पहले किसी उद्योग लगाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति लेना महज औपचारिकता हुआ करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। वेदांता जसी कंपनी को उड़ीसा में बॉक्साइट खनन की अनुमति देने से पर्यावरण मंत्रालय ने मना कर दिया। इस हिसाब से देखें तो शेषन के पहले तक जो चुनाव आयोग की हैसियत हुआ करती थी, वही पर्यावरण मंत्रालय की जयराम रमेश के मंत्री बनने से पहले थी। माना जाता है कि रमेश को इस प्रकार के बड़े फैसले लेने की ताकत ऊपर से मिली है। राहुल गांधी के वे करीबी हैं, यह कोई दबी-छिपी बात नहीं है। रमेश की खास बात और भी है। वे काफी पढ़े-लिखे जहीन व्यक्ति हैं। अपनी बात खुलकर कहते हैं। इससे कई बार पार्टी और सरकार को भी बगलें झांकने पर मजबूर कर देते हैं। अपनी ही सरकार के दूसरे मंत्रालयों को भी पर्यावरण के मानकों पर कसते रहते हैं। फिर भी सबसे खास यही है कि वे एक ऐसे पर्यावरण मंत्री हैं, जिनके फैसलों से पर्यावरणवादी और प्रेमी गदगद हैं।
पर्यावरण मंत्रालय की छवि वैसी पहले कभी नहीं थी, जसी आज है। औद्योगिक इकाइयों को किसी परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय से स्वीकृति लेने में कभी कोई खास दिक्कत पेश नहीं आई। लेकिन हाल के दिनों में हालात बदले हैं। पर्यावरण मंत्रालय पहले की तुलना में अधिक सक्रिय नजर आता है और यह सब संभव हुआ है पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के कारण। हालांकि उनकी गिनती नव पूंजीवाद और उदारीकरण की नीति के समर्थकों में होती रही है। लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए हैं, जो उनकी आर्थिक विचारधारा के ठीक उलट है; चाहे वह बीटी बैंगन को कृषि जगत में नहीं उतारने का फैसला हो या निजी कंपनी वेदांता को उड़ीसा में बॉक्साइट खनन की अनुमति नहीं देने का फैसला। इन फैसलों से उन्होंने भले ही औद्योगिक घरानों को नाराज किया हो और लोग उन्हें विकास विरोधी कह रहे हों, लेकिन पर्यावरण प्रेमी उनके इन निर्णयों पर वाह-वाह कर रहे हैं।
वेदांता, जो उड़ीस के लांजीगढ़ में बड़े पैमाने पर बॉक्साइट खनन करना चाहती थी, को इसकी अनुमति न देने का आधार वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 को बनाया गया। पर्यावरण मंत्री ने दो टूक कहा कि सरकार अधिनियम की शर्तो का उल्लंघन बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगी और न ही विकास के लिए आदिवासियों के हितों से समझौता किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि इलाके की डोंगरिया कोंड जनजाति ने वेदांता की परियोजना के संदर्भ में अपने हितों को लेकर सवाल उठाए थे। जयराम रमेश के इस फैसले को कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का भी समर्थन मिला, जब उन्होंने उड़ीसा के कालाहांडी में आदिवासियों के बीच जाकर उनके हितों की बात उठाई और कहा कि वे दिल्ली में उनके सिपाही हैं उनकी बातें उठाने के लिए। उनके कुछ अन्य फैसलों को भी राहुल गांधी का समर्थन मिल चुका है, जिनमें नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना का विरोध भी शामिल है, जिसका समर्थन स्वयं देश के तकनीक प्रेमी राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और सुप्रीम कोर्ट ने भी किया था। राहुल गांधी के समर्थन से खासतौर पर कांग्रेसी खेमे में उनका पक्ष अक्सर मजबूत हुआ और उन पर उंगली उठाने वाले शांत हो गए।
लेकिन यह भी सच है कि अपने विवादास्पद बयानों से उन्होंने कई बार पार्टी और सरकार के लिए मुश्किल खड़ी की। कुछ माह पहले चीन को लेकर दिए गए उनके बयान ने भी सरकार के लिए सिरदर्दी पैदा की। उन्होंने देश के गृह व रक्षा मंत्रालय को चीन के लिए डरावना बताया और यहां तक कह दिया कि भारतीय क्षेत्र में चीनी व्यवसायियों को सरकार अक्सर संदेह की नजर से देखती है। उनके इस बयान से सरकार की खूब किरकिरी हुई। विपक्ष ने उन्हें चीन का एजेंट तक कह दिया और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस कदर नाराज हुईं कि उन्होंने जयराम से मिलने तक से इनकार कर दिया। एक अन्य समारोह में देश के शहरों को दुनिया के सबसे गंदे शहरों में शुमार करते हुए उन्होंने कहा कि यदि गंदगी के लिए नोबल पुरस्कार दिया जाए तो यह भारत को ही मिलेगा। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कंपनी से हुए गैस रिसाव के पीड़ितों को उन्होंने कंपनी परिसर में पहुंचकर और वहां से हाथ में मिट्टी उठाकर यह कहते हुए नाराज कर दिया कि देखिये, यह मेरे हाथ में है, फिर भी मैं जिंदा हूं। भोपाल में ही इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट के दीक्षांत समारोह में गाउन को उपनिवेशवाद का प्रतीक बताते हुए उन्होंने इसे उतार फेंका और सादे लिबास में डिग्री लेने और देने की वकालत की। उनका यह बयान भी सुर्खियों में रहा। खासकर छात्रों की तालियां उन्हें खूब मिली।
कोपेनहेगन में जयवायु परिवर्तन पर सम्मेलन के दौरान उनके इस बयान ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को नाराज कर दिया कि भारत चीन के बराबर कार्बन उत्सर्जन कम करेगा। हालांकि बाद में उन्होंने यह कहकर सरकार और विपक्ष की नाराजगी कम करने का प्रयास किया कि भारत कार्बन उत्सर्जन पर किसी कानूनी बाध्यता को नहीं मानेगा। इससे पहले यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री के ब्राजील दौरे से ठीक पहले उन्होंने यह कहकर विदेश मंत्रालय के लिए मुश्किल खड़ी कर दी कि आखिर ऐसे देश से व्यापार समझौते की क्या उपयोगिता है, जो हमसे काफी दूर है। उन्होंने यह कहकर नर्मदा नदी पर महेश्वर बांध के निर्माण के लिए चल रहा काम भी रोक दिया कि विस्थापित परिवारों का पुनर्वास नहीं हुआ है। फिर, सड़क एवं परिवहन मंत्री कमलनाथ के साथ उनके विरोध जगजाहिर रहे हैं। कमलनाथ अक्सर उन पर पर्यावरण क्लीयरेंस को आधार बनाकर सड़क परियोजनाओं में अड़ंगा डालने का आरोप लगाते रहे हैं। इसी तरह, कभी कोका कोला कंपनी के पर्यावरण संबंधी सलाहकार बोर्ड में शामिल रहे रमेश ने यह जानने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया कि यह पर्यावरण के लिए खतरनाक है और इससे पानी की समस्या पैदा हो सकती है।
कुल मिलाकार, उनकी कार्यशैली अक्सर मंत्रियों की तरह न होकर कार्यकर्ताओं और संगठनों की तरह रही है। यही वजह है कि मैगसाय साय पुरस्कार विजेता संदीप पांडे उनके बारे में कहते हैं कि देश को पहली बार स्वतंत्र सोच वाला पर्यावरण मंत्री मिला है या यूं कह लें कि पहली बार कोई पर्यावरणवादी मंत्री बना है। बीटी बैंगन को कृषि जगत में उतारने का फैसला लेने से पहले उन्होंने दफ्तर में बैठकर अधिकारियों से मंत्रणा करने से बेहतर देशभर का भ्रमण करना और किसानों, कृषि वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों की राय लेना समझा। परंपरा से हटकर सात शहरों- कोलकाता, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलुरु, नागपुर, चंडीगढ़- का भ्रमण करने और वहां जनसभाओं के माध्यम से लोगों का मत जानने के बाद उन्होंने फौरी तौर पर इसे कृषि जगत में उतारने पर रोक लगा दी। हालांकि कभी इसका विरोध करने वालों को उन्होंने ‘मानसिक इलाजज् की सलाह तक दे डाली थी। पर्यावरण चिंताओं का हवाला देकर उन्होंने महाराष्ट्र के नवी मुंबई में बन रहे राज्य के दूसरे हवाई अड्डे पर भी सवाल उठाए थे और कहा था कि इससे चार सौ एकड़ में फैले वन क्षेत्र व मैंग्रोव पर असर पड़ेगा, जो मुंबई के सम्रु तटों की रक्षा करते हैं। यह रमेश की आपत्ति ही थी कि नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि हवाई अड्डे के निर्माणर में पर्यावरण सुरक्षा का पूरा खयाल रखा जाएगा। अब प्रस्तावित हवाई अड्डे का दायरा कम करने से लेकर इसे दूसरी जगह स्थानांतरित करने तक पर विचार किया जा रहा है।
कर्नाटक के चिकमगलूर में नौ अप्रैल, 1954 को जन्मे रमेश तकनीक व आधुनिकीकरण के हिमायती हैं। इसकी वजह शायद उनकी शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि रही है। उनके पिता प्रो. सीके रमेश आईआईटी, बॉम्बे के सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष थे। तीसरी से पांचवीं की स्कूली शिक्षा उन्होंने रांची के सेंट जेवियर स्कूल से पूरी की। 1970 में उन्होंने आईआईटी, बॉम्बे में दाखिला लिया और वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीटेक किया। 1975-77 में उन्होंने अमेरिका के कार्नेगी यूनिवर्सिटी से प्रबंधन और लोक नीति में मास्टर डिग्री ली। पढ़ाई खत्म करने के बाद वे विश्व बैंक से जुड़े। दिसंबर, 1979 में वे भारत लौटे और यहां योजना आयोग सहित कें्र सरकार के उद्योग व आर्थिक विभाग से संबंधित विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई। वे 1991 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार भी रहे। वे राजीव गांधी के भी करीबी रहे। 1989 में जब कांग्रेस चुनाव हार हार गई थी, तो कांग्रेस के पुनर्जीवन के लिए उन्होंने राजीव गांधी के सलाहकार की भूमिका निभाई थी। आज उसी भूमिका में वे सोनिया गांधी के साथ हैं। रमेश आंध्र प्रदेश से राज्य सभा के सदस्य हैं। उनकी मातृभाषा तेलुगू है। कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम में उन्हें खासी दिलचस्पी है। वे चीन के साथ भारत के अच्छे संबंधों के पैरोकार रहे हैं।
पर्यावरण से उन्हें नौ साल की उम्र से ही प्यार है, जब उन्होंने ब्रिटिश लेखक एडवर्ड प्रिचार्ड गी की पुस्तक ‘द वाइल्ड लाइफ ऑफ इंडियाज् पढ़ी। पर्यावरण से इस विशेष लगाव की वजह से ही शायद यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की जिम्मेदारी के लिए उन्हें चुना। वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य भी हैं। इससे पहले की यूपीए सरकार में वे वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री रह चुके हैं।
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
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