाव में यह उनकी एकमात्र हार है। इसके अलावा उन्होंने नेशनल एसेम्बली का कोई चुनाव नहीं हारा और वे लगातार सदन के सदस्य हैं।
सोमवार, 19 जुलाई 2010
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