गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

मेरी मुक्का.कॉम

चार सौ मीटर दौड़ और भाला फेंकने में महारत रखने वाली मेरी कॉम को आज दुनिया मुक्केबाज के रूप में जानती-पहचानती है। उनकी सफलता गरीबी, अभाव, वर्जनाओं पर समर्पण, लगन और अदम्य इच्छाशक्ति की विजय की महागाथा है। विश्व महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप जीतकर उन्होंने इतिहास रच दिया.


यूं तो कोई भी क्षेत्र महिलाओं की सफलता से अछूता नहीं है, लेकिन सफलता यूं ही नहीं मिल जाती। जीतोड़ मेहनत और कुछ कर गुजरने का जज्बा ही उन्हें आगे ले जाता है। लेकिन कुछ अलग करने की कोशिश में कई बार अपने नाराज होते हैं तो राह में मुश्किलें भी कम नहीं आतीं। मेरी कॉम ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्होंने अपने जज्बे से दुनिया जीत ली और उनके दिल भी जो मुक्केबाजी के रिंग में उतरने के उनके फैसले से नाराज थे। आज वे युवा खिलाड़ियों के लिए एक उम्मीद हैं, प्रेरणा हैं और देश की गौरव तो हैं ही।



अठारह साल की उम्र में उन्होंने रिंग में उतरने का फैसला किया था। तब महिलाओं के लिए यह क्षेत्र लगभग वर्जित था। परिवार के लोग भी नहीं चाहते थे कि वे ऐसा कुछ करें। पिता इस कदर नाराज थे कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि अब उन्हें अपने विवाह के बारे में भूल जाना चाहिए, क्योंकि कोई उनसे विवाह नहीं करेगा। लेकिन पिता और परिवार के कड़े रुख के बावजूद मुक्केबाजी को लेकर उनका समर्पण कम नहीं हुआ। अपने जज्बे और मेहनत से उन्होंने मुक्केबाजी के क्षेत्र में जो कुछ भी हासिल किया है, उससे न केवल उनके पिता खुश हैं, देश भी गौरवान्वित महसूस कर रहा है। युवतियों व अन्य उभरते खिलाड़ियों के लिए तो वे प्रेरणास्रोत हो गई हैं।



यह भी दिलचस्प है कि एक मुक्केबाज के रूप में जानी और पहचानी जाने से पहले वे एक एथलीट थीं। चार सौ मीटर दौड़ और भाला फेंकने में उन्हें महारत हासिल थी। लेकिन 1998 के एशियाई खेलों में डिंगको सिंह की कामयाबी ने मेरी कॉम को एथलीट से मुक्केबाज बना दिया। डिंगको सिंह बैंकॉक से मुक्केबाजी में सोना लेकर लौटे थे। तब मेरी को भी लगा कि उन्हें मुक्केबाजी में किस्मत आजमाना चाहिए। अगले दो साल यानी वर्ष 2000 में उन्होंने मुक्केबाजी शुरू कर दी। सिर्फ दो सप्ताह में वे मुक्केबाजी के शुरुआती गुर सीख गईं। कुछ ही दिनों में उन्होंने अपनी क्षमता भी पहचान ली और समझ गईं कि ईश्वर ने उन्हें जो प्रतिभा दी है, वह मुक्केबाजी के लिए ही है। तब शायद ही उन्होंने सोचा था कि महिला मुक्केबाजी के क्षेत्र में एक दिन वे विश्व स्तर पर सफलता के परचम लहराएंगी। लेकिन उसी साल राज्य स्तरीय महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में जीत हासिल कर उन्होंने इस दिशा में कदम बढ़ा दिए। अखबारों में छपी उनकी फोटो और जीत की खबरों ने पिता का गुस्सा भी शांत कर दिया। मेरी कॉम की प्रतिभा अब सबके सामने थी और पिता को बेटी पर फख्र होने लगा था।



राज्य स्तरीय महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में जीत के बाद मेरी कॉम ने पीछे मु़ड़कर नहीं देखा। वर्ष 2000 से 2005 के बीच उन्होंने ईस्ट इंडिया बॉक्सिंग चैम्पियनशिप के अतिरिक्त पांच राष्ट्रीय चैम्पियनशिप लगातार जीते। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताओं में भी शिरकत की और वहां भी अपनी सफलता के परचम लहराए। विश्व महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप वे पांच बार जीत चुकी हैं, जिसमें चार बार उन्होंने स्वर्ण हासिल किया। दो बार वे एशियाई महिला मुक्केबाजी चैम्पियनशिप जीत चुकी हैं, जबकि एकबार उप विजेता रहीं। अब उनका सपना 2010 के लंदन ओलम्पिक में स्वर्ण जीतना है। वे इसके लिए हर संभव कोशिश कर रही हैं कि ओलम्पिक में महिला मुक्केबाजी को भी शामिल कर लिया जाए।



सत्ताइस वर्षीय इस महिला मुक्केबाज का बचपन गरीबी व अभाव में बीता। परिवार की सीमित आय होने के कारण उनके भाई-बहन बहुत पढ़ाई नहीं कर पाए। लेकिन मेरी कॉम की शिक्षा-दीक्षा क्रिश्चयन स्कूल से हुई। स्कूल के दिनों में ही उन्होंने एथलीट बनने की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे। लेकिन तब इसकी वजह खेल को लेकर उत्साह से अधिक परिवार की जरूरतें पूरी करना था। परिवार की आय में हाथ बंटाने के लिए ही उन्होंने खेलकूद की विभिन्न प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन आगे चलकर यह उनका शौक बन गया और आज उनके जीवन का मकसद। आज वे ऐसे बच्चों के लिए प्रशिक्षण एकेडमी चला रही हैं, जिनकी प्रतिभाएं उचित सुविधाओं के अभाव में सामने नहीं आ पाती और समय से पहले ही दम तोड़ देती हैं। उनकी एकेडमी में करीब 15 लड़के-लड़कियां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं, जिन्हें आवास व भोजन के साथ-साथ वे तमाम संसाधन भी मुहैया कराए जा रहे हैं, जो मुक्केबाजी के लिए जरूरी हैं। वे सभी मेरी कॉम की तरह बनना चाहती हैं।



मुक्केबाजी से हुई आय से उन्होंने नया घर खरीदा और माता-पिता के लिए जमीन भी। छोटे भाई-बहन, जो गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाए, के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने उनके लिए भी पैसे जमा कर दिए। उनकी बस यही कोशिश है कि जो अभाव उन्होंने ङोला, वह उनके भाई-बहनों या अन्य प्रतिभावान लड़के-लड़कियों की न हो।



मेरी कॉम आज दो बच्चों की मां हैं और करीब दो साल बाद मुक्केबाजी के रिंग में उतरने के बावजूद उन्होंने किसी को निराश नहीं किया। इसकी वजह वे अपनी फिटनेस और लगातार अभ्यास को बताती हैं। वे रोजाना दिन में पांच से छह घंटे अभ्यास करती हैं। अपनी लंबाई (पांच फुट) को लेकर उन्हें थोड़ी परेशानी जरूर है, लेकिन खुद को फिट रखकर और मुक्केबाजी के तमाम गुर अपनाकर वे विरोधियों पर भारी पड़ती हैं। सफलता के लिए वे न केवल अपनी मुट्ठियों पर भरोसा करती हैं, बल्कि दिमाग का भी बखूबी इस्तेमाल करती हैं। उनका साफ कहना है कि एक सफल मुक्केबाज बनने के लिए शारीरिक फिटनेस के अलावा दिल का मजबूत होना भी जरूरी है और उसे लेकर उत्साह व भावना भी। मुक्केबाजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए सरकार उन्हें अर्जुन अवार्ड से सम्मानित कर चुकी है। यह सम्मान पाने वाली वह देश की पहली महिला हैं। उन्हें पद्मश्री भी मिल चुका है और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार भी। लेकिन उन्हें इस बात की शिकायत है कि देश में महिला मुक्केबाजों को आर्थिक संरक्षण नहीं मिलता, जबकि टेनिस और क्रिकेट के साथ स्थिति बिल्कुल भिन्न है। उनका सवाल बिल्कुल जायज दीख पड़ता है कि क्या इस देश में टेनिस और क्रिकेट के अलावा कोई अन्य खेल नहीं है?











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