शनिवार, 12 सितंबर 2009

लचर राज, लाचार नाथ

भाजपा भारी द्वंद्व और दुविधा में है। सर संघचालक से लेकर कई दिग्गज नेता नेतृत्व बदलने की बात कर रहे हैं। चौतरफा हमलों से राजनाथ-आडवाणी आपसी लड़ाई स्थगित कर संयुक्त रूप से उस मोर्चे से लड़ रहे हैं, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजयपेयी के पुराने वफादार कर रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ जसी है। पद लालसा उनके पीछे पड़ी और आगे बदलाव खड़ा नजर आ रहा है। उनके अध्यक्षकाल में भाजपा की जितनी दुर्गति हुई, वैसी शायद ही कभी हुई हो। सबसे अलग पार्टी आज सबसे अलगाव वाली पार्टी बनकर रह गई है।

लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा में घमासान मचा है। हर तरफ से नेतृत्व निशाने पर है। जसवंत सिंह, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा ने खुलकर नेतृत्व पर सवाल उठाए। जसवंत सिंह की किताब के बाद जिन्ना का भूत फिर भाजपा पर सवार हो गया। जसवंत सिंह के निष्कासन के बाद पार्टी साफ-साफ तीन धड़ों में विभाजित हो गई। आडवाणी, राजनाथ और अटल बिहारी वाजपेयी के वफादारों के खेमे में भाजपा विभक्त है। वसुंधरा राजे और बीसी खंडूरी सहित इन सबके हमलों से बचने के लिए फिलहाल आडवाणी-राजनाथ साथ-साथ हैं। पर सर संघचालक मोहन भागवत ने जो नुस्खे प्रकारांतर से भाजपा को सुझाए हैं, उससे पार्टी में अलग खलबली है। लगता है राजनाथ और आडवाणी विदा होंगे। राजनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी लगातार विवादों में रही है।
तीन साल पहले जिन्ना प्रकरण पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारी दबाव के कारण लाल कृष्ण आडवाणी को भाजपा अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा था। तब पार्टी नेताओं ने राजनाथ सिंह में आस्था जताते हुए उन्हें अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी थी। लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी राह आसान नहीं रही। राज्य विधानसभाओं और फिर लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार ने उनकी राह मुश्किल बना दी।
हालिया घटनाक्रम की बात करें तो पहले जसवंत सिंह का पार्टी से निष्कासन और फिर सुधीं्र कुलकर्णी द्वारा पार्टी नेतृत्व में अनास्था व्यक्त करते हुए इसे छोड़ जाने का विवाद अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सांसद अरुण शौरी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल लिया। एक साक्षात्कार में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर राजनाथ को ‘एलिस इन ब्लंडरलैंडज् और भाजपा को ‘कटी पतंगज् कह डाला। राजनाथ की क्षमता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने संघ से पार्टी की कमान अपने हाथों में लेने और शीर्ष नेतृत्व में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग की।
शौरी ने पहले भी आम चुनाव में हार के लिए जवाबदेही तय करने की मांग की थी। एकबार फिर उन्होंने कहा कि हार के लिए उत्तराखंड में बीसी खंडूरी से इस्तीफा लिया गया और अब राजस्थान में वसुंधरा राजे से इस्तीफा मांगा जा रहा है। लेकिन शीर्ष नेतृत्व हार की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेता? शौरी द्वारा इस तरह खुलकर राजनाथ को निशाना बनाए जाने के बाद भाजपा में धीमी आवाज में नेतृत्व के खिलाफ असंतोष जाहिर करने वालों और किसी न किसी ‘डरज् से चुप रहने वाले नेताओं को मानो संजीवनी मिल गई। राजस्थान से लेकर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश तक में पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ असंतोष खुलकर सामने आ गया। वसुंधरा को दिए गए बार-बार के अल्टीमेटम के बावजूद उनके तेवर को देखकर नहीं लगता कि वह पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता के रूप में अध्यक्ष की बात ज्यों की त्यों मान लेने के मूड में हैं।
उधर, उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए खंडूरी ने भी पार्टी अध्यक्ष को लिखे पत्र में यह कहकर अपनी नाराजगी जता दी राज्य के 34 विधायकों में से 23 विधायकों का समर्थन रहते हुए भी उन्हें गलत तरीके से पद से हटाया गया। उत्तर प्रदेश के बस्ती से पार्टी के वयोवृद्ध विधायक भृगु नारायण द्विवेदी ने भी राजनाथ को भेजे पत्र में ‘पार्टी हितज् के लिए उन्हें पद से छोड़ देने की सलाह दी।
शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ चौतरफा हमले के बाद संघ भी हरकत में आया। अब तक समझा जा रहा था कि संघ की सरपरस्ती से राजनाथ सभी झंझावात ङोल जाएंगे। यह भी कयास लगाए जा रहे थे कि संघ के ‘आशीर्वादज् से राजनाथ पार्टी में लाल कृष्ण आडवाणी की जगह ले सकते हैं या साल के आखिर में समाप्त हो रहे अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल के बाद दोबारा यह पद संभाल सकते हैं। गाजियाबाद से लोकसभा चुनाव जीतकर उन्होंने अपने आलोचकों का मुंह भी बंद कर दिया था। लेकिन शौरी के साक्षात्कार और पार्टी में अन्य शीर्ष नेताओं के मुखर विरोध के बाद उनकी मुश्किलें बढ़ गईं। फिलहाल संघ भी उन्हें सहारा देने के मूड में नहीं दिखता।
तीन साल पहले पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने के बाद राजनाथ ने ‘मूल विचारधााराज् से भटक चुकी पार्टी को एकबार फिर ‘अपनी राहज् पर ले जाने की घोषणा की थी। लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी का दायरा बढ़ाने के लिए इसे जिस समावेशी संगठन का रूप देने की कोशिश की थी, उससे उलट राजनाथ सिंह ने पार्टी के ‘भगवाकरणज् और ‘मूल विचारधाराज् पर चलने को तरजीह दी; क्योंकि संघ में एक बड़े खेमे का मानना था कि आडवाणी ने जो राह चुनी, उससे पार्टी को फायदे के बजाय नुकसान हुआ।
इसी राह पर चलते हुए बहैसियत पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को उनकी किताब ‘जिन्ना : भारत विभाजन के संदर्भ मेंज् के लिए ‘दंडितज् करते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासन का फरमान सुनाया। लेकिन राजनाथ के नेतृत्व में इस ‘मूल विचारधाराज् की राह पर चलते हुए भी पार्टी को नुकसान ही हुआ। 2004 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी को 2009 के आम चुनाव में जीत की उम्मीद थी। लेकिन पार्टी को फिर शिकस्त मिली। राजनाथ चुनाव से पहले भी पार्टी में अंतर्कलह व अंतर्विरोध पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे और चुनाव के बाद तो यह उनके लिए नामुमकिन हो गया।
उत्तर प्रदेश के बनारस में 10 जुलाई 1951 को रामबदन सिंह और गुजराती देवी की संतान के रूप में किसान परिवार में पैदा हुए राजनाथ 13 साल की उम्र में ही संघ से जुड़ गए थे। संघ से इस जुड़ाव के चलते अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने में उन्हें किसी तरह की मुश्किल नहीं हुई। संघ की सरपरस्ती में उन्होंने भारतीय जनसंघ में कई महत्वूपर्ण जिम्मेदारियां निभाईं। पढ़ाई पूरी करने के बाद मिर्जापुर के एक कॉलेज में उन्होंने भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की। लेकिन जल्द ही पूरी तरह राजनीति में रम गए। भारतीय जनता पार्टी के वजूद में आने के बाद उन्होंने इसमें भी कई जिम्मेदारी भरे पद संभाले और 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार बनने पर मंत्री व मुख्यमंत्री भी बने। वह बहुत तेजी से पार्टी के शीर्ष नेताओं में शामिल होते गए। लेकिन अब पार्टी में बड़े पैमाने पर संगठनात्मक फेरबदल में उनकी विदाई तय मानी जा रही है।

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