शिक्षा में आई गिरावट और शिक्षक एवं छात्रों के बीच मौजूदा दौर में सम्बन्ध पर दिल्ली विश्वविद्द्यालय के सेवानिवृत प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर प्रसाद सिंह से बातचीत पर आधारित आलेख.
शिक्षक दिवस सिर्फ भारत में नहीं मनाया जाता, बल्कि दुनियाभर में मनाया जाता है। हां, दुनिया के विभिन्न देशों में इसकी तिथि अलग-अलग जरूर है। हमारे यहां हर साल यह पांच सितंबर को मनाया जाता है। देश के पहले उप राष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर इसे मनाने की परंपरा है, जिनकी गिनती महान दार्शनिक व शिक्षाविदों में होती है। समाज निर्माण में शिक्षकों की अहम भूमिका अतीत काल से है। आज भी शिक्षकों की भूमिका का महत्व कम नहीं हुआ है। हां, परिस्थितियां और हालात कुछ ऐसे हो गए हैं, जिसके कारण गुरु-शिष्य संबंध परंपरागत नहीं रह गए हैं। उसमें काफी बदलाव आया है।
यह सच है कि शिक्षकों और छात्रों का संबंध पहले जसा नहीं रह गया है। छात्रों के मन में शिक्षकों के लिए पहले जसा सम्मान नहीं रह गया है और न ही अब शिक्षक छात्र हितों की बात करते हैं। शिक्षक हों या छात्र, अपने-अपने हितों की बात ही उठाते हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि शिक्षकों की जो भर्ती हो रही है, उसका एकमात्र पैमाना योग्यता नहीं रह गया है। शिक्षकों की नियुक्ति अब जोड़तोड़ और तिकड़मों से होने लगी है। हालांकि सभी नियुक्तियों का आधार यही नहीं होता, लेकिन ज्यादातर भर्तियां इसी तरीके से होती हैं। ऐसे में वे लोग, जिनके पास सिर्फ योग्यता है, कहीं पीछे छूट जाते हैं। इसका असर स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई और शिक्षक-छात्र संबंध पर भी होता है। जाहिर है, जब शिक्षक ही योग्य नहीं होंगे तो वे छात्रों को कैसे उचित शिक्षा दे पाएंगे? इससे शिक्षा का स्तर तो गिरेगा ही। और अगर शिक्षक उचित शिक्षा नहीं दे रहे, तो छात्र उनका सम्मान क्यों करने लगे?
ऐसे में अगर छात्र अपनी राह और शिक्षक अपनी राह चल रहे हैं, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। हां, योग्य शिक्षकों और छात्रों के बीच संबंध आज भी बेहतर होते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि योग्य युवा शिक्षा के क्षेत्र में आना ही नहीं चाहते। इसका बड़ा कारण शिक्षकों का वेतन कम होना है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रोफेशनल्स को मोटा वेतन दे रहे हैं, वहां भला कौन युवा कम वेतन लेकर शिक्षा को अपने कॅरियर के रूप में अपनाना चाहेगा?
शिक्षा के गिरते स्तर के लिए सरकारी नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। सरकार साक्षरता दर बढ़ाने पर जोर दे रही है, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर नहीं। ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही। युवाओं का एक बड़ा वर्ग देश में शिक्षा प्राप्त करके नौकरी के लिए विदेशों का रुख कर लेता है, क्योंकि वहां उन्हें वेतन और अन्य सुविधाएं यहां से बेहतर मिलती हैं। आखिर यही चीजें उन्हें यहां क्यों नहीं दी जा सकती? मैनेजमेंट गुरू और कुकुरमुत्ते की तरह उग आए संस्थानों और इसके शिक्षकों के संबंध में केवल इतना कहा जा सकता है कि ये दुकानें हैं, वास्तविक गुरु नहीं। गुरु-शिष्य परंपरा से इनका कोई लेना-देना नहीं है।
जहां तक आज छात्राओं द्वारा शिक्षकों पर लगाए जाने वाले यौन शोषण के आरोप की बात है तो यह निश्चित रूप से चिंताजनक है। ऐसे आरोप शोधार्थी छात्राओं के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक हैं और निश्चित रूप से गुरु-शिष्य संबंध को लज्जित करते हैं। कई बार इसके लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार होते हैं। बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं, जहां छात्राएं नैतिकता को परे रखकर अपने कॅरियर को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों के आगे समर्पण कर देती हैं। लेकिन मूल रूप से इसके लिए वे नियम जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से शिक्षकों को ऐसा अधिकार मिल जाता है कि वे छात्राओं को अपने इशारे पर नचा सकें। अगर छात्राओं को यह भरोसा हो जाए कि शिक्षक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो वे कभी उनके आगे समर्पण नहीं करेंगी। इस संबंध में नियम व नीतियां बदलने की जरूरत है।
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
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